आज पढ़िए नेहा नरुका की कविताएँ। समकालीन कविता में नेहा का नाम जाना-पहचाना है। हाल में ही उनका कविता संग्रह आया है ‘फटी हथेलियाँ’। उनकी कविताओं के विषय भी लग हैं और भंगिमा भी। मिसाल के तौर पर इन कविताओं को पढ़िए-
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1 किसी ने मेरा उड़ता कबूतर मारा
किसी ने मेरा उड़ता कबूतर मारा
भाभी पहली बार हमारे घर आईं तो उन्होंने यही गाना गाया
उस दिन का दिन है और आज का दिन है
यह गाना बस गया मेरे भीतर
मैंने कितनी बार इस गाने में जोड़ा
किसी ने मेरे सपनों पर डांका डाला
मेरी बचपन की आदत थी
जब गाने का कोई अंतरा भूल जाती थी
तो उसमें अपना अंतरा डाल लेती थी
यह तो बाद में पता चला खाली शब्द कहाँ डालती थी भाव भी तो डाल देती थी अपने
भाभी जब नई-नई आईं तब कबूतरी थीं
मैं भी जब नई-नई गई तब कबूतरी थी
फिर एक दिन ऐसा हुआ हम दोनों के कबूतर मार दिए गए
जिसने हमारे कबूतर मारे
वह हत्यारा कोई और नहीं था, वह वही था जिसके साथ हमने कबूतर उड़ाने के अरमान पाले थे
उस दिन भाभी ने आखिरी अंतरे में यह भी गाया था
किसी ने मेरी ननदी पर डोरे डाले
उस दिन मुझे जोर की हँसी आई थी
मुझ पर कौन डोरे डालेगा भाभी
पर अब नहीं आती
उन डोरों से घायल जो हुई पड़ी हूँ
सारे धूर्त, सारे कपटी, सारे खल, सारे कामी कबूतरियों के ही छोर से क्यों बांध दिए गए भाभी ?
बोलो न तुमने उस दिन यह गाना ही क्यों गाया ?
कोई दूसरा भी तो गा सकती थीं
इंकार भी तो कर सकती थीं
गाना गाने से
पर तुम कैसे करतीं इंकार
उस दिन तुम्हें भी कहाँ पता था एक दिन सचमुच तुम्हारे ही सामने तुम्हारा कबूतर मारा जाएगा
और तुम कुछ नहीं कर पाओगी
ख़ून से लथपथ कबूतर जब आसमान से आँगन में गिरा
तो मैंने भी उसे देखा ही था मरते…
-2023
2 भर्ती उनके जीवन में शंकराचार्य के मोक्ष की तरह थी
वे अर्जुनपुरा, सुनारपुरा, छोंदा, कनैरा से दौड़कर आए
नहर-बम्बा फाँदकर ग्वालियर पहुँचे
वहाँ पहुँचकर सिपाही छांटने वाली लाइन में लग गए
वे चंबल के बीहड़ में बसे गाँवों में रहने वाले लड़के थे
उन्होंने बड़ी मुश्किल से किया था आठवीं-दसवीं पास
उनका ध्यान पढ़ने से अधिक रहा ऊंची कूद-लंबी कूद और
सौ मीटर की दौड़ में
भैंस का एक किलो दूध उन्हें सूद देकर पिलाया गया
मैश की अधजली रोटियों के किस्से उन्हें जुनून की तरह सुनाए गए
उनके गाँव से विकास की कोई पक्की सड़क नहीं गुजरी
अलबत्ता उनके गाँव ज़रूर विकास की जुगत में भिंड, मुरैना, ग्वालियर में समा गए
उनके पुरखे प्रकृति के साथ मिलकर सादा जीवन जिया करते थे
अनाज उगाया करते थे, हल चलाया करते थे, भरपेट रोटियों के लिए तरसा करते थे
फिर ब्रितानिया हुकूमत आई, वे लाल वर्दी वाले सिपाही हो गए
वे बीहड़ में बंदूक लेकर भाग गए, अपने ही बागी भाई को ढूढ़-ढूढ़कर मारने लगे
कहते हैं उन बागियों की आत्मा आज भी चम्बल में भटकती है
बकौल फौज ये सुखी हैं
जूते में दाल खाने वाले
गाँड़ में दिमाग़ रखने वाले
ये गवाँर
ये सुख-दुख क्या जानें
पर भर्ती देखने वाले लड़के जानते थे
जानते थे वे ठगे गए हैं
वे निरंतर ठगे जा रहे हैं
भूत-भविष्य दोनों से…
पर भर्ती उनके जीवन में शंकराचार्य के मोक्ष की तरह थी
वे कुछ भी छोड़ सकते थे पर भर्ती देखना नहीं छोड़ सकते थे
वे भर्ती देख रहे हैं…
वे नंग-धड़ंग गालियां खाते हुए ग्वालियर मेला मैदान में भर्ती देख रहे हैं।
-2023
3 घृणा भी गोल है
हम जो किसी को देते हैं
हमारे पास भी वही लौटता है
प्रेम देते हैं तो प्रेम लौटता है
घृणा देते हैं तो घृणा लौटती है
यह दुनिया गोल है
आओ इस बात का निर्धारण करने लिए एक काल्पनिक गड्ढा खोदें
अगर हम भारत में यह गड्ढा खोदते हैं तो पता है अंदर से क्या निकलेगा ? पाताललोक ?
नहीं! अंदर से निकलेगा अमेरिका !!
जैसे देश खोदने पर देश निकलता है
धर्मस्थल खोदने पर धर्मस्थल
ठीक उसी तरह घृणा खोदने पर घृणा निकलती है
तुम खोदते जाते हो, खोदते जाते हो प्रेम की तलाश में
उससे निकलती जाती है, निकलती जाती है घृणा
फिर एक दिन ऐसा आता है प्रेम का मलबा भी नहीं बचता
मिलता जाता है , मिलता जाता है घृणा का ऊबड़-खाबड़ मैदान, नुकीला पहाड़, विषैली घाटी, बर्फीला पठार, खौलता समुद्र
तुम कहते जाते हो, कहते जाते हो देखो कितना सुंदर, अद्भुद, कल्याणकारी है घृणा का गड्डा
तुम गिरते जाते हो, गिरते जाते हो उस गड्डे में
गड्डा पटता जाता है, पटता जाता है घृणा के कंकालों से
यह दुनिया गोल है
घृणा भी गोल है।
-2023, 24
4 जेबकतरे
एक ने हमारी जेब काटी और हमने दूसरे की काट ली और दूसरे ने तीसरे की और तीसरे ने चौथे की और चौथे ने पाँचवे की
और इस तरह पूरी दुनिया ही जेबकतरी हो गई
अब इस जेबकतरी दुनिया में जेबकतरे अपनी-अपनी जेबें बचाए घूम रहे हैं
सब सावधान है पर कौन किससे सावधान है पता नहीं चल रहा
सब अच्छे हैं पर कौन किससे अच्छा है पता नहीं चल रहा
सब जेब काट चुके हैं
पर कौन किसकी जेब काट चुका है पता नहीं चल रहा
जेबकतरे कैंची छिपाए घूम रहे हैं
संख्या में दो हजार इक्कीस कैंचियाँ हैं
इनमें से पाँच सौ एक तो अंदर से ही निकली हैं
अंदर वाली कैंचियाँ भी बाहर वाली कैंचियों की तरह ही दिख रही हैं
कैंचियाँ जेब काट रही हैं
सोचो जब कैंचियाँ इतनी हैं तो जेबें कितनी होंगी ?
-2024
5 उनके काँटे मेरे गले में फंसे हुए हैं
वे सब मेरे लिए स्वादिष्ट मगर काँटेदार मछलियों की तरह हैं
मैंने जब-जब खाना चाहा उन्हें तब-तब काँटें मेरे गले में फंस गए
उकताकर मैंने मछलियां खाना छोड़ दिया
जिस भोजन को जीमने का शऊर न हो उसे छोड़ देना ही अच्छा है
अब मछलियां पानी में तैरती हैं
मैं उन्हें दूर से देखती हूँ
दूर खड़े होकर तैरती हुई रंग-बिरंगी मछलियां देखना
मछलियां खाने से ज़्यादा उत्तेजक अनुभव है
जीभ का पानी चाहे कितना भी ज़्यादा हो
उसमें डूबकर अधमरे होने की मूर्खता बार-बार दोहराई नहीँ जा सकती।
-2024
6 कस्बे की प्रेमिकाएं और उनकी मूर्ख चाहतें
कस्बे की प्रेमिकाएं मोटरसाइकिल पर प्रेमी से चिपक कर बैठना चाहती हैं
कस्बे की प्रेमिकाएं प्रेमी के साथ सिनेमा देखना चाहती हैं
कस्बे की प्रेमिकाएं प्रेमी के गले लगकर देर तक रोना चाहती हैं
कस्बे की प्रेमिकाएं प्रेमी के साथ देर तक सोना चाहती हैं
कस्बे की प्रेमिकाएं प्रेमी के साथ बचपन से लेकर बुढ़ापे तक की बातें कर लेना चाहती हैं
कस्बे की प्रेमिकाएं प्रेमी के साथ रसोई में सालभर का खाना पका लेना चाहती हैं
कस्बे की प्रेमिकाएं प्रेमी के साथ छत पर मोहल्ले भर के गंदे कपड़े धो लेना चाहती हैं
कस्बे की प्रेमिकाएं प्रेमी के साथ गुसलख़ाने में रगड़-रगड़कर नहा लेना चाहती हैं
कस्बे की प्रेमिकाएं प्रेमी के साथ पहाड़ पर चढ़ना चाहती हैं
कस्बे की प्रेमिकाएं प्रेमी के साथ मैदान में दौड़ना चाहती हैं
कस्बे की प्रेमिकाएं प्रेमी के साथ फैक्ट्री में पसीना बहाना चाहती हैं
कस्बे की प्रेमिकाएं प्रेमी के साथ खेत में दाना उगाना चाहती हैं
कस्बे की प्रेमिकाएं प्रेमी के साथ कस्बे के बाहर की यात्रा पर निकल जाना चाहती हैं
पर उनके प्रेमियों को उनकी चाहना में कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं है
उनकी दिलचस्पी कहीं और है
पर प्रेमिकाओं का मन रखने के लिए उन्होंने कह दिया है उनकी चाहना भी वही है जो प्रेमिकाओं की चाहना है
प्रेमी अकेले में हँसते हैं
किसी-किसी हफ़्ते प्रेमी झुंड बनाकर हँसते हैं प्रेमिकाओं पर
कि आखिर वे कितनी निर्भर हैं उनपर
अपनी मूर्ख चाहतों के लिए भी…
-2022, 23, 24