भैया एक्सप्रेस के भैया और पंजाब दोनों बदल गये हैं
वरिष्ठ लेख सूरज प्रकाश हिंदी की कुछ चर्चित कहानियों का पुनर्पाठ कर रहे हैं। आज पढ़िए अरूण प्रकाश की क्लासिक कहानी ‘भैया एक्सप्रेस’ का पाठ-
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1985 में समर्थ और संवेदनशील कथाकार अरुण प्रकाश की कहानी भैया एक्सप्रेस छपी थी। मूल कहानी के कुछ अंश –
भयंकर गरीबी, खाने को दो वक्त की रोटी नहीं, सूदखोर का कर्ज। घर बचाने-बसाने विशुनदेव को आतंकवाद से झुलस रहे पंजाब जाना पड़ा था। समस्या बड़ी थी – बहू आती तो कहाँ रहती, क्या खाती?
सब ठीक-ठाक होता जा रहा था
विशुनदेव का गौना सामने था। खर्चा जुटाने उसे दूसरी बार भी पंजाब जाना पड़ा।
विशुनदेव पंजाब से थोड़ा भविष्य लाने गया था।
एगो बेटा पंजाब में, इ रमूआ पढ़ लिय जे एकरा पंजाब नईं जाए पड़ैय।
अचानक सब कुछ बन्द। 4 महीने से उसका कोई खत नहीं आया है। घर बार परेशान है, छोटा भाई रामदेव अखबार में खबरें पढ़कर रजिस्टर्ड पत्र भेजता है, तार भेजता है, कोई जवाब नहीं। आखिर तंग आ कर मां रामदेव को भाई की खोज में भेजती है।
पंजाब तक की लंबी यात्रा इतनी आसान नहीं थी।
हर तरह के अपमान, घूंसे, लात खाकर, सत्त्तू के सहारे भइया का मुचड़ा पोस्ट कार्ड और मुश्किल से जुटाये गये दो सौ रुपये की पूंजी ले कर वह भैया एक्सप्रेस में सवार होता है और अमृतसर के पास अटारी में पोस्टकार्ड पर लिखे इंदर सिंह के फार्म तक की दुर्गम यात्रा पूरी करता है।
खून की तरह जमा शहर। हर शाम कर्फ्यु। रामदेव सोचता है – भैया उसे देखते ही लिपट जाएगा। वह भी आँसू नहीं रोक सकेगा। लेकिन भैया…वहां पर उसे भाई के बजाये ये खबर मिलती है – विशुनदेव! इस नाम का एक भैया तो था जी, तीन महीने कपूरथले लौट गया। पिछले साल उसे हम अपने मामाजी के पास से लाए थे।…इस साल भी बिहार से आया, पर बोलता था – दिल नई लगता, तीन महीने पहले कपूरथले लौट गया।
सरपंच को लगता है कि मालकिन झूठ बोल रही है। उसके धमकाने पर और रामदेव के बहते आंसू देख कर वह सच बोल देती है-
ये विशनदेव का सामान है!…वह दुनियाँ में नहीं है! कहते-कहते मनजीत कौर फूट-फूटकर रोने लगी – मुझसे बोलकर गया कि अंबरसर से घरवालों के लिए कपड़े लेने जा रहा हूँ, देस जाना है। अंबरसर से लौटकर आता तो यहाँ से पैसे लेकर जाता…तीन बजे दिन में गया। बस बिगड़ने से शाम हो गई। छेड़हट्टा के पास रोककर मार-काट हुई…उसी में…।
बीच में पड़े विशुनदेव के झोले से उसकी बाँसुरी झाँक रही थी। सब चुप थे। आँसू की तरह बाँसुरी भी जैसे कुछ बोल रही थी। बाँसुरी क्या बोल रही थी, कोई समझ नहीं पाया…
रामदेव वापिस लौट रहा है। फार्म के मालिक और सरपंच उसे अमृतसर छोड़ने आये हैं। उसे दो हजार रुपये दिये हैं।
बस में बैठे हुए वह सोच रहा है। क्या कहेगा – भैया का पता नहीं चला। पर दो हजार रुपए का क्या करेगा! बाँसुरी झोले से बाहर झाँक रही थी। विशुनदेव का चेहरा उसके सामने घूम गया। फिर दहाड़ मारकर रोती माई…बिस्तर पर मुँह देकर रोती भौजी…
उसे जोर से कँपकँपी आई। आगे बढ़ना ही था, भैया एक्सप्रेस का सफर तमाम नहीं।
कहानी यहीं खत्म हो जाती है, लेकिन रामदेव की सोच की नहीं। उसे पता है, अब उसे भाई की जगह भैया एक्सप्रेस यात्रा जारी रखनी है।
ये बेहद मार्मिक कहानी है। ये दो अलग समाजों की, उनकी आर्थिक विसंगतियों और विषमताओं की, टूटते-बनते और बिखरते सपनों की, मांग और पूर्ति के गणित की और टूटते-बिखरते घर को बचाने की जद्दोजहद की कहानी है। इससे दारुण स्थिति क्या होगी कि जलते पंजाब में बड़े भाई को खोने के बाद भी छोटे भाई को उसी राह पर चलने के लिए फैसला करना पड़ता है। पेट की आग सब कुछ करवाती है।
अरुण प्रकाश ने ये कहानी बेशक 26 बरस पहले लिखी थी और चर्चित रही थी। उस कहानी में उठाये गये सारे सवाल आज और भी विकराल हो गये हैं। हालात बिगड़े हैं इन बरसों में। दोनों ही तरफ। बिहार का पढ़ा-लिखा युवक भी और अनपढ़ मजदूर आज भी बाहर जा कर काम तलाशने के लिए आज भी विवश है। उसके माथे पर आज भी बड़े-बड़े हर्फों में भैया लिखा है।
बिहार से इतने मजदूर पंजाब आते हैं कि बिहार से आने वाली ट्रेन का नाम ही भैया एक्सप्रेस रख दिया जाता है। भैया यहां पर आदर सूचक शब्द नहीं है। इसमें हिकारत, अपमान और नफरत भरे हुए हैं।
जब यह कहानी लिखी गयी थी, तब पंजाब आतंकवाद में जल रहा था। लेकिन आज …। अब पूरा पंजाब बिहार हो गया है। पंजाब का हर पांचवां बाशिंदा बिहारी है। भैया अब जीवन भर के रोजगार के लिए पंजाब में ही बस गया है। उसके पास आधार कार्ड है, परिवार है, स्कूल जाते बच्चे हैं, मोटर साइकिल है, छोटी मोटी जमीन है, दुकानें हैं और एक छत भी है।
आज पंजाब का हर बेलदार, मिस्त्री, बढ़ई, यानी हाथ का काम करने वाला हर कुशल कारगीर बिहारी है। अब वही सारे काम करता है।
अब वह पंजाब का हो गया है। वह बिहार की भाषा नहीं बोलता, पंजाबी बोलता है। उसका खानपान, बोली बानी, पहनावा, रहन सहन पंजाबी हो गये हैं। भैया आज पंजाब के कारीगरों की बहुत बड़ी कमी को पूरा कर रहे हैं।
आखिर ऐसा क्या हुआ इन 25 वर्षों में कि बिहार ने पंजाब को ही अपना दूसरा घर बना लिया। इतना ज्यादा कि उनकी आस्था, जरूरत और बड़ी संख्या को देखते हुए चंडीगढ़ के सेक्टर 42 में छठ पूजा के लिए एक बड़ा तालाब बनाया गया है। ये होती है अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की जिद। अरुण प्रकाश की कहानी भैया एक्सप्रेस के आखिरी वाक्य से यहां तक पहुंच गया है भैया।
और खुद पंजाब? अब तो पंजाब में आतंकवाद भी नहीं है। फिर भी 25 बरस पहले का पंजाब अब वह पंजाब नहीं रहा। शेर दिल पंजाब आज सिसक रहा है। खून के आंसू बहा रहा है। दरअसल, आज के पंजाब के युवा को दो नशों ने खोखला कर दिया है। एक है चिट्टा यानि ड्रग्स और दूसरा किसी भी जुगत से कनाडा, आस्ट्रेलिया या अमेरिका की तरफ निकल जाना। वहां के युवक बहुत बड़े पैमाने पर चिट्टे की वजह से बरबाद हो रहे हैं। लड़कियों को भी नहीं बख्शा जा रहा। पूरा पंजाब इसकी चपेट में है।
बाहर जाने के नशे का ये हाल है कि युवा वर्ग हाई स्कूल पास करते ही बाहर जाने का सपना पाल लेता है। कैसे भी वर्क परमिट हासिल करना चाहता है। घर द्वार बेचकर, जमीन जायदाद बेचकर, कर्जा लेकर, नकली शादी करके। बस किसी तरह पहुंच जाए। वहां बेशक उसे डिलीवरी ब्वॉय, सेल्स मैन, हर तरह के छोटे-मोटे धंधे करने पड़ें, पर जाना है। खेती का काम, हाथ का कोई रोजगार नहीं करना।
हालत ये है कि पंजाब के हर कस्बे, शहर में सैकड़ों ट्रैवल एजेंट मशरूम की तरह खुल गये हैं जो झूठे सच्चे कागजात करके, नकली शादियां कराके, तगड़ा पैसा लेकर उनके विदेश जाने के सपनों को पूरा करते हैं। कितनी अजीब बात है कि सिख धर्म के पांच प्रतीक केश, कड़ा, कृपाण, कच्छा ओर कंघी अब युवकों के लिए बदल कर कनाडा, कोठी, कैश, कुक्कड़ और कुड़ी हो गये हैं। जो युवक विदेश नहीं जा पाते उन्होंने अपने आप को नशे के हवाले कर दिया है। दोनों के पीछे बहुत बड़ा तंत्र और षडयंत्र काम कर रहा है।
अरुण प्रकाश ने ऐसी हालत की तो कल्पना नहीं की होगी। भैया एक्सप्रेस की यात्रा यही तो कहती है अगर एक भाई मारा भी गया तो दूसरा भाई घर चलाने के लिए मजदूरी करता रहेगा।
आज भी पंजाब को अपने सारे काम करने के लिए भैया की जरूरत है। उसके लिए भैया एक्सप्रेस अभी भी चलती है। हर भैया को रोजगार दिलाती है, दो वक्त की रोटी दिलाती है और महाजन के कर्ज से मुक्ति दिलाती है।
भैया एक्सप्रेस की यात्रा कभी खत्म नहीं होगी।
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