आज पढ़िए प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी वाणी त्रिपाठी के स्तंभ ‘जनहित में जारी सब पर भारी’ की अगली किस्त- मॉडरेटर
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हमारी दुनिया में हर किसी की अपनी कहानी होती है। लेकिन कुछ कहानियाँ ऐसी होती हैं, जो हम सबकी सामूहिक आवाज़ बन जाती हैं। पहलगाम के उस दर्दनाक दिन ने न केवल कश्मीर बल्कि पूरे देश को गहरे तक झंझोर दिया।
यह एक ऐसी त्रासदी है, जो सिर्फ आँसुओं से नहीं, सवालों से भी भरी हुई है। यह डायरी उन सवालों का हिस्सा है, जिनका कोई आसान जवाब नहीं हो सकता। यह एक स्त्री की दृष्टि से एक आत्मीयता, गुस्से और उम्मीद का पुल है। यह उस दर्द को साझा करती है, जो हम अक्सर छिपाते हैं। यह उस खामोशी को आवाज़ देती है, जो दर्द में चुप रहती है।
जब हम किसी हादसे के बारे में सुनते हैं, तो हमारा दिल भर आता है। लेकिन क्या हम कभी उसकी गहराई में उतर पाते हैं? क्या हम समझ पाते हैं उस व्यक्ति का क्या हाल होता है, जो किसी की गोली से चुकता हुआ जीवन देखता है? यह डायरी उन्हीं सवालों का जवाब देने की कोशिश है। और उन धड़कनों का, जो अब भी रुकने से डरती हैं।
22 अप्रैल, 2025
पहलगाम का टूटा हुआ दिन
आज भी आँखें बंद करती हूँ तो पहलगाम की वो दोपहर सामने आ जाती है। हरी घास, सफेद बर्फ, बच्चों की हँसी… और फिर अचानक — गोलियाँ। चीखें। दौड़ते कदम। गिरी हुई चप्पलें। खून। वे लोग तो बस कुछ पल की ख़ुशियाँ लेने आए थे। कितने सपने थे उनके सूटकेसों में — एक तस्वीर, एक कहानी, एक याद।
लेकिन पहलगाम ने उन्हें मौत की कहानी सौंप दी।
मैं आज उन चेहरों को सोचती हूँ —
जिनके लिए किसी धर्म, किसी पहचान का कोई अर्थ नहीं था।
वे बस जीना चाहते थे।
पर जीना अब शायद सबसे महंगी चीज़ हो गई है।
एक औरत की कहानी सुनकर मेरा दिल कांप गया —
कैसे उसने एक आयत पढ़कर अपनी जान बचा ली,
और उसके पति ने… सिर्फ अपने अस्तित्व की वजह से अपनी जान गंवा दी।
क्या अब जीने के लिए भी हमें कोई प्रमाण देना होगा?
क्या हँसी, क्या प्यार — सबकुछ अब गोलियों से तौला जाएगा?
पहलगाम अब मेरे लिए सिर्फ एक जगह नहीं रहा। वो अब एक टीस बन गया है — जो हर सांस के साथ चुभती है।
—25 अप्रैल, 2025
पहलगाम के तीन दिन बाद
तीन दिन बीत गए।
शहरों में फिर चहल-पहल लौट आई है।
खबरों में अब नए मुद्दे हैं।
पर मैं वहीं अटकी हूँ — पहलगाम के उस आखिरी चीख में।
सोचती हूँ —
क्या हम सब इतने थक चुके हैं कि अब त्रासदियाँ भी बस नंबर बन गई हैं?
तीन दिन बाद भी सवाल वही हैं —
कब तक निर्दोषों की चीखें घाटियों में गूंजती रहेंगी?
कब तक हम हर बार भूल जाने के लिए बने रहेंगे?
नेता आए, भाषण दिए, चले गए।
पर जो माँ अपने बेटे की आवाज़ अब कभी नहीं सुन पाएगी,
उसका कोई नेता नहीं आता।जो बच्चा अब अपने पिता का हाथ पकड़कर वादियाँ नहीं देख सकेगा,
उसे कोई वादा दिलासा नहीं दे सकता।
मैं नहीं जानती, कैसे और कब कुछ बदलेगा।
लेकिन इतना जानती हूँ —
इस बार मैं भूलूँगी नहीं।
इस बार मैं हर टूटी मुस्कान को अपने दिल में सँजोकर रखूँगी।
जब तक मेरी साँस चलेगी,
मैं पहलगाम की उन अधूरी कहानियों को अपनी आवाज़ देती रहूँगी।
मेरी आत्मा की सबसे अंदरूनी आवाज़
कभी-कभी सोचती हूँ…
काश उस दिन मैं भी वहाँ होती।
शायद किसी बच्चे को बाँहों में छुपा पाती,
शायद किसी को बचा पाती।
या शायद…
शायद मैं भी उसी मिट्टी में मिल जाती।
और फिर शायद जान पाती —
कि वह आख़िरी डर कैसा होता है,
जब आप मरते नहीं इसलिए कि आपने कुछ गलत किया,
बल्कि सिर्फ इसलिए कि आप कोई हैं।
रातों को जब नींद नहीं आती,
मैं बस चुपचाप रोती हूँ।
सोचती हूँ, क्या मेरी ये आँखें कभी फिर से सपनों को देख पाएंगी?
या अब बस खोए हुए चेहरों की परछाइयाँ देखेंगी?
पर फिर, हर बार एक छोटी सी लौ भीतर जल उठती है।
जो कहती है —
‘याद रखो।
याद रखना ही तुम्हारा विरोध है।
तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी जिद, तुम्हारी दुआ।’
मैं वादा करती हूँ —
याद रखूँगी।
और किसी दिन, शायद किसी और पहलगाम को बचा पाऊँगी।
अक्सर हम जीवन की छोटी-छोटी बातों को नज़रअंदाज़ कर देते हैं।
हम उम्मीद करते हैं कि जो कुछ भी हमारे आसपास है, वह सदा सुंदर और शांत रहेगा।
लेकिन कभी-कभी, एक खौफनाक हकीकत हमें याद दिलाती है कि इस दुनिया में शांति पाने
के लिए हमें बहुत कुछ खोना पड़ता है।
पहलगाम की त्रासदी ने हमसे बहुत कुछ छीना —
पर इसने हमें एक अहम सिख भी दी।
कभी न टूटने वाली उम्मीद।
कभी न रुकने वाली यादें।
कभी न भुलाने वाली आवाज़ें।
अगर हम खुद से वादा करें कि हम ऐसी त्रासदियों को याद रखेंगे,
उनके लिए उठेंगे, जो अब इस दुनिया में नहीं हैं —
तो शायद हम एक दिन एक ऐसा कश्मीर बना पाएंगे,
जहाँ इंसानियत और शांति की बुनियाद मजबूत हो,
जहाँ हर गोलियों की आवाज़ के बाद हमें
नफरत की नहीं,
बल्कि प्रेम और सहयोग की आवाज़ें सुनाई दें।
यह डायरी समाप्त नहीं होती।
यह एक यात्रा है —
जिसे हम सब को साथ चलकर पूरा करना है।
कभी यह ज़रूरी नहीं कि हम हर सवाल का जवाब पा सकें,
पर इस यात्रा में हमें अपनी आत्मा को ढूँढ़ना है,
अपने भीतर की आवाज़ को पहचानना है।
हमेशा याद रखें,
जो कुछ भी खो चुका है,
वह हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है,
और हम उसे कभी नहीं भूल सकते।
“वो जो लौट कर नहीं आए“
वो पहलगाम के बाइसारन की वादियाँ थीं,
जहाँ लोग सुकून ढूँढने आए थे।
कंधों पर कैमरे थे, आँखों में ख्वाब थे,
कभी हँसी, कभी तसवीरें, कभी चुपचाप थे।
किसी ने कहा था — “कश्मीर जन्नत है”,
मगर उस दिन, जन्नत ने भी आँसू बहाए।
धूप खिली थी, लेकिन आसमान काला हो गया,
जब गोलियों की बारिश में इंसानियत पिघल गई।
वो माँ, जो बेटे के लिए चूड़ी खरीद रही थी,
वो पिता, जो पहली बार अपने बच्चों को बर्फ दिखा रहा था,
वो प्रेमी जोड़ा, जो मोहब्बत में कसमें खा रहा था —
सबका आख़िरी सफ़र वही बन गया।
किसी से पूछा गया: “कौन हो?”
“क्या तुम हमारे जैसे हो या बस एक नाम हो?”
और फिर…
जिनके नाम कुछ और थे, उन्हें वहीं छोड़ दिया गया —
खून में लथपथ, सवालों में दफन।
ये कोई धर्म की लड़ाई नहीं थी,
ये मासूमियत का क़त्ल था,
ये इंसानियत के गाल पर तमाचा था।
और फिर किसी ने कहा:
“मोदी को जाकर कहना…”
नफ़रत का ये पैगाम किसी एक तक नहीं रुका,
ये हर दिल को चीर गया जो जिंदा था।
हम रोए — ना सिर्फ़ उनके लिए जो चले गए,
बल्कि उस दुनिया के लिए जो उनके साथ मर गई।
एक सूटकेस जो कभी खोला नहीं जाएगा,
एक कॉल जो अब कभी उठेगा नहीं।
लेकिन…
इस खामोशी में भी एक आवाज़ है,
जो कहती है — हम हार नहीं मानेंगे।
हम लड़ेंगे — मोहब्बत से, यादों से, इंसाफ़ की माँग से।
क्योंकि वो जो लौट कर नहीं आए —
वो अब सिर्फ़ नाम नहीं हैं,
वो अब हमारी जिम्मेदारी हैं।