अभिषेक अनिक्का की कविताएँ

    आज पढ़िए अभिषेक अनिक्का की कविताएँ। वे कवि, लेखक एवं शोधकर्ता हैं। अंग्रेज़ी एवं हिन्दी में लिखते हैं। आजकल अखबारों और पत्रिकाओं में विकलांगता एवं बीमारी के बारे में लिखते हैं। जीवन के अनुभवों को कविता एवं लेख में बदलते हैं। दरभंगा, बिहार से हैं। पढ़ाई किरोड़ी मल कॉलेज, टाटा समाजिक विज्ञान संस्थान (मुंबई) एवं अम्बेडकर यूनिवर्सिटी (दिल्ली) से की है। हिंदी कविताओं को इंडियन कल्चरल फोरम, अपनी माटी, समालोचन एवं अन्य पत्रिकाओं में जगह मिली है। 2019 में पहली रचना संग्रह अंतरंग प्रकाशित हुई थी-
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    एक युवा कवि का चित्रण ज़हरीले साँप के रूप में
     
    शेष नाग का शेष दन्त
    फँसा मेरे जिह्वा के बीच
    ज़हर है, द्वेष का, डसने लगता है
     
    एक कवि को कैसा दिखना चाहिए, अस्सी की उम्र में नहीं, जवानी में, या चालीस की उम्र में, या जब उसकी तस्वीर ‘प्रतिनिधि कविताएं’ के कवर पेज पर छपती हैं?
     
    हिन्दी के महीने याद कर रहा हूँ, ऋतुओं के नाम याद हैं, फिर दोनों को जोड़ दूँगा भावों के पुल से, जिसे कोई नदी नहीं काट पाएगी, बाढ़ में
     
    शब्द भले बह जाएँ एक आध, ज्वलंत आग में, धधकते, सीने के अंदर, मैं और मेरा सच, फेरे लेते हैं, गोल गोल, सातवाँ वचन कहिए, पंडित जी
     
    एक सुंदर युवक को लिखने का अधिकार है प्रेम, यौवन, काजल, चाँद, उदासी, मौसम के बारे में, उसके जबड़े के आकार का सच ही मानक है सांसरिक आशावाद का
     
    संपादक महोदय, अपना सच लिख रहा हूँ, कुरूप सागर में डूबा है, प्रशंसा और दया टापू के बीच, खोज रहा व्याकुल मन, एक नाव, जो आरक्षित हो, हमारे लिए
     
    मेरा विष भी है अमान्य
    कुरूप के मुँह में विष
    जैसे बच्चे की लार, चुप
     
    एक युवा कवि का चित्रण एक गूँज कक्ष के रूप में
     
    ऐसी क्रूरता तो लोगों ने देखी नहीं थी, इस हफ़्ते, हाँ पिछले हफ़्ते ऐसा ही कुछ हुआ था, बार्बर,
    जिसने चूर कर दी थी हमारे मन की शांति
     
    सुना नहीं था भाषण, इतना कर्कश, निर्मम, बस कौवों की भीड़ देखी थी मंच पर पिछले चुनाव में, अरस्तु को पढ़ने के बाद, मैकियावेली से पहले
     
    बुनियादी ढाँचे बदलते नहीं हैं, बुनियाद पूंजीवादी प्रजातंत्र की, देखो बेचारा आम आदमी, देता गालियाँ सड़कों पर, नहीं होती कोई सुनवाई, बुनियादी
     
    एक गरीब का पेट, भूखे शरीर का घाव, उस औरत का शरीर, फेयर एंड लावली, उठती हैं हमारी आवाज़ें आनलाइन गलियारों में, बनते हम हीरो, वो छूट जाते हैं, पीछे
     
    उच्च वर्गीय, सवर्ण, सब भ्रम, मैं पितृसत्ता का अपवाद, लैंगिकता का सिपाही, लोगों को देता सर्टिफिकेट, सत्रह की उम्र से उन्हे कर रहा आज़ाद, अपने आप से
     
    करतल ध्वनि, लाइक्स, बहुमुखी प्रतिभा, इस्माइल, वाह, वाह
    अब कल लिखूंगा
    कल की ताज़ा खबर
    एक और लड़ाई, हम होंगे आज़ाद
     
    एक युवा कवि का चित्रण पुराने आशिक के रूप में
     
    उर्दू के शब्द
    छीटे हैं कविता के दामन पर
    कैसी रंगाई है
    जानता नहीं है ग़ालिब
     
    उसके पहले प्यार को दूसरा बच्चा पिछले हफ़्ते हुआ, कवि वहीं है, सालों पीछे, उसकी कल्पना में बिगड़ा नहीं है उसके ‘चाँद’ का काजल
     
    लिवर खराब है, डॉक्टर ने कहा, छोड़ दीजिये शराब, पर ख़लिश की दावा मिलती नहीं दवाखाने में, बस दुआ ही काम आती है, और शब्द
     
    रात को गज़लों की तानाशाही के बीच उंस निकलता है दिल के कोनों से, गीली हो जाती है आँखें, कुमार सानु के गाने के ख़त्म होने के बाद
     
    कागज़ तो बता रहा है कुछ खास लिखा नहीं गया, पर पन्ने भी कोई भरता है खालीपन में, एक टूटा हुआ शायर, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है
     
    एक अधेड़ उम्र का आदमी है
    जो देखता है अपना दर्पण
    अधूरी प्रेम कहानियों में
    काश, कोई पैटर्न होता इनको भी भरने का
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