दिल्ली में नींद: नामालूम त्रासदियों के वृतांत
आज युवा लेखक उमाशंकर चौधरी का जन्मदिन है। यह संयोग है कि आज उनके कहानी संग्रह ‘दिल्ली में नींद’ की समीक्षा मिली। काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में हिंदी के प्रोफ़ेसर नीरज खरे ने यह समीक्षा लिखी है। आप भी पढ़ सकते हैं-
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इधर की हिंदी कहानियाँ रचनात्मकता के निकष पर नयी जमीन तलाश रहीं हैं। प्रायः उनकी संरचना मुक्त है। उस पर कलागत दवाब प्रायः नहीं है- विचार, वाद, और आंदोलन का भी नहीं। विमर्शों का असर ज़रूर कभी देखने को मिल सकता है। अब कथ्य, भाषा और शिल्प की त्रिवेणी कहानी में आकर खुलेपन का ऐसा स्वरूप धरती है कि कहानियों में ‘नयापन’- उसके भीतरी अंतःसूत्रों और रचनात्मक स्फीति में दिखता है। बीसवीं सदी के आखि़री वर्षों में शुरू हुए परिवर्तन नयी सदी के लगभग दो दशकों की कहानियों में अनेक रूपों में स्पष्ट हैं। ज़ाहिर है ऐसी कहानियों में समय चेतना ही परिवर्तनों की परख का आधार बनती है। कहानी में मौलिक नवाचार के अनेक दावों के चलते कथा आख्यान के लंबे रूपों में एकप्रतिरूपी (monotype) होने का आभास अक्सर होता है। बहरहाल, कहानी के इन बदलावों को जिस पीढ़ी के कुछ कहानीकारों ने सर्वाधिक आत्मसात किया- उनमें उमाशंकर चौधरी की कहानियों में उसका प्रतिनिधित्व बेहद स्पष्ट है। उनके तीसरे नए संग्रह ‘दिल्ली में नींद’ की चार कहानियों की प्रथमतः यह ख़ासियत लंबे आकार में दिखती है- जो इधर की कहानियों की खास पहचान रही है। उनकी पहले की कहानियाँ भी प्रायः लंबी संरचना की हैं।
संग्रह की कहानियाँ जिस मनुष्य के पक्ष में खड़ी हैं- वह किन संकटों से धिरा है? भूमंडलीकरण के साथ आया 90’ के बाद का समय अपने विस्तार के साथ जीवन को जिस चमकीलेपन से लुभा रहा है- वह किसके लिए है? आर्थिक उदारीकरण और ग्लोबल भारत के उदय होने से असंगत विकास के पूंजीवादी माॅडल ने सर्वाधिक कायाकल्प बड़े शहरों का किया। एक विशाल वर्ग इस समय की चमकीली दुनिया का उपभोक्ता बनकर उसकी खुशहाली को सेलीब्रेट कर रहा है। ग्लोबल आर्थिकी को पोषित करने वाले मध्यवर्ग का प्रसार शहरों में ज़्यादा है। वहीं दूसरा निम्न और निम्नमध्यवर्ग है, जो उसके दुश्चक्र में फँसा है या उसका अभिशाप भुगत रहा है। विकास के इस सपने को रचने में एक ओर प्रकृति और पर्यावरण से जुड़ी समग्र भारतीय जीवन शैली का विनाश हुआ है, वहीं असंवेदनशील और आत्मकेंद्रित जीवन शैली ने हमारी सामाजिकी का बेहद क्षरण किया। उमा शंकर की कहानियाँ इस ‘नयी सभ्यता’ में उस अकेले पड़ते मनुष्य के पक्ष में खड़ी हैं। उन अकेले पड़ते इंसानों को संग्रह की तीन कहानियों ‘कहीं कुछ हुआ है, इसकी ख़बर किसी को न थी’ के वासुकी बाबू, ‘नरम घास, चिड़िया और नींद में मछलियाँ’ के फुच्चु मास्साब और ‘दिल्ली में नींद’ के चारुदत्त सुनानी के रूप में पहचान सकते हैं। ये पात्र उन स्थितियों के भोक्ता हैं। इन कहानियों का काॅमन प्रतिपक्ष यांत्रिक, आपराधिक और असंवेदना का प्रसार करने वाला ‘शहर’ है। वासुकी बाबू को प्रमोशन के कारण अगर अपना क़स्बा छोड़कर कानपुर न जाना पड़ता तो उपभोक्तावाद के चंगुल से बचकर निम्नमध्यवर्गीय जीवन में वे उतने दुखी न रहते! वे अपने परिवार की ख़ातिर शहरी जीवन के उपभोगवाद की गिरफ्त में आते हैं और कार खरीद लेते हैं। इस तरह वे मध्यवर्गीय तो बन जाते हैं, पर अपनी मनोरचना में वे शहरीकरण की पूंजीवादी अमानवीयता के शिकार नहीं हैं। उन्हें रह-रह कर अपनी क़स्बे की जीवन शैली की याद घेर लेती है। यह उनके बचे हुए मनुष्य का बार-बार पता देती है। शहर को लेकर वे शुरू से ही आशंकित थे, पर आखिरी घटना इसे पुख़्ता कर जाती है। जिस प्रमोशन की बदौलत बड़े बाबू होकर वे घिसटते हुए मध्यवर्ग तक आ भी गए थे। उन्होंने बेटी के ब्याह की तैयारी में अनेक चीजों के साथ पीएफ का लोन लेकर नगदी भी जमा कर रखी थी। नगदी सहित सारे सामान की षडयंत्रपूर्वक हुई चोरी ने उनको शून्य पर पटक दिया। कहानी वासुकी बाबू के संधर्षों और दुखों के साथ उपभोक्तवादी समाज में अकेले पड़ते आदमी की व्यथा है। यहाँ वह नया समाज प्रतिपक्ष में है- जो शहरों की पाॅश काॅलोनियों और बहुमंजिले फ्लैट्स में बसा है। जिनमें कोई पड़ोस नहीं, किसी को किसी से वास्ता नहीं। कहाँ क्या हुआ है, किसी को कोई खबर नहीं। वासुकी बाबू का प्रमोशन, उन्हें अपनी जड़ों से विस्थापित कर देता है। जिन मूल्यों को लेकर वे क़स्बे से आए थे, उनका रोपण चाहते हुए भी शहर में नहीं कर पाए। शीर्षक सहित कहानी व्यापक सामाजिक बदलाव की स्वयं समीक्षा है।

इसी संदर्भ का दूसरा पहलू यानी शहरीकरण से उपजी मूल्यहीनता और विरोधाभास फुच्चू मास्साब के आत्मसंधर्ष में चित्रित हैं। फुच्चू मास्साब का संधर्ष सिर्फ बीमारी से नहीं, जिसका इलाज कराने वे अपने गाँव से शहर बेटे के पास आए हैं। बल्कि, शहर के उस पूँजीवादी स्वरूप से कहीं ज़्यादा है जो उनके मानवीय-सामाजिक गँवई सरोकारों के विरुद्ध है। कहानी में कई जगह इसे ख़ासतौर से उभारा गया है। वहाँ पर पाॅश काॅलोनियों का बड़ी तेजी से विकास हुआ है। वहाँ स्वीमिंग पूलों में पानी का अपव्यय बिल्डरों द्वारा अपने उपभोक्ताओं को संतुष्ठ और आकर्षित करने का अब आम फैशन है। नगरों-महानगरों की वे जगहें उन खेतों या जंगलों के विनाश पर सीमेंट-कंकरीट की पूँजीवादी फसलों के रूप में लहलहा रहीं हैं। प्राकृतिक संसाधन और जीवन के लिए अपरिहार्य ‘पानी’ जैसी चीज़ का दोहन और अपव्यय सिर्फ मानव सुख के लिए जिस तरह हो रहा है- शहरी आधुनिकता की उत्तरजीवन रचना में इसके उदाहरण एक नहीं, कई मिल जाएंगे। सूनी उजाड़ बालकनी में प्यासी चिड़ियों को देख फुच्चू मास्साब उदास और परेशान होते हैं- उनकी बैचेनी का चरम स्वीमिंग पूल से पानी बालकनी की ओर उछालने के रूप में जो कुछ घटित होता है, उसके अपने गहरे निहितार्थ हैं। कहानी में कई बार मछलियों का ज़िक्र और फुच्चू मास्साब की गाँव वापस लौटने की बैचेनी के भी उतने ही गहरे अर्थ हैं। विकास के नए माॅडल और जीवन शैली में न मछलियों की जगह है, न चिड़ियों और न हरी नरम घास पर फुच्चू मास्साब के सुकून से लेटने की। इस सभ्यता और जीवन शैली की प्राथमिकताएं वे नहीं हैं, जो गँवईं जीवन में अनायास ही उनका अहम हिस्सा थीं। और, जिसे स्वयं फुच्चू मास्साब संजीदगी से जीते हैं। उनका जीवन यहाँ भी वासुकी बाबू की तरह पूँजीवादी शहरीकरण का प्रतिपक्ष है। इसे कतिपय अविश्वसनीय धरातल तक ले जाना कंट्रास्ट को गहराता है। कहानीकार जानता है कि पूँजीवादी विकास की इस आँधी को रोका नहीं जा सकता, उससे फुच्चू मास्साब जैसे ‘मूल्य’ का आहत होकर अचेत होना ही नियति है। उनकी अगली पीढ़ियों को उन्हीं जगहों पर अपना आशियाना बनाकर रहना भी जैसे नियति है! कामकाजी दंपत्ति और उनके बच्चे इस जीवन शैली में ढल चुके हैं। ऐसे में कहानी वृद्धावस्था के अकेलेपन की पीड़ा का भी पाठ कही जा सकती है। इसकी वजह समझना चाहिए कि फुच्चू मास्साब सारी सुख-सुविधाओं और देखरेख के बावजूद गाँव लौटने की रट क्यों लगाए हैं?
‘दिल्ली में नींद’ के चारुदत्त सुनानी की संधर्ष गाथा में उन तमाम यतीम श्रमशील लोगों का दर्द समाहित है- जो रोजी-रोटी की तलाश में दिल्ली जैसे महानगर में आकर किसी तरह अपने रहने का पिंजरा टाँग लेते हैं। लेकिन सत्ता-शासन द्वारा अपने पूँजीवादी इरादों को फलीभूत करने, उनके पिंजरों को हटाने का फरमान कभी भी जारी हो सकता है। उड़ीसा के एक गाँव से दिल्ली आए सुनानी का ऐसी ही स्थिति से सामना होता है। बेतहाशा महानगरीय विस्तार के चलते दिल्ली की दूरियों को नापना भी एक त्रासदी है- एक मोटर गेराज में छोटी-सी नौकरी करने वाले सुनानी के लिए! उसने अपना पिंजरा हटाया तो सरकार ने जो आसरा दिया वह दिल्ली का दूसरा सुनसान किनारा था। नौकरी का गेराज और घर की दूरी दिल्ली मेें रहने के उसके सपने को ही बदल देती है। वह घर छोड़ गेराज में ही रहने का निर्णय लेता है और घर यदा-कदा महीने में एक या दो बार ही जाता है। बड़ी हो रही बेटियों की चिंता, छोटे बच्चे की आवाज से डरने की बीमारी के चलते भी परिवार का यह अलगाव वह झेल भी रहा था। लेकिन उसके सिर की झनझनाहट से होने वाली बीमारी ने तूफान खड़ा कर दिया। पाँच-छह हजार रुपए महीने कमाने वाले इंसान के लिए उत्तर आधुनिक दिल्ली का जीवन कितना कठिन हो सकता है- कहानी इस वास्तविक पाठ के लिए यथार्थ का अतिक्रमण भी करती जान पड़ती है। डाक्टर ने कहा है कि उसके दिमाग में कीड़ों ने घर बना रखा है। छोटे बच्चे को दिनभर विकास के ऐजेंडों को पूरा करने वाली आवाजों (ध्वनि प्रदूषण) से डरने की बीमारी! यह हमारे भावी संकटों के संकेत हैं। गेराज के पास से घर तक सुरंग बनाने के मासूम सपने की सनक में उसके साहस की अनुगूँज है। अंत में लिखा गया है कि ‘सुनानी अभी सुरंग खोद रहा है और इस सुरंग को बचाना तो चाहिए ही।’ सारे असंभवों के विरुद्ध यह उसकी जिजीविषा की आस्था को बचाने जैसा है।
पाठ के संकेत कथाकार ने कहीं व्याख्या हेतु छोड़ दिए हैं। यह उत्तर आधुनिक संरचना की पहचान है। अर्थ सब कुछ लेखक नियंत्रित नहीं करता! वह अपने नियंत्रण से संरचना को मुक्त रखता है। वासुकी बाबू, फुच्चु मास्साब और सुनानी की कहानी में यथार्थ के सूक्ष्म पाठ- इस संरचना के अत्यंत विस्तार को अर्थ की एकाग्र निष्पत्ति में नहीं पकड़ा जा सकता। ये कहानियाँ उदय प्रकाश की ‘तिरिछ’, ‘पालगोमरा का स्कूटर’ या ‘मेंगोसिल’ से आगे के बदलते यथार्थ की वाहक हैं। कहानीकार पात्रों के उत्पीड़न को परिस्थितियों के चरम तक लगभग उसी तरह ले जाता है कि वे किसी पर बीतने वाली समय की भयावहता का रूपक बन जाते हैं। ज़ाहिर है गाँव बनाम शहर के प्रतिद्वंद्व पर कथ्य का अन्वेषण कहानियों में पहले भी हुआ है। यहाँ शहर से जन्मजात ‘भय’ का वैसा दुहराव नहीं है। गाँव यहाँ ग्रामीण-कस्बाई पात्रों के जरिए मौजूद हैं- यहाँ उन्हें शहर से डर नहीं, वे उससे अपनी डोर जोड़ना भी चाहते हैं, पर यह सब सहजता से हो नहीं पाता! इन संधर्षों के बीच वे निहायत अलग या व्यवस्था से विस्थापित कर दिए गए लोग हैं। वे अपना दुख अकेले भोगते व्यक्ति हैं। नयी नागर सभ्यता से निर्मित समय और समाज ही उनकी नामालूम त्रासदियों का जन्मदाता है। जिन्हें भोगते चरित्र कहानियों में फिर लौट रहे हैं- इसकी ख़बर भी इन कहानियों में मौजूद है।
उमा शंकर ‘कम्पनी राजेश्वर सिंह का दुख’ कहानी में पितृसत्ता और पौरुष के दंभ की कई स्तरों से शिनाख्त करते है। यह वाचक के चाचा की कहानी है, जिसे उसने अपने घर की कहानी का सच्चा रूप कहा है। कहानी स्वयं में उस सामंती विचार का आलोचनात्मक प्रतिपक्ष है जो लड़के का जन्म वंश को चलाए रखने लिए अनिवार्य मानता है। कहानी का एक रेखीय पाठ एक परिवार के रूढ़िवादी विचारों का कथात्मक बयान है। राजेश्वर संपत्ति अर्जन में अपने पौरुष की शक्ति और शान झौंक देते हैं। एक बेटे की चाह में उनकी छह लड़कियों को जन्म देते-देते पत्नी कृषकाय हो चुकी हैं। अंततः उनकी जानकारी के बिना अपने जेठ-जिठानी की सलाह और सहायता से, वे परिवार नियोजन का आॅपरेशन करा लेती हैं। इस पर राजेश्वर का रौद्र रूप और पत्नी के प्रति दुव्र्यवहार- उनकी वैचारिक विकलांगता को उजागर करता है। वहीं उनके बड़े विकलांग भाई कामेश्वर का चरित्र पारिवारिक स्थितियों के प्रति जिम्मेदारी, नैतिकता और मानवीय तर्कशीलता की दृढ़ता से खड़ा है। उन्हें ही पिता हमेशा कमतर और हीनता से देखते थे- वे ही बाद में पारिवारिक संरक्षक की भूमिका में खड़े होते हैं। कहानियों में विकलांगता विमर्श की बातें भी यदा कदा सुनने में आती रहीं हैं- यह पारिवारिक वृतांत चुपके से इस विमर्श की कहानी बन जाता है। वस्तुनिष्ठता का सूक्ष्म अंकन इसमें भी है, पर इसे फिलहाल अलग प्रवृत्ति में भी रखा जा सकता है। बाकी तीन- इससे ज़्यादा लंबी कहानियाँ वर्तमान बदलावों के बहुत से परिप्रेक्ष्यों के करीब ले जाती हैं। उन लोगों की संवेदना और संधर्ष के संसार तक जाती हैं- जो तिकड़मों, चालाकियों और छद्म नैतिकताओं से दूर संवेदना या संधर्ष से बचाया-संजोया, अपना मुश्किल जीवन जीना चाहते हैं। वस्तुतः शहरी जीवन की सुखद और सर्वसुविधाओं के असाधारण विस्तार में ये मुश्किलें कौन सी और किन लोगों की हैं? वे कौन से व्यतीत जीवन मूल्य हैं, जिन्हें आज आपाधापी और तेज रफ्तार ने परे धकेल दिया है? उमा शंकर की ये कहानियाँ ठहर कर सोचने-विचारने और इन सवालों के जवाब तलाशने का अवसर देती हैं।
आज की कहानियाँ अक्सर लंबी संरचना की क्यों हो रही हैं? हालांकि यह बात कहानी में आज ही की नहीं। अपनी समकालीन परिस्थितियों के मद्देनज़र अंतर्वस्तु, रूप और भाषा के खुलेपन का अद्भुत संगठनात्मक संबंध कम से कम 90’ के बाद से ही कहानियों में गौ़रतलब रहा है। औपन्यासिक विस्तार में कहानी की यह संरचना तभी आना शुरू हो गई थी- याद करें संजीव, उदय प्रकाश, अखिलेश, संजय सहाय और मनोज रूपड़ा आदि की कहानियों को। इस संदर्भ की यहाँ सविस्तार चर्चा का मौका नहीं, उसके बिना भी इतना तो कहा जाना ज़रूरी है कि सामाजिक और वैचारिक प्रतिबद्धता और कहने की पुरानी सीमाओं को लांघने के लिए कहानियों ने उपन्यास से अपनी भेदक रेखा तभी तोड़ना शुरू कऱ दी थी। कथ्य की अंतर्लिप्तता में यह नवाचारी विस्तार इधर पिछले बीस सालों की कहानी में खास पहचान बन गया है। इसके चलते कहानी का कहानीपन नए सिरे से परिभाषित हुआ है- इसीलिए मुझे इस पूरे दौर (पिछले लगभग बीस-तीस वर्ष की कहानी) को समकालीन, नयी-पुरानी, युवा पीढ़ी या कालबोधक जैसे तात्कालिक और घिस चुके पदबंधों से ज़्यादा ‘उन्मुक्त कहानी’ कहना उपयुक्त लगता है। यह नामकरण इस पूरे दौर की कहानी के लिए जितना संरचनागत है, उतना ही कथ्य, भाषा और रूप के दूसरे प्रकारों जैसे फैंटेसी, रूपक, प्रतीक या जादुई-शैली के मेल से बने कहानी के विन्यास से वास्ता रखता है। इन सबकी पारस्परिक अंतर्लिप्तता के साथ कहानी का बदला संपूर्ण व्याकरण समय, विमर्श, आंदोलन, विचार-चेतना, वाद आदि के किसी सुविधाजनक विभाजन में सीमित नहीं है। हालांकि, इस पदबंध के लिए विस्तार से व्याख्या और औचित्य की चर्चा अपेक्षित है। अभी फिलहाल इतने संकेत के साथ- उमा शंकर के इस संग्रह की कहानियों से गुजरते हुए- उन्हें उन्मुक्तता के परिप्रेक्ष्य के साथ भी देखा जाना चाहिए। उन्मुक्तता के अर्थ को रचने का संकल्प उनके यहाँ खंड-दर-खंड विकसित होता है। संग्रह की आखिरी दो कहानियों में यह आंतरिक उपशीर्षकों द्वारा स्पष्ट भी है।
इधर कहानियों में यथार्थ उद्घाटन के लिए स्थितियों के विवरण, घटनाओं के ब्यौरे और सूचना-संदर्भों की बहुलता निरंतर बढ़ी है। अखबारी पत्रकारिता के असर से कहानियाँ क्षतिग्रस्त भी हुईं। माध्यमवादी समय की बहुआयामिता का परोक्ष दबाव कहानी की शैली पर भी है। इनके चलते समीक्ष्य कहानियों में सूक्ष्मता से कथा स्थितियों का निरीक्षण एक बारगी पाठक को उक्ता भी सकता है। लंबे वृतांतों को पढ़ते हुए लगता है कि पाठ के संपादन में अगर कोई गुंजाइश बनती, तो कथाकार ने उसकी भरसक उपेक्षा की है। राहत तब मिलती है जब कहानी किसी भावोन्मेष द्वारा कथापन की ओर मोड़ लेती है। कहानीकार की अवलोकन दक्षता कभी-कभी चकित करती है- कहानीकार परिस्थितियों से जूझते चरित्रों की आदतों, स्वभाव और त्रास को अत्याधिक वस्तुनिष्ठता से रेखांकित करते हैं। उन्हें पढ़ते हुए यह सवाल उठना लाजिमी है कि पाठ में वर्णन की इतनी बारीकियाँ क्यों? शायद कहानीकार कहानी का विश्वसनीय पाठ बनाने के लिए कथ्य से उनका आंतरिक संबंध जोड़ना चाहता है कि कहानी यथार्थ का सिर्फ कोरा पाठ ही बनकर न रह जाए! देखना चाहिए कि यह कोशिश कहाँ तक कामयाब है? चरित्रों के साथ स्थितियों को विन्यस्त करने की दक्षता उदय प्रकाश के यहाँ जबरदस्त है। कथा के असाधारण विस्तार में भी उनकी कहानियाँ रणनीतिक तौर पर आख्यान के अधीन थी। उन्होंने आख्याननिष्ठ बनाकर कहानी के सर्वाधिक नए रूप रचे। निःसंदेह बाद के कहानीकारों पर उनके प्रभाव पड़े। उनके यहाँ आ रहीं कथ्य की सामयिक चिंताएं वाजिब हैं, प्रतिबद्धता के नाते इसे उपलब्धि मानना चाहिए। इसमें इधर की कहानियाँ बिलकुल पीछे नहीं हैं, पर कभी कभी आख्याननिष्ठ होने की सीमाएं साफ़तौर पर रही हैं। उमाशंकर की ये कहानियाँ उन्हीं उपलब्धि और सीमाओं के वृतांत हैं।
दिल्ली में नींद: उमा शंकर चौधरी, प्रकाशक: राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, मूल्य: 160 रु.
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संपर्क: प्रोफ़ेसर, हिंदी विभाग, काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी – 221 005
मो.: 9450252498
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