सुदीप्ति कम लिखती हैं लेकिन इतने अपनेपन के साथ गद्य का उपयोग कम ही लेखक करते होंगे. अब देखिये न गर्मी की छुट्टियों का मौसम चल रहा है और उनके आत्मीय संस्मरण को पढ़कर मैं भी अपने गाँव-घर पहुँच गया-अपनी बहनों, बुआओं, मौसियों और नानी के पास- प्रभात रंजन.
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सब बच्चे गरमी की छुट्टियों में नानीघर जाते, यह लड़की अपने घर जाया करती थी. तब भर गाँव रिश्ता होता, कई-कई बाबा और कई-कई चाचा-बुआ-भईया. पेड़ अपने भी फलते, फल दूसरों के पेड़ों के ललचाते. एक उम्र तक लड़कियां चिड़ियाँ की तरह चहचह करतीं,उसके बाद खामोश बुलबुल के दर्शन दुर्लभ होते.खेत-बाग-बगीचा बड़े-बुजुर्गों की निगहबानी में थे, आवारा दोपहरें अपने रूमानी ख्यालों के उड़नखटोले में…
फिर उसी गाँव में: घर
‘भरतबाबा नहीं रहे’, जैसे ही माँ ने कल फोन पर यह बताया, मुझे माधोपुर का उनका आम, लीची और जामुन का बड़ा बगीचा याद आया. सीजन भर रखवाली के लिए वो वहीं रहते थे. रीता फुआ खाना लेकर कभी-कभी ही जाती, अक्सर तो लालबिहारी चाचा जाते थे. लेकिन रीता फुआ जब भी जाती थी, हम भी साथ लटक लेते. भरत बाबा में बाबा वाली मृदुता नहीं थी. बहुत खड़ूस से थे. एक-दो टिकोले चटनी के नाम पर दे भगा देते. दरअसल वो कच्चे आमों को भी बेचते थे. अब हम नमक-मिर्च-आम का कचूमर कैसे बनाते उन एक-दो आमों से! रीता फुआ चोरी-छिपे कुछ और निकाल पाती तो हम ख़ुशी-ख़ुशी लौटते, वरना मुंह लटका कर. तब हम सोचते थे कि इया यानी रीता फुआ की माँतो कितनी मीठी, सुंदर और अच्छी हैं, फिर वो अपने खडूस पति को क्यूँ नहीं बदल पाई हैं! बड़े होने पर ज्ञान हुआ कि भरत बाबा तो रीता फुआ के बड़े चाचा यानी कि ताऊ थे और उन्हें कोई भी नहीं बदल सकता था. आज भरत बाबा के ना रहने कि खबर से मुझे रीता फुआ और टिकोले बहुत याद आए. सालों से मिली ही नहीं रीता फुआ न! ये गाँव की फुआयें हम बेटियों को नहीं मिलतीं फिर उसी गाँव में…
छूट जाता है पीछे: घर
नानीघर से घर जाती थी मैंहर साल गरमी की छुट्टियों में. दोपहर में मुझे भी नींद नहीं आती थी और बच्चों की तरह,जबकि रम्मी को खूब आती थी. उसे जबरन उठा, पूरी दोपहर इसी फ़िराक में गुजारती कि कैसे सुदामा बाबा के मिठऊआ आम से कम-से-कम एक तो तोड़ ही लिया जाए. चिलचिलाती धूप में अपने दालान की छत पर बाँस की सीढ़ी से छुप-छुप कर चढ़ना, पर आम को डंडा मार कर तोड़ने की हिम्मत होते हुए भी इसलिए न तोड़ना कि फायदा नहीं होने वाला; गिरेगा तो वहीँ, जहाँ सुदामा बाबा चौकी लगा कर सोए हैं. फिर घंटों दालान की खिड़की पर बैठकर देखना कि कोई टिकोला खुद-ब-खुद टपके तो हम दौड़ के उठा लें. पर हाय री किस्मत, बाबा जितने धैर्य से अगोरने में डटे रहते थे, उनके टिकोले भी उतनी ही मजबूती से डाल पर टिके रहते. जोर की आँधियों में भी नहीं गिरते. यूँ तो कई पेड़ हमारे भी थे, लेकिन सुदामा बाबा के पेड़ की बात ही कुछ और थी. वो भले ही गुस्से में दुर्वासा थे, पर उनके आम कच्चे होने पर भी बड़े मीठे थे. हमें तो कोई अपने पेड़ों से भी एक कच्चा आम या टिकोला नहीं तोड़ने देता और हम थे कि उनके पेड़ पर ताक लगाये रहते. जीवन में गरमी की छुट्टियाँ कई आईं, पर हमें सुदामा बाबा के पेड़ से मिठऊआ टिकोला गिन-चुन कर ही बमुश्किल मिला. शादी हुई, गरमी की छुट्टी में फिर घर जाना हुआ, यानी कि माँ-घर. अब तो हालत यह थी कि सामने से जाकर तोड़ सकते थे, क्योंकि ससुरैतिन बेटी को सब माफ़ होता है,पर पेड़ ही ना रहा! रहता तो भी क्या वही मज़ा आता अब भी? बेटी ससुराल के लिए विदा होते समय सिर्फ बचपन का गाँव-घर नहीं छोड़ती, और भी बहुत कुछ छूट जाता है पीछे…
असली वाला यानी शरारत का मजा: घर
आठवीं कक्षा में रही होउंगी तब, घर मेंदो से सात साल के अंतराल वाली हम पांच बहनें थीं. खूब पीएनपीसी और बेहिसाब मजा. तब हमारे दुआर पर उतने ही आम के पेड़ थे जितनी हम बहनें. लेकिन कच्चा आम तोड़ना साफ़मना था. हम सुकुल आम में भी ब्लेड से चीरा लगा देते थे कि थोड़ा पकुसा जाए और गिर पड़े. अद्भुत खट्टा आम होता था वो. मली बाबा के तीनों आम गजब के मीठे थे और हमारे खेत से सटे हुए भी थे. शाम गहराने के साथ झुरमुट में छिपकर उन्हें चुराने का ‘प्रोग्राम’ बनता तो चुगलखोर भाइयों को कानोंकान भी खबर नहीं होती. लालटेन की रोशनी में जब टिकोले की भुजड़ी बाँट कर खाई जाती तब भी उन्हें यह पता नहीं चलता कि आम आया कहाँ से है. लेकिन दो-तीन दिन लगातार चुराने पर मली बाबा को भनक पड़ गई और उस दिन तो हल्ला करते हुए वे हमारे पीछे ही भागने लगे. अगर हम पकड़े जाते तो घर में पुरकस पिटाई होती. किसी तरह हमलोग कई खेतों के बीच से भागते हुए कहीं दूर देर तक छिपे रहे. जब यकीन हुआ कि वो चले गए, तब घर लौटे बाकायदा आम के साथ. पिछले साल चचेरी बहन की शादी में रम्मी और निरुपम सरेशाम जाकर उन्हीं पेड़ों से आम तोड़ लाये. मली बाबा की तो नहीं मालूम, लेकिन हमें असली वाला यानी शरारत का मजा नहीं आया. हर काम खुलेआम! ना बाबा ना, मजा नहीं आता.
मेरे लिए एक सवाल: नानीघर
मॉर्निंग स्कूल से लौटते वक्त रास्ते से ही एक बार आम के नए बगीचे में जाना, फिर खाना खाकर वापस साइकिल भगाते हुए किताबों के साथ वहीँ पहुंचना और पेड़ की डाली पर बैठकर पढ़ना. बाद में सुना कि अज्ञेय ने पेड़ पर ही घर बना लिया था. उससे भी बहुत बाद में एक अंग्रेजी फिल्म ‘Flipped’ में देखा कि एक किशोरी पेड़ की फुनगी पर बैठी रहती है और उसे कटने से बचाने के लिए क्या कुछ नहीं करती, लेकिन तब तो मैं इन बातों से अनजान मजे में अपने चुनिन्दा ज़र्दा आम के छोटे झुटपुटे पेड़ में लगभग छिपकर बैठ जाया करती थी. इसी जर्दा आम ने दसवीं क्लास वाली गरमी की छुट्टियों में मुझे चौवन-पचपन किलो का कर दिया था, पहली और आखिरी बार. लेकिन असली मज़ा तो उस दिन आया था जब बगल के बगीचे की रखवाली कर रहीं बूढ़ी काकी इधर-उधर झांकती हुईं हमारे पेड़ों से आम तोड़ने चली आईं. उन्होंने हाथ बढ़ाया, तभी मैं चिल्लाई और रंगे हाथों पकड़े जाने पर फक्क पड़े चेहरे को पहली बार देखा. छोटे बच्चे जब ऐसा करते हैं तो इसे शरारत कहते हैं और जब बड़े करते हैं तब…यह मेरे लिए एक सवाल था.
साबित करने की हड़बड़ी: नानीघर
गेहूं की दवनी से पहले कटाई बहुत जल्दी में पूरी की जा रही थी. बटाईदारों से आने वाले बोझों को गिनवा कर बगीचे में एक तरफ रखवाने की जिम्मेदारी मेरी और बाबा यानी माँ के बाबा की थी. मामा लोग थे नहीं, मौसीउम्र के उस दौर में थीं जब ये सब काम वर्जित कर दिए जाते हैं. इसलिए पतहर कटवाने से लेकर वसूली करने तक की जिम्मेदारी ‘सु’दादा यानी हम उठाते थे. यह‘सु’दादा नाम तो बाद में हेमा ‘दी ने पटना में दिया था, लेकिन हम अपने बचपन में ‘दादा’ किस्म के ही रहे. गाली देने से लेकर पीट देने तक और गोली से गिल्ली-डंडा खेलने तक सब काम और खेल में माहिर, लड़कीपने से दूर! असर अबभी है. उस दिन अचानक देखा तो राजू मामा बगीचे में आए थे. माँ के ये फुफेरे भाई दोस्तनुमा थे. वे पेड़ पर चढ़ नहीं पाते थे. मैं चढ़ सकती हूँ और ऊँची डाल का आम भी तोड़ सकती हूँ, यहदिखानेके उतावलेपन में पेड़ पर चढ़ अपने छोटे हाथों से लपक कर जैसे ही आम तोड़ने को हुई, तभी चोंप की दो बूंदे दायें गाल के ऊपर पड़ीं. आज तक चेहरे में उनका दाग है. उन्हें देखती हूँ तो उस दोपहर के दो सुडौल टिकोले और चिपचिपी चोंप की बूँदें याद आती हैं. कभी-कभी साबित करने की हड़बड़ी में गड़बड़ हो ही जाती है.
माओं का डर: घर
गरमी की छुट्टियों में ननिहाल से घर आयी ही थी. देखा, माँ सुबह नींबू का शरबत पीती है. काम-काज निपटा, नहा-धो, पूजा करने में देर हो जाती है, इसलिए माँ-चाची सभी सुबह शरबत पी लेते ताकि खाना खाने में देर भी हो तो तबियत न ख़राब हो. पापा तब भी गर्मी की दोपहर में दुकान से घर आ जाते थे. खाकर सो रहते थे. मेरा काम भटकने का था,लेकिन घर-आँगन और दुआर की हद में ही. दुआर पर उस दिन मंटू भईया यानीमली बाबा के बेटे आए,बोले– ‘पश्चिम टोला जा तानी बगईचा, चलबे? चल-चल, खूब नींबू भईल बा, ले आवे के बा.’ मैंने सोचा कि अच्छा है, घर में नींबू तो चाहिए ही.सिर हिलाकर सहमति देदी. मंटू भईया बोला,‘जो, जाके पापा के गाड़ी के चाबी ले आव. जल्दी जा के आईल जाई.’ मैंने कहा कि पापा को दुकान जाना होगा, पर उसने जल्दी आने की बात बार-बार दोहराई. माँ-पापा सो रहे थे.बिना पूछे ही टेबल पर पड़ी चाबी मैंनेउठाई और मंटू भईया के साथ चली गई.खूब सारे नींबू लेकर जब घर लौटी तो पापा जगकर तैयार और चाबी-गाड़ी न मिलने से परेशान-हाल थे. माँ ने कान उमेठा और शायद तमाचा भी लगाया- किस से पूछकर गई, कहाँ गई थी? कहाँ तो अपन खुश थे कि इतने सारे नींबू लाकर शाबाशी पाएंगे और कहाँ ऐसा स्वागत! आज समझ में आता है कि माँ को कौन सा डर गुस्सा दिला गया. मंटू भईया को गाड़ी चलाने का लोभ था,जिस चक्कर में मैं बेवकूफ बनी थी. लेकिन अगर उस दिन उसका लोभ कुछ और होता तो? बेटियों को माओं का डर बहुत बाद में समझ में आता है.
छेड़ना कुत्ते को: घर
शायद यह शुरूआती छुट्टियों की बात है यानी एकदम बचपन की, क्योंकि मुझे बहुत धुंधली-सी याद है. किसी को माता निकली थीं, मतलब चेचक होकर चुका था. उसके बाद काली पूजा होती थी. पूजा के लिए पूरियां बनी थीं. पूजा के बाद नौगोल में खड़े होकर एक हाथ में पूरी और दूसरे में पीपल का पत्ता ले बलराम बाबा के कुत्ते को मैं पुकार रही थी. बलराम बाबा मुझे मानते बहुत थे और उनका कुत्ता भी बहुत हिला-मिला था मुझसे. किसी मिक्स ब्रीड का रहा होगा या सामान्य ही, पर था बहुत ऊँचा. जब वह आया तो अपना हाथ ऊपर कर उसे चिढ़ाने-ललचाने लगी. वैसे तो मेरी कद आज भी कम है, लेकिन तब तो छोटी-सी थी ही. कुत्ता लपक कर मेरे हाथों तक पहुंचे, इससे पहले मैंने उसके मुंह की तरफ पीपल का पत्ता बढ़ा दिया. अब क्या वो बाबा की बकरी था जो घास खाता. गुस्से में उसने झपट कर मेरे ऊपर उठे हाथ से पूरी को लेना चाहा और इस चक्कर में उसका एक पंजा पड़ा मेरी बाई तरफ की गाल पर. खरोंच के निशान जब भी दीखते हैं, मैं मुस्कुरा पड़ती हूँ. घर के लोग तो छेड़ते ही हैं अभी भी. मेरी तो यही समझ बनी होश आने पर कि लड़कियों को छेड़ने जैसा ही भारी पड़ सकता है छेड़ना कुत्तों को.
हासिल आवारागर्दी का: नानीघर
काफी बड़े होने के बाद की ये छुट्टियां थीं, वही हाईस्कूल के दिन. किस्सा वही पुराना. सब सो जायें, पर मुझे दोपहर में नींद न आए. डिश टीवी, कंप्यूटर का वो जमाना नहीं था. रेडियो तक बड़ों के कब्जे में रहता. किताबें ही एकमात्र सहारा होती थीं. किताबों में प्रेमचंद, शरतचंद और शिवानी के उपन्यासों की भरमार थी मेरे नानीघर में. लेकिन मौसी उन्हें भी अपनी आलमारी में बंद रखती थीं ताकिमुझ जैसे बच्चों के हाथ न आयें. उपन्यास पढ़ना तब भी अच्छा नहीं माना जाता था.‘सरिता’,‘मनोरमा’ और ‘माया’ हमें नहीं मिलती थीं. हमारे लिए ‘बालहंस’ जैसी पत्रिका थी, जिसे पढ़ना मेरे लिए महज एक दिन का काम था. गरमियों की लम्बी ऊब भरी दोपहरें घर के कोने-कोने में किताबें ढूंढते बीतती थीं. इसी सिलसिले में एक बार लकड़ी के पुराने रैक में कई सड़ी हुई डिक्शनरियों के बीच एक मोटी डिक्शनरीनुमा किताब मिली. छिप छिप कर उसे पढ़ते हुए वो छुट्टियां बिताईं मैंने. एक बार नानाजी ने पकड़ा भी, पर नाम पढ़ कर वापस दे दिया. उसे पढ़ते हुए मलाल होता रहा कि मेरे नानीघर वाले गाँव में कोई नदी क्यों नहीं है और आवारागर्दी करते हुए भटकने का मौका मुझे क्यों नहीं मिलता. यह तो बड़े होने पर मालूम हुआ कि विश्व के श्रेष्ठ साहित्य में शुमार होने वाली वह किताब थी- श्रीकांत. आज भी उसके घटना-विवरण चित्र की तरह दिमाग में अंकित हैं. बचपन की आवारागर्दी में भी कुछ श्रेष्ठ मिल सकता है, बशर्ते नानाजी जैसा उदार गार्जियन हो और घर में ऐसा किताबी खजाना.