निर्मल वर्मा के लिए उनके समकालीन लेखक मनोहर श्याम जोशी ने यह कविता 1950 के दशक के आखिरी वर्षों में लिखी थी जब दोनों लेखक के रूप में पहचान बनाने में लगे थे. मनोहर श्याम जोशी तब ‘कूर्मांचली’ के नाम से कविताएँ लिखते थे. आज निर्मल वर्मा की पुण्यतिथि है. इस मौके पर विशेष- मॉडरेटर
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निर्मल के नाम
(1)
ओ बंधु मेरे!
क्या तुमने नहीं देखा
राह चलते नागरिकों के नियोन नयनों में
उनके लडखडाते क़दमों का लेखा?
नहीं, ऐसा नहीं हो सकता!
बंधु, मैं तुम्हारे माथे पर देखा है
एक सलीब चमकता.
——
दिन-दिन
क्षुब्ध क्षणों के ताने बाने से
जीवन की कालीन बिन-बिन
मैंने पीड़ा का पैटर्न पूरा किया!
जिसे देख हिया न जाने कैसा हुआ किया!
संग संग रोया किया, हंसा किया!
क्या तुमने नहीं देखा?
नहीं ऐसा हो नहीं सकता.
बंधु, मैंने तुम्हारी तर्जनी पर देखा है
एक गोबर्धन फिसलता.
क्या तुमने नहीं देखा? विद्युत् तारों पर वृद्ध गृद्ध मर जाता है.
बंद कमरे की दीवारों से चमगादड़ टकराता है.
क्या तुमने नहीं देखा?
ट्रक के पहियों के बीच झबरीली गिलहरी पिस जाती है.
काम-दिलाऊ केंद्र में एक शरणार्थी कन्या भूत बन कर आती है.
कामिनी किशोरी वृद्ध का मुखौटा धारण कर स्वयं को डराती है
भोर-वेला रेडियो पर मीरा का गान सुन मुझे न जाने क्यों
रुलाई-सी आ जाती है.
क्या तुमने नहीं देखा?
नहीं, ऐसा नहीं हो सकता.
बंधु, मैंने तन तुम्हारा तीरों की शय्या पर देखा है
जल-बिंदु तरसता
क्या तुमने नहीं देखा?
घड़ियों का धीरज अब टूट गया है!
सागरों-मीना अचानक फूट गया है!
अंजुरी का संकल्प सब सहसा सूख गया है.
दिवस ने रात्रि को हर रोज खूब सूद दिया है.
नहीं, ऐसा नहीं हो सकता.
बंधु, मैंने तुम्हारा ह्रदय काफल से गाढा रस देखा है
हौले लरजते.
(2)
क्यों लगाए तुमने मेरे चारों ओर
ये समानांतर दर्पण जिनका नहीं है छोर
ये असंख्य प्रतिबिम्ब दर्पणों से निकलकर
देंगे मुझे रौंद कुचल-कुचल कर.
ओ बचाओ
… ….
काले प्रश्नचिन्ह से इस पत्रहीन तरु पर
क्यों लटकाया चांदनी के अजगर का झूमर?
मेरी पगली आत्मा कर लेगी आत्महत्या उस पर
झूल झूल कर
ओ बचाओ!
सनसनाती आती है अतर पी हुई हवा…
क्यों दिया इस वेला मुझे नन्हा दीया?
मेरी गदोलियों का घेरा क्योंकर सीया?
लौ के चहुँ ओर क्योंकर सीया?
ओ बचाओ!
………………
मैं था तरु एक चीड़ का
क्यों चुभाया तन पर मेरे कुछ तीर-सा?
लो, ढूरकने लगा लीसा.
ओख लगाओ
या यह घाव सुखा जाओ.
आओ
थामा है हाथ जब
फूटी बोतलों के इस पथ पर
मेरे लिए भी अपनी सी चपली बनाओ.
(3)
न भूत न भविष्य
न परम्परा न अभिलाषा
मात्र एक आस्था:
घड़ी की मुख मुद्रा बदलेगी
ओ संजय तुम चुप क्यों हो गए हो?
……………
न ग्रहण न अर्पण
न प्रीतम न प्रेयसि
मात्र ह्रदय गति
तंग खिड़की तले बिछी छाया की थिरकन
ओ संजय तुम चुप क्यों हो गए?
………………
न तर्क न कल्पना
न विज्ञान न कविता
मात्र हिरोशिमा
दीवार पर कांपती मुट्ठी की अल्पना
ओ संजय तुम चुप क्यों हो गए?
न बाहू न आँख
न पौरुष न प्रीत
मात्र जैज संगीत
कैबरे नर्तकी के स्तन बेपाँख
ओ संजय तुम चुप क्यों हो गए?
………….
हर ह्रदय धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, रणक्षेत्र
ओ संजय तुम चुप क्यों हो गए?
फिर क्या हुआ?
क्या हुआ?
ओ संजय स्वर तुम्हारे किस करुणा में खो गए?
या कि सिर छिपा बालू में सो गए
(4)
अनुवाद और रचना के बीच
कोई राह नहीं है
मृत्यु और जीवन के बीच
कोई चाह नहीं है
विद्रोह आर भक्ति के बीच
कोई दाह नहीं है
निराशा और आशा के बीच
कोई छांह नहीं है
घृणा और प्रीत के बीच
कोई आँख नहीं है
समर्पण और युद्ध के बीच
कोई बांह नहीं है
दिन-ब-दिन हाय दिन-ब-दिन रात काली पड़ती जाती है.
…………………….
आओ हम जो बीच में हैं
हम जो न फल में हैं न बीज में हैं
आओ हम जो बीच में हैं
हम जो न नाग में हैं न बीन में हैं
आओ हम जो बीच में हैं
शून्य में लटके थिरकते ढोलक से डोलें
अपनी कांपती गदोलियों में पुंसत्वहीनता का गिलगिलापन तोलें
अपनी अकुलाहट के आतुर असीम बाहुओं को खोलें
प्राणायाम की एकाग्रता पीपल-पात पलकों में पाल कर
किसी छोर के
किसी भी छोर के हो तो लें
दिन-ब-दिन हाय दिन-ब-दिन राखदानी भारती जाती है.
(5)
काली काफी की प्याली शीघ्र खाली कर देता हूँ
रेंकते रेडियो के स्वर को ज़रा नीचा कर देता हूँ
सुलगती सिगरेट राखदानी के पानी में डाल देता हूँ
माथे पर बिखरे बालों को कुछ ऊपर उठा देता हूँ
कानस पर हंसती वेश्या को खटिया तले छुपा देता हूँ
दर्शन की पुस्तक अंगड़ाती अंगीठी में जला देता हूँ
अलार्म घड़ी को ह्रदय से चिपका लेता हूँ
चलता हूँ
शायद तुम मुझे पुकार रहे हो!
अधरात गए बाहर मेरे दुआरे शायद तुम ही खड़े हो.
आता हूँ
तुम्हारे संग संग जाता हूँ
वहां जहाँ एक छोटे से तम्बू में
तुम गर्भवती रात्रि का आपरेशन करते रहे हो
क्या शिशु जनम गया?
(6)
अब है मुझे यह विश्वास
जब तक कि मैं हूँ तुम्हारे पास
अब है मुझे यह विश्वास:
भक्ति की अभिव्यक्ति ही प्रभु की उत्पत्ति है
निश्चय ही मंदिर को देवता मिलेगा!
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