स्त्री-मन विद्रोह करना चाहता है लेकिन क्या ऐसा हो पाता है ? अगर होता भी है तो किन परिस्थितियों में ? जीवन के किन क्षणों में? इन सवालों का कोई निश्चित जवाब नहीं। आलोक कुमार मिश्रा की कहानी ‘बुआ चली गई’ ऐसी तमाम स्त्रियों की कहानी है जो अपने जीवन के अंतिम दिनों में आख़िरकार विद्रोह कर ही देती हैं। जो यह यक़ीन दिलाती है कि विद्रोह करने की, विरोध करने की कोई उम्र नहीं होती। आइए, आप भी पढ़िए यह कहानी – अनुरंजनी
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बुआ चली गई
उफ़्फ! क्या ये वही आँखें थीं जिनमें मैंने हमेशा सावन की हरियाली ही देखी थी! जिसमें उमड़ते-घुमड़ते दो अल्हड़ बादल कभी स्नेहवश बरस जाते थे तो कभी सारे माहौल को अपने होने से सुहाना बना डालते थे। पर अब देखो, कैसे सूने हो गये थे वे! जैसे बरसों से परती पड़ी कोई जमीन, जैसे घनघोर बारिश के बाद दिशाओं में पसरी कोई उचाट उदासी, जैसे बिन पानी के दो गहरे कुएँ…। अब उसकी गहरी धँस चुकी आँखें ही नहीं वह भी पूरी की पूरी कितनी चुप-चुप सी हो गई थी। बहुत कम बोलती थी। हाँ-ना में ही जवाब देती थी। बहुत कुरेदो तो बस बनावटी मुस्कान फेंक कर कहती, “काव बोली बाबू ? कुछू होय तब तौ बताई।” उसका ये कहना कि बताने-कहने को कुछ नहीं है उसके पास, हम सबके हृदय को बेधने के लिए काफी था। उसे यूँ देख मन में बहुत कुछ दरक गया। पिता जी तो बहुत ही दुखी हुए। पर उससे मिलने की खुशी भी कम नहीं थी उन्हें। हम सब भी तो कितने खुश थे।
ये वही बुआ थी जिसे जब से होश सँभाला पूरे सावन महीना अपने घर-परिवार के बीच ही पाया। भले ही उसे साल भर कभी मायके आने का मौका ससुराल वाले न देते रहे हों पर वह किसी न किसी तरह सावन का महीना टलने नहीं देती थी। इसमें मदद करती थी हमारे परिवार में परंपरा बन चुकी एक मान्यता। माना जाता था कि सावन महीने में न हमारी बेटियाँ मायके आती हैं न बहुएँ जाती हैं। अब न आने की मान्यता में वह आ यूँ जाती थी कि सावन लगने से एक-दो रोज़ पहले ही चले आना और पूरा महीना बिताकर ही जाना। इसके लिए वह और महीनों में छोटे-मोटे अवसरों पर आना तक टाल देती थी, जिससे कि ससुराल वालों पर पूरा दबाव बना रहे भेजने का। वह एक-दो दिन के बदले महीने भर का नैइहर नहीं छोड़ सकती थी। जब तक रहती बातों, किस्सों, गीतों से घर गूँजता। जब चली जाती तो कुछ दिन तक दीवारें भी काटने दौड़तीं। सब कहते ‘मतवाली कै आसन सबसे भारी हय। जाये के बाद कुछू नीक नाहीं लागत।’ हमारे लिए तो सावन, बारिश, झूला, नाग पंचमी और राखी का त्यौहार इन सबका मतलब ही यही छुटकी बुआ रही थी अब तक। बड़ी बुआ तो शहर में ही अपने समृद्ध घर-परिवार के साथ रम गई थी। वह कभी आती भी थी तो दो-चार दिन के लिए। इसीलिए उससे जुड़ी उतनी यादें नहीं हैं मस्तिष्क में। छोटी बुआ जब तक रहती मैं और मेरे सभी चचेरे भाई-बहन सब उसके इर्द-गिर्द उसकी बातें सुनने, स्नेह पाने और वो कुछ भी चाहे तो उसे पूरा करने के लिए जमे रहते। सोते भी उसकी चारपाई के आसपास अपनी-अपनी खाट बिछाकर। बुआ साल भर की प्रतीक्षाओं का फल थी उन दिनों।
पर ये बातें और, यादें तो बचपन की थीं। समय अपने साथ-साथ कितना कुछ बदल देता है। पिता जी के साथ माँ और मैं जबसे शहर आकर बसे ये सब पीछे छूट गया। मेरी स्थाई नौकरी लग जाने के बाद तो वहाँ कभी हमेशा के लिए लौटकर बस जाने का सपना भी ख़त्म सा हो गया था।
एक दिन छोटी बुआ चाचा के साथ जनवरी की कड़ी ठंड में सुबह चार बजे ही यहाँ दिल्ली वाले हमारे घर पर पहुँच गई थी। जबसे गाँव छूटा था बुआ भी तो हमसे छूट ही गई थी। बीच में एक-दो बार ही मिलना हो पाया। जैसे मेरी शादी में। पूरे एक हफ़्ता रही थी हमारे साथ वो। गीत गाती रही, कैमरे के आगे सबसे पहले खड़ी होकर फोटो खिंचाती रही। शादी की वीडियो में उसके चेहरे की ख़ुशी देखते ही बनती है। इसके कुछ साल बाद मैं फूफा जी के मृत्यु भोज में ही पहुँच पाया था उसके पास। तब उसके पास सिवा आँसूओं के कुछ न था। जब वह एक छोटी बच्ची की तरह रोते हुए मुझसे लिपटी तो मैं उसके प्रेम और दुख से भीग सा गया। दो दिन रहा था। इतने दुख में भी वह मेरे खाने-पीने की चिंता करती थी और बिस्तर पर पास आकर बैठती। भइया-भौजी का हालचाल लेती। मेरी बच्चियों के बारे में पूछकर कहती कि, “लेइ आओ देखावै, नाहीं तो हमहीं आइ जाबै।” मैंने कहा, “चल हमरे साथे।” तो बोली, “बाद में अइबै”। मैंने समझा ऐसे ही कहा होगा। पर वह बात की पक्की थी, तो थी। वैसे भी पिताजी की गंभीर बिमारी के बारे में सुनकर बेचैन हो उठी थी वह। अपने कहे के तीन साल बाद उस दिन वह दिल्ली तक आ गई थी भइया-भौजी, भतीजे-भतीज बहू और बच्चियों से मिलने। इस बीच उसकी ज़िंदगी किसी उजाड़ बस्ती सी वीरान हो चुकी थी।
छोटे कद और पक्के रंग की थी मेरी बुआ। उसकी चपल और गहरी आँखें बला की खूबसूरत थीं। दाँत थे जैसे मोतियों की गूँथ दी गई लड़ी। छोटे चाचा लोग कई बार उसे चिढ़ाने को ‘कल्लो बहिनी’ कहते। पर वह ऐसी बातों पर कोई प्रतिक्रिया न देकर किन्हीं दूसरी ही बातों की तान छेड़ देती। जैसे रंग-रूप की निस्सारता का सबसे ज़्यादा भान उसी को हो। हम छोटे बच्चों को उसे यूँ ‘कल्लो बहिनी’ कहा जाना बुरा लगता था। उसकी ओर से चाचाओं से मैं भी लड़ पड़ता था। कहता, “हमार बुआ तोहरे लोगन से नीक ही।” वह ख़ुद को चिढ़ाने पर भले ही कुछ न कहती रही हो पर मेरे इस बाल स्नेह पर बलि-बलि जाती थी।
मेरी माँ से उसकी ख़ूब बनती थी। मेरी दादी यानी अपनी माँ से भी ज़्यादा। दोनों भर दुपहरी बरामदे में मिलकर चावल-गेहूँ साफ़ करतीं। पर शायद काम से ज़्यादा अपने मन की बातें एक-दूसरे से साझा करतीं। ख़ुद को कल्लो कहे जाने पर उसको दुख होता था, इसका अंदाज़ा मुझे यूँ लगा था कि वह माँ को गा-गा कर कोई एक लंबा गीत सुनाती थी। ये गीत उन दिनों आए किसी कैसेट में उसने अपने घर के ट्रांजिस्टर से सुना था। गीत क्या पूरी कहानी थी, जिसमें नायिका को अपने काले रंग की वजह से ससुराल में ताने सुनने को मिलते थे। इसमें पति की उपेक्षा भी शामिल थी। बुआ गीत में शामिल नायिका के प्रतिरोध को बहुत भाव के साथ गाकर व्यक्त करती –
“कारी बदरिया – कारी पुतरी
कारी कोयलिया गावै मिसरी।”
गीत में बहुत सहज-सरल तर्क के साथ नायिका ये बताती कि दुनिया में काले रंग का बहुत महत्व है। जैसे- काले बादल ही बारिश लाते हैं जिससे फसल पैदा होती है, काले बाल न हों तो इंसानी ख़ूबसूरती भी न हो, आँखों में काली पुतलियाँ न हों तो संसार भी न दिखे, काला अँधेरा न हो तो रात भी न हो जिससे नींद भी न हो और भी बहुत सी बातें। गाते-सुनाते नायिका और बुआ एक हो जातीं थीं। लगता था शायद बुआ इन सबमें ही अपना महत्त्व भी बता देती थी कि मैं न होऊँ तो चारों ओर बिखरी ये खुशियाँ भी न हों। मैंने काले रंग की सुंदरता को अपने उरूज़ पर बुआ में ही देखा था और आज तक वही मेरा पसंदीदा रंग बना हुआ है।
स्नेह वश बुआ मिलने आई तो पिता जी ने ज़ोर देकर कुछ दिन के लिए उसे रोक लिया। चाचा वापिस लौट गये। तय हुआ कि महीने-डेढ़ महीने बाद उसे मैं ही गाँव छोड़ आऊँगा। सब बहुत खुश थे। बस खटक रहा था तो बुआ का व्यवहार। उसके सूखे और निष्प्राण तन को देख लगता था कि हज़ारों पतझड़ एक साथ बीत गये हैं उसके ऊपर से। उसकी आत्मा में घुली-बसी वो कोयल भी कहीं उड़ गई थी जो हमेशा गाकर- चहचहाकर उत्सव मनाया करती थी, बेमौसम बसंत ले आया करती थी। अपनी बातों और कहकहों से घर गुलज़ार कर देने वाली बुआ हमेशा गुमसुम सी रहती। चेहरे पर उदासी की परत स्थाई रूप से जम गई थी। कुरेदने पर ही कोई पिछली बातें संक्षेप में बताती थी। माँ पहले की तरह उससे ख़ूब बतियाना चाहती। अपनी ओर से बातें शुरू भी करती, पर वह निर्विकार, निर्लिप्त भाव वाली चादर ओढ़े रखती। ज़्यादातर सिर हिलाकर जवाब देती, बोलती तो बस कुछ वाक्य में ही अपनी बात रखती। पर एक बात पर उसका पूरा शरीर कुनमुना जाता। जब भी दिवंगत फूफा जी का कोई ज़िक्र होता वह असहज़ सी हो जाती। इधर-उधर नज़रें घुमाकर बात करने वाले से कटने की कोशिश करती। हम सबको लगता कि शायद वह अपने दर्द को कुरेदना नहीं चाहती। हमने भी बात समझते हुए ऐसी बातों से दूरी बना ली।
बुआ बहुत अमीर घर में ब्याही थी। सौ-डेढ़ सौ बीघा खेत थे उसके ससुराल में। हमारे दस बीघे खेत वाले परिवार के लिए तो वह रानी थी रानी। क्या रुतबा था उसके ससुराल वालों का! कोसों-कोस दूर के लोग उसके ससुर जी को जानते ही नहीं थे बल्कि सम्मान भी देते थे। तीन आँगन वाला घर दो-दो नौकरानियाँ मिलकर बुहार पाती थीं। बुआ जब भी मायके आती सोने से लदकर आती थी। उसके गले के हार, पैरों की पाज़ेब, अंगूठियाँ, कीमती कपड़े सब चर्चा का विषय रहते गाँव में। सालों तक बुआ को भी गर्व रहा था इन सब पर। पर उसका गर्व तब टूटकर चकनाचूर हो गया जब मरने से कोई पाँच साल पहले फूफा जी उसे अपने साथ मुंबई ले गये थे। ले क्या गये थे, बुआ की एक बार मुबंई देखने की जिद से मज़बूर हो गये थे वह। सुना था कबाड़ का अच्छा कारोबार था वहाँ फूफा जी का। लाखों में खेलते थे वह। गाँव वालों ने तो नाम ही सेठ रख दिया था। बुआ भी बड़े गर्व से उन्हें सेठ ही कहकर पुकारती थी। जब भी फूफा हमारे घर आते थे, ख़ूब फल और मिठाइयाँ लाते थे। हम बच्चे उनके आने का इंतज़ार करते थे तो जाने का भी। जाते हुए वह हमें दस-दस रूपये जो देते थे। ये हमारे लिए बड़ी पूँजी होती थी उन दिनों। इतनी कि आने वाले मेले का पूरा जुगाड़ हो जाए।
ख़ैर, बुआ जब मुंबई पहुँची तो बड़ी ख़ुश थी। पर कुछ ही दिनों में उसने फूफा जी की एक औरत से काफ़ी नज़दीकी महसूस की। पड़ोस में रहने वाली वह औरत बड़े अधिकार पूर्वक उनके घर जब-तब चली आती और फूफा जी से भी ख़ूब घुली-मिली रहती। हँस-हँसकर बतियाती, हाथ पकड़ लेती और इधर-उधर साथ जाने की भी कोशिश करती। बुआ को ये सब अच्छा नहीं लगा। उसने फूफा जी को सख़्ती से टोका तो उनकी भड़ास बहार निकल आई। झल्लाकर बोल पड़े, “कल्लो महारानी, एक गोरी-चिट्टी औरत से थोड़ा हँसना-बोलना भी बर्दाश्त नहीं हो रहा तुमसे।” तीन बच्चों की माँ मेरी बुआ को अब तक अपने रंग को लेकर ताने सुनने की आदत हो चुकी थी। पर न जाने क्यों इस बार उसे यह बर्दाश्त न हुआ। उसने वहाँ हंगामा खड़ा कर दिया। कहते हैं पूरे मुहल्ले में फूफा जी की ख़ूब जग हँसाई हुई थी। बुआ ने ये सब वहाँ से लौटकर माँ को बताया था। उसने फूफा से मुंबई छुड़वाने का प्रण ले लिया और वह ऐसा कर के मानी। मज़बूर होकर फूफा जी को अपना कारोबार त्याग हमेशा के लिए गाँव में रहने के लिए तैयार होना पड़ा। पर हिम्मती और धुन की पक्की बुआ अपनी नियति से तो नहीं लड़ सकती थी न! शहर छोड़ने के कुछ महीनों बाद से ही न जाने क्यों फूफा जी बीमार रहने लगे थे। इन सबके बीच इलाज़ के लिए बहुत से खेत बेचने पड़े। आमदनी शून्य हो गई। राजसी ठाट-बाट में जैसे दरिद्रता के घुन लग गये। फूफा जी की बीमारी मँहगे इलाज के बावजूद बढ़ती रही और वह बेहद कमजोर होकर एक दिन चल भी बसे।
इधर परिवार सहित दिल्ली आकर रहने के कारण और पिता जी की गंभीर बीमारी में उलझकर हमारा परिवार भी ज़्यादा जुड़ा नहीं रह पाया उन सबसे। कुछ-कुछ खबरें चाचा जी से मिलती या कभी-कभी बुआ से ही फोन पर बात हो पाती। वह अपने दुखड़े कभी नहीं सुनाती, बस हमारा हाल-चाल लेती और हमेशा ख़ुश रहने की कामना करती। चाचा जी ने ही बताया था कि फूफा जी को टीबी हो गया था। घर की बिगड़ी हालत का भी जब-तब जिक्र करते थे वह। हालाँकि हर बार खेत बेच देने से उनके काम निकलते रहे। इस बीच कुछ-कुछ अंतराल पर उसके सास-ससुर भी दुनिया छोड़ गये। अपने तीन बच्चों के साथ बुआ अकेली रह गई। इसी अकेलेपन से उबरने के लिए उसने अपने बड़े बेटे का अठारह-उन्नीस की उम्र में ही ब्याह करा दिया और बहू ले आई।
यहाँ दिल्ली वाले घर पर बुआ को आये लगभग महीना हो गया था। लेकिन वह अन्यमनस्य ही बनी हुई थी। कहीं घूमने-फिरने जाने से भी अक्सर कतराती और कोई कोना पकड़ गुमसुम सी बैठी रहती।
बुआ के बड़े बेटे रामफल ने फोन कर जब उसे गाँव भेज देने पर ज़ोर दिया तो पिता जी ने कहा – ‘कुछ दिन में बेटा छोड़ आएगा।’
बुआ के जाने की तैयारी धीरे-धीरे शुरू हो गई। मैं उसकी विदाई के लिए कपड़े और सामान खरीद लाया। उसने उन पर आँख भी न फेरा।
माँ चाहती थी कि कम से कम जाते हुए ही सही उसकी मतवाली उससे दिल खोल कर बातें तो करे। उसने मेरी लाई हरी बॉर्डर वाली साड़ी फैलाकर उसके सामने रखते हुए कहा, “देखो बहिनी, तोहरे एक ठो बंबई वाली सड़िया जैसी हय न ई साड़ी, जउन तू पहिर कै हमरे साथे सिवरात कै मेला देखय गय रहिउ…अरे, उहै जउन कहत रहिउ कि सेठ लाय रहे बंबई से।”
माँ के मुँह से बंबई और सेठ शब्द क्या निकला, मरियल सी दिख रही सुप्त पड़ी बुआ ज्वालामुखी सी फट पड़ी- “नाम न लेव भउजी ऊ मक्कार कै। वही दाढ़ीजार कै नाम सुनि हमार करेजा फुँकि जात हय। तबाह कयि गय हम्मै अउर हमरे बच्चन के ऊ।”
बोलते हुए बुआ की धँसी आँखें बाहर निकल आईं थीं। वह बोलते-बोलते खड़ी हो गई। उसका पूरा शरीर काँप रहा था। उसने पास की दीवार पर एक हाथ टेककर खुद को संभाल रखा था। जिस ननदोई की आज तक माँ ने उसके मुँह से बड़ाई ही सुनी थी, उनके लिए ऐसी बातें सुन वह हैरान रह गई थी।
माँ ने टोकते हुए कहा- “अरे, बहिनी ई का कहत हियु ?”
“ठीकै कहित हय भउजी, ऊ अपना तो मिटि गय, हमहूँ के मिटाय गय। बंबई मा अइय्यासी करत रहा ऊ अइय्यासी।” कहते हुए बुआ के चेहरे से घृणा टपक-टपक जा रही थी।
“एड्स होइ गय रहा दाढ़ीजार के। खेत-बारी बिक गय, लेकिन कुछू न भय। राजा से रंक कयि दिहिस। अपने मरा अउर हम्मैं मरै के खातिर छोड़ि गय।”
हम सब आवाक हो उसे सुन रहे थे। कोई प्रतिक्रिया सूझ ही नहीं रही थी। फूफा जी एड्स से मरे, ये हम सबके लिए नई ख़बर थी। बुआ अभी शांत नहीं हुई थी। घृणा की जगह अब दीनता और दुख के बादल उस पर घिरे आ रहे थे। थोड़ी देर रुककर वह रोते हुए बोली, “आपन बिमरिया हमहूँ के देइ गय रे भउजी…हमहूँ नाहीं जीयब अब। जउन दवाई रोज खाइत है ऊ एड्स कै होय। डाक्टर बस साल-छै महीना कहिस हय। तबै चलि आयन कि देखि आई तोहरेन का। हमार लरिके बिलाय गये रे भउजी। खेत-बारी बिकाइ गय, उछिन्न होय गयन रे भउजी।”
बुआ मन की सब उगलकर पूरी चुप तो हो गई पर उसका सिसकना जारी रहा। पास के दरवाजे पर लटक रहे परदे से उसने अपना मुँह छुपा लिया था। जैसे ख़ुद को किसी को भी दिखाना न चाहती हो। उसकी ये बातें सुन हम सब भी हैरान-परेशान हो गये। माँ और पत्नी की आँखों से आँसू बहे जा रहे थे। दूसरे कमरे से न जाने कब आकर पिता जी भी ये सब सुन रहे थे। वह भी रोने लगे। पिता जी को हमने अब तक कभी भी रोते नहीं देखा था। यूँ परेशान होने से उनकी तबीयत भी बिगड़ने की आशंका थी।
वह उठकर अपनी बहन के पास गये और उसका हाथ पकड़कर बोले- “तू काहे चिंता करत हे, हम तोर इलाज करइबै। आजकल एड्स कै इलाज भी होत है। दवाई खात रहौ तो कुछू नाहीं होत।”
पर ये सुनकर बुआ सिर्फ़ इतना ही बोली कि, “अब बहुत देर होइगै रे बाबू, अब नाहीं बचब, न जीयै कै कउनो इच्छा बाय। अब तो लरिके-बच्चे सब धिक्कारत हैं। अब जाय देव हम्मैं बाबू।” यह कह वह पिता जी से चिपक कर और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। पिता जी भी आश्वासन का दामन छोड़ बस रोते रहे। बहुत देर बाद बुआ शांत हुई। उसने मुझसे कहा, “बाबू तोहरे सबके देखि लिहेन, जिउ जुड़ाय गय। अब हम्मैं छोड़ि आओ। लरिकन-बच्चन में कुछू दिन रहि ली। न जाने कब साँस उखरि जाय।”
इसके बाद उसने जाने की रट ही लगा ली। जहाँ पिता जी और दस-पंद्रह दिन रोकना चाह रहे थे वहीं वह जल्दी जाने की ज़िद कर रही थी। कहती, “बस अब जी चुकेन, अब अपने घरे-दुवारे जल्दी प्रान निकरै, ई मनाओ।” तीन-चार दिन बाद ही मैं बुआ को उसके घर छोड़ आया। सालों बाद उसका वह बड़ा घर देखा। ऐसा लगा कि सब कुछ श्रीहीन होकर उजड़ और बिखर रहा हो। उसके दोनों लड़के छोटी-मोटी नौकरी करके गुज़ारा करने पर मजबूर थे। जब वहाँ से आने लगा तब बुआ ने रोते हुए मेरे हाथ में दस रूपए का नोट दिया। न जाने क्यों मैं मना न कर सका।
घर जाने के महीने भीतर ही बुआ ने बिस्तर पकड़ लिया था। अंतिम चार दिन वह बिना खाए-पिए मृत्यु शय्या पर पड़ी रही। उनके बेटे ने मुझे बताया था कि न जाने क्यों अंतिम दो दिनों में वह अनाप-शनाप ज़िद कर रही थी। जैसे उसने बहू से अपने बक्से में रखी लाल साड़ी लाकर उसे पहनाने को कहा। उसकी स्थिति देखते हुए बहू ने उसे पहना भी दिया। पर बुआ कि माँग इतने भर से रुकी नहीं। वह अपने माथे पर उससे सिंदूर लगाने की ज़िद करने लगी। एक विधवा औरत की ऐसी ज़िद सुन जहाँ कुछ हैरानी जताते हुए नाक-भौं सिकोड़ रहे थे, वहीं कुछ लोग इसे अंत समय में अपने गुजर चुके पति के प्रति लगाव जगने के रूप में देख तरस खा रहे थे। बेटे-बहू ने उसे ऐसी ज़िद न करने के लिए समझाया भी, पर वह अड़ी रही। उसकी अंतिम इच्छा मान बहू ने मंदिर से लाकर लाल टीका पूरे माथे पर मल दिया। बताते हैं इसके बाद वह घंटों मरे फूफ़ा जी को मन भर गरियाती रही। फ़िर पूरी तरह चुप हो गई। अंत समय में उसका सूखा चेहरा दमक सा उठा था, जैसे उसे असीम शांति मिल गई हो। वैसे ही दमकते और मुस्कुराते हुए वह अनंत यात्रा पर निकल गई। उसकी अंतिम समय पर की गई ज़िद लोगों में चर्चा का मुद्दा बनी रही। अंततः लोग इसे पति के प्रति उसके समर्पण के रूप में बताने लगे और गालियाँ देने को अंत समय में उसके दिमाग़ के ख़राब होने से जोड़ा जाने लगा। पर न जाने क्यों मुझे यह उसका अपने स्तर पर किया गया अंतिम प्रतिकार लग रहा था जो उसने अपनी स्थितियों और वैवाहिक जीवन में मिले धोखे के खिलाफ़ किया था। जो भी हो मेरी बुआ चली गई। रह गईं तो बस उसकी स्मृतियाँ दिन-ब-दिन गहराती ही चली जाती हैं।