मुक्तिबोध के निधन और उनके अंतिम संस्कार पर यह दुर्लभ रपट लिखी है मनोहर श्याम जोशी ने, जो शायद ‘दिनमान’ में प्रकाशित हुई थी। हमें वरिष्ठ कवि राजेंद्र उपाध्याय के सौजन्य से प्राप्त हुई है। मुक्तिबोध की पुण्य तिथि पर आप भी पढ़ सकते हैं-
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औंधी लटकी हुई बोतलें, उभरी हुई नसों में गुदी हुई सुइयाँ, गले में किए हुए छेद में अटकी हुई ऑक्सीजन की नलियाँ, इंजेक्शन और इंजेक्शन। भारत के अन्यतम डॉक्टर कोई ढाई महीने से रोगी की रक्तचाप थामे हुए थे। उस संज्ञशून्य देह और मौत के बुलावे के बीच, किसी तरह, किसी भी तरह एक आड़ बनाये हुए थे। ग्यारह सितंबर को शाम को छह बजे से उस आड़ में दरारें पड़ने लगीं, रक्तचाप गिरता गया, उल्टी साँस चलने लगी। रात नौ बजकर दस मिनट पर साँस का लड़खड़ाता साज ख़ामोश हो गया। गजानन माधव मुक्तिबोध का कठिन जीवन-संघर्ष समाप्त हो गया। नौ बजे कृष्णा सोबती ने कुछ फूल भिजवाए थे, उन्हें क्या मालूम था उनसे ही पहली पुष्पांजलि दी जायेगी’ उस व्यक्ति को जिसे मिला तो सब कुछ, मगर देर से। प्रकाशन-मूल्यांकन, स्नेह-सम्मान, सहायता-सहयोग – सब कुछ देर से।
फूल लेकिन विजयहार के नहीं, पुष्पांजलि के। यह कटुबोध भग्नाशा का, यह भाव मृतक की शय्या के चारो ओर खड़े हुए संबंधियों, मित्रों और बंधु-लेखकों के चेहरों पर चित्रित था। लेकिन अफ़सोस मनाते रहने के लिए अवकाश कहाँ था? तमाम इंतज़ाम करने को थे, अनेक औपचारिकताएं निपटाने को थीं। सब काम बंधु-लेखकों के ज़िम्मे था, क्योंकि पत्नी उड़ बड़े लड़के के अलावा मुक्तिबोध का अन्य कोई संबंधी उपस्थित नहीं था। घरवाले सभी नागपुर में थे, जहां एक ही दिन पहले यानी दस तारीख़ को मुक्तिबोध के पिता का देहांत हुआ था।
दूसरे दिन सवेरे मुक्तिबोध की मृत्यु का समाचार लोगों ने रेडियो से सुना, अख़बार में पढ़ा। समाचार अप्रत्याशित नहीं था, लेकिन प्रत्याशा ने उससे उपजी पीड़ा को किसी कदर कम नहीं किया, शायद बढ़ा ही दिया। तो वे तमाम कोशिशें आख़िर बेकार हुईं! बच्चन जी, जिन्होंने दिल्ली में मुक्तिबोध के उपचार की व्यवस्था कराने में बहुत योग दिया था, सुबह पहले ऑल इंडिया इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल साइंसेज के अस्पताल में पहुँचे।
अगले दिन दो बजे सन्निधि (राजघाट) से शवयात्रा निकलनी थी। बारह बजे से ही वहाँ लोगों का आना शुरू हो गया। लोग विभिन्न पीढ़ियों के, विभिन्न पार्टियों के, विभिन्न दलों विभिन्न मतों के… सब एक जगह, एक साथ। और साहित्यिक तथा राजनीतिज्ञ ही नहीं कलाकार, अध्यापक, पत्रकार, सब एक जगह एक साथ एक ही दुख से बंधे हुए।
ठीक दो बजे काली गाड़ी सन्निधि के अहाते में दाखिल हुई। श्रीकान्त, शमशेर और रमेश मुक्तिबोध अस्पताल से कवि का शव लेकर पहुँचे। नीले कपड़ों में लिपटा हुआ शव बाहर दूब पर गुलमोहर के पेड़ के नीचे रख दिया गया।
उभरी हुई गाल कि हड्डियाँ, सिकुड़ी हुई खोपड़ी, पोपला मुँह, विगलित अंग; हर किसी ने देखा लेकिन किसी से देखा न गया। शव अर्थी पर रखा गया, फूलों से ढँक दिया गया। गुलाब, चमेली, आर्किड, हजारी। मृत कवि के लिए पुष्पांजलियाँ, प्रधानमंत्री की ओर से, शिक्षा उप-मंत्री की ओर से, महाराष्ट्र सरकार की ओर से, दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा की ओर से, हिन्दी साहित्य सम्मेलना की ओर से, भारतीय ज्ञानपीठ, राजकमल प्रकाशन, पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस और टाइम्स ऑफ़ इंडिया प्रकाशनों की ओर से। मुक्तिबोध की पत्नी शांता बाई को अंजलि देने के लिए लाया गया। उनका बेटा रमेश मुक्तिबोध उन्हें सम्भाले हुए था। श्रीकान्त, माचवे जी, रेखा जैन और दूसरे स्नेहीजन स्वयं शोक-संतप्त होते हुए भी, उन्हें ढाढ़स बंधाने की चेष्टा कर रहे थे। शव देखकर शान्ता बाई फूट-फूट कर रो पड़ीं। शव से दृष्टि हटाकर उन्हें अपना सर अपने बेटे के सीने में छुपा लिया। इस करुण क्षण का तनाव लोगों से बर्दाश्त नहीं किया जा सका, कई फूट पड़े, कइयों की आँखें छलछला गईं। तभी तरुण रमेश मुक्तिबोध ने गंभीरता से अपनी माँ को समझाया-बुझाया, माँ से अंजलि दिलवायी और फिर अर्थी उठाने के व्यवहार में पिछले क्षण की वह तीव्र वेदना दब गई।
शव यात्रा सन्निधि से चली। कोई सौ-पचास लोग अर्थी के साथ थे।इतनी बड़ी राजधानी में सिर्फ़ साठ-सत्तर लोग। यह किसी राजनेता या व्यापारी की नहीं, एक कवि की शवयात्रा थी। सिर्फ़ साठ-सत्तर लोग, बुद्धिजीवी लोग, लेखक, अध्यापक, चित्रकार, पत्रकार। मुट्ठीभर लोग। ख़ामोश लोग। मौन में डूबी हुई शवयात्रा आगे बढ़ती गई। किसी ने नहीं कहा कि राम नाम सत्य है। हरेक ने शायद यही समझा कि सत्य यह अलगाव ही है, बिरादरी से बाहर होने की, अलग और अकेले होने की यह भावना ही एकमात्र सत्य है, आज के बुद्धिजीवी के लिए, आज के भारत में। तेज धूप, तपती हुई सड़क, कवि की अर्थी को कंधा देने के लिए आतुर साहित्यिक बंधु-बांधव। नये-पुराने साहित्यिक सब अलग, सब अकेले, सब यह जान समझे हुए कि आज अगर उनकी कहीं भी कैसी भी प्रतिष्ठा है तो वह शुद्ध साहित्यिक होने के नाते नहीं। शुद्ध साहित्य-सेवा को तो आज वे कंधा दे रहे हैं। राजघाट, शांतिवन… यमुना के किनारे-किनारे, सुने मथुरा मार्ग पर वह ख़ामोश जुलूस धीरे-धीरे आगे बढ़ता गया। कितनी ही पीढ़ियाँ, कितने ही आंदोलन, कितने ही आदर्श, आज थके-हारे कवि की अर्थी के पीछे सिर झुकाये चले जा रहे थे।
लाल किले के पार सहसा एक टैक्सी अर्थी के पास जाकर रुकी और उसमें से उतरे स. ही. वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ और उनकी पत्नी कपिला। वात्स्यायनजी को इधर डॉक्टर ने पूर्ण विश्राम का आदेश दे रखा है। उनके इस तरह धूप में बाहर चले आने पर सबको आश्चर्य हुआ और आशंका भी। लौट जाने का अनुरोध किया गया, लेकिन वात्स्यायनजी नहीं माने। अज्ञेय, नेमीचन्द्र जैन, भारतभूषण और माचवे तार सप्तक के चार स्वर और वह एक पांचवाँ स्वर मुक्तिबोध का जो अब सदा के लिए मौन हो गया है। कितने आंदोलन, कितने आदर्श, नये और नायाब के कितने शोर! आख़िर किसलिए? इसी छिन्न-भिन्न पराजित सेना के लिए, जो आज अपने एक योद्धा का शव उठाये चुपचाप अकेली चली जा रही है?
यमुना का पुल, यमुना की धारा, लाल क़िले की फसोल, गर्द उड़ाती ट्रकें, अर्थी से गिरा हुआ, कोलतार पर खिला हुआ एक गुलाब। शव के पीछे चलते हुए हित्रकार मक़बूल फ़िदा हुसैन के नंग-पाँव, अर्थी उठाने वालों की भवों से टपकता हुआ पसीना, संस्कार वश अर्थी के पास अकार साइकिल से उतरते हुए ग्रामीण जन, लाल झंडा लेकर सड़क कूटते हुए मज़दूर, कोर डिप्लोमेटिक की कारों में सवार विदेशी रफ़्तार, गंदी बस्तियों की अचल जड़ ज़िन्दगी, कितने ही बिंब, कितने ही प्रतिबिंब जिन्हें सृजन के ‘तीसरे क्षण’ में किसी सशक्त और साधक कवि की कल्पना ही एक लड़ी में गूँथ सकती थी, मुक्तिबोध जैसे किसी कवि की कल्पना।
निगमबोध घाट, टीन के छप्पर तले चिता के लिए लकड़ियों का अंबार। बहुत से साहित्यिक और पत्रकार जो सन्निधि न जाकर सीधे यहीं आये थे। कुल मिलाकर यही कोई डेढ़-दो सौ लोग। मराठी भट्ट जी ने संस्कार विधि शुरू करायी। ऊँचा सुनने और ऊँचा ही बोलने वाले ब्राह्मण: एक ही रो में तेज़ी से श्लोक पूरा करना और फिर ‘आचमनम आचमनम’ आदि कहकर मराठी में रमेश मुक्तिबोध को निर्देश देना। माचवे जी बोले कि कहानी कविता सब कुछ नयी हो गयी, यह अंतिम संस्कार कब नया होगा!