युवा कवि-लेखक हरेप्रकाश उपाध्याय को अपने उपन्यास ‘बखेड़ापुर’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ का लखटकिया नवलेखन पुरस्कार मिला है। उपन्यास में बिहार के सामाजिक ताने बाने के बिखरने की बड़ी जीवंत कहानी कही गई। हरेप्रकाश को जानकी पुल की तरफ से बधाई देते हुए उनके उपन्यास का एक रोचक अंश पढ़ते हैं- जानकी पुल।
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चारों कोनों में/ आग लगी है
भहर-भहर जल रहा है घर (अष्टभुजा शुक्ल)
गांवों में जीवन की गहमागहमी घट गई थीं, फुसफुसाहटें बढ़ गई थीं। लोगों को कोई बात कहनी होती तो जिससे कहनी होती उसके कान के पास मुँह ले जाते और कहते। मगर प्रदेश में एक बहरी, अहंकारी और भयंकर सरकार थी, जिसे कुछ भी सुनाई नहीं पड़ता था। और किसी में इतना दम कहां था कि जाकर उसके कान में मुँह सटाये। विपक्ष खुश था कि जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी, चुना है तो भोगो। नगरों में अपहरण और छीना-झपटी का व्यापार चल निकला था। हर तरफ आतंक, आशंकाएं और अविश्वास काले बादल बनकर आकाश में छा गये थे। आतंक के बरगद ने चारों तरफ दूर-दूर तक अपनी जड़ें और शाखाएं फैला ली थीं और उन पर दिन-रात उल्लू और चील बैठे रहते थे। जो न जाने क्या बोलते रहते थे और बीट करते रहते थे। जो आदमी घर से निकलता उसके माथे पर बीट इतनी ज्यादा फैल जाती और उन पक्षियों के शोर कानों में नगाड़े की तरह ऐसे बजने लगते जैसे कि आदमी को चेतनाशून्य बना देने का चहुंतरफा और अचूक प्रबंध कर दिया गया हो। खेती का काम-काज सिमट गया था, लोगों का दिन में भी घर से निकलना खतरे से खाली नहीं था। बधारों-बागीचों में अक्सर लाशें मिलने लगी थीं। दिन या रात में अचानक गोलियों की तड़-तड़ गूंजने लगती थी। कभी इस गांव की तरफ से शोर सुनाई पड़ता, कभी उस गांव की तरफ से। मवेशी खूंटे पर बंधे हुए छटपटाते रहते, मगर किसे हिम्मत थी कि उन्हें धोने या चराने ले जाता। लोगों ने मवेशियों को बेचना शुरू कर दिया था,मगर खरीददार नहीं मिलते थे। गांवों से लोगों का पलायन बढ़ गया था। लोग गांव छोड़कर शहर में कमाने या रहने के लिए भागने लगे थे। आसपास के तीन-चार गांवों में दलितों का, तो दो गांवों में ठाकुरों और भूमिहारों का नरसंहार हुआ था। एक गांव में तो दलित परिवार के चालीस लोग एक ही रात गोलियों से भून डाले गये थे जिसमें एक तीन साल की बच्ची भी थी। कुछ महिलाओं की योनि में गोली मार दी गई थी। इस नरसंहार का जिम्मा अखबारों में बयान जारी कर महावीर सेना ने खुद ही ली थी। बच्चियों और औरतों की जघन्य हत्या के बारे में महावीर सेना के जोनल कमांडर निर्मोही बालम की तरफ से बयान छपा था कि हमारी सेना दरअसल उस फैक्ट्री को ही बंद कर देना चाहती है जिससे भविष्य के नक्सली पैदा हो सकते हैं। वहीं नक्सली पार्टी की ओर से हुए नरसंहारों के बाद उन गांवों में पार्टी के लोगों ने खून से दीवारों में मोटे-मोटे हर्फों में लिख दिया था कि सामंती ताकतें होश में आओ…वरना छह इंच छोटा कर दिया जाएगा। आग उगलते तरह-तरह के नारे आपस में लड़ रहे थे। दीवारों से दीवारें लड़ रही थीं। जिन गांवों में नरसंहार संपन्न हो जाता, उन गांवों में सरकार की तरफ से बाद में थोड़ी लिखा-पढ़ी और कुछ दूसरी औपचारिकताओं के बाद पुलिस कैंप की स्थापना कर दी जाती। प्रदेश में जगह-जगह ऐसे वारदातों के बाद तैनाती के लिए केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल को मंगा लिया गया था। नक्सली पार्टी का आरोप था कि ये पुलिसवाले भी सामंती ताकतों से मिले हुए हैं। पुलिस वाले गांवों में कैम्प के लिए तिरपाल तानते ही सबसे पहले गांव की बची देशी मुर्गियों और बकरियों पर टूटते और उनका भोग लगाते। गांव की नई लड़कियों और युवा महिलाओं पर भी हाथ साफ करने की कोशिश करते।
पार्टी कार्यकर्त्ता और महावीर सेना के जवान केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल की तैनाती के बावजूद गांवों में गुप्त रूप से घूमते रहते और अपने-अपने समर्थकों के घरों में छिपकर रहते, मीटिंग करते और चंदा वसूलते। गांव वालों के पास आमदनी का कोई स्रोत नहीं बच गया था, मगर अपने-अपने संगठनों को चंदे देना विवशता थी। संगठन के लोग चंदा नहीं देने पर धमकियां और सजाएं भी देते थे। चंदा वसूलने में दोनों संगठन अपने प्रभावित समर्थकों पर कोई कोताही या रियायत नहीं बरतते थे। महावीर सेना ने अपने समर्थकों पर खेत के हिसाब से प्रति बीघा एक रेट निर्धारित कर रखा था जिसके पास जितनी जमीन होती, उसके हिसाब से उन्हें चंदा देना पड़ता। चंदा देने पर आनाकानी करने वालों को संगठन की गुप्त बैठकों में बुलाकर बांधकर पीटा जाता। ठीक वैसा ही सुलूक जैसा अब तक ये लोग छोटी जाति के अपने बंधुआ मजदूरों और रियाया के साथ करते आये थे। लोग जैसे-तैसे जुगाड़कर या यहां-वहां से कर्ज लेकर भी चंदा देने को विवश थे। जिनके घर में नौकरी या दूसरी कोई बाहरी आमदनी या बहुत ज्यादा खेती थी,उनकी तो कोई बात नहीं थी मगर छोटी जोतवालों को काफी मुश्किलातों का सामना करना पड़ रहा था। शादियों का काम तक ठप पड़ गया था। अव्वल तो ऐसे अशांत इलाके में कोई अपनी बेटी या बेटा ब्याहना नहीं चाहता था। दूसरे शादी का उत्सव करने के लिए लोगों के पास कुछ था भी नहीं। शादियों के कई सालों से ठप पड़े होने के कारण बलात्कार और व्याभिचार की घटनाएं भी काफी बढ़ गईं थीं। नवजात शिशु कूड़े के ढेरों पर फेंके जाने लगे थे। लड़कियों का बाहर अकेले निकलना मुश्किल था। शादी के लिए लड़कों का अपहरण होने लगा था। दबंग लोग दिन-दहाड़े जाति-बिरादरी के किसी धनी परिवार के लड़के का अपहरण कर लाते और अपने घर की विवाह योग्य लड़की से शादी कराकर उसके घर लड़के-लड़की को पहुंचा आते। इन अनचाही वधुओं को अपना जीवन तमाम तरह के संत्रास और घुटन के बीच गुजारना पड़ता। बहुएं जलाकर मारी जाने लगी थीं, वैसे सरकारी रिकार्ड में वे स्टोव के फटने या घर में ढिबरी से साड़ी में आग पकड़ लेने के कारण मर रही थीं।
संगठनों के लोग चंदा वसूलने में ही निर्ममता से पेश नहीं आते बल्कि उनके दस्ते जिन गांवों में जाते, वहां अपने समर्थकों के घरों में रूकने पर खाने-पीने और रहने के नाम पर भी काफी तंग करते। दोनों संगठनों के दस्तों में लगभग एक ही तरह के लोग थे। फिर भी नक्सली पार्टी के दस्तों के उत्पात और अत्याचार की शिकायत कम से कम पार्टी के भीतर की जा सकती थी और उसकी सुनवाई भी होती थी, मगर महावीर सेना के दस्तों के अत्याचार और जुल्म की कहीं कोई सुनवाई नहीं थी। उसे सहने और चुप रहने के अतिरिक्त और कोई विकल्प था ही नहीं।
बखेड़ापुर में एक बार ललन बाबा के घर महावीर सेना के दस्तेवाले देर रात आये। उन्हें करीब एक बजे रात में अपने घर की जनानियों को जगाकर कुल करीब दस-बारह लोगों के लिए खाना का इंतजाम करना पड़ा। उन लोगों ने खाने में पूड़ी सब्जी की फरमाइश की। पीने के लिए दारू का प्रबंध करना पड़ा। उन्हें आसपास के घरों के लोगों को भी जगाकर सारा कुछ प्रबंध करने के बिना मुक्ति नहीं थी। इतनी देर रात गये पड़ोसियों के दरवाजे खुलवाने पर पहले तो पड़ोसी डर गये कि गांव में कोई कांड हो गया क्या…मगर फिर लोगों ने मिलजुल कर सारा प्रबंध किया। खाते-पीते तीन बज गया। रेज टोल के लोगों को महावीर सेना के दस्ते के गांव में रूके होने की खबर लग गई। उन लोगों ने तत्काल जाकर पुलिस छावनी पर रिपोर्ट की। चूंकि लोगों ने समूह में जाकर और अपने नेता रूप चौधरी और राजबलम के नेतृत्व में पुलिसवालों से शिकायत की थी, इसलिए पुलिस को तत्काल कार्रवाई करनी पड़ी। पुलिस ने उसी समय छापा मारा। दस्ते के कुछ लोग भाग गये। कुछ लोग उन घरों में जनानियों के कपड़े पहनकर उनसे सटकर सो गये। घरवालों को बहुत बुरा लगा मगर महावीर सेना के लोगों की मुखालफत की कीमत उन्हें पता थी,इसलिए चुप रहे।
पुलिस बल के वापस लौटने के बाद सुबह छुपकर निकलते समय महावीर सेना के लड़ाके रड़टोली के दो लोगों का मर्डर करते भी गये। अगले दिन पुलिस की मारपीट समर्थकों को झेलनी पड़ी। कुछ लोग पकड़कर जेल में बंद किये गये।
मर्डर के बाद पता नहीं कहां-कहां से माले पार्टी समर्थक कार्यकर्त्ताओं का गांव में जमघट लग गया। आसपास के चार-पांच गांवों की दलित महिलाएं, बच्चे और पुरुष लाठी, कुल्हाड़ी और हंसिया लिए हुए लाश के साथ पूरे गांव में घूमे। फिर लाश को ब्लॉक पर ले जाया गया, जहां विधायक केसी यादव के पधारने और मृतकों के आश्रितों को मुआवजा देने और नौकरी का आश्वासन दिलाने के बाद ही लाशों का अंतिम संस्कार किया गया।
पारवती को कम्युनिष्ट माले पार्टी ने महिला स्कवाड का कमांडर बना दिया था। वह अब महिलाओं को आंदोलन से जोड़ने और उन्हें हथियार चलाने का प्रशिक्षण देती थी। उसने बहुत सारी महिलाओं को पार्टी से जोड़ा था और उन्हें सक्षम बनाते हुए पार्टी के उद्देश्यों के लिए विभिन्न मोर्चाे रूप तैनात कराया था। रूप चौधरी को पार्टी ने एरिया एरिया कमांडर बना दिया था। आंदोलन अपने परवान पर था। पारवती का बहुत सारे पार्टी के बड़े नेताओं से संपर्क हो गया था। अब इधर के सभी गांवों में उसकी तूती बोलती थी। पूंजीपति और बड़े खेतीहर उसका नाम सुनकर ही कांपते थे। वह पूंजीपतियों और व्यापारियों से भी पार्टी के लिए अब चंदे वसूल करती थी। महावीर सेना के कमांडों के हिटलिस्ट में उसका नाम प्रमुखता से शामिल हो गया था। उसने एक बार देवनारायण डॉक्टर को दौड़ाकर गोली मारने का प्रयास किया था, मगर संयोगवश वे बच गये। गोली पैर में लगी थी।
यों कम्युनिष्ट पार्टी में सभी जाति के लोग थे और एरिया कमांडर और नेशनल कमिटी में तो भूमिहार, राजपूत और ब्राह्मण जाति के कुछ नेता बड़े पदों पर थे, मगर यह पार्टी मुख्यतरू बड़ी जातिवालों को ही निशाना बनाती थी। इस पार्टी की घोषित लड़ाई सामंतों से थी। ये लोग सबसे पहला नारा यही लगाते, ‘सामंती ताकतें होश में आओ…।‘
महावीर सेना के लोग अपने समर्थकों को भड़काते, ‘भठिहारा है सब कि कमनिस्ट है…आरे दू बीघा खेत नहीं त्रिपुरारी पंडित के, तो ऊ कैसे सामंत हो गये? उनके बेटा को भी नहीं छोड़ा सब नीच। दौड़ा के गोली मार दिया। वह तो हमलोग के सेना में भी नहीं था…कॉलेज में पढ़ता था। ई सब सफाया करने में लगा है धरती से बड़ जाति के, सामंत-फामंत कुछ नहीं।‘
‘सोना बेचकर लोहा खरीदो…महावीर सेना जिंदाबाद…जिंदाबाद जिंदाबाद। बोली का जवाब गोली से देंगे…गोली से देंगे गोली से देंगे …’
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यह ऐसा समय है
जब कोई हो जा सकता है अंधा, लंगड़ा,
बहरा, बेघर या पागल… (मंगलेश डबराल)
बखेड़ापुर में भी रामदुलारो देवी मध्य विद्यालय, पुलिस छावनी में तब्दील हो गई थी। स्कूल अब अस्थायी तौर पर ही लगता। बच्चे बहुत कम ही स्कूल आ पाते, शिक्षक भी कम आते या नहीं आते- कौन पूछनेवाला था। गांव के बिगड़े माहौल के कारण संगीता मैडम ने अपना ट्रांसफर जिला मुख्यालय पर करा लिया था। बल्कि नई परिस्थितियों के कारण अब पूरे जिले में ही पढ़ाई-लिखाई का कोई माहौल नहीं रह गया था। पढ़ाई-लिखाई ही क्यों, विकास के सारे काम-काज लगभग ठप पड़ गये थे। सड़कों और पुलों का बनना, कृषि या डेयरी उद्यमों संबंधी योजनाओं का कार्यान्वयन आदि तमाम सरकारी कारोबार जो विकास और प्रशासन के नाम पर आम तौर पर राजधानी से बाहर के उद्योग वंचित तमाम छोटे जिलों में चलते रहते हैं, उन पर जैसे एकाएक ब्रेक लग गया था। इससे पेशेवर ठेकेदारों और दलालों को भी काफी असुविधा का सामना करना पड़ रहा था। सरकारी अधिकारी आदि भी रिश्वत का भरपूर मजा उठाने में कठिनाई ही नहीं,वंचना तक का अनुभव कर रहे थे। वे जिले से बाहर अपना स्थानांतरण कराने के लिए लगे हुए थे। यहां सिर्फ कमाई ही बाधित नहीं थी, बल्कि जान पर भी आफत थी। अधिकारी अपराधियों की कमाई के स्रोत बन गये थे। कभी महावीर सेना वाले चंदा मांगते, कभी कोई गुंडा अपहरण की धमकी देकर फिरौती वसूलता।
वैसे यह ठीक वही समय था जब प्रदेश की कमान एक ऐसे बेबाक और सर्वहारा किस्म के नेता के हाथ में आ गई थी, जो जेपी के मूवमेंट से निकला था। जिसने प्रदेश की जनता को बड़े-बड़े सपने दिखाये थे, जो लोगों से उनकी भदेस जुबान में ही बातें करना और उन्हें ठेंठ सर्वहारा अंदाज में संबोधित करना उसकी खास अदा थी। मगर प्रदेश में शासन की बागडोर संभालते ही उसने अपने तमाम लंपट और खूंखार गुर्गों को भरपूर मनमानी करने की अनौपचारिक छूट दे दी थी। चोरी और अपहरण का कारोबार काफी तेजी से फैलने लगा था। प्रशासनिक अधिकारी चूं-चपड़ करने पर सरेआम मार खाने लगे थे। पूरे राज्य में नेताओं के अलावा सभी लोग दहशत में जीने लगे थे। प्रदेश से व्यापारी और उद्योगपति पलायन कर रहे थे। कुल मिलाकर राजनीति की फसल लहलहा रही थी और खादी का जेपी कट कुरता-पजामा पहनकर घूमना रुआब का स्रोत बन गया था। दबंगई को वैधता मिल गई थी। हर गली-कूचे में दो-चार नेता रहने लगे थे। हर चाय-पान के खोखे राजनीतिक तिकड़मों का प्रशिक्षण स्थल बन गये थे। अपराधी बड़ी संख्या में विधायक बन गये थे। मुख्यमंत्री मंच पर आला अधिकारियों से खैनी बनवाता था। प्रदेश में ऐसे साहित्याकारों की एक जमात उभर आई थी, जो मुख्यमंत्री की तारीफ में किताबें, आरती या चालीसा आदि लिख रही थी। ऐसी किताबों को धीरे-धीरे पाठ्यक्रमों में भी घुसाया जा रहा था।
इस जगर-मगर राजनीतिमय गहमागहमी की चपेट में आने से भला संगीता मैडम कैसे बचतीं। उनका भी सत्ताधारी पार्टी के बुद्धिजीवी टाइप के एक विधान पार्षद से परिचय हुआ, जो समकालीन साहित्य के रसिक थे तथा तमाम साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में छपनेवाले लेखकों के जीवन-परिचय के घनघोर पाठक। ऐसे ही दो-एक पत्रिकाओं को उलटते-पलटते उन्होंने संगीता मैडम का भी फोटो कहीं देखा था और उनके परिचय को पढ़ा था। और उनके पते पर चि-ी लिख दी थी, जिसका जवाब भी आ गया था। धीरे-धीरे पत्राचार बढ़ा था और संपर्क-संबंध प्रगाढ़ होते-होते भेंट-मुलाकात होने लगी थी। अक्सर जब संगीता मैडम राजधानी आतीं, तो इस साहित्य रसिक विधान पार्षद नरोत्तम जी से मिलतीं और कभी-कभी उनकी गेस्ट भी बनतीं। नरोतम जी उन्हें अपनी काली हुंडई कार में जिसके शीशे भी काले थे, बैठाकर शहर के तमाम पर्यटन स्थलों और पार्काे में घुमाते और सबसे अच्छे रेस्तरां में कभी लंच और कभी डीनर कराते। वे आपस में राजनीति और साहित्य में श्महिला विमर्श्य पर बातें करते जिसका कुल निचोड़ यह होता कि ‘कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है’। संगीता मैडम अंततरू इस निष्कर्ष से बिल्कुल सहमत हो जातीं और कहतीं, ‘आप ठीके कहते हैं सर।‘ वे नरोत्तम जी को संपादक काजेंद्र जी के ‘स्त्री विमर्श के बारे में बतातीं और नरोत्तम जी संगीता जी को लोहिया जी के स्त्री विमर्श के बारे में बताते। इस तरह वे परस्पर एक-दूसरे के स्त्री विमर्श संबंधी सामान्य ज्ञान को अपडेट कर रहे थे। इस संगत का दोनों को परस्पर लाभ ही लाभ मिल रहा था और कुल मिलाकर दोनों को संगत का भविष्य बहुत उज्जवल दिखाई दे रहा था। बल्कि लग रहा था कि इस दोस्ती से भौतिक सुख भी मिलेगा और सत्ता की मौज भी। लग क्या रहा था बल्कि उसकी आंच की मद्धिम-मद्धिम, मीठी-मीठी गर्मी दोनों को महसूस भी हो रही थी।
नरोत्तम जी ने संगीता मैडम को धीरे-धीरे पार्टी के पदाधिकारियों और मंत्रियों से परिचय करवा दिया था और वे उनसे बहुत तेजी से हेलमेल बढ़ा रही थीं। पार्टी के दीगर नेता नेता नरोत्तम जी की विद्वता और नरोत्तम जी की मुख्यमंत्री से नजदीकी के कारण संगीता मैडम के साथ प्रायरू बहुत तमीज और आदर के साथ पेश आते ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, मगर कम से कम लिहाज रखते थे, ऐसा कहा जा सकता है। यह नजदीकी दिनोदिन इतनी प्रगाढ़ होती चली गई कि एक दिन संगीता मैडम ने स्वास्थ्य मंत्री से डायरेक्ट बात कर अपने प्रेमी अखिलेश डाक्टर का ट्रांसफर राज्य की राजधानी में ही करा दिया और कुछ दिनों के बाद अपनी नौकरी से इस्तीफा देकर सत्ताधारी पार्टी ज्वाइन कर लिया। राजनीति में संलग्नता और व्यस्तता के कारण उनके लेखन में किंचित ठहराव पैदा हुआ, मगर सत्ता से संपर्क के कारण उनकी साहित्य हनक में तो इजाफा ही हुआ। बनारस के साहित्य समीक्षक ओम छलिया ने जो मुख्यतरू काव्य के समालोचक थे, संगीता मैडम के साहित्य में योगदान पर हिंदी पट्टी में सर्वाधिक बिकने वाले अखबार दैनिक नव जागरण में पूरे एक पेज का लेख लिखा जिसे उस अखबार ने संगीता मैडम की तीन अलग-अलग मूड्स की फोटो के साथ प्रकाशित किया। एक फोटो में तो संगीता मैडम मुख्यमंत्री की बगल में एक पुल के उद्घाटन के मौके पर खड़ी थीं और मुख्यमंत्री की ओर देखकर मुस्करा रही थीं। इस डिस्पले के साथ यह लेख छपने से संगीता मैडम को किंचित राजनीतिक फायदा हुआ और बदले में संगीता मैडम ने अखबार के साहित्य समीक्षक को रॉयल चौलेंज की दो बोतल शराब भिजवाई और समीक्षक ओम छलिया को बस फोन भर कर लिया। ओम छलिया ने उस फोन कॉल्स को इतना महत्वपूर्ण माना कि उसने इसे एक अत्यंत महत्वपूर्ण साहित्यिक घटना के रूप में अपनी डायरी में दर्ज कर लिया कि ‘मैडमवा कबो मंतरी-संतरी बनेगी, तो उसे याद दिलाया जाएगा। का पता कौनो कामे निकल आये…।‘
कई तरह की छोटी पत्र-पत्रिकाओं में संगीता मैडम के भर-भर पेज के साहित्यिक साक्षात्कार छपने लगे, जिसमें वे अपनी भरपूर राजनीतिक चेतना का प्रमाण देते हुए वर्तमान मुख्यमंत्री और सत्ताधारी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष की जमकर तारीफ करतीं। ऐसे साक्षात्कारों को मौका देखकर वे मुख्यमंत्री को ले जाकर दिखलातीं, तो वे बहुत खुश होते और कहते कि फइलवा में लगवा दीजिए। इस तरह की फइलवा जब मोटी होने लगी तो मुख्यमंत्री को भी लगा कि मैडमवा का लगता है कि मीडिया आ बुद्धिजीवी वर्ग में बहुत अच्छा कांटैक्ट है, तो क्यों नहीं इसे प्रवक्ता टाइप का कुछ बनवा दिया जाय। उन्होंने प्रदेश अध्यक्ष से इस संबंध में बात की।
प्रदेश अध्यक्ष को यह बात तो अच्छी नहीं लगी क्योंकि मैडमवा को वे कई बार ट्राई कर चुके थे और असफल रहने पर यह निष्कर्ष निकाला था कि ई तो एकदमे करप्ट है और उसके प्रति उदासीन रहने लगे थे मगर मुख्यमंत्री खुदे प्रस्ताव दे रहे थे तो वे क्या कहते, सहर्ष तैयार हो गये। इस तरह संगीता मैडम सत्ताधारी पार्टी की प्रदेश स्तरीय प्रवक्ता बना दी गयीं। सत्ताधारी पार्टी का प्रदेश प्रवक्ता बना दिये जाने के कारण वे राजधानी के धाकड़ किस्म के पत्रकारों की नजर में भी आ गयीं। मगर पत्रकारिता की कोई लक्ष्मण रेखा जैसी चीज होती है, उस कारण ये पत्रकार संगीता मैडम को हद से हद भौजाई भर अनुराग से ही देख पाते थे। संगीता मैडम चूंकि साहित्य से जुड़ी थीं, इसलिए वे पत्रकारिता के प्रति भरपूर स्नेह रखती थी
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