आज से इण्डिया हैबिटेट सेंटर का भारतीय भाषा महोत्सव ‘समन्वय’ शुरू हो रहा है. इसमें इस बार भोजपुरी के दुर्लभ कवि-लेखक प्रकाश उदय को सुनने का मौका भी मिलने वाला है. उनके साहित्य पर युवा कवि मृत्युंजय ने यह बहुत अच्छी टीप लिखी है. और आस्वाद के लिए उनकी पांच कविताएँ भोजपुरी के रंगो-बू में- जानकी पुल.
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भोजपुरी एक ऐसे इलाके की बोली है जो त्रिलोचन के शब्द उधार लेकर कहें तो ‘भूखा-दूखा’ है। इस इलाके में भी अन्य ग्रामीण इलाकों की तरह ही आवारा पूंजी भांति-भांति से पहुंची है, और उसने अपना रंग-ढंग दिखाना शुरू किया है। अब तो इस परिघटना का एक चरण पूरा हुआ। दूसरे भोजपुरी डायस्पोरा [त्रिनिदाद, टोबैको,मॉरीशस आदि] भी इस दौर में करीब आए। तब ऐसे में संस्कृति के स्तर पर भोजपुरी-भाषी इलाके में आमूल परिवर्तन देखे गए। अश्लील गीतों, बेहूदा फिल्मों और वाहियात चैनलों की दर-वाहियात भोजपुरी ने कमाई तो की, पर इस सबके कारण भोजपुरी की समृद्ध प्रतिरोधी और करुण लोक-परंपरा को देश-निकाला दे दिया गया। ऐसा नहीं था कि इस दौर से पहले भोजपुरी में सब कुछ अच्छा और बेहतर था, पर दूसरी परंपरा की भी बेधक मौजूदगी रहा करती थी। इस दौर के बाद इसी प्रतिरोधी और करुण बेधक स्वर को समझ-बूझ बाहर किया गया।
इस भोजपुरी इलाके के पास लोक साहित्य का जखीरा है, पर कुछेक अपवादों को छोड़ दीजिये, तो उनके संग्रह का काम अभी भी बहुलांश में बाकी है। मेरे जाने इस लोक-साहित्य का मूल रस करुण है। इसकी ताकत श्रम से इसका जुड़ाव है। पर लोक-साहित्य के भीतर भी किसानों और मजूरों की परंपरा में, तथाकथित निचली और ऊपरी जातियों में, पुरुष और स्त्री स्वरों में अंतर साफ साफ-दिखता है। इस लिहाज से देखिये तो जो सबसे ज्यादा प्रामाणिक प्रतिरोधी करुण स्वर है, वह है दलित मजदूर स्त्री का। शर्मीला रेगे और विमल थोराट जैसे चिंतकों ने इस बात को बखूबी समझा और उभारा है कि जो समाज के जितने निचले हिस्से में होगा, उसका शोषण उतना ही बहुस्तरीय होगा। इस बात को आगे बढ़ाते हुए कह सकते हैं कि समाज के इन निचले हिस्सों के गीत ही बेहतर दुनिया की अगली लड़ाई के लिए ज्यादा मौजूं होंगे।
> प्रकाश उदय इस अद्भुत परंपरा को नए युग में स्वर देते हैं अपने एक गीत की मार्फत। गीत का शीर्षक है ‘आहो-आहो’। मजदूर हलवाहे और उनकी संगिनी के बीच प्रणय का यह गीत श्रम, स्नेह और करुणा के ताने-बाने में रचे जीवन की मुश्किलों > का प्रामाणिक और विश्वसनीय वर्णन है। दिन भर हल चालाने और भीषण मेहनत के बाद > घर लौटा प्रिय और दिन भर ही उससे थोड़ी ज्यादा ही मेहनत करने के बाद थकी मांदी प्रिया का यह संवाद मेरी पढ़ी हुई कुछेक सर्वश्रेष्ठ प्रेम कविताओं में से एक > है। गृहस्थ प्रेम, अलौकिक प्रेम, अकुंठ प्रेम वगैरह प्रेम की कोटियों से अलहदा > यह प्रेम श्रम और साझेदारी की बुनियाद पर टिका हुआ है। यहाँ बराबरी का भाव कहीं से जुगाड़ना नहीं पड़ता, कविता की अंतःसंरचना में यह गुंथा-बिंधा है। लोक का आदर्शीकरण कर उसके नाम पर तुरही-मजीरा बजाकर उसे बेचने वाली काव्य-दृष्टि के बरखिलाफ यह एक ‘शामिल’ कविता है।
> प्रकाश उदय लोक के पिछड़ेपन के नहीं, उसकी आगे बढ़ी हुई नजर के कवि हैं। इस दौर में जब धर्म को लेकर लोगों की ‘आस्थाएं’ आहत होती रहती हैं, जब धर्म के राजनीतिक उपयोग ने देश के भीतर एक ऐसी राजनीति को बढ़ा दिया है जो कि फासीवाद की तरफ जाती है, तब ऐसे में धर्म के साथ बात करने का एक तरीका यह भी है, जैसा प्रकाश उदय लोक परम्पराओं से छानकर संभव करते हैं। ‘दुख कहले सुनल से घटल बाटे’नाम की कविता बनारस के उसी मंदिर-मस्जिद ‘काशी-विश्वनाथ और ज्ञानवापी’ को अपनी आधार भूमि के रूप में चुनती है जहां के
लिए संघी-बजरंगी नारे लगते हैं कि ‘मथुरा काशी बाकी है’। प्रकाश उदय इन दोनों इबादतगाहों को सामान्य गृहस्थी के जीवन चित्रों में बदल देते हैं। शिव एक गैर-ज़िम्मेवार किस्म के गृहस्थ हैं जो अल्ला के बगल में रहा करते हैं। शिव की अराजक जीवन शैली से परेशान अल्ला मियां उनसे बतियाते हैं और दोनों एक दूसरे को अपना दुख सुनाते हैं। एक अंधविश्वासी भक्तों के प्रचुर जल-स्नान से तो दूसरे नित्यप्रति की अजान से हलकान हैं। सो दोनों एक दूसरे को अपना दुख सुना-बता कर मन हल्का कर रहे हैं। कविता धर्म की भूमि से, ईश्वरत्व के अर्श से अल्ला और
> शिव दोनों को जीवन के फर्श पर उतार लाती है। बेशक, भीतर से लड़ने की इस रणनीति पर बहस हो सकती है, पर अभी के दौर में यह तरीका भी दंगाईयों-बलवाइयों को चुभता होगा, ऐसा मुझे लगता है। सेक्युलर शब्द के शाब्दिक अर्थों में यह कविता सेक्युलर है, इहलौकिक है। यही इसकी ताकत है। अलावा इसके प्रकाश उदय की कवितायें भोजपुरी जन-मानस के रोज़मर्रा के जीवन की खास झांकी पेश करती हैं। उनकी कविताओं में भोजपुरी का वैभव देखा जा सकता है। शादी-ब्याह, न्योता-हँकारी, रोजी-रोजगार, सब कुछ उनकी कविता में दर्ज है। पर इन कविताओं में भी उनकी नजर साफ मौजूद है। आम इंसान की जिंदगी, उसकी मुश्किलें,उसके रंजो-गम इन कविताओं में दर्ज है। आइये उनकी पाँच कवितायें पढ़ते हैं।
आहो आहो
रोपनी के रऊँदल देहिया, संझही निनाला तनि जगइह पिया
जनि छोडि़ के सुतलके सुति जईह पिया
आहो आहो
हर के हकासल देहिया, सांझही निनाला तनि जगइह धनी
जनि छोडि़ के सुतलके सुति जईह धनी
आहो आहो
चुल्हा से चऊकिया तकले, देवरू ननदिया तकले
दिनवा त दुनिया भरके, रतिये हऊवे आपन जनि गंवईह पिया
धईके बहिंया प माथ, बतिअइह पिया
आहो आहो
घर से बधरिया तकले, भइया भउजईया तकले
दिनवा त दुनिया भरके, रतिये हऊवे आपन जनि गंवईह धनी
धईके बहिंया प माथ, बतिअइह धनी
आहो आहो
दुखवा दुहरवला बिना, सुखवा सुहरवला बिना
रहिये ना जाला कि ना, कईसन दो त लागे जनि संतईह पिया
कहियो रुसियो फुलियो जाईं, त मनइह पिया
आहो आहो
काल्हु के फिकिरिये निनिया, उडि़ जाये जो आंखिन किरिया
आ के पलकन के भिरिया, सपनन में अँझुरइह-सझुरइह धनी
जनि छोडि़ के जगलके सुति जइह धनी
जनि छोडि़ के जगलके सुति जइह पिया
जनि छोडि़ के जगलके सुति जइह धनी
रोपनी के रऊँदल देहिया, संझही निनाला तनि जगइह पिया
जनि छोडि़ के सुतलके सुति जईह पिया
आहो आहो
हर के हकासल देहिया, सांझही निनाला तनि जगइह धनी
जनि छोडि़ के सुतलके सुति जईह धनी
आहो आहो
चुल्हा से चऊकिया तकले, देवरू ननदिया तकले
दिनवा त दुनिया भरके, रतिये हऊवे आपन जनि गंवईह पिया
धईके बहिंया प माथ, बतिअइह पिया
आहो आहो
घर से बधरिया तकले, भइया भउजईया तकले
दिनवा त दुनिया भरके, रतिये हऊवे आपन जनि गंवईह धनी
धईके बहिंया प माथ, बतिअइह धनी
आहो आहो
दुखवा दुहरवला बिना, सुखवा सुहरवला बिना
रहिये ना जाला कि ना, कईसन दो त लागे जनि संतईह पिया
कहियो रुसियो फुलियो जाईं, त मनइह पिया
आहो आहो
काल्हु के फिकिरिये निनिया, उडि़ जाये जो आंखिन किरिया
आ के पलकन के भिरिया, सपनन में अँझुरइह-सझुरइह धनी
जनि छोडि़ के जगलके सुति जइह धनी
जनि छोडि़ के जगलके सुति जइह पिया
जनि छोडि़ के जगलके सुति जइह धनी
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दुःख कहले सुनल से घटल बाटे***आवत आटे सावन शुरू होई नहवावन
भोला जाड़े में असाढ़े से परल बाड़ें
एगो लांगा लेखा देह, रखें राखी में लपेट
लोग धो-धा के उघारे पे परल बाड़ें
भोला जाड़े में…
ओने बरखा के मारे, गंगा मारे धारे-धारे
जटा पावें ना संभारे, होत जले जा किनारे
शिव शिव हो दोहाई, मुंह मारी सेवकाई
उहो देवे पे रिजाईने अड़ल बाड़ें
भोला जाड़े में…
बाते बड़ी बड़ी फेर, बाकी सबका ले ढेर
हाई कलसा के छेद, देखा टपकल फेर
गौरा धउरा हो दोहाई, अ त ढेर ना चोन्हाईं
अभी छोटका के धोवे के हगल बाटे
भोला जाड़े में…
बाडू बड़ी गिरिहिथीन, खाली लईके के जिकिर
बाड़ा बापे बड़ा नीक, खाली अपने फिकिर
बाडू पथरे के बेटी, बाटे ज़हरे नरेटी
बात बाटे-घाटे बढ़ल, बढ़ल बाटे
भोला जाड़े में…
सुनी बगल के हल्ला, ज्ञानवापी में से अल्ला
पूछें भईल का ए भोला, महकउला जा मोहल्ला
एगो माइक बाटे माथे, एगो तोहनी के साथे
भांग दारू गांजा फेरू का घटल बाटे
भोला जाड़े में…
दुनू जना के भेंटाइल, माने दुःख दोहराइल
इ नहाने अंकुआइल, उ अजाने अउंजाइल
mrityunjaya prakash uday
7 Comments
mere priy kavi hai prakash uday
kulhii geet bahute neek baanten .. sahiye
bahut badhiya likhail ba.eh khatir raua ke dhayavad de tani.
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