अस्सी के दशक में अपनी कहानियों से बड़ी लकीर खींचनेवाले शिवमूर्ति इस साल 60 साल के हो गए। मूलतया ग्रामीण आबोहवा के इस कथाकार की कसाईबाड़ा और तिरिया चरित्तर कहानियों ने गांव के ढहते हुए सामाजिक और राजनीतिक ढांचे की बदलती तस्वीर दिखाई थी। बाद के दौर में तर्पण और त्रिशूल जैसे उनके उपन्यासों को बदलते समाज के बेचैन लेकिन विश्वसनीय बयानों की तरह देखा गया। उनकी कहानी तिरिया चरित्तर पर बासु चटर्जी जैसे निर्देशक ने फिल्म बनाई थी। कसाईबाड़ा का नाट्य रूपांतर हुआ और उसके सैकड़ों शो हुए। क्या यह हिन्दी समाज में बढ़ती असहिष्णुता का प्रमाण है या युवा लेखन के बढ़ते हो-हल्ले का कि हमने अपने बड़े लेखकों को षष्ठिपूर्ति पर भी याद करना छोड़ दिया है।
बहरहाल, इन दिनों शिवमूर्ति नए पूंजीवादी दौर में किसानी की दुर्दशा को लेकर उपन्यास लिखने में जुटे हुए हैं। बांदा से मयंक खरे ने एक दिन फोन पर बताया कि वे वहां के गांवों में घूम-घूमकर किसानों की हालत का जायजा ले रहे हैं। हम उनके दीर्घजीवी होने की कामना करते हैं। इस अवसर पर उनकी एक मार्मिक कहानी सिरी उपमा जोग प्रस्तुत है। पढ़िए और सोचिए कि क्या इस विडंबनात्मक स्थिति में कोई बदलाव आया है।
किर्र किर्र किर्र घंटी बजती है।
एक आदमी पर्दा उठाकर कमरे से बाहर निकलता है। अर्दली बाहर प्रतीक्षारत लोगों में से एक आदमी को इशारा करता है। वह आदमी जल्दी-जल्दी अंदर जाता है।
सबेरे आठ बजे से यही क्रम जारी है। अभी दस बजे ए.डी.एम. साहब को दौरे पर भी जाना है, लेकिन भीड़ है कि कम होने का नाम ही नहीं ले रही। किसी को खेत की समस्या है तो किसी को सीमेंट की। किसी को चीनी की तो किसी को लाइसेंस की। समस्याएं ही समस्याएं।
पौने दस बजे एक लंबी घंटी बजती है। प्रत्युत्तर में अर्दली भागा-भागा भीतर जाता है। कितने मुलाकाती हैं अभी?
हुजूर सात–आठ होंगे।
सबको एक साथ भेज दो।
अगले क्षण कई लोगों का झुंड अंदर घुसता है, लेकिन दस-ग्यारह साल का एक लड़का अभी भी बाहर बरामदे में खड़ा है। अर्दली झुंझलाता है, जा–जा तू भी जा।
मुझे अकेले में मिला दो, लड़का फिर मिनमिनाता है।
इस बार अर्दली भड़क जाता है, आखिर ऐसा क्या है जो तू सबेरे से अकेले–अकेले की रट लगा रहा है। क्या है इस चिट्ठी में, बोल तो, क्या चाहिए– चीनी, सीमेंट, मिट्टी का तेल?
लड़का चुप रह जाता है। चिट्ठी वापस जेब में डाल लेता है।
अर्दली लड़के को ध्यान से देख रहा है। मटमैली-सी सूती कमीज और पायजामा, गले में लाल रंग का गमछा, छोटे-कड़े-खड़े-रूखे बाल, नंगे पांव। धूल-धूसरित चेहरा, मुरझाया हुआ। अपरिचित माहौल में किंचित संभ्रमित, अविश्वासी और कठोर। दूर देहात से आया हुआ लगता है।
कुछ सोचकर अर्दली आश्वासन देता है, अच्छा, इस बार तू अकेले में मिल ले। लेकिन जब तक अंदर के लोग बाहर आएं, साहब ऑफिस रूम से बेडरूम में चले जाते हैं।
ड्राइवर आकर जीप पोंछने लगता है। फिर इंजन स्टार्ट करके पानी डालता है। लड़का जीप कि आगे-पीछे हो रहा है।
थोड़ी देर में अर्दली निकलता है। साहब की मैगजीन, रूल, पान का डिब्बा, सिगरेट का पैकेट और माचिस लेकर। फिर निकलते हैं साहब, धूप-छांही चश्मा लगाए। चेहरे पर आभिजात्य और गंभीरता ओढ़े हुए।
लड़के पर नजर पड़ते ही पूछते हैं, हां, बोलो बेटे, कैसे?
लड़का सहसा कुछ बोल नहीं पा रहा है। वह संभ्रम नमस्कार करता है।
ठीक है, ठीक है। साहब जीप में बैठते हुए पूछते हैं, काम बोलो अपना, जल्दी, क्या चाहिए?
अर्दली बोलता है, हुजूर, मैंने लाख पूछा कि क्या काम है, बताता ही नहीं। कहता है, साहब से अकेले में बताना है।
अकेले में बताना है तो कल मिलना, कल!
जीप रेंगने लगती है। लड़का एक क्षण असमंजस में रहता है फिर जीप के बगल में दौड़ते हुए जेब से एक चिट्ठी निकालकर साहब की गोद में फेंक देता है।
ठीक है, एक हफ्ते बाद मिलना, साहब एक चालू आश्वासन देते हैं। तब तक लड़का पीछे छूट जाता है। लेकिन चिट्ठी की गंवारू शक्ल उनकी उत्सुकता बढ़ा देती है। उसे आटे की लेई से चिपकाया गया है।
चिट्ठी खोलकर वे पढ़ना शुरु करते हैं- सरब सिरी उपमा जोग, खत लिखा लालू की माई की तरफ से, लालू के बप्पा को पांव छूना पहुंचे…
अचानक जैसे करेंट लग जाता है उनको। लालू की माई की चिट्ठी! इतने दिनों बाद। पसीना चुहचुहा आया है उनके माथे पर। सन्न! बड़ी देर बाद प्रकृतिस्थ होते हैं वे। तिरछी आंखों और बैक मिरर से देखते हैं- ड्राइवर निर्विकार जीप चलाए जा रहा है। अर्दली उंघते हुए झूलने लगा है।
वे फिर चिट्ठी खोलते हैं- आगे समाचार मालूम हो कि हम लोग यहां पर राजी खुशी से हैं और आपकी राजी–खुशी भगवान से नेक मनाया करते हैं। आगे, लालू के बप्पा को मालूम हो कि हम अपनी याद दिलाकर आपको दुखी नहीं करना चाहते, लेकिन कुछ ऐसी मुसीबत आ गई है कि लालू को आपके पास भेजना जरूरी हो गया है। लालू दस महीने का था तब आखिरी बार गांव आए थे। उस बात को दस साल होने जा रहे हैं। इधर दो–तीन साल से आपके चाचाजी ने हम लोगों को सताना शुरु कर दिया है। किसी न किसी बहाने से हमको, लालू और कभी–कभी कमला को भी मारते–पीटते रहते हैं। जानते हैं कि आपने हम लोगों को छोड़ दिया है, इसलिए गांव भर में कहते हैं कि लालू आपका बेटा नहीं है। वे चाहते हैं कि हम लोग गांव छोड़कर भाग जाएं तो सारी खेती–बारी, घर–दुआर पर उनका कब्जा हो जाए। आज आठ दिन हुए, आपके चाचाजी हमें बड़ी मार मारे। मेरा एक दांत टूट गया। हाथ–पांव सूज गए हैं। कहते हैं– गांव छोड़कर भाग जाओ, नहीं तो महतारी–बेटे का मूंड़ काट लेंगे। अपने हिस्से के महुए का पेड़ वे जबर्दस्ती कटवा लिए हैं। कमला अब सत्तरह वर्ष की हो गई है। मैंने बहुत दौड़–धूपकर एक जगह उसकी शादी पक्की की है। अगर आपके चाचाजी मेरी झूठी बदनामी लड़के वालों तक पहुंचा देंगे तो मेरी बिटिया की शादी टूट जाएगी। इसलिए आपसे हाथ जोड़कर विनती है कि एक बार घर आकर चाचाजी को समझा दीजिए। नहीं तो लालू को एक चिट्ठी ही दे दीजिए, अपने चाचाजी के नाम। नहीं तो आपके आंख फेरने से हम भीगी बिलार बने ही हैं, अब यह गांव–डीह भी छूट जाएगा। राम खेलावन मास्टर ने अखबार देखकर बताया था कि अब आप इस जिले में हैं। इसी जगह पर लालू को भेज रही हूं।
चिट्ठी पढ़कर वे लंबी सांस लेते हैं। उन्हें याद आता है कि लड़का पीछे बंगले पर छूट गया है। कहीं किसी को अपना परिचय दे दिया तो? लेकिन अब इतनी दूर आ गए हैं कि वापस लौटना उचित नहीं लग रहा है। फिर वापस चलकर सबके सामने उससे बात भी तो नहीं की जा सकती है। उन्हें प्यास लग आई है। ड्राइवर से कहते हैं, जीप रोकना, प्यास लग आई है। पानी और चाय पीकर सिगरेट सुलगाया उन्होंने। तब धीरे-धीरे प्रकृतिस्थ हो रहे हैं।
जीप आगे बढ़ रही है।
उनके मस्तिष्क में दस साल पुराना गांव उभर रहा है। गांव, जहां उनका प्रिय साथी था- महुए का पेड़, जो अब नहीं रहा। उसी की जड़ पर बैठकर सबेरे से शाम तक कम्पटीशन की तैयारी करते थे वे। गांव, जहां उनकी उस समय की प्रिय बेटी कमला थी। जिसके लाल-लाल नरम होंठ कितने सुंदर लगते थे। महुए के पेड़ पर बैठकर कौआ जब काँ! कां! बोलता तो जमीन पर बैठी नन्ही कमला दुहराती- कां! कां! कौआ थक हारकर उड़ जाता तब वह ताली पीटती थी। वह अब सयानी हो गई है। उसकी शादी होनेवाली है। एक दिन हो भी जाएगी। विदा होते समय अपने छोटे भाई का पांव पकड़कर रोएगी। बाप का पांव नहीं रहेगा पकड़कर रोने के लिए। भाई आश्वासन देगा कंधा पकड़कर, आफत-बिपत में साथ देने का। बाप की शायद कोई धुंधली सी तस्वीर उभरे उसके दिमाग में।
फिर उनके दिमाग में पत्नी के टूटे दांतवाला चेहरा घूम गया। दीनता की मूर्ति, अति परिश्रम-कुपोषण और पति की निष्ठुरता से कृश, सूखा शरीर, हाथ-पांव सूजे हुए, मार से। बहुत गरीबी के दिन थे, जब उनका गौना हुआ था। इंटर पास किया था उस साल। लालू की माई बलिष्ठ कद-काठी की हिम्मत और जीवट वाली महिला थी, निरक्षर लेकिन आशा और आत्मविश्वास की मूर्ति। उसे देखकर उनके मन में श्रद्धा होती थी उसके प्रति। इतनी आशा हो जिंदगी और परिश्रम में तो संसार की कोई भी वस्तु अलभ्य नहीं रह सकती। बी.ए. पास करते-करते कमला पैदा हो गई थी। उसके बाद बेरोजगारी के वर्षों में लगातार हिम्मत बंधाती रहती थी। अपने गहने बेचकर प्रतियोगिता परीक्षा के शुल्क और पुस्तकों की व्यवस्था की थी उसने। खेती-बारी का सारा काम अपने जिम्मे लेकर उन्हें परीक्षा की तैयारी के लिए मुक्त कर दिया था। रबी की सिंचाई के दिनों में सारे दिन बच्ची को पेड़ के नीचे लिटाकर कुंए पर पुर हांका करती थी। बाजार से हरी सब्जी खरीदना संभव नहीं था, लेकिन छप्पर पर चढ़ी हुई नेनुआ की लताओं को वह अगहन-पूस तक बाल्टी भर-भरकर सींचती रहती थी जिससे उन्हें हरी सब्जी मिलती रहे। रोज सबेरे ताजी रोटी बनाकर उन्हें खिला देती और खुद बासी खाना खाकर लड़की को लेकर खेत पर चली जाती थी। एक बकरी लाई थी वह अपने मायके से जिससे उन्हें सबेरे थोड़ा दूध या चाय मिल सके। रात को सोते समय पूछती, अभी कितनी किताब और पढ़ना बाकी है, साहबी वाली नौकरी पाने के लिए।
वे उसके प्रश्न पर मुस्करा देते, कुछ समय नहीं कहा जा सकता। सारी किताबें पढ़ लेने के बाद भी जरूरी नहीं कि साहब बन ही जाएं।
ऐसा मत सोचा करिए, वह कहती, मेहनत करेंगे तो भगवान उसका फल जरूर देंगे।
यह उसी त्याग, तपस्या और आस्था का परिणाम था कि एक ही बार में उनका सेलेक्शन हो गया था। परिणाम निकला तो वे खुद आश्चर्यचकित थे। घर आकर एकांत में पत्नी को गले से लगा लिया था। वाणी अवरुद्ध हो गई थी। उसको पता लगा तो वह बड़ी देर तक निस्पंद रोती रही, बेआवाज। सिर्फ आंसू झरते रहे थे। पूछने पर बताया, खुशी के आंसू हैं ये। गांव की औरतें ताना मारती थीं कि खुद ढोएगी गोबर और भर्तार के बनाएगी कप्तान, लेकिन अब कोई कुछ नहीं कहेगा, मेरी पत बच गई।
वे भी रोने लगे थे उसका कंधा पकड़कर।
जने कितनी मनौतियां माने हुई थी वह। सत्यनारायण… संतोषी… शुक्रवार… विंध्याचल… सब एक-एक करके पूरा किया था। जरा-जीर्ण कपड़े में पुलकती-घूमती उसकी छवि, जिसे कहते हैं राजपाट पा जाने की खुशी।
सर्विस ज्वाइन करने के बाद एक-डेढ़ साल तक वे हर माह के द्वितीय शनिवार और रविवार को गांव जाते रहे थे। पिता, पत्नी, पुत्री सबके लिए कपड़े-लत्ते तथा घर की अन्य छोटी-मोटी चीजें, जो अभी तक पैसे के अभाव के कारण नहीं थीं, वे एक-एक करके लाने लगे थे। पत्नी को पढ़ाने के लिए एक ट्यूटर लगा लिया था। पत्नी की देहाती ढंग से पहनी गई साड़ी और घिसे-पिटे कपड़े उनकी आंखों में चुभने लगे थे। एक-दो बार शहर ले जाकर फिल्म वगैरह दिखा लाए थे, जिसका अनुकरण कर वह अपने में आवश्यक सुधार ले आए। खड़ी बोली बोलने का अभ्यास कराया करते थे, लेकिन घर-गुहस्थी के अथाह काम और बीमार ससुर की सेवा से इतना समय वह न निकाल पाती जिससे पति की इच्छा के अनुसार परिवर्तन ला पाती। वह महसूस करती थी कि उसके गंवारपने के कारण वह अक्सर खीज उठते और कभी-कभी तो रात में कहते कि उठकर नहा लो और कपड़े बदलो, तब आकर सोओ। भूसे जैसी गंध आ रही है तुम्हारे शरीर से। उस समय वह कुछ न बोलती। चुपचाप आदेश का पालन करती, लेकिन जब मनोनुकूल वातावरण पाती तो मुस्कराकर कहती, अब मैं आपके जोग नहीं रह गई हूं, कोई शहराती मेम ढूंढिए अपने लिए।
क्यों तुम कहां जाओगी?
जाउंगी कहां, यहां रहकर ससुरजी की सेवा करुंगी। आपका घर–दुआर संभालूंगी। जब कभी आप गांव जाएंगे, आपकी सेवा करुंगी।
तुमने मेरे लिए इतना दुख झेला है, तुम्हारे ही पुण्य–प्रताप से आज मैं धूल से आसमान पर पहुंचा हूं, गाढ़े समय में सहारा दिया है। तुम्हें छोड़ दूंगा तो नरक