दो दिन पहले हंस द्वारा आयोजित साहित्योत्सव में रचनात्मकता और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की चुनौतियाँ विषय पर अच्छी चर्चा हुई। आज इसी विषय पर चंद्र कुमार का लेख पढ़िए। चंद्र कुमार ने कॉर्नेल विश्वविद्यालय, न्यूयार्क से पढ़ाई की। वे आजकल एक निजी साफ्टवेयर कंपनी में निदेशक है लेकिन उनका पहला प्यार सम-सामयिक विषयों पर पठन-लेखन है। हम लोगों के लिए वे साहित्यकार हैं और तकनीकी विकास के गहरे अध्येता। आप यह लेख पढ़िए-
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लिखते तो वह लोग हैं, जिनके अंदर कुछ दर्द है, अनुराग है, लगन है, विचार है!
जिन्होंने धन और भोग-विलास को जीवन का लक्ष्य बना लिया, वह क्या लिखेंगे?
— मुंशी प्रेमचंद
मुंशी जी ने यह हमारे लिये कहा था, उनके ज़हन में तब ज़रा सा भी ख़्याल नहीं रहा होगा कि कभी ऐसा भी समय आयेगा जब लिखने का काम भी मशीनें (कम्प्यूटर) स्वयं करने की चेष्टा करेगी। ना केवल लिखने की, बल्कि रेखांकन व चित्रकारी पर भी कम्प्यूटरों को हाथ आज़माने दिया जायेगा। आप अगर सोच कर हैरान हो रहे हैं तो ज़रा ठहरिए, कम्प्यूटर द्वारा बेहतरीन संगीत रचा जा चुका है, पुस्तक लिखी जा चुकी है और अमूर्तन पेंटिग्स भी उकेरी जा चुकी है। हाल ही में एक पुस्तक में कम्प्युटर ने अपनी एक विशिष्टता – आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धि) की जानकारी स्वयं एक आलेख लिख कर दी है जो प्रकाशन के क्षेत्र में अपनी तरह की संभवतः पहली घटना है। जिसे हम मानवीय रचनात्मकता के उपक्रम मानते रहे हैं, वहाँ कम्प्यूटर ने अच्छी ख़ासी घुसपैठ कर ली है। कला अपने समय और परिवेश को महसूस करते हुए आत्म (स्व) के खोज की एक चिर यात्रा होती है। परिवेश में जब बहुत कुछ घटित और परिवर्तित हो रहा हो तो यह जरूरी है कि वह कला में भी परिलक्षित हो, तभी वह समकालीन कला कहलाती है। कला हमेशा से इतिहास के उपकरण से कहीं ज्यादा वर्तमान और भविष्य के सन्निकट दिखाई देती है। इसीलिए जब हम आधुनिक समय की कला की चर्चा करते हैं तो तकनीकी को परे रख कर उसकी चर्चा पूर्ण नहीं मानी जा सकती।
अब सवाल यहाँ यह उठता है कि कला का स्वयं का अस्तित्व जब एक नए रूप को पा रहा है तब हम इसे किस तरह परिलक्षित करें? और यह भी, कि जब कला हम पर आश्रित ही नहीं रहेगी तो फिर उसका वह स्वरूप क्या हमें स्वीकार होगा? क्या हम उसे कला का दर्ज़ा देंगे? इससे भी महत्वपूर्ण यह प्रश्न है कि क्या हमारे किसी विचार की तब कोई दरकार भी होगी? ऐसे ही कुछ सवाल पिछले कुछ समय से दार्शनिकों-वैज्ञानिकों-चिन्तकों को हैरान-परेशान किए हुए है। तकनीकी युग में संवेदना पर अन्ततः बुद्धिमत्ता की प्रतिकात्मक विजय क्या मानवजाति को हाशिए पर नहीं धकेल देगी? हमारे स्वतंत्रचेता मन पर किसी और का नियंत्रण क्या हमारा प्रयोज्य व उपादेयता कम और अन्ततः ख़त्म नहीं कर देगा? पृथ्वी ग्रह पर अब तक का सबसे बुद्धिमान जीव – मनुष्य, क्या इतनी जल्दी अपनी सत्ता अपने ही हाथों रचे किसी कृत्रिम, आभासी, और अत्यंत बुद्धिमान (अ)जीव को सौंप देगा? क्या कभी मनुष्य और उसके द्वारा निर्मित मशीनों में सत्ता-प्राप्ति का कोई संघर्ष होगा? यह संघर्ष अगर हुआ तो उसका परिणाम किसके हक़ में होगा? भविष्य में संवेदना और सत्य के अन्वेषण की ज़िम्मेदारी किसकी होगी? अभी दरअसल बहुत से सवाल अनुतरित्त है।
सूचना, ज्ञान और विवेक के अंतरसम्बन्धो को समझने के लिए हमें एक पिरामिड की कल्पना करनी होगी। पिरामिड का आधार – सूचना (इन्फ़ोर्मेशन), उसका मध्यवर्ती भाग ज्ञान (नॉलेज) और उसका शिखर विवेक (विज़डम) माना जा सकता है। यह हालाँकि गणितीय रूप में एकरेखीय सम्बन्ध दिखाई देता है लेकिन सही अर्थों में यह इतना सीधा सम्बन्ध नहीं है। हमें यहाँ समझना होगा कि असीमित सूचनाओं के ढेर पर बैठा आदमी महज इस लिये बुद्धिमान नहीं माना जा सकता कि उसे ढेर सारी सूचनाएँ उपलब्ध है। अगर ऐसा होता हो दुनिया का हर एक पुस्तकालयाध्यक्ष हम में सबसे बुद्धिमान और विवेकवान होता क्योंकि उसकी पहुँच में तो असंख्य पुस्तकें होती है! सूचनाओं से ज्ञान निचोड़ने में कुछ अहम बातों का ध्यान रखना होता है, जैसे – क्या ये सूचनाएँ परस्पर जुड़ी है? क्या ये सूचनाएँ किसी एक पैटर्न के तहत रखी जा सकती है? क्या उन सूचनाओं से वह कोई विशिष्ट ज्ञान अर्जित करता है? इन सब कसौटियों पर खरे उतरने पर ही यह कहा जा सकता है कि सूचनाओ से कुछ ज्ञान मिला है जिसे हमने स्मृति में संजोया है। ज्ञान की एक महत्वपूर्ण उपयोगिता यह भी है कि यह तात्क्षणिक नहीं होकर दीर्घकालिक, बल्कि हमेशा लक्षित किये जा सकने की क्षमता रखता है। इस तरह सम्बद्ध सूचनाओं के समूह से हमें कुछ विशेष ज्ञान मिलता है और फिर प्राप्त ज्ञान को संवेदनाओ की संस्तुति और समिश्रण से काम लेकर हम अपनी बुद्धिमत्ता या विवेक का परिचय देते हैं। यहाँ यह बात विशेष ध्यान देने की है कि विवेक अथवा बुद्धिमत्ता के लिए ज्ञान और संवेदना का युग्म हमेशा ज़रूरी होगा। ज्ञान का असंवेदनशील व निरकुंश उपयोग बुद्धिमत्ता नहीं हो सकता।
जब हम कम्प्यूटर जनित रेखांकन व चित्रकारी की बात करते हैं तो वह महज़ डिजिटल प्रिन्ट की बात नही है। यहाँ कम्प्यूटर द्वारा बिना किसी मानवीय हस्तक्षेप के प्राकृतिक लैंडस्केप पेन्टिंग या किसी काल्पनिक या वास्तविक पात्र के पोर्ट्रेट या रेखांकन की बात हो रही है। दुनिया की कुछ बड़ी और लोकप्रिय वीथिकाओं (गैलरियों) में कम्प्यूटर की आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जनित बहुत सी कला-कृतियों का प्रदर्शन हो चुका है और ये बड़े दामों में बिकी भी है। नई दिल्ली में भी ऐसी एक प्रदर्शनी 2018 में आयोजित हो चुकी है जिसने कला-रसिकों का बहुत ध्यान खींचा। ये छोटी-छोटी घटनाएँ दरअसल कुछ बड़ी बातों की तरफ़ इशारा कर रही है, और इनसे कुछ ज़रूरी और मूलभूत चिन्ताओं ने हमें घेरना शुरू कर दिया। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की चरम अवस्था में क्या हम अपने ही ग्रह में निरर्थक/ व्यर्थ (यूजलेस) हो जाएँगे जैसी युवाल नोआह हरारी ने अपनी पुस्तक ‘होमो ड्यूज’ में चिन्ता जताई है? यहाँ ‘यूजलेस क्लास’ का सम्बन्ध सिर्फ उत्पादन-उपभोक्ता के नज़रिए से नहीं बल्कि कला, साहित्य और रचनात्मकता की दृष्टि से भी सोचना होगा। उत्पादन, वितरण और अन्य व्यावसायिक कार्यो में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस बहुत पहले से कार्यरत है। हमारी चिन्ता दरअसल कला, साहित्य और रचनात्मक क्षेत्रों में इसके बढ़ते हस्त़क्षेप की है।
कला, साहित्य, संगीत और अन्य रचनात्मक क्षेत्र जो अभी तक ‘मानवीय संवेदनाओ के क्षेत्र’ माने जाते रहे हैं, क्या अब मान लिया जाये कि ये महज़ मानवीय नहीं रहे? दुनिया में शतरंज के बेताज बादशाह गैरी कास्पारोव को आईबीएम के ‘डीप ब्लू’ कम्प्यूटर ने अन्तत: हराया था। शतरंज जैसा खेल जिसमें बहुत गंभीरता से असंख्य चालें रचनी पड़ती है, चाल चलने से पहले बहुत सी गणनाएँ करनी पड़ती है, उस खेल में कम्प्यूटर ने विश्व के सबसे बेहतरीन खिलाड़ी को मात दे दी। हालाँकि इससे पहले के एक मुक़ाबले में गैरी कास्पारोव ने कम्प्यूटर को हराया था। अमेरिका के एक बहुत ही लोकप्रिय क्विज़ शो ‘जियोपार्डी!’ में एक कम्प्यूटर ‘आईबीएम वॉटसन’ ने पिछले सीज़न के दो विजेताओं को आसानी से मात दी थी। जिनका यहाँ जिक्र किया गया है वह तो वे खेल हुए जहाँ कुछ सोच या योजना की ज़रूरत होती है, अन्यथा रोबो-मशीनों ने तो मानव को काम करने की कुशलता-दक्षता और बिना थके काम करने की क्षमता के बूते बहुत पहले पछाड़ दिया है।
अत्याधुनिक कारख़ानों और कौशल से जुड़े कार्यों में जिस तरह से रोबो-मशीनों ने ऑटोमेशन द्वारा मनुष्यों को कार्यच्युत किया है, वह हैरानी भरा और चिन्ताजनक दोनों है। अगर आप यह सोच रहे हैं कि हम आख़िर कम्प्यूटरों से मुक़ाबला ही क्यों कर रहे हैं तो आपको समझना होगा कि तकनीकी विकास को परे रख कर जीवन की कल्पना करना अब ना तो समझदारी है और ना ही संभव। हम तो दरअसल अभी इस सवाल का जवाब ढूँढ रहे हैं कि बदलते तकनीकी परिवेश में कला, साहित्य, संगीत और अन्य रचनात्मक क्षेत्रों में क्या परिवर्तन होंगे? कला किसी समय-परिवेश से गुजरते हुए आत्म की एक अनवरत खोज का उपक्रम है। इस वजह से बदलते परिवेश में इसके सामने नयी चुनौतियाँ आती है कि तब यह कैसे अनुभूतियों और इसके प्रतिफलनों को आत्मसात करते हुए स्वयं को व्यक्त करे। कला में काल की चुनौतियाँ अक्सर सर्जनात्मक अवसर बन कर कला के नए रूपों-प्रतिमानों की रचना करती है। इन नए रूपों-प्रतिमानों के साथ तब साहित्य और कला का स्वरूप क्या होगा, यही जानना दरअसल उस कला के मर्म को जानना होगा जो नए समय-काल में हमारे सामने होगी।
जीवों मे मनुष्यों को इसी वजह से श्रेष्ठ आंका गया है क्योंकि मनुष्य अपने इतिहास और वर्तमान के साथ ही भविष्य को लेकर एक निरन्तर सोच की प्रक्रिया में रहता है। भविष्य की यही चिन्ता ही उसे बाक़ी प्राणियों से अलग करती है। इस लिहाज़ से क्या हम एक मशीन को मनुष्य के समकक्ष रख कर उससे यह आशा कर सकते हैं कि वह विकास की प्रक्रिया को जारी रखेगा? आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस पर बहुत सी आधुनिक वैज्ञानिक धारणाओं को केन्द्रीय सूत्र मान कर हम दो विशिष्ट परिस्थितियों की कल्पना करते हैं: पहली स्थिति वह होगी जिसमें हम कम्प्युटर को सर्वेसर्वा मान उसी के द्वारा तैयार परिवेश में खुद को ढ़ाल लेंगे। तब हम कम्प्युटर से सीधे दिशा-निर्देश लेंगे। यह एक तरह से अपने ही द्वारा निर्मित तकनीकी कौशल के आगे अन्ततः समर्पण करने जैसा होगा। हम से ज्यादा बुद्धिमान और शक्तिशाली आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस धारित कम्प्युटर होंगे। उस समय, जबकि हम अपने दिशा-निर्देश किसी कंप्यूटर से ले रहे होंगे अर्थात हमारा मस्तिष्क किसी अन्य (मशीन) के उपग्रह की तरह कार्य कर रहा होगा, तब हमारी रचनात्मकता क्या होगी? क्या यह ‘हमारी’ रचनात्मकता होगी? दूसरी स्थिति वह होगी जिसमे कम्प्युटर विज्ञान, साइबरनेटिक्स, जैव-प्रौद्योगिकी, आनुवांशिक विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान और विज्ञान की अन्य शाखाओं की बदौलत तकनीकी क्षेत्र में अद्यतन आविष्कारों द्वारा हम चिरायु होने का कोई फॉर्मूला ढूँढ लें और इस तरह अमरत्व प्राप्त कर, युवाल नोआह हरारी के शब्दों में, मानव भगवान (होमो ड्यूज) बन जाएँ। दोनों ही स्थितियों में अन्ततः हमारी निर्भरता तकनीकी ज्ञान पर रहेगी और इसी अवस्था को प्रसिद्ध अन्वेषक, भविष्यवादी और वैज्ञानिक-चिन्तक रे कुर्ज़वील और वर्नर विन्जे ने तकनीकी विशिष्टता/ तकनीकी विलक्षणता (टेक्नॉलजिकल सिंगुलॉरिटी) वाली अवस्था कहा है। यह हमारी अब तक ज्ञात मानव जीवन के विकास की सर्वोच्च अवस्था होगी। इसे ही दर्शन में मानव-जीवन के विकास की विज्ञानमय कोश/ अवस्था कहा गया है। इस के बाद आनन्दमय कोश/ अवस्था की प्राप्ति होगी। अब जबकि वैज्ञानिक आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस को एक तरह से मानव-जनित आख़िरी आविष्कार कह रहे हैं तब क्या यह संभव है कि इसके बाद के विकास की अवस्था (आनन्दमय कोश/ अवस्था) प्राप्ति में यह आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस ही स्वयं कुछ नया रचे? दरअसल, यही वो पेच है जिसकी गुत्थी को सुलझाने में आजकल वैज्ञानिक-चिंतक और बहुत से विज्ञान-गल्प लिखने वाले वैज्ञानिक-लेखक जुटे हुए हैं।
यहाँ एक प्रश्न और है कि क्या लेखन, संगीत-सृजन चित्रकारी आदि समस्त कलाएँ महज़ एक कौशल है जिसे आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस द्वारा रचा या रिक्रिएट किया जा सकता है? कला की व्युत्पत्ति अगर सिर्फ कौशल से होती हो तब हर कुशल व्यक्ति को साहित्य, कला, संगीत इत्यादि रचनात्मक क्षेत्रों में भी पारंगत होना चाहिए जबकि हम देखते हैं कि भाषा के समस्त विद्वान लेखक या कवि हो यह जरूरी नहीं, और ऐसे ही सुरों के सभी ज्ञाता संगीतज्ञ नहीं होते। अर्थात कलाएँ कौशल के साथ कुछ और भी है जिसके लिए हमें मन की गहराइयों में टटोलना पड़ेगा कि आखिरकार कला की व्युत्पत्ति/ उद्भव में कौशल के साथ और कौन से मानवीय अवयव जुडते हैं? तब ही मानव-जनित कला और कम्प्युटर-जनित कला में हम ठीक से अंतर भी कर पायें। हमारी कला-रचना की प्रक्रिया में चेतन और अवचेतन – दोनों तरह के चित का योगदान रहता है। यहाँ हमें यह जानना जरूरी है कि अभी तक की तकनीकी क्षमता के अनुसार कम्प्युटर पढ़-देख-सुन तो सकते है, लेकिन ये उस तरह नहीं समझ सकते जैसे हम समझते हैं। मानव जीवन के विकास को जिस एक कारक ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया और जिसे हम चिंतनशील या ज्ञानात्मक मन (कोग्निटिव माइंड) के नाम से जानते हैं, फिलहाल तो वह कम्प्यूटरों में शुरुआती अवस्था में ही है।
2016 में गूगल द्वारा तैयार किए गए ‘ड़ीपमाइंड’ (DeepMind) आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस प्रोग्राम से लैस अत्यन्त शक्तिशाली ‘अल्फागो’ कंप्यूटर ने चैम्पियन खिलाड़ी ली सेड़ोल को ‘गो’ खेल में पराजित किया। यह ‘आईबीएम वॉटसन’ कंप्यूटर द्वारा शतरंज के खेल में गैरी कास्पारोव को हराने से भी बड़ी घटना है क्योंकि ‘गो’ शतरंज की अपेक्षा बहुत पेचीदा खेल है जिसमे उद्देश्य राजा-वज़ीर को मार कर हाइरार्कियल (heirarchial) नहीं बल्कि बोर्ड़ पर साम्राज्य के विस्तार वाली इम्पीरियल (Imperial) चालों-नीतियों द्वारा अधिक से अधिक क्षेत्र पर अपना कब्ज़ा ज़माना होता है। इस खेल में ‘अल्फागो’ कंप्यूटर ने कुछ अद्भुत योजनाएँ बना कर, अपनी पिछली गलतियों से सीख़ कर चैम्पियन ली सेड़ोल को मात दी थी। अगले साल (2017) ‘अल्फागो’ ने फिर विश्व के नंबर एक खिलाड़ी को पटखनी दे कर तहलका मचा दिया। इसकी दोनों विजयों में एक बड़ा कारण इसका मानव-मन जैसे सोच सकने की क्षमता थी। यहीं इसकी प्रमुख सफलता है जिस पर वैज्ञानिकों की नज़र पड़ी है। लेकिन इसे ‘गो’ खेल से आगे अभी अपनी उपयोगिता साबित करनी है। बहरहाल, इसे यों भी कहा जा सकता है कि कम्प्युटर अभी तक मस्तिष्क (ब्रेन) तो हो गए हैं, लेकिन मन/दिमाग (माइंड) नहीं हो पायें है। कला, और विशेष कर साहित्य लेखन में, मानवीय अनुभूतियों का चित्रण होता है। सहानुभूति, दुख, उमंग, प्रसन्नता, खुशी, व्यथा, दया, परानुभूति, संवेदना, इत्यादि कुछ प्रमुख भाव है जो सृजनात्मक लेखन में जरूरी ज़मीन उपलब्ध करवाते हैं। कम्प्युटर में किसी अल्गोरिदम द्वारा इन भावों की प्रतिकृति अभी तक नहीं हो पायी है। अभी के कम्प्युटर मुख्यतः पूर्व-निर्धारित सवाल-जवाब, चाही गयी सूचना/ जानकारी मुहैया करवा सकते हैं, या बोर्ड़ गेम (शतरंज और गो) में अपनी क्षमता दिखा रहे हैं। लेकिन अपने असीमित डेटा-रिसोर्स के बावजूद स्वयं इस तरह भावों के प्रभाव में संज्ञानात्मक (कोग्निटिव) सोच पैदा नहीं कर सकते। हाल तक के समय में यही एक भेद है जो हमें पृथ्वी के समस्त ज्ञात जीवों से अलग करता है, खुद हमारे द्वारा निर्मित मशीन कम्प्युटर से भी। यहाँ इस बात पर विशेष ध्यान देना होगा कि कला-रचना और सम्प्रेषण – दोनों में इसी ज्ञानात्मक सोच का सर्वाधिक महत्व है।
तकनीकी के क्षेत्र में हम भविष्य की कोरी कल्पना नहीं करते, बल्कि उसे ईंट-दर-ईंट गढ़ते हैं। यह हालाँकि बहुत अर्से से चर्चा का विषय बना हुआ है लेकिन भविष्य की तकनीकी (Technology of Future) और तकनीकी का भविष्य (Future of Technology) पर जितनी चर्चा इन दिनों हो रही है, वह अकस्मात् नहीं है। यह दरअसल अब अपेक्षित भी है। ‘इन्फ़ोर्मेशन ओवरलोड’ (सूचना प्रवाह/अतिभार) के इस युग में महज़ जानना महत्वपूर्ण हो गया है, समझना उतना जरूरी (और कुछ मामलों में उपयोगी भी) नहीं! यही कारण है कि हम ‘जानते’ हुए भी उसकी ‘समझ’ से बहुत दूर होते चले जा रहे हैं। भविष्य के कम्प्यूटरों का तो अभी कहना संभव नहीं लेकिन हमारे समय के कम्प्युटर हमारी इस वृत्ति का अनुसरण कर रहे हैं। 2016 में जापान की राष्ट्रीय स्तर की साहित्यिक लेखन प्रतियोगिता में मानव और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस धारित कम्प्युटर ने मिल कर एक उपन्यास लिखा और सबको अचंभित कर दिया। हालाँकि निर्णायकों ने पाया कि वह लेखन औसत दर्जे का ही था और कुछ प्रमुख अवयवों में वह उपन्यास बिलकुल फ़ौरी लेखन जैसा था इसलिए प्रथम चरण में ही उसे प्रतियोगिता से बाहर कर दिया गया। लेकिन ऐसे अनेकों प्रयासों में यह इसलिए महत्वपूर्ण है कि इसने एक बाधा पार कर ली थी। दरअसल आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की उस विशिष्ट अल्गोरिदम ने उपन्यास के लिए वाक्य-विन्यास, प्लॉट, चरित्र इत्यादि तो सही से पकड़ लिए लेकिन लेखन में वह उतनी मार्मिकता, गहराई और प्रभाव पैदा नहीं कर पाया जितना प्रभाव हमारे द्वारा लिखी गयी रचनाओं में होता है। तब से वैज्ञानिकों के सामने यह चुनौती है कि उस सूत्र को कैसे पकड़ा जाए जिससे हम लेखन प्रक्रिया या कला-जगत में कम्प्युटर को प्रभावी बना सकें। ईमानदारी से कहा जाये तो कौशल/ दक्षता में कम्प्युटर आज भी हमसे आगे नहीं तो बराबरी तो कर ही रहे हैं। लेकिन क्रिएटिविटी में अभी यह हमसे मीलों दूर है।
तब यह सवाल उठना वाज़िब है कि कम्प्युटर आखिर कला, साहित्य-लेखन, संगीत-सृजन एवं चित्रकारी जैसे रचनात्मक उपक्रम कैसे करता है? दरअसल कम्प्युटर विज्ञान की भाषा में कहें तो आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस जनित समस्त प्रकार के कला-कर्म कम्प्युटर के लिए अभी महज़ एक ‘आउटपुट’ हैं जिसकी उत्पत्ति/ प्राप्ति के लिये विशेष तरह के अल्गोरिदम लिखे जाते हैं। ये अल्गोरिदम कमाण्ड (निर्देश) मिलने पर अपने असीमित डेटा स्टोरेज में रखी सूचनाओं को अच्छे से खंगालते है, चाही गयी सूचनाओ को अपने डेटा स्टोरेज में कई तरीकों से ढूँढ कर उन्हे कुछ प्रमुख बिन्दुओं के आधार पर वर्गीकृत करते हैं, तथा पहले से तय मापदण्डों पर उन सूचनाओं को विभिन्न प्रकार से परख कर, उनका गुणावगुण देख अल्गोरिदम से निर्देशित आउटपुट के रूप में यह जानकारी हमें दरपेश करते हैं। सोचने में यह एक बहुत लंबा प्रक्रम लगता है लेकिन यह सारी प्रक्रिया महज़ कुछ ही सेकंडों में ही पूरी जाती है। इंटरनेट पर एक सामान्य सर्च-इंजिन भी इसी तरह कार्य करता है। जब हम इंटरनेट के जरिए सर्च-इंजिन पर कुछ ढूँढते हैं तो हमें सीधा जवाब न दे कर वह बहुत सी सूचनाएँ एक साथ हमारे सामने पेश करता है। आधारभूत आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस इससे थोड़ा आगे कुछ ‘मूलभूत व सीधे जवाब’ देने की तकनीकी दक्षता लिये होता है। आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के ही परिष्कृत रूपों से क्रिएटिव कार्य जैसे लेखन, चित्रण, संगीत-सृजन और क्विज़ में जवाब देने और बोर्ड़ खेलों में महारथियों को पछड़ानें की क्षमता से कम्प्यूटरों को दक्ष किया जाता है।
तकनीकी युग में अब जबकि मनुष्य-मशीन का यह साहचर्य अपरिहार्य हो गया है तो फिर हमें बहुत कुछ नए सिरे से सोचना होगा ताकि कम से कम रचनात्मक रूप में हमारा अस्तित्व बचा रह सके। हम दरअसल जीवन के विकास के उस दौर से गुजर रहे हैं जहाँ हम अपने आसपास के जीव-जंतुओं के विकास को बहुत हद तक प्रभावित कर रहे हैं। प्राकृतिक चयन (नैचुरल सलेक्शन) में यह ग़ैर-ज़रूरी दखल कर के हमने पारिस्थितिकी सन्तुलन को अत्यधिक प्रभावित किया है। इतिहास में ऐसा कम ही हुआ है जब किसी प्रजाति ने अन्य प्रजातियों के क्रमिक विकास को प्रभावित और एक तरह से संचालित किया हो। लेकिन इसी दौरान मानवीय विकास की प्रक्रिया भी सतत् चलती दिखाई पड़ रही है। जो कम्प्यूटर वैज्ञानिक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में कार्यरत है, उनका विश्वास है कि विकास की यह अवस्था मानवजाति को बहुत फ़ायदा पहुँचाने वाली होगी। हमने हमेशा अपने जैसे बुद्धिमान जीव की इच्छा की है जिनके साथ हम इस ग्रह पर जीवन की निरंतरता (कन्टीन्यूटी) को बनाए रख सकें। ‘सुपर-इंटेलिजेंट ह्यूमन’ या ‘सुपर-ह्यूमन’ या ‘उत्तर-मानव’ (Post-Human) की इस अवधारणा को हम अभी कम्प्यूटर के माध्यम से साकार करने में प्रयासरत है। लगभग एक शताब्दी से ज़्यादा समय से, जबसे अल्फ्रेड बिनेट ने इंटेलिजेंस कोशेंट (बुद्धि-लब्धि – IQ) मापने का एक मानक टेस्ट हमारे सामने रखा, तब से अभी तक यह माना जाता रहा है कि इंटेलिजेंस कोशेंट (IQ) हमारा आनुवांशिक गुण है यानि जन्म से प्राप्त एक स्थिर गुण/ लक्षण। हाल ही में वैज्ञानिकों ने प्रयोगों द्वारा साबित किया है कि कुछ खास विधियों/ तकनीकों/ तरीकों से आईक्यू (IQ) स्तर को भी बढ़ाया जा सकता है।
माइकल मार्टिनेज ने अपनी पुस्तक ‘फ़्यूचर ब्राइट’ में इन शोधों पर विस्तार से लिखा है कि किस तरह जन्मजात माने गये इस गुणधर्म में बढ़ोतरी की जा सकती है। इस आधार पर यह भी तो माना जा सकता है कि कम्प्युटर जब स्वयं या वैज्ञानिकों के दिशा-निर्देशन में अपने विकास में सक्रिय भूमिका निभा रहे होंगे तब हमारा आईक्यू स्तर भी क्रमशः उसी रफ्तार से बढ़ता रहेगा। इस तरह हम अपनी बुद्धि की क्षमता का विस्तार कर जीवन के विकास के सिद्धान्त पर आधारित अपनी विकास-प्रक्रिया को अनवरत जारी रखेंगे। इस तरह परस्पर प्रतिस्पर्धा से क्या हम ‘सुपर-इंटेलिजेंट ह्यूमन’ की तरफ बढ़ रहे हैं? बहरहाल इसे भविष्य के गर्भ में ही रहने देते हैं। दरअसल क्वांटम कम्प्यूटिंग और आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस सहित विज्ञान-जगत में हो रही अनवरत ख़ोजों द्वारा इसकी पूरी सम्भावना है कि हम इस क्षेत्र में जल्द ही अभूतपूर्व तरक्की देखेंगे। वस्तुतः जब हम मानव जीवन के विकास की बात करते हैं तो विकास की प्रक्रिया में मनुष्य की शारीरिक श्रेष्ठता के साथ ही आत्म-चेतना और भावों के क्रमिक विकास की प्रक्रिया भी अन्तर्निहित होती है। यह कोरी कल्पना नहीं है कि भविष्य के रोबोट या कम्प्यूटर हमारे वजूद का ही विस्तार होते हुए आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस के उस स्तर तक पहुँच जाएँगे जहाँ वे हमारे बराबर बुद्धिमान हो सकते है और हमसे ज्यादा भी! जिस गति से इस दिशा में कार्य चल रहा है उससे तो प्रमुख वैज्ञानिक-चिन्तक रे कुर्जवील की भविष्यवाणी बहुत जल्दी सच होती दिख रही है जिसमें उन्होंने बताया है कि सन् 2029 आते-आते कम्प्यूटर मनुष्य जितना और 2045 तक शायद उससे भी अधिक बुद्धिमान बन जाए!
कम्प्यूटर को बुद्धिमान बनाने की प्रक्रिया अभी तक पूरी तरह कृत्रिम – मानव निर्मित है। तकनीकी शब्दावली में जिसे हम आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस कहते है वह बहुत सी क्रियाओं का सम्यक् रूप है। इसमें डीप लर्निंग (मशीन लर्निंग), नैचुरल लैंग्वेज प्रोसेसिंग, स्पीच टेक्नॉलॉजी, विजन और रोबोटिक्स सहित बहुत सी विधाओं का प्रयोग करके कम्प्यूटर को सीखने लायक बनाया जाता है। वैसे तो कम्प्युटर को सिखाने की बहुत सी विधियाँ वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने विकसित की है लेकिन आजकल जिस पद्धति से सिखाने की प्रक्रिया पूरी की जाती है उसे कुछ इस तरह समझा जा सकता है – एक शक्तिशाली (उच्च स्तर के प्रोसेसर, रेम, स्टोरेज़ क्षमता वाले) कम्प्यूटर के साथ एक बहुत बड़ा, असीमित डाटा रिसोर्स पूल होता है। छोटे-छोटे, सीधे और स्पष्ट सवालों द्वारा कम्प्यूटर को प्रशिक्षित किया जाता है, जिनके जवाब वह डाटा रिसोर्स पूल से प्राप्त करता है। जैसे बालक अपनी गलतियों से धीरे-धीरे सीखता जाता है, वैसे ही कम्प्युटर भी अपने द्वारा की गयी गलतियों से सीखते है और इस तरह अपनी ‘याद्दाश्त’ बनाता चलता है। (यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि कम्प्युटर के डेटा रिसोर्स पूल की सीमाएँ फिलवक्त हम तय कर रहे हैं, यानि जितना हम चाहते है, उतना डेटा ही कम्प्युटर को मिलता है अपने सवालों के जवाब पाने, या हमारी भाषा में कहें तो जिज्ञासा मिटाने हेतु!) हमारे स्वभाव अनुसार उसका क्रमिक विकास फिलहाल हमारे नियन्त्रण में है। लेकिन यह भ्रम कि हम उसके मालिक है और हमारा उस पर नियन्त्रण अब शायद ज़्यादा दिन नहीं चल पाये! बहुत संभव है कि जल्दी ही कम्प्यूटर न्यूरल नेटवर्क, ड़ीप लर्निंग और ऐसी ही अन्य अद्यतन और शक्तिशाली तकनीकों/ तरीकों द्वारा पूर्णरूपेण स्वयं तय करेगा कि उसे क्या और कितना सीखना है! इस तरह जैसे हम किसी विद्यार्थी के प्राथमिक और मूलभूत प्रशिक्षण के पश्चात जैसे उसे आत्म-निर्भर बना कर सीखने के असीमित अवसर प्रदान करते हैं वैसे ही यह प्रक्रिया कम्प्युटर के साथ भी अपनायी जाती है। बहरहाल, रोबो-मशीनों के निर्माण और जैव-तकनीकी द्वारा क्लोनिंग और खुद के अंगों के निर्माण की प्रक्रिया के साथ ही विभिन्न तरीकों/ दवाइयों/ रसायनों से आजीवन युवा और ज़िंदा रहने के प्रयत्नों को अगर इस दृष्टि से देखा जाए कि हम वस्तुत: अपनी दुनिया के सर्वेसर्वा बने रहना चाहते हैं, या कि भगवान हो जाना चाहते है तो अतिशयोक्ति नहीं होगा।
लेकिन अभी यह कहना मुमकिन नहीं हो पा रहा कि हमसे ज़्यादा बुद्धिमान होने के बावजूद क्या कम्प्यूटर हमसे स्वतंत्र होकर रहेंगे या उन्हे हमारी ज़रूरत पड़ती रहेगी? एक मनुष्य होने के नाते इन पंक्तियों के लेखक को इस कल्पना मात्र से एक अज्ञात भय घेर रहा है। लेकिन अभी यह मान भी लें कि भले ही कम्प्यूटर हमसे ज़्यादा सोचने की शक्ति लिये होंगे और तक़रीबन सभी कार्यों में कम्प्यूटर पारंगत होकर हमें कार्यच्युत कर देंगे, फिर भी बहुत से ऐसे क्षेत्र है जहाँ हम अभी बेवजह/ व्यर्थ (यूजलेस क्लास) नहीं हो पाएँगे। बहुत सम्भावना है कि विज्ञान, प्रबंधन, वैज्ञानिक शोध, स्वास्थ्य सेवाएँ, मनोविज्ञान, उपचार, शिक्षण-प्रशिक्षण, गल्प-कथा (Fiction) लेखन, अपराध-कानून संबन्धित क्षेत्र, आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस से संबन्धित शोध कार्यों और धर्म, दर्शन और मानवीय सम्बन्धों से जुड़े क्षेत्रों में हमारा हस्तक्षेप बना रहेगा। मानवीय शारिरिक श्रम को रोबो-मशीनों से प्रतिस्थापित करने के बावजूद मनुष्य की उपयोगिता – कम से कम अभी के तकनीकी-कौशल की क्षमता को देखते हुए उपरोक्त क्षेत्रों में बनी रहेगी क्योंकि संवेदना और भाव की पूर्णरूपेण कंप्यूटरिय प्रतिकृति या उत्पत्ति अभी तक संभव नहीं हो पायी है। दरअसल, जब तक कंप्यूटर स्वयं की कोग्निटिव सोच या लेटरल थिंकिंग की अवस्था में नहीं पहुँचेगा, अपने अतीत के निर्णयों से सीखना व भविष्य की ज़रूरी जानकारी के अभाव में निर्णय ना करना और भाव तथा संवेदना को अपने निर्णयों में समाहित करने जैसे गुणों को अंगीकार नहीं कर लेगा, तब तक तो हम खुद को सुरक्षित मान ही सकते है — भले ही वह समय बहुत निकट ही क्यो ना हो! और शायद तब तक कला, साहित्य-लेखन, नृत्य-संगीत और अन्य रचनात्मक कार्यों में हमारा दबदबा बना रहे।
आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस दरअसल एक स्थूल शब्द है। पहली बार जब कम्प्यूटरों में बुद्धि होने या निर्णय लेने की परिकल्पना की गयी तो एक मानव-निर्मित मशीन में मानव के ही प्रयासों की वजह से इसे आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धि) से संबोधित किया गया होगा। किन्तु बुद्धि/ समझदारी में सिर्फ निर्णय लेने/ निर्णय करने की क्षमता ही निहित नहीं होती वरन् भाव और संवेदना भी समाहित होते है जो मशीनी प्रक्रमों अभी में संभव नहीं है। फिर एक ऐसा समय भी आयेगा कि जब कम्प्यूटर खुद अपने आप को प्रोग्राम करेगा, अपनी समझदारी/ बुद्धिमत्ता में खुद इज़ाफ़ा करने में सक्षम हो जाएगा – तब क्या उन्हें ‘कृत्रिम’ कहना सही होगा? मेरे विचार से, जैसा कि आजकल आईबीएम (IBM) रीसर्च वाले कहते हैं, इसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (कृत्रिम बुद्धि) की बजाय ऑगमेंटेड इंटेलिजेंस (संवर्धित बुद्धि) कहना ज़्यादा उचित होगा। तब यह दरअसल मानव को प्रतिस्थापित करने का नहीं, वरन उसे समर्थ बनाने का प्रक्रम होता है। हालाँकि इसके चरम अवस्था – संवेदना और आत्मचेतना की अवस्था तक पहुँचने पर भी यह ख़तरा तो बना ही रहेगा कि इसके कृत्रिम/ (अ)जीव रूप से जनित होने के कारण मशीनों की संवेदना, भाव और आत्मचेतना को क्या हम स्वीकार कर पाएँगे? इससे भी बड़ा सवाल यह होगा कि क्या हमारी स्वीकार्यता तब ज़रूरी भी होगी? लेकिन तब भी, इस तकनीकी आशीर्वाद को मानवता की भलाई में लगाना हमारा प्रमुख ध्येय है जिसके लिए हमने विज्ञान की इस अनजान गली की तरफ रुख़ किया था। उदाहरण के लिए, अन्तरिक्ष अभियानों में ‘रोबोनॉट’ के प्रयोग की संभावनाएँ तलाशी जा रही है ताकि उन अभियानों के आसन्न खतरों से हमें बचाया जा सके। साथ ही, ‘रोबोनॉट’ को अन्तरिक्ष विज्ञान के गूढ़ रहस्यों की ख़ोज में प्रयोग किया जा सके जहाँ अभी अपनी सीमित क्षमताओं की वजह से मानव पहुँच नहीं सकता है। ‘रोबोनॉट’ तब मानवता को ख़तरों से बचाते हुए वैज्ञानिक तरक्की में सहयोगी होंगे।
स्मृति हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी है जो यह तय करती है कि हम कैसा भविष्य चाहते हैं। फिर उसी अनुसार हमारे याद रखने-भूल जाने के उपक्रम सामने आते हैं। स्मृतियों का बोझ हम पर बहुत भारी पड़ता है। वे हमें अन्दर से छील देती हैं। इसीलिए कई बार हम बहुत सी बातों को जानबूझकर स्मृतियों के द्वार तक आने से पहले ही लौटा देते हैं। वैसे भी, भूलना एक प्रकृति-प्रदत्त नेमत है। बहुधा हमारी भूलने की वजहें भले ही हमारे पूर्वग्रहों पर निर्भर करे लेकिन अगर सब कुछ याद रखने लगे तो जीना मुश्किल नहीं हो जाएगा? आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस/ ऑगमेंटेड इंटेलिजेंस धारित तंत्र में क्या यह क्षमता होगी कि वह तय कर सके कि क्या भूलना है और क्या याद रखना है, जबकि उसकी रचना ही हर एक उपलब्ध सूचना को अपनी स्मृति में रखते हुए पलक झपकते ही उसे सामने लाने के लिए की गयी है? दरअसल दाँव पर तो हमारा चरित्र भी है! जे डबल्यू हॉल्ट से शब्द उधार ले कर कहें तो “हमारे चरित्र की असली परीक्षा यह नहीं है कि हम यह जानते है कि हमे क्या करना है, बल्कि जब हमें पता नहीं होता कि क्या करना है तब हम कैसा व्यवहार करते हैं।” देखते हैं, अपने ही ग्रह पर, अपने ही द्वारा रचे संसार में, अपने द्वारा बनाई गयी एक मशीन द्वारा हाशिए पर ड़ाल दिये जाने के आसन्न खतरे से हम कैसे जूझते हैं।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस को मनुष्य का अन्तिम अविष्कार माना जा रहा है। इसके बाद आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस धारित कम्प्यूटर स्वयं अपने लायक ज़रूरी तकनीकी अविष्कारों को करने में सक्षम होगा। यह हमारे हाथ आया वह साधन है जो हमें खुद के अनजाने आयामों से परिचित करवा, आत्म की पहचान के कई दुर्गम रास्ते खोलने में सहायक होगा। हम जितना खुद को जानते हैं उससे ज़्यादा वह हमें खुद से परिचित करवाने में सफल होगा। कला, संस्कृति, विज्ञान, तकनीकी और मानवता के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस कितना महत्वपूर्ण या कितना घातक साबित हो सकता है, हमें दरअसल इन दोनों पक्षों को मद्देनज़र रखते हुए इस पर ध्यान देना होगा। तभी हम उस तह तक पहुँच पाएँगे जहाँ हम संवेदना और समझदारी के बीच झूल रहे लेखक, रचनाकर्मियों और अन्तत: मानव-मात्र की चिन्ताओं और शंकाओं का उत्तर ढूँढने में सफल होंगे। कवि अज्ञेय ने कभी कहा था कि ‘समय सिर्फ स्मृतियों में ठहरता है।’ हमारी स्मृतियाँ मृत्यु के ठीक पहले अचानक बिजली की गति से हमारे मन में कौंधने लगती है। ये स्मृतियाँ ही हमारे जीवन का हासिल है। अगर इस पर भी किसी और का बस हो जाये तो फिर काहे का जीवन! क्या यह संकट दरअसल हमारे अस्तित्व का संकट नहीं है? जब स्वतंत्रचेता जीवन ही नहीं बचेगा तब कला और संस्कृति का सवाल भी बेमानी ही होगा। समय रहते हमें अपने सवालों के जवाब ढूँढ लेने चाहिए। दरअसल, इस समय की समझदारी तो यही है।
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(यह आलेख राजस्थान साहित्य अकादमी की मासिक पत्रिका मधुमती (संपादक डॉ. ब्रज रतन जोशी) के जून 2020 अंक में प्रकाशित हुआ था)