आज हिन्दी शायरी को बड़ा मुक़ाम देने वाले दुष्यंत कुमार की जयंती है। दुष्यंत कुमार ने ग़ज़लों के अलावा गद्य और पद्य में खूब लिखा और बेहतर लिखा। आज उनके काव्य-नाटक ‘एक कंठ विषपायी’ पर आज लिखा है वरिष्ठ लेखक डॉ भूपेन्द्र बिष्ट ने। आप भी पढ़ सकते हैं-
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ये दरवाज़ा खोलो तो खुलता नहीं है,
इसे तोड़ने का जतन कर रहा हूं.
— दुष्यन्त कुमार
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दुष्यन्त कुमार का नाम सामने आते ही हमें उनके गज़ल संग्रह “साए में धूप” (1975) की पहली गज़ल का यह मिसरा याद आ जाता है :
यहां दरख़्तों के साए में धूप लगती है
चलो यहां से चलें और उम्र भर के लिए.
रवीन्द्र कालिया ने भी दशक भर पहले ‘नया ज्ञानोदय’ का एक ग़ज़ल महाविशेषांक निकाला तो दस्तख़त उनवां से अपने संपादकीय में इसका बाकायदा उल्लेख किया कि यह अंक ग़ज़ल का ऐसा कोश है, जिसमें आपको उस्तादों के कलाम पढ़ने को मिलेंगे और ग़ज़ल के 400 साल के सफ़र का एक जायज़ा भी मिल जाएगा. साथ में यह भी जोड़ा कि हिंदी में गजल को सही पहचान दुष्यन्त ने दिलवाई थी.
यही नहीं तरतीब में शायरों को पिरोते हुए जो 13 बाब संजोए गए हैं, उनमें दुष्यन्त और गोपाल दास नीरज को लेकर एक अलहदा अध्याय रखा गया.
ग़ज़ल की बात शुरू में इसलिए कि जैसे उजाले के पखवाड़े में मेहताब की कलाएं ज्यादा से ज्यादातर होती जाती हैं और फिर सितारों पर नज़र नहीं जाती. ऐसे ही उनकी ग़ज़लगोई वाली मकबूलियत ने दुष्यन्त कुमार के दीगर और मैं तो कहूंगा असल पक्ष को छुपा सा दिया.
दुष्यन्त की कलमकारी के मर्मज्ञ विजय बहादुर सिंह जी ने भी उनकी रचनावली प्रस्तुत करते समय पुख्तगी से यही बताया कि प्रेमचंद की तरह दुष्यन्त भी उर्दू की आमफहम सादगी के साथ संस्कृतनिष्ठ हिंदी के मैदान में उतरे थे. इसके लिए आपने कमलेश्वर को भी कोट किया, जिनकी सम्मति तो यहां तक थी कि नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा की कविताएँ अपने देशों में जो और जितना कर सकीं, उससे कहीं ज्यादा दुष्यन्त की ग़ज़लों ने भारतीय लोकतंत्र को बचाने में किया है.
इसमें जरा भी संदेह नहीं कि हिंदी की आबो हवा में ग़ज़ल के जैसे जैसे फूल दुष्यन्त खिला गए, उनकी सुरभि अब तक इस जमीन की नई फसल में भी मिल जा रही है. लेकिन इस पसमंजर के बरअक्स मैं जिस छूटे हुए फन की बात उठाना चाह रहा हूं, वह है काव्य नाटक वाला फील्ड.
दुष्यन्त कुमार की प्रारंभिक रचनाओं में उनका काव्य नाटक ‘एक कंठ विषपायी’ (1963) अत्यंत महत्व का है. इसी तरह उनका एक नाटक भी है — ‘और मसीहा मर गया’.
कविता के इस घनघोर तथा अतिशय समय में काव्य नाटक की शास्त्रीय व्याख्या की ढूंढ – खोज प्रतिपाद्य विषय नहीं हो सकता और यहां है भी नहीं.
संस्कृत से इतर हिंदी में कविता और नाटक के तत्वों को मिलाकर जो एक साहित्यिक विधा आकार ग्रहण कर रही थी एकाधिक कारणों से वह उतनी सरसब्ज़ न हो सकी. “नाट्य शास्त्र” में भरतमुनि लाख कह गए हों कि सामाजिक की आंखों को नाट्य कृति प्रदान करने से बढ़कर कोई दान नहीं है. पर हमारे यहां इस मुआमले में जयशंकर प्रसाद के ‘आजादी की ओर’ के उपरांत एक लंबे अंतराल तक रिक्ति बनी रही.
बाद में नई कविता के रिजॉइंडर के तौर पर ही सही हमें कुछ अच्छे काव्य नाटक या कह लें प्रबंध काव्य अवश्य मिलते हैं :
चिंता (अज्ञेय), अंधायुग (धर्मवीर भारती), संशय की एक रात (नरेश मेहता), आत्मजयी (कुंवर नारायण) के साथ दुष्यन्त कुमार का एक कंठ विषपायी — इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं.
दुष्यन्त कुमार सप्तकों के बाहर के कवि रहे लेकिन उनके ग़ज़लगो वाले अवतार से पहले और फिर उनकी ग़ज़लों की भाव भूमि को भी देखते हुए प्रबुद्ध जनों ने ऐसी निष्पति दी कि वे सर्वथा नई कविता के कवि के रूप में परिगणित होने योग्य हैं.
उनमें भाषाई या अदायगी का अतिवाद नहीं है, इसीलिए उनकी रसाई सामान्य जन तक सहल बन पड़ी. काव्य का एक पोशीदा संतुलन होता है, जिसका खयाल दुष्यंत ने हमेशा रखा. मसलन, साहित्य अकादमी के लिए कन्हैया लाल नंदन ने जब 186 गीतकारों के प्रतिनिधि गीतों का समुच्चय तैयार किया तो उसमें भी शामिल दुष्यंत का यह अंतरा याद किया जा सकता है :
अब उफनते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है
एक हल्का सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है
क्यों करूं आकाश का मनुहार,
अब तो पथ यही है.
दुष्यन्त कुमार अपने कहे और लिखे में उपर्युक्त बैलेंस साधे रखने में निष्णात रहे. विश्वनाथप्रसाद प्रसाद तिवारी ने जिसे रचना का बुनियादी सरोकार बताया है, वह इनकी रचनाओं में बड़ी चौकसी से मिल जाता है, मानो रचना की प्राक्कल्पना के समय ही इसका उन्हें भान रहा हो.
एक कंठ विषपायी की भूमिका में आपने इसे उद्घाटित भी किया है — जर्जर रूढ़ियों और परंपरा के शव से चिपटे हुए लोगों के संदर्भ में प्रतीकात्मक रूप से आधुनिक पृष्ठभूमि और नए मूल्यों को सांकेतिक करने के लिए इस कथा में पर्याप्त सामर्थ्य है.
कथा यही कि प्रजापति दक्ष द्वारा भगवान शंकर को यज्ञ में निमंत्रित न करना और पत्नी वीरिणी की यह चिंता कि यज्ञ अनुष्ठान में किसी प्रकार का विक्षेप न हो.
दक्ष :
शंकर ! हुंह
वह जिसने घर की परम्परा तोड़ी है
वह जिसने मेरे यश पर कालिख पोती है / जिसके कारण
मेरा माथा नीचा है सारे समाज में
मेरे ही घर अतिथि रूप में आए
यह तुम क्या कहती हो ?
वीरिणी :
स्वामी !
हमको इच्छा के विरुद्ध भी
ऐसे बहुत कार्य करने पड़ते हैं
जिनसे / लौकिक मर्यादाओं का पालन होता है.
शंकर अपने जामाता हैं. ……
दक्ष और वीरिणी के संवाद का यह उपक्रम तर्क की भूमिका एवं भावना के परास में एक मानवीय निर्मित ही हैं, इसमें कई अन्य छोटी अंतर्वर्तिनी घटनाएं भी जुड़ती जाती हैं और प्रसंग के अनुरूप स-समय अपने रंग में खिलती भी जाती हैं.
सती यज्ञ के लिए पहुंच गई, दक्ष पुनः उत्तेजित पर आखिरश:
वीरिणी का वात्सल्य जीत गया, दक्ष को झुका भी लिया गया. मगर शंकर को अवहेलित ही रखा गया.
वीरिणी :
….. किसी विवश क्षण से जुड़ जाते हैं हम यूं ही
फिर उससे संबंध आप ही हो जाते हैं
अपनी कन्या ने भी शायद
किसी विवश क्षण में शंकर का वरण किया था.
दक्ष :
वरण किया था
अथवा शंकर ने उसका अपहरण किया था ?
इस बिंदु पर हमें थोड़ा रुककर विचार करना होगा या यहां पर हमको गहरे विमर्श की कुछ अपेक्षा जैसी भी करनी पड़ सकती है कि क्या नाटक को प्रभावोत्पादक बनाने में किरदारों के डायलॉग और उनकी ज्ञापित मनोदशा भर का ही रोल रहता है या फिर कतिपय आनुषंगिक अवयवों की आवश्यकता हो रहती है ?
दुष्यन्त कुमार ने ‘एक कंठ विषपायी’ में अचानक एक नए पात्र सर्वहत की उत्पत्ति की है, अवाम की आवाज़ को आगे रखने के लिए ऐसा पात्र चाहिए ही चाहिए था. यह इसलिए कि मिथकों पर आधारित आख्यान में भी स्त्री पुरुषों की अंतरक्रियाएं और उनका एंडेवर दरअसल हमारी अपनी जिंदगी के ही सवाल होते हैं, बशर्ते ‘प्ले विशेष’ जन सामान्य को मुखातिब हो.
बहरहाल दुष्यन्त ने शंकरजी के निर्वेद और स्त्रीवियोग पर उनके रिएक्शन को जैसा वर्णित किया, वह कुछ सीमित विशिष्ट अर्थों में अप्रतिम कहा जायेगा. व्यंग्य भी, पीड़ा भी और आक्रोश भी — सब एक ही प्रस्तर में, वाह !
शंकर :
देवत्व और आदर्शों का परिधान ओढ़
मैंने क्या पाया ?
निर्वासन ! प्रेयसी – वियोग !!
हर परम्परा के मरने का विष
मुझे मिला / हर सूत्रपात का
श्रेय ले गए और लोग
मैं ऊब चुका हूं
इस महिमा मंडित छल से
अब मुझे स्वयं का वास्तव सत्य पकड़ना है
जिन आदर्शों ने मुझे छला है कई बार / मेरा सुख लूटा है
अब उनसे लड़ना है
बोलो क्यों आए हो ?
क्या और अपेक्षित है ?
‘एक कंठ विषपायी’ की भाषा को लेकर व्याख्याकारों की टिप्पणी है कि यह गद्य की सरणी पर ही चली है और मेरा कहना है कि गद्य का शुष्क इंपैक्ट और नुकीलापन यहां सुधी जनों को बिल्कुल नहीं मिलेगा.
प्रासंगिक रूप से नई कविता के कुछ प्रमुख पुरस्कर्ता, जिनकी काव्य नाटिकाएं भी बहुत जानी गई और पढ़ी गई, कुछ उनकी भी चर्चा साथ में समीचीन हो सकती है.
इससे कब्ल एक चीज़ साफ कर दी जावे कि “गीत” नई कविता का एक विपरीत ध्रुव है या गीतकार नई कविता को परम्परा विरहित कहकर उसे कविता ही न मानें — ऐसी बहस का कोई अर्थ न पहले था और न आज है. क्योंकि साहित्य की विधाओं में किसी किस्म के तात्विक विरोध की बात रहती ही नहीं.
यह रेखांकन महज़ इसलिए कि अज्ञेय की ‘चिंता’ (1932 – 36) हो या धर्मवीर भारती का ‘अंधायुग’ (1954), नरेश मेहता का ‘संशय की एक रात’ (1962) हो या फिर कुंवर नारायण का ‘आत्मजयी’ (1965) — ये सभी हस्ताक्षर प्रयोगवादी कविता के स्वरूप >संगठन> विकास से संपृक्त रहे हैं और इन्हीं के प्रबंध काव्य में गुंथे विषय की बात अब हो रही है.
अज्ञेय ने चिंता में प्रेम की तात्विक व्याख्या की है और ऐसा करते हुए आपने मानवीय प्रेम के उद्भव – उत्थान – विकास – अंतर्द्वंद – ह्रास – अंतरमंथन – पुनरुत्थान तथा चरम जैसे चरणों को एक तरह से नाट्य कृति के आयाम भी अभिहित किया है. भारती ने अंधायुग की रचना के लिए ऐतिहासिक आख्यानक : महाभारत को आधार बनाया तो नरेश मेहता का संशय की एक रात इस संशय की गाथा है, जो श्रीराम सोच रहे हैं — अपहृत सीता को पाने के लिए युद्ध करना उचित होगा या नहीं ? वहीं कुंवर नारायण की आत्मजयी
नचिकेता की कहानी के ज़रिए भौतिक लालसाओं के बीच भी आत्मतत्व की प्रशांति को श्रेष्ठ बताती कृति है.
दुष्यन्त कुमार के ‘एक कंठ विषपायी’ में नाट्य पक्ष जितना समृद्ध है, उसका वास्तुपक्ष उतना ही विचारणीय. कदाचित इसलिए कि रेडियो की नौकरी छोड़ चुके दुष्यन्त जी के मन में जब संदर्भित काव्य नाटक का विषय हावी होने लगा तो आपने फटाफट इसे पूरा कर “कल्पना” को भेज दिया. तब संपादक बद्री विशाल पित्ती अभी इसे देख ही रहे थे कि पंजाब के माने जाने नाट्यकर्मी परितोष गार्गी से दुष्यन्त का संपर्क हुआ और उन्होंने मंचीय नज़रिए से इस रचना के लिए कुछ और मशविरा दिया.
इसी से राज लिप्सा व युद्ध मनोवृति का मारा “सर्वहत” नाम का कैरेक्टर समाविष्ट हुआ और नाटक में वह तत्समय की प्रजा का प्रतीक बन कर उभरा.
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- डॉ. भूपेंद्र बिष्ट
“पुनर्नवा”
लोअर डांडा हाउस
चिड़ियाघर रोड, नैनीताल
उत्तराखंड – 263002
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