आइआइटी-पलट युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीर अक्सर अपने सिनेमा ज्ञान से चमत्कृत कर देते हैं. हिंदी में में सिनेमा पर लिखने वाले विद्वानों में मेरे जानते सबसे मौलिक प्रतिभा ब्रजेश्वर मदान में थी, फिर नेत्र सिंह रावत थे. विष्णु खरे और विनोद भारद्वाज मेरे लिहाज से उस सूची में बहुत नीचे आते हैं. आजकल सिनेमा लेखन के नाम पर पीआर लेखन का दौर चल रहा है. हिंदी में सिनेमा पर लिखने वालों की न तो कोई विश्वसनीयता रह गई है न ही उनको पाठक गंभीरता से लेते हैं. लेकिन प्रचण्ड प्रवीर के लेखन की सहजता में मुझे ब्रजेश्वर मदान और नेत्र सिंह रावत की परंपरा की अनुगूंज सुनाई देती है. यकीन न हो तो यह लेख पढ़ लीजिये- प्रभात रंजन.
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जब भी भारतीय सिनेमा और विश्व सिनेमा की बात चलती है, हमारे पास दुनिया को बताने के लिए सबसे पहले सत्यजित रे, बिमल रॉय, गुरु दत्त और ऋत्विक घटक जैसे निर्देशकों का ख्याल आता है, जिनकी फिल्मों को अंतर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुआ. जिनको हम ‘ओजु’, ‘ओर्सोन वेल्ज़’, ‘अल्फ्रेड हिचकॉक’, ‘कार्ल ड्रेयर’, ‘बर्गमैन’, ‘कुरोसावा’, ‘बुनुएल’ जैसे महानतम निर्देशकों के साथ तुलना कर सकते हैं. अमिताभ बच्चन ने ‘ब्लैक’ के लिए सम्मान लेते हुए कहा था कि क्यों हम विदेशों के सम्मान के लिए आतुर हैं? यह बात और है कि भंसाली जी की ‘ब्लैक’ सन १९६२ में आयी ‘द मिराकल वर्कर’ का साधारण रूपांतरण से अधिक कुछ न कहा जा सकता है. हिन्दी सिनेमा में कुछ फिल्में जो शायद कभी विश्व पटल पर अधिक सम्मानित और चर्चित नहीं हो सकीं, पर वह भारतीय मानकों से सर्वश्रेष्ठ रही हैं, उनकी बातें करते हैं. ‘सत्यजित रे‘ पर इटालियन, फ़्रांसिसी और अमेरिकी सिनेमा का ख़ासा प्रभाव रहा. उन्होंने ‘डे सिका’ की ‘बाइसिकल थीव्स’ १०० बार देखी, फिर निर्देशक बनना तय किया. गुरुदत्त के शॉट भी ‘ओर्सोन वेल्ज़‘ के फिल्मों जैसे शानदार और कसे रहा करते थे. विजय आनंद ने अपनी ‘ज्वेल थीफ’ में अल्फ्रेड हिचकॉक जैसा प्रभाव डालने की कोशिश की. कई हिन्दी फिल्में पर ‘विलिअम वाएलर’, ‘बिली वाइल्डर’, ‘फ्रैंक कापरा’, ‘चैपलिन’ की अनुसरण करती दिखती हैं. हालाँकि किसी प्रभाव से अच्छे कलाकार की अहमियत कम नहीं हो जाती, क्योंकि हर नया अंदाज़ किसी पुरानी चीज को ही अलग या भूले हुए नज़रिए से देखती है. नज़र नज़र का फरक है, बेशक ये फ़रक की ही बात है.
हिन्दी सिनेमा के चार बहुत अच्छे निर्देशक, जो यह समझते थे कि सिनेमा केवल पटकथा, संवाद, शॉट लेने का तरीका, अदायगी, अभिनय से बढ़ कर कला का एक माध्यम है – और जो भारतीय परंपरा को बढ़ाते हुए महान प्रयोग किये पर आज हमारी हिन्दी फिल्म की अंतर्राष्ट्रीय चर्चा में विस्मृत से हैं – वो थे ‘कमाल अमरोही’, ‘सत्येन बोस’, ‘चेतन आनंद’, ‘वी शांताराम’. यह बात और है कि दुनिया के महानतम निर्देशकों की एक एक फिल्म बहुत ही नजाकत और नफासत से बनी – जैसे कि ‘तारकोवस्की’ की सात फिल्में आज विश्व सिनेमा की धरोहर हैं. न जाने क्यों हिन्दी सिनेमा में ऐसे बहुत ही कम निर्देशक हुए, जिन्होंने इतनी मेहनत से फिल्में बनायीं हो. ‘के आसिफ़’ और ‘कमाल अमरोही’ ही शायद ऐसे दो निर्देशक थे, जिन्होंने अपनी फिल्मों को अपना सब कुछ दे दिया, और समाज को यादगार मिसालें नज़र फ़रमायी. ये मिसालें किसी की नक़ल न थी, और किसी भी पूर्ववर्ती प्रभाव से मुक्त थी.
कमाल अमरोही ने जीवन में केवल चार फिल्में निर्देशित की – महल, दायरा, पाकीज़ा, और रजिया सुल्तान. मीना कुमारी जी उनकी ‘महल’ के बाद दीवानी सी हो कर उनसे विवाह कर बैठी. हालाँकि ‘महल’ और ‘पाकीज़ा’ को काफी शोहरत मिली, लेकिन १९५३ में आयी ‘दायरा’ अमरोही जी के दिल के बहुत करीब थी, बहुत कम लोग उसके बारे में जानते हैं और चर्चा करते हैं. चेतन आनंद को १९४६ में ‘नीचा नगर’ के लिए ‘कैन फिल्म फेस्टिवल’ में सम्मानित किया गया. उनकी बहुत सी अच्छी, साधारण, और बेकार फिल्मों के बीच उन्होंने एक प्रयोग किया था – हीर राँझा (१९७०). यह फिल्म बहुत से मायने में किसी विदेशी के लिए समझ से बाहर मालूम पड़ेगी. सत्येन बोस ने ‘जागृति’, ‘चलती का नाम गाड़ी’, ‘रात और दिन’ जैसे अच्छी और लोकप्रिय फिल्मों के बीच ‘दोस्ती’ बनायी. इस फिल्म का कैमरा और सेट, सभी साधारण थे. किरदार और उनके संवाद में भी सादगी थी, पर आम जनता के जीवन मूल्यों को दर्शाती ऐसी बहुत कम फिल्में बन पायी जिसने आलोचक और जनता, सबका मन मोह लिया हो. वी. शांताराम का मानना था कि फिल्म बनाना ८०% व्यापार और २०% कला है. उनकी लम्बे उल्लेखनीय करियर में एक सत्य कथा पर आधारित ‘दो आँखें बारह हाथ’, (१९५७) भारतीय सिनेमा में अलग महत्व रखती है, पुरस्कृत और चर्चित रही.
कमाल अमरोही की चार फिल्मों में सबसे अभागी रही है ‘दायरा’. कमल अमरोही और मीना कुमारी ने अपनी शादी के बाद यह फिल्म बनायीं. इसके साथ जुड़े सभी लोगों का बड़ा दुर्भाग्य रहा. ‘देवता तुम जो मेरा सहारा’ और ‘चलो दिलदार चलो’ जैसे गीत लिखने वाले शायर ‘कैफ भोपाली’ ताउम्र शराब के नशे में डूबे कभी वो शोहरत और बुलंदी नहीं हासिल कर पाये जिसके वो हकदार थे. महान संगीतकार ‘जमाल सेन’ गरीबी और गुमनामी में गुजर गए. ‘दायरा’ की असफलता ने ही शायद पाकीज़ा पूरी होने की रफ़्तार मंद कर दी थी. ‘जों रेन्वा’ की फिल्म ‘द रूल्स ऑफ़ द गेम’ जब पहली बार १९३९ में प्रदर्शित हुई थी, तब सारे आलोचकों और दर्शकों ने फिल्म को खारिज कर दिया था. यहाँ तक कि प्रीमियर पर एक आदमी ने अख़बार में आग लगा कर धमकी दी अगर यह बोर फिल्म बंद नहीं की गयी, तो वह थिएटर में आग लगा देगा. करीब बीस साल बाद सन १९५९ में जब वेनिस फिल्म फेस्टिवल में इसे दोबार प्रदर्शित किया गया, तब से ले कर आज तक उसे विश्व की महानतम फिल्मों में शुमार किया जाता है. सन १९६० में माइकल पॉवेल की ‘पीपिंग टॉम’ ने निर्देशक का करियर ख़तम कर दिया. आज वही महान कृति में गिनी जाती है. ऐसे बहुत से उदहारण हैं जिन्हें पहले उबाऊ और बेकार कह कर ठुकरा दिया गया, पर पुनरावलोकन में उन्हें उत्तम पाया गया. ‘दायरा’ और ‘हीर-राँझा’ बहुत से दर्शकों के लिए समझना सुलभ नहीं है. ‘दो आँखें बारह हाथ’ के एक दृश्य में एक कैदी की बूढी माँ आ कर जेलर के पास रोती है कि उसके पोते को सब कैदी का बेटा कह कर चिढाते हैं. इस सामान्य से दृश्य में कई बातें हैं, एक समाज की मनोस्थिति, बूढ़ी औरत की विवशता और उसका संवाद का तरीका. सबसे महत्वपूर्ण, एक कैदी के बच्चों को ले कर जेलर की दरियादिली.
आज के हिन्दी सिनेमा का दौर, जिसे कई उत्तम दौर कह रहे हैं – ‘लंचबॉक्स’, ‘तारे ज़मीन पर’, ‘पीपली लाइव’, ‘शिप ऑफ़ थिसिअस’ जैसे फिल्मों को उत्तम सिनेमा कहा जा रहा है. नवोदित निर्देशिक को फिल्म को से पटकथा आगे बढ़ाते हैं. कैमरा के नए नए कोण, यथार्थवाद और रोमांच को कला का मूल्य समझते हैं, वैभवपूर्ण सेट, अदायगी तक ही फिल्मों को सीमित मानते हैं- उनके पास बदलते समाज के साथ पुराने मूल्यों पर चर्चा करने तक का वक़्त नहीं है. जरूरी नहीं है कि पुराने पारंपरिक मूल्य सही हों, पर विभिन्न मूल्यों का अवलोकन करने की नैतिक जिम्मेदारी से भागते हुए सपने दिखाने वाले फिल्मकार कलाकार न हो कर केवल व्यापारी हैं – शत प्रतिशत न कि ८०%!
कला को ले कर संकीर्ण सोच परिभाषित करना बहुत मुश्किल है. लेकिन फिल्मों के नाम पर केवल दुःख भरी और उबाऊ फिल्में बनाना, जिन्हें गिने चुने लोग सम्मान दें, उसे कला कहना भी एक सोच है. मनोरंजक और व्यवसायिक फिल्मों को कला से ख़ारिज करना वैसा ही होगा, जैसा ‘द नेम ऑफ़ द रोज’ में पुस्तकाध्यक्ष का ‘हँसी’ और ‘हँसने’ के खिलाफ जेहाद!
यह सरलता से सोचा जा सकता है कि रोमन मूर्तियाँ, यूनानी सभ्यता की मूर्तियाँ ही सर्वश्रेष्ठ मूर्तियाँ थी क्योंकि सौष्ठव शरीर का सुन्दर अनुकरण कहीं इतना बेजोड़ नजर नहीं आता. लेकिन जब बहुत ही पुरानी मोहनजोदड़ो की ‘नृत्यांगना’ की मूर्ति सामने आती है, तब दर्शक सोचने पर मजबूर हो जाता है कि कला केवल अनुकरण या यथार्थवाद मात्र नहीं है. अजंता-एलोरा के चित्र किसी और परंपरा की अनुकृति नहीं है. यह मौलिक सोच जीवन के हर क्षेत्र में आवश्यक है. मौलिक सोच वाले ही अज्ञान से लड़ सकते हैं, और परंपरा का परिमार्जन कर सकते हैं. यह मौलिक सोच नहीं तो और क्या है कि जब दुनिया ‘संगम’ के गानों पर झूम रही थी, तब दो गाँव के अंधे और लंगड़े लड़कों की ‘दोस्ती’ पर सादी सी फिल्म बनाना, जहाँ किरदारों ने चालाकियां और फरेबियाँ नहीं सीखी हैं.
‘दायरा’ भी ऐसी ही मौलिक सोच वाली फिल्म है, जो कि चेतन आनंद की ‘हीर-राँझा’ की तरह प्रत्यक्ष कविता न हो कर बड़े परदे की गूढ़ कविता है. यह फिल्म उस दौर की है जब संवाद आम ज़िन्दगी से हट कर एक अनोखा प्रभाव लाने के लिए लिखे जाते थे. जैसे मीना कुमारी का बूढ़ा पति उसे बार बार ‘मेरी कीमती ज़िन्दगी’ कह कर पुकारता है, जिसका जवाब मीना कुमारी ‘बहुत अच्छा’ या ‘जी स्वामी’ कह कर देती है. जब उसका मरणासन्न पति मीना कुमारी को बाल खोल कर अपने चेहरे पर बिखरने के लिए कहता है, उस समय निर्विकार मीना कुमारी की मनोस्थिति समझना बहुत ही सतर्क दर्शक का काम हो सकता है, कई लोगों को यह अजीब और बेतुका जान पड़ता है. मीना कुमारी पूरी फिल्म में छत पर एक फूल के पेड़ के नीचे लेटी रहती हैं, जिसकी फूलों से लदी शाखें मंद-मंद डोलती हैं. नासिर हुसैन का लिखा उड़ता हुआ आवारा कागज ‘मार्केज़’ के उपन्यास की तरह बहुत देर तक यूं ही मीना कुमारी के पाँव, बिस्तर के पास खुद ही उड़-उड़ कर छटपटाता रहता है, और वह भी भाग्य की गति से मीना कुमारी बड़ी देर बार अपने बालों से हटा कर पढ़ती है. विधवा विवाह, पति सेवा का व्रत, गरीबी- लाचारी, प्रेम, व्यभिचार – बहुत से रंगों से भरी फिल्म दर्शकों को अजीब लगेगी जब साढ़े छः मिनट का मीना कुमारी का क्लोज-अप एक दूर धुंधले नृत्य को देखते हुए लिया गया है. तारकोवस्की की ‘नोस्टलिजिया’ में अंत के नौ मिनट का दृश्य जब नायक एक मोमबत्ती लिए हुए चल रहा होता है, या ‘माइकलएन्ज़ेलो अन्तोनिओनी’ की फिल्मों में किरदार के चले जाने के बाद काफी देर तक खाली फ्रेम का दिखलाया जाना, एक दृश्य है जिसमें एक विषय पर दर्शकों को लम्बा ध्यान दिलाने का तरीका विदेशी निर्देशकों ने कमाल अमरोही के काफी देर बाद इस्तेमाल किया. लेकिन उत्कृष्ट फिल्में कब सहज ढंग से समझने वाली होती हैं? सत्य कब सरल होता है? सत्य का मुख स्वर्णिम-पात्र से ढंका है, अतः सौंदर्यशास्त्र भी जटिलता से सरलता की ओर ले चलती है, पर धीरे धीरे.
हीर-राँझा की शुरुआत में कैफ़ी आज़मी कहते हैं ‘आग मेरी न सही, पर धुआँ मेरा है. कहानी हीर-राँझा है, पर बयां मेरा है.” पद्य में संवाद, उससे बढ़ कर ग्रामीण पंजाब की सच्ची झलक, जहाँ कैमरा का अधिकतर कोण सामान्य दृष्टि जैसा ही रहता है (मतलब चिड़ियाँ की आँख का नज़ारा, चील की आँख का नज़ारा, बहुत तेजी से कैमरा आगे पीछे करना- ये सब बातें नहीं नजर आती. जो नज़र आता है वह दो गाँव के भोले लोग, एक दुष्ट लंगड़ा मामा, शादी बियाह की बातें, और बच्चे खिला रही औरतें. यह सब बिना सांस्कृतिक संवेदना के किसी को नज़र न आएगा.
मेरे बाद तेरी खबर कौन लेगा,
तेरे भाग में है तन्हाईयाँ
वे … मुझे और थी उम्मीद,
की रब ने बेपरवाईयाँ
हिन्दी फिल्मों के सौंदर्यशास्त्र का महत्वपूर्ण भाग गीत, संगीत, संवाद और गायकी में रह जाता है. उस सौंदर्य को न कोई और समझेगा, न याद करेगा. ऋत्विक घटक की ‘मेघे ढाका तारा’ के अंत में एक बंगाली विदाई गीत पृष्ठभूमि में बजता है जिसका टूटा फूटा अनुवाद है – “आओ उमा, तुम्हे मैं अपने गले से लगा कर विदा करूँ, तुम ही मेरी दुखी जीवन की आत्मा हो…”
अफ़सोस यह है कि हम सबों का सौन्दर्यबोध कुंठित और बाधित है. हमारा आदर्श स्पिएल्बर्ग का ‘अवतार’, नोलन की ‘इन्सेप्शन’, ‘स्लमडॉग मिलिनायर’ जैसी साधारण तकनीकी रूप से समृद्ध फिल्में बन गयी हैं. जिन आधुनिक भारतीय फिल्मों पर हम गर्व करते हैं, जैसे कि लगान, तारे ज़मीन पर, वगैरह वगैरह, वह वैचारिक या पारंपरिक या तकनीक की दृष्टि से समृद्ध नहीं है. अब प्रश्न उठता है, अगर फिल्मकार अच्छी फिल्में न बनाये, तो हमारा क्या दोष है?
मेरा मत है अपनी सांस्कृतिक सभ्यता, इतिहास, विरासत, और वैचारिक दृष्टिकोण को खुले दृष्टिकोण से समझना और जानना अत्यंत आवश्यक है. सोरेन किएर्केगार्द ने कहा था जीवन पीछे मुड़ कर देखने से ही समझा जा सकता है, पर आगे जिया जाता है. समय है अपने भूले हुए कलाकारों को याद कर के सम्यक श्रद्धांजलि देने का. कहीं ऐसा न हो जानेवालों की भीड़ में हम हमारी ही तरह किसी दुःख से दुखी इंसान को मुड़ के देखना न भूल बैठे.