‘खिलाड़ी दोस्त’ के कवि हरे प्रकाश उपाध्याय आजकल कविताओं की नई शैली में लौटे हैं। पढ़िए उनकी कुछ नई कविताएँ- मॉडरेटर
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1 नाम मतवाला
दो गाय एक भैंस चार बकरी नाम मतवाला
जादो जी के खाली प्लाट में रहता है एक ग्वाला
लंबे कद का दुबला-पतला चौड़ी मूँछों वाला
मुहल्ले में सब कहते उसे भैया लंबू दूधवाला!
मुर्गों से बहुत पहले से वह जगता है
सारे कुत्तों के सो जाने पर ही सोता है
कभी चारा-पानी कभी दूध दुहता होता है
दस बजते-बजते अपनी भैंस वो धोता है
कर्जा लेकर ख़रीदा था परसाल एक गाय
पता नहीं क्या रोग लगा क्या लिया चबाय
मुँह बाकर मर गई गया घर में शोक छाय
कैसे उबरे, जिए किया उसने खूब उपाय
पूरे परिवार संग मतवाला बस लगा ही रहता
कभी चोकर कभी गोबर हरदम जुटा ही रहता
हाथ कभी सानी में कभी पानी में उसका रहता
कभी दूध कभी कंडा लेकर मुहल्ले में हाजिर रहता
दूध बेचकर परिवार उसका जीता है
कहते लोग शाम को बढ़िया देसी पीता है
मैंने देखा सुबह खाता वो बेर पपीता है
उसकी बीवी भली हमारी भाभी गीता है
हरदम हँसकर ही वो सबसे बोले
काज परोजन संग साथ वो डोले
ज़रा मोहब्बत में वो आपकी हो ले
सुबह शाम दुकान वो खोले
जो कहते दूध में मिलाता पानी है
वो उनकी समझ की नादानी है
पेशा उसका दूध का खानदानी है
ज़रा से पानी से क्या आ जानी है
पूरा जीवन जैसे उसका दूध गोबर पानी है
बुढ़िया दिखती चालीस की उसकी रानी है
खटते-खटते उसकी ज़िंदगी कट जानी है
कौन महल उसका, रहने को बस टूटी पलानी है
2 ज़िंदगी अपनी थोड़ी कड़क है
नहीं जानते कौन बाप कौन माई है
मुझे क्या पता मेरी ज़िंदगी कहाँ से आई है!
बाबूजी शहर के बाहर
गंदे नाले से आगे
जो बस्ती झुग्गी है
वहीं तो रहती मेरी नानी डुगडुगी है
कहते हैं लोग वही मुझे
भगवान जी से माँग कर लाई है
बाबूजी वो बुढ़िया भी बहुत कसाई है
पर करिएगा क्या
उस पर भी मुझे आती दया
बाबूजी लगता है मुझे वह भी ज़माने की सताई है
उसने भी न जाने किस-किससे मार खाई है
छोड़िए ख़ैर अब उसकी बात
दिन भीख माँगते मेरी फुटपाथ पर कटती है रात
कभी-कभी तो एक ही चद्दर में हम लौंडे होते हैं सात
हँसकर कहा, बाबूजी है न यह अनोखी बात
ज़िंदगी अपनी थोड़ी कड़क है
पर मत समझिए बस यही सड़क है
जीने-पाने को और भी कई पतली गली है
बाबूजी यह दुनिया भी बहुत भली है
क्या जाड़ा क्या गरमी क्या बरसात
हम तो ठहरे बाबूजी माँगने वाली जात
हमें नहीं कोई शिकवा किसी से
जितना मिले पेट भरते उसी से
बाबूजी कहाँ देता है कोई काम
गिरे सब जिनके बड़े हैं नाम
ख़ुशबू से महकते हैं जिनके चाम
मुँह सूँघना उनका आप किसी शाम
बाबूजी अच्छा लगा
आपने कर ली इज्जत से थोड़ी बात
वरना तो अपन खाते ही रहते हैं लात
क़िस्सा बहुत है
कभी फुर्सत से करते हैं मुलाक़ात!
3 रामचनर उरांव
बहुत दिनों बाद गए जब अपने गाँव
धूप से हारकर बैठे पीपल की छाँव
वहीं मिल गए मुझे बकरी चराते रामचनर उरांव!
दुआ सलाम के बाद शुरू हो गई अपनी बात
बोले अच्छा किये भैया आ गए हो गई मुलाक़ात
अब तो हुए हम पके आम
जाएंगे टपक जल्दी ही किसी दिन या रात
रामचनर भी गजब इन्सान हैं
लगे कहने भैया हमको नहीं पता हम कौन कुल खनदान हैं
ये सब ऊ लोग जानत हैं जो खावत माँग के दान हैं
ई सब मामला में हम तो भैया बहुत नादान हैं
बोले भैया
अपने गाँव में दूबे जी का लड़का है प्रधान
मनरेगा में काम के बदले मांगत है दछिना-दान
बुलेट पर उड़त फिरत है
मुर्गा-दारू में डूबल रहत है
धारे खादी के कुरता गजबे उसका शान
हम नहीं चढ़ा पाए चढ़ावा ससुर प्रधान के
खा गया पैसा हमरा पैखाना और मकान के
भैया हम कहाँ से उसको कुछ देते
बोलो कर्जा किससे हम ले लेते
हमरे ऊपर चार महीने की उधारी दुकान परचून के
हम तो खावत है रोटी अपना पसीना औ खून के
वृद्धा पेंशन भी हमारा नहीं आता है
कैसे जिएं हम हमें नहीं बुझाता है
काहे भैया हर आदमी कमजोरे को सताता है
रोने लगे रामचनर उरांव
यह देख शर्माने लगी पीपल की छांव
अच्छा छोड़ो काका
कहो तुम काकी का हाल
बोले भैया बुढ़िया अलग बवाल
साल भर से पायल-पायल रटत है
समझाए बहुत मगर अब पास में नहीं सटत है
उसको लगता है
बूढ़ा बहुत कमाता है
सब बहराइच वाली पतरकी को दे आता है!
4 ससुराल
भैया एक दिन चले गए अपन भी ससुराल
अगले दिन था रक्षा बंधन
मेहरी काट रही थी घर में खूब बवाल
उसको ही पहुँचाने गए ससुराल
आ रही शरम बताते देखा वहाँ जो हाल!
सलहज अलग चूल्हा जला रही थी
नये गैस पर अपने मियाँ का मुर्गा पका रही थी
किचन की खिड़की पे चढ़के वो रील बना रही थी
सास मेरी बुढ़िया कमरे के कोने में
भगवान जी के आगे अगरबती जला रही थी
मंतर नहीं आता है उसको
अपनी पतोहू को गाली सुना रही थी
दिया जलाकर मूर्ति के आगे माथा नवा रही थी
ससुर मेरे बुढ़ऊ गाँव के हैं पंच
निपटाना है उनको दक्खिन टोले में मचा खुरखंच
विधायक जी का भी दौरा बनवाना है मंच
दो घंटे से बैठे हैं ताक रहे मिल जाए लंच
साला मेरा गजब मतवाला
सुबहे से पीता है हाला
जबसे हुआ तीस वाला
बुढ़ऊ से छीनकर चाभी अब लगता उसका है ताला
गाँव में है घरनी उसकी सुने शहर में है कोई मधुबाला
कहने लगी साली
जीजा भाभी बहुते बवाली
घर में रोज होता डरामा पड़ोसी देते हैं ताली
इतने में आने लगी बगल के घर से
गंदी-गंदी गाली
बात बदलने को मैंने उससे पूछा
छोड़ो बताओ कैसी है बगल वाली लाली
हँसकर लगी बताने जीजा
अब नहीं तेरी दाल गलने वाली
भाग गई गाँव के ही मजनू संग
वो तेरी मतवाली!
5 एक चिड़िया आई
न जाने किस जगा से चिड़िया आई
न जाने कहाँ से
न जाने किधर से वो तिनके लाई
एक दिन लाई दो दिन लाई
रोज़-रोज़ वो तिनके लाई
यहाँ से कभी वहाँ से वो बीन के लाई!
एक दिन वो
अपना जोड़ा भी ले आई
एक चिड़िया आई
दोनों ने संग अपनी घर-गृहस्थी
अमराई में ली बसाई
कभी तिनके लाई
कभी दाने लाई
कहीं से चुग के लाई
कहीं से उड़ के लाई
एक दिन उनके घोंसले में
एक दिन उनके सपने में
एक दिन उनके रहने में
एक दिन उनके रमने में
एक अंगड़ाई आई
एक अंगड़ाई आई
बीते कुछ दिन
गजब के पल छिन
फिर दी नई चहचहाट सुनाई
बागों में बहार दौड़ी आई
कभी वो मिलकर रहते
लगता कभी वो लड़ते
कभी वो रोते
कभी वो हँसते
एक दिन आँधी आई
एक दिन बारिश आई
जग की रीति बूझो रे
अब कहें क्या आपसे भाई
बसने में
रहने में
जीने में
है आफ़त बहुत समाई
मन को लो समुझाई
चिड़िया वो उड़ि जाई
एक दिन आंधी आई!
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परिचय
नाम- हरे प्रकाश उपाध्याय
कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब जीविकोपार्जन के लिए प्रकाशन का कुछ काम
बिहार के एक गाँव में जन्म। अभी लखनऊ में वास।
तीन किताबें- दो कविता संग्रह – 1. खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं
नया रास्ता
एक उपन्यास- बखेड़ापुर
अनियतकालीन पत्रिका ‘मंतव्य’ का संपादन
पता –
महाराजापुरम
केसरीखेड़ा रेलवे क्रॉसिंग के पास
पो- मानक नगर
लखनऊ -226011
मोबाइल – 8756219902