लंबी कहानी की कड़ी में आज प्रस्तुत है हरि भटनागर की कहानी ‘अग्नि परीक्षा’। यह कहानी साहित्यिक जगत के ‘खेल’ के ज़रिए बहुत कुछ कहती है जिसमें से एक है सत्य की चुनौतियों की ओर ध्यान दिलाना। हमारे सामने सत्य कहना, उसके साथ टिके रहना कितनी बड़ी चुनौती के रूप में स्थापित हो गया है! आख़िर क्यों यह स्थिति आई? क्या इसलिए कि हम ईमानदार नहीं रह गए हैं क्योंकि जो ईमानदारी से चलते हैं उन्हें कठिनाई भी अधिक उठानी पड़ती है? जब सारा कुछ अपना जीवन चलाने के लिए ही होता है फिर कौन कठिनाई उठाने की ज़हमत करे? यह सारे सवाल इस कहानी में शामिल हैं – अनुरंजनी
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अग्नि परीक्षा
उस भवन का नाम ऐशगाह है।सभी उसे इसी नाम से पुकारते हैं। यह नामकरण ख़ुद उसके मालिक ने किया है। मालिक रसिक क़िस्म के आदमी हैं। कह सकते हैं श्रृंगार रस में डूबे व्यक्ति। वास्तव में वे श्रृंगार रस के कवि हैं। श्रृंगार रस के अलावा बाक़ी रसों को हेय दृष्टि से देखते, उसे काव्य ही नहीं मानते हैं। उनका नाम राजाराम है लेकिन अपने को वे धूलदास कहलाना पसंद करते। यह तख़ल्लुस उन्होंने प्रेम-रस में डूबी अपनी काव्य-आत्मा के अनुसार रखा है। वे कहते कि वे सुंदर स्त्रियों के चरण-कमलों की धूल हैं – चरण कमल रज धूलदास ! इसके अलावा उनका अन्य कोई नाम हो ही नहीं सकता। सब लोग उन्हें उन्हीं की दी हुई आदरसूचक उपाधि ‘धूलदास’ कहकर पुकारते। यह संबोधन उन्हें आनंद से भर देता। वे भाव-विभोर हो जाते। जब भी वे काव्य पाठ करते, अपनी परम प्रिय कविता ज़रूर सुनाते – “उन्नत उरोज उन्नत उरोज लख विचलित होता है मनोज!”
धूलदास सोने-चांदी के आभूषणों के बहुत बड़े व्यवसायी हैं। सब्जी मंडी, शाहगंज थाने के सामने जो बीस हज़ार वर्ग फुट में फैली कोठी है, वह उन्हीं की है। कोठी का नाम भी उन्होंने ‘धूलदास’ रखा है।कोठी की चहारदीवारी ख़ुशबूदार फूलों की लताओं से ढँकी-मुँदी है। उसके सामने असंख्य छायादार पेड़ हैं।बड़ा-सा लोहे का गेट है जिसके अगल-बगल बंदूकधारी सिपाही हर वक़्त तैनात रहते।
धूलदास सोने के व्यवसायी के साथ शहर की शान हैं। नगर पालिका के प्रशासक होने के साथ वे शहर की कई सारी साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़े हैं। रुतबेवाले आदमी हैं। आए दिन उनका सम्मान और काव्य पाठ होता रहता।
बड़ी तोंद के मालिक धूलदास सोने की कमानी का चश्मा पहनते जो हर वक़्त उनकी नाक के छोर पर होता। इस तरह वे चश्मे के ऊपर से देखते और लिखने-पढ़ने का काम करते । चश्मा उनके चेहरे की रौनक बढ़ाने का एक साधन है। नज़र से उसका कोई लेना- देना नहीं। गले में सोने की बारीक़ चेन डली है जो गले की सिलवटों में कहीं खोई रहती, दिखती नहीं। कुर्ते के बटन के पास वह ज़रूर दिखती। कांधे पर वे बेहद ख़ूबसूरत शाल रखते जो उन्हें नगर पालिका के प्रशासक से ज़्यादा एक कवि का व्यक्तित्व प्रदान करने में भारी योगदान देता ।
धूलदास जिस दिन पचास बरस के हुए, उसकी पूर्व संध्या पर उनके दिमाग़ में एक विचार आया। यह विचार एक खेल था, मौज-मस्ती भरा। शानदार और आह्लादकारी कि ठीक रात्रि के बारह बजे, घड़ी की सूई जब 12 को छूके नए दिन के आगमन का मधुर स्वर में संकेत कर रह थी, उन्होंने बड़ी- सी मेज़ पर सजे केक पर चांदी का छूरा चलाया – उस वक़्त घर के लोग और दोस्त-एहबाब हैपी बर्डे कर हर्षोल्लास से तालियां बजा उन्हें मुबारकबाद देने लगे।
चांदी के छूरे में केक फँसाके, आसमान की ओर उठाकर उन्होंने ऐलान किया कि जन्मदिन के इस यादगार मौक़े पर वे देश-दुनिया को ऐसा तोहफ़ा देने जा रहे हैं जिसकी गूंज युगों-युगों तक रहेगी। उसकी कोई बराबरी नहीं कर पाएगा। यह तोहफ़ा साहित्य की दुनिया का अचंभा होगा। ऐशगाह नाम से वे कला का एक ऐसा घर बनाने जा रहे हैं जिसमें सिर्फ़ स्त्री-सौंदर्य से जुड़ी कविता की गूंज होगी। स्त्री-सौंदर्य के इस घर में देश के कोने-कोने से स्त्री-सौंदर्य पर काव्य सृजन के नामी- गिरामी कवियों को न्यौता दिया जाएगा। उन्हें सम्मानजनक फेलोशिप पर रखा जाएगा।
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यह रास्ता जो मुख्यमंत्री आवास के बगल से बड़े तालाब की तरफ़ गया है, ढाल की तरफ़ चलने पर दाहिने हाथ पर तालाब से लगी जो ज़मीन है, धूलदास की है। तालाब को यहां बांध की तरह घेरा गया है। यहां से तालाब समंदर की तरह नज़र आता। सूर्यास्त के समय जब सूर्य क्षितिज में बैठ रहा होता, लगता तालाब से उदित हो रहा है। हर तरफ़ लालिमा बरसती लगती। पंछी कलरव करते दीखते। लगता , यह लालिमा उनको अपने अंक में लेकर विश्राम कराने के लिए उतरी हो। थोड़ी देर बाद इस लालिमा पर कालिख फैलने लगती। पंछी कहीं नज़र न आते, नज़र आते तो सिर्फ़ चमगादड़ जो सैर करते लगते।
यह ज़मीन कई एकड़ में फैली है। असंख्य पेड़ हैं यहां, छांहदार और फलवाले। ज़मीन बाउंड्रीवाल से घेरी गई है। सामने बहुत बड़ा लोहे का गेट है जिसे सिंहद्वार कहा जाता है।
सिंहद्वार के खुलते ही आप अपने को बीस फुट की चौड़ी राह पर पाएंगे। यह राह पत्थर की सिलों की है जो सर्पिल आकार में दूर तक चली गई है। इसके अगल-बगल अनगिनत ख़ुशबूदार फूलों की सफ़ हैं।
पत्थर की सिलों पर आप चलते जाएं, सामने जो सुंदर-सा भवन दीख रहा है, वह ऐशगाह है।
भवन के सामने लकड़ी का पुल है जिस पर बहुमूल्य लकड़ियों की रेलिंग हैं। पुल के नीचे स्वच्छ- पारदर्शी पानी बहता रहता जिसमें छोटी-बड़ी, रंग-बिरंगी मछलियां आवा-जाही करतीं।
पुल से उतरते ही सामने फ़व्वारा है। फ़व्वारे के बीचोंबीच एक पनिहारन है – काले रंग की इस पनिहारन पर रंग-बिरंगी लाइट के बीच चारों तरफ़ से पानी बरसता। पनिहारन कमर में मटका फँसाए है। बहुत कम वस्त्र, जो उसके शरीर पर हैं, वह भी गिरने-गिरने को हो रहे हैं।
इसके आगे ऊंची गोल छत का पोर्च है। सीढ़ियां चढ़कर सामने ऐशगाह में जाने का दरवाज़ा है जो सुंदर कांच का है। अगल-बगल वर्दीधारी बाचमैन हैं जो चौड़ी बेल्ट बांधे हैं और फ़ौजियों जैसे मज़बूत जूते कसे हैं।
ऐशगाह में प्रवेश करते ही अंदर का दृश्य झाँकी जैसा दीखता। ऐशगाह की संरचना ही ऐसी है जैसे जीवन की आपाधापी से दूर आप स्त्री-देह के स्वप्न- लोक में आ जाएं और अपने को संसार का सबसे सुखी जीव महसूस करने लगें। हर तरफ़ रूपवान स्त्रियों की ऐसी-ऐसी छवियां हैं कि आप उसी में डूब जाएं और कुछ सोच ही न सकें ! लाइट और संगीत का चमत्कारी रूप इसी दिशा में ले जाने की माया रचता ।
हॉल के बीच में बहुत बड़ा, सुंदर कालीन बिछा है कि बैठते ही आप उसमें धँस जाएं। अगल-बगल शानदार सोफे हैं। सामने धूलदास का सिंहासन है। दाएं हाथ पर डायस है जो है तो कांच का लेकिन रुपहले फ्रेम के कारण हीरे का लुक देता। कह सकते हैं – राज दरबार जैसा रूप है। सिंहासन पर धूलदास विराजते और सामने कालीन पर उनके दरबारी कवि।
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ऐशगाह में सात काव्य शिरोमणि हैं। ये श्रृंगार रस के ऐसे काव्य विभूषण हैं जिनकी श्रृंगार रस की दुनिया में दुंदुभि बजती है। जब ये काव्य पाठ करते , लगता , इंद्रलोक की अप्सरा, मेनका अवतरित हो गई हो ।
ऐशगाह के कुछ नियम हैं जिनका काव्य शिरोमणियों को पालन करना होता । जैसे यही कि एक कवि दूसरे कवि से संवाद नहीं रखेगा। कोई हँसेगा नहीं। हँसना दूसरे कवि की स्वतंत्रता का हनन माना जाएगा। ज़ोर से बोलना भी इस दायरे में आएगा। स्त्री देह और उसके सौंदर्य से जुड़ी काव्य रचना ही यहां मान्य है । अन्य रचना या कला – अनुशासन पूर्णतः वर्जित हैं। कवि हर वक़्त काव्य रचना में लीन होंगे। ऐशगाह में किसी अन्य व्यक्ति का प्रवेश निषेध है। सुबह दस बजे से लेकर रात्रि बारह बजे तक ऐशगाह गुलज़ार रहेगा।
धूलदास के आने और जाने का कोई समय निश्चित नहीं है। वे किसी भी वक़्त आते और किसी भी वक़्त चले जाते।
जब वे प्रवेश करेंगे तो उनके स्वागत में किसी को खड़े होने की ज़रूरत नहीं। जो जिस स्थान पर है, वहीं रहेगा। जब धूलदास सिंहासन पर विराज जाएंगे तब एक-एक कवि को अपनी जगह से कुहनियों के बल घिसटकर उनके सामने आना होगा। सामने पहुंचकर कवि खड़ा होगा, कोर्निश बजाएगा और ‘चरणकमल रज धूलदास की जय’ का मधुर स्वर में उच्चार करेगा। फिर उसी तरह घिसटकर अपने स्थान पर जाएगा।
इस क्रिया के दौरान धूलदास अर्धनिमीलित नेत्रों से सबको देखते सिंहासन पर लेटने की मुद्रा में होते यह सोचते कि धरती पर अगर कोई रस है तो वह है श्रृंगार रस! अन्य कोई रस का अस्तित्व जीवन को विकृत करने के लिए है। और विकृत करने वाले किसी भी सिद्धांत का अस्तित्व बेमानी है।
थोड़ी देर बाद काव्य पाठ का सत्र शुरू होता। एक-एक कवि कुहनियों के बल घिसटकर चलते हुए धूलदास के सिंहासन के सामने पहुंचते और कोर्निश बजाके चरण कमल रज धूलदास की जय का उच्चार करते। उसके बाद काव्य पाठ करने की अनुमति प्राप्त कर सुमधुर स्वर में काव्य पंक्तियां गुनगुनाने लगते।
धूलदास अब आंखें मूंद लेते और काव्य का आनंद लेते हुए वाह! वाह! की मुद्रा में रह-रह हाथ उठाते हुए कवि की सराहना करने लगते।
ऐशगाह कैम्पस में ही कवियों के रुकने की व्यवस्था है। सभी कवियों को एक-एक शानदार शूइट दिए गए हैं। भोजन-पानी की उत्तम व्यवस्था है जिसके लिए कवियों को कहीं जाना नहीं पड़ता। उन्हीं के शूइट में नियत समय पर सब उपलब्ध हो जाता है।
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सबसे पहले जो कवि कुहनियों के बल रेंगके धूलदास के सामने जाते और खड़े होकर कोर्निश बजाते, इन कवि का नाम विशाल विक्रम है। ये हैं तो सीकिया पहलवान, मतलब हड्डियों का ढांचा किन्तु अपने नाम को रौशन करते हुए श्रृंगार रस की आग में हर वक़्त जलते रहने का दंभ भरते हैं। ये शहर के पास के क़स्बे के रहने वाले हैं और वहां के शासकीय महाविद्यालय में हिन्दी विभाग के हेड रहे। अभी दो बरस पहले सेवानिवृत्त हुए हैं। नौकरी पर रहते हुए आपने पंद्रह काव्य संग्रहों का सृजन किया है जो श्रृंगार रस की महिमा गान से अँटे पड़े हैं। कस्बे में रहते हुए भी आप श्रृंगार रस के बहुत बड़े सितारे के रूप में मशहूर हैं। हिन्दुस्तान के बड़े से बड़े कवि सम्मेलनों की आप शान हैं। बिना आपके कोई कवि सम्मेलन हिट होता ही नहीं। बल्कि कह सकते हैं कि वह फीका सिद्ध होता। मंच पर आपको न पाकर लोग दुखी होकर चीखते-चिल्लाते। मारा-मारी पर उतारू हो जाते। कुर्सियां फेंकने लग जाते। आपकी दो पत्नियां हैं। एक दूरस्थ गांव में रहती हैं और दूसरी कस्बे के दूसरे छोर पर लेकिन दोनों को इन्होंने छोड़ रखा है। न ये गांव में रहने वाली पत्नी के पास कभी जाते, न कभी कस्बे में रहने वाली पत्नी के पास। गांव में रहने वाली पत्नी पुराने, गिरने-गिरने को हो रहे पुस्तैनी मकान में रहते हुए खेती- बारी बँटिया पर देकर किसी तरह गुजर- बसर कर रही है, वहीं कस्बे में रहनेवाली पत्नी कस्बे के प्राइमरी स्कूल में टेमपरेरी टीचर के रूप में नौकरी करते हुए अपना जीवन-यापन कर रही है। गांव में रहनेवाली के एक बेटा है जो तकरीबन बीसेक साल का होगा जो कुछ करता-धरता नहीं, हर वक़्त मां से लड़ाई- झगड़ा करता। दरअसल उसे महुआ की कच्ची शराब की लत थी। दिन भर वह अपनी कुठरिया में पड़ा रहता, उस वक़्त उसे शराब की तलब न होती किन्तु शाम होते ही वह बेचैन हो जाता, हाथ-पैर कहें पूरा शरीर ऐंठने लगता। ऐसी स्थिति में पैसे के लिए वह मां से हाथापाई करने लग जाता। वह मां को मारता और मां उसे। इस मारा-पीटी में उसे कुछ न कुछ पैसे मिल ही जाते, न मिलने की हालत में वह घर का कोई न कोई सामान बेचकर कच्ची पी लेता और नशे की हालत में सड़क पर कहीं भी पड़ जाता। मां उसे कोसती और खाना न देने की कसमें खाती। लेकिन रात जब गाढ़ी होने लगती, लड़का घर न आता तब वह उसे ढूंढने निकलती और सड़क पर कहीं औंधे मुंह बेसुध पड़े लड़के को किसी तरह ठेल-ठाल कर या पीठ पर लादकर घर लाती और किसी तरह मुंह में डाल-डूल के खाना खिलाती। जब वह खा लेता और ज़मीन पर पड़ के खर्राटे भरने लगता तब मां अपने भाग्य पर आंसू बहाते हुए कुछेक लुकमे हलक के नीचे उतारती और सोने का प्रयत्न करती लेकिन सो न पाती। लड़का अपनी बदहाली के लिए मां को क़सूरवार ठहराता जबकि मां इस सबके लिए अपने आदमी को जो उन दोनों को बेसहारा छोड़कर कस्बे में चला गया और किसी दूसरी रांड के साथ गुलछर्रे उड़ा रहा है। पत्नी कई बार आदमी के पास मदद के लिए गई लेकिन आदमी ने हर बार उसकी जो कुटम्मस की कि आगे से वह उसके पास जाने का साहस न जुटा सकी। झख मार कर वह गांव में ही बनी रहती ।
दूसरी पत्नी शुरू में तो इन कवि के साथ रही किन्तु इनका रसिया रूप देखकर इनसे नफरत से भर उठी और उसी कस्बे में एक कमरा किराए पर लेकर रहने लगी। पत्नी बहुत ही सुशील और नेक औरत थी।पढ़ी- लिखी थी। एक प्राइमरी स्कूल में उसे अस्थाई नौकरी मिल गई। वह उसी में संतुष्ट थी। उसके एक बेटी थी जो इण्टर मीडिएट करके शहर में चली गई और वहां किसी प्राइवेट कम्पनी में नौकरी कर रही है।वह मां का ख़याल रखती है और जल्द से जल्द उन्हें अपने साथ रखने का प्लान बना रही है।
जैसा कि ज़ाहिर है, विशाल विक्रम रसिया प्रकृति के जीव हैं, कभी ऐसा समय नहीं आया जब वे प्रेमिका-विहीन रहे हों। कोई न कोई छात्रा हर समय उनके साथ छाया की तरह रहती जिनके ये रिसर्च- गाइड होते। छात्रा तो नाममात्र की शोध छात्रा होती, सारा शोध ये महाशय करते।
इस वक़्त एक छात्रा इनकी प्रेमिका है जो इनके साथ रह रही है।
अपने प्रेम संबंधों को विशाल विक्रम कभी छिपाते नहीं। चुहल में भी अगर कोई छात्रा से उनके रिश्ते के बारे में पूछता तो ये उसका जवाब अश्लील शब्दों में देते।
पूछने वाला जरूर शरमा जाता किन्तु विशाल विक्रम अपनी बात बहादुरी में शुमार करते !
ऐशगाह के लिए जब उनका चयन किया गया, अपनी छात्रा के साथ वे यहां आना चाहते थे लेकिन नियम के चलते लाचार थे।
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दूसरे कवि जो रेंगने के लिए अपने नम्बर के इंतज़ार में अपनी जगह पर कसमसा रहे हैं, दिल्ली से हैं और मशहूर कवि। आपका नाम मुकुट है और मुशायरे के बड़े से बड़े मंच पर आप मुकुट अर्थात अध्यक्ष की हैसियत से बैठते ।
‘बाज़ारे-हुस्न’ नाम से आप एक साहित्यिक पत्रिका प्रकाशित करते हैं जिसमें सिर्फ़ कवयित्रियों को ही स्थान दिया जाता।
आपकी पत्नी देश की मशहूर कथाकार हैं। आप उन्हें इसलिए पसंद नहीं करते क्योंकि वह कहानी या कहें गद्य लिखती हैं और उनसे कहीं ज़्यादा उनका मान-सम्मान और पहचान है। आप अंदर ही अंदर उनसे चिढ़ते हैं और यह चिढ़ धीरे- धीरे नफ़रत में बदल गई और अब यह हालत है कि आप ईश्वर से प्रार्थना करते रहते कि यह बला उनके सिर से हटे और वे उन पर जान छिड़कने वाली एक युवा कवयित्री को अपना बना लें। यह कवयित्री सिर्फ़ दोहे लिखती और सारे दोहे आपको संबोधित हैं। प्रेम रस में डूबे यह दोहे आपको भारी पसंद हैं और आप हर वक़्त उसकी कोई न कोई कड़ी गुनगुनाते रहते । पति ने इस कवयित्री को छोड़ दिया है या कवयित्री ने पति को, यह बात अज्ञात है। कवयित्री सुबह से ही बाज़ारे- हुस्न के कार्यालय में आ जाती जहां दिन भर सुंदर कवयित्रियों का मीना बाज़ार- सा लगा रहता। मुकुट अपने को वहां बादशाह की हैसियत में पाते जिसकी पटरानी वह कवयित्री होती!
रूपनामा नाम से आपने एक महाकाव्य रचा है जिसमें स्त्री सौंदर्य का बखान है। दस सर्गों में विभक्त यह महाकाव्य उनकी आराध्या कवयित्री को समर्पित है।
ऐशगाह में अपनी आराध्या के प्रवेश के लिए आपने जान लगा दी किन्तु हाथ निराशा ही लगी। आराध्या को आप ऐशगाह में प्रवेश नहीं दिला पाए।
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तीसरे कवि जो अभी- अभी कोर्निश बजाकर घिसटकर अपनी जगह पर कालीन में धंस के बैठे हैं – इनका नाम रत्नाकर पांड़े है, किन्तु लोग इन्हें इनके तख़ल्लुस की वजह ‘मीना’ नाम से जानते। मीना नाम रखने के पीछे क़िस्सा ये है कि जब इन्होंने शायरी शुरू की थी, उन्हीं दिनों मीना नाम की एक सुन्दर बाला से इन्हें प्रेम हो गया। यह सुन्दर बाला कहीं और की न होकर इन्हीं के मुहल्ले की थी। पतली दुबली नाजुक। चलती तो लगता फूलों से लदी डाली चल रही हो। इन्होंने ठान लिया कि चाहे जो हो जाए, वे उसे अपना बनाकर रहेंगे। लेकिन दुर्भाग्य था कि लड़की का बाप, पता नहीं कैसे इनकी मंशा ताड़ गया। उसने चट मंगनी पट विवाह कर लड़की को दूसरे कस्बे में भेज दिया। इन महाशय का दिल टूट गया। प्रेम में गलने लगे। शायरी का शौक था ही – उस बाला के नाम से ग़ज़ल लिखने लगे। मतलब अपना तख़ल्लुस ही मीना रख लिया।
पेशे से वकील मीना श्रृंगार रस के ऐसे शायर हैं जिन्होंने दस ग़ज़ल संग्रहों की रचना की और सभी संग्रहों का नाम ‘मीना के नाम मीना’ रखा । यही नहीं, उन्होंने अपनी ब्याहता का नाम चम्पा से बदल के मीना रख दिया जिससे वह ख़फ़ा रहती। अंदर ही अंदर घुटती रहती। एक दिन उसने विरोध में मुँह खोला था तो मीना ने उसे घर से निकाल देने की धमकी दे डाली। यह धमकी तलाक़ की थी। तलाक़ का उन्होंने काग़ज भी बना लिया था। डरकर पत्नी ने उनसे माफ़ी मांग ली कि आगे से वह कभी मुंह नहीं खोलेगी।
मीना की याद अभी भी उनके दिल में ताज़ा थी। वे सोचते, अगर मीना आज के दिन भी आ जाए तो वे उसे सिर आंखों पर रखेंगे और चम्पा यानी मीना को तलाक़ दे देंगे। उसके लिए वे दोनों बच्चों को जिनकी उम्र दस और बारह साल की थी – कुर्बान करने को तैयार हैं। मीना जिस दिन से शादी होकर गई थी, मायके आई ही नहीं, लेकिन ये महाशय जब भी उसके घर के सामने से गुज़रते ,खोजी निगाह से उसे खोजते रहते ।
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ये जो चौथे कवि धूलदास के सामने खड़े होकर कोर्निश बजा रहे हैं- प्रदेश शासन के आला अफ़्सर रहे । अब सेवानिवृत्त हैं। अपार धन सम्पदा के मालिक होने के बावजूद आप ऐशगाह का मोह नहीं छोड़ पाए और आख़िरकार यहां आ ही गए। आप गीत- ग़ज़ल के साथ मुक्त छंद में प्रेम – रस में डूबी कविताएं लिखते । स्त्री- सौंदर्य के अलावा जीवन के विविध पहलुओं को आप धूलदास की तरह ही हेय – दृष्टि से देखते । जितना स्त्री- सौंदर्य का उदात्त रूप आप साकार करते – जीवन में वैसा ही सौंदर्य – रूप आपके आस- पास है। यानी कई रूपवान नारियां आपके वशीकरण में हैं। सभी को आपने अपने अधीनस्थ विभागों में किसी न किसी पद पर जमा रखा है। संयोग कहें या दुर्योग, आपकी पत्नी दूसरे प्रदेश में नौकरी में हैं और आपसे दूर जिस कारण आप फूले नहीं समाते। फूले न समाने की वजह ये है कि कभी – कभार और उस पर बहुत ही कम समय के लिए पत्नी आपके पास आ पातीं। और जब आतीं तो आप असहज हो जाते । सोचते , यह औरत यहां आई क्यों? वहीं रहती! पत्नी के कारण आपकी प्रेमोपसना में बाधा आती। चिड़चिड़े रहते। पत्नी को आपकी प्रेमोपसना के बारे में सब पता है, बावजूद इसके वह चुप रहतीं। मूक- दर्शक बनी रहतीं। हालांकि कभी – कभार वह बेतरह अपसेट हो जातीं और पति से संबंध – विच्छेद करने का विचार बनातीं । तभी उनकी आंखों के सामने बेटी आ खड़ी होती। बेटी बाप के साथ रहती है और IAS की तैयारी में मुब्तला है – संबंध- विच्छेद का असर उसके दिल- दिमाग़ पर पड़ सकता है। ऐसे में उसका कॅरियर बर्बाद हो जाएगा – यह सोचकर वह अपना विचार मंसूख कर देतीं ।
पांचवें कवि जो कोर्निश बजाकर अपने आसन पर बैठे घुटा सिर खुजला रहे हैं , उनका नाम नाटे गुरू है। नाम ही उनका नाटे है किन्तु हैं वे छे फुटे लम्बे। छरहरे बदन के नाटे गुरू साठ का बार्डर छू रहे हैं बावजूद इसके काफ़ी फुर्त हैं। सिर पर एक बाल नहीं पर उसे घुटवाकर रखते । फ्रेंच स्टाइल की झक्क घनी सफ़ेद दाढ़ी – मूंछे हैं जिन पर वे हर समय उँगलियां फेरते रहते । गोरे- चिट्टे हैं । देखने में अंग्रेज लगते । आंखें बड़ी – बड़ी और चमकदार हैं । नाक काफ़ी भद्दी है । लगता , मेंढक को कुचल कर जमा दिया गया हो। जब वे किसी से बातें करते आसमान की ओर देखते । उस वक़्त उनकी आंखें झिपझिपाती रहतीं। लगता बाहर को निकल पड़ेंगी ।
नाटे गुरू काफ़ी पढ़े- लिखे व्यक्ति हैं। कह सकते हैं विश्व साहित्य की इंसाइक्लोपीडिया। हर समय पढ़ने -लिखने में व्यस्त रहते । किसी भी कवि के बारे में आप उन्हें छेड़ भर दीजिए ,वे उस पर विस्तार से बताने लग जाएंगे।
नाटे गुरू ने धूलदास को ई- मेल भेजा था जिसमें उन्होंने अपना बायोडेटा संलग्न किया था। साथ ही अलग से लिखा था कि वे स्त्री- सौंदर्य के पुजारी कवि हैं जिनके तीन दर्जन काव्य- संग्रह हैं जो देश- विदेश के विभिन्न विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल हैं। दरअसल वे आला अफ़्सर कवि के पुराने साथी हैं आत्म सहचर जैसे ; लेकिन आत्मकुंठा या ईर्ष्या के चलते आला अफ़्सर कवि उन्हें कवि मानने से इंकार करते हैं।
नाटे गुरू ने यह भी लिखा था कि वे जमींदार परिवार से हैं। अपार धन -संपदा के मालिक ; किन्तु विडम्बना यह है कि अब वे भिखारी से भी बदतर ज़िन्दगी जीने को मजबूर हैं …
धूलदास को नाटे गुरू की पीड़ा समझ में आ गई और उन्होंने उन्हें ऐशगाह का न्योता भेज दिया था।
नाटे गुरू को अभय- दान मिल गया। ऐशगाह में प्रवेश पाकर वे गेंद की तरह उछलने लगे। कुहनियों के बल घिसटने और कोर्निश बजाने में वे सबसे आगे थे। अपने को वे स्त्री- सौंदर्य का कीड़ा बतलाते जो रूपवती स्त्रियों के बदन पर आभूषण की तरह शोभा पाता।
नाटे गुरू नाजुक और रूई के फाहे की तरह मुलायम थे। उनसे हाथ मिलाते वक़्त ऐसा लगता जैसे रूपवान स्त्री के गाल छू लिए हों।
इन कवियों के अलावा जो अन्य दो कवि हैं – उनमें से एक कवि होने के साथ चित्रकार भी हैं। स्त्री- देह के विभिन्न कोणों को ये ऐसा रंग देते कि रसिक हृदय हाय करके रह जाता । कामोत्तेजना के रंग को गाढ़ा करने में इस कवि का कोई सानी नहीं।
दूसरा कवि श्रृंगार रस की अपनी कविताओं को मन में गुनगुनाते हुए हर वक़्त उसमें ऐसा डूबा रहता कि अन्य कोई बात उसे सुनाई ही नहीं देती। यही नहीं , कभी कभार अपनी कविताओं को वह होठों को गोल कर सीटी में भी नि:शब्द गाता रहता । अफवाह है या सच्चाई लेकिन लोग इसे धूलदास का ख़ासुलख़ास आदमी बतलाते । पेशे से यह पटवारी है। धूलदास की इधर- उधर उलझी पड़ी ज़मीनों को इसने पटरी पर ला दिया था। इस तरह करोड़ों का काम करके यह उनका ख़ासुलख़ास हो गया था। धूलदास कवि के इस एहसान को तो मानते ही हैं लेकिन ऐशगाह में उनकी एंट्री एक अच्छे श्रृंगारिक कवि के रूप में होना ज़्यादा महत्त्व की बात है जिसमें किसी तरह की मुरव्वत नहीं बरती गई । धूलदास की पारखी काव्य- तुला में वे बड़े और महत्त्वपूर्ण कवि हैं जिनको मान देकर वे ख़ुद गौरवान्वित हुए।
फ़िलहाल अभी सात कवियों का ऐशगाह में पदार्पण हो पाया है। गुणी कवियों की खोज जारी है। समय-समय पर जैसे मिलते जाएंगे ,उन्हें ससम्मान रखा जाएगा।
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ऐशगाह का जस हर तरफ़ फैला हुआ था । हर किसी की ज़बान पर उसका नाम था। ज़्यादातर कवियों के मन में लालसा थी कि उन्हें ऐशगाह में शरण मिल जाए। लेकिन उन्हीं को शरण मिली जो धूलदास की कसौटी पर खरे उतरे।
ऐशगाह में शरण पाने की सफ़ में मैं भी था। जतन कर रहा था। कहीं से मामला जमता नज़र नहीं आ रहा था।
उन दिनों मैं परेशानी में था। बाप किसान थे , छोटी जोत के। किसी तरह खाने भर को अन्न जुट जाता था।लेकिन तभी लगातार चार साल से चले आ रहे सूखे ने सारा मामला बिगाड़ दिया। अन्न में पहले कटौती शुरू हुई फिर मिलना बंद हो गया। घनघोर संकट था। मैं पढ़ाई पूरी करके नौकरी की तलाश में भटक रहा था। और नौकरी थी कि मिल नहीं रही थी। ऊपर से शादी हो चुकी थी। गोद में एक बच्ची थी। घर का ख़र्च कैसे चले, समझ में न आता था। दो- चार ट्यूशन कर रखे थे जिनके पैसे आंत के थे न दांत के।
मैं कविताएं लिखता था लेकिन ऐसी नहीं जैसी धूलदास की चाह थी। श्रृंगार रस की कविता या कहें स्त्री सौंदर्य को मैं जीवन की सम्पूर्णता में देखता था। सम्पूर्ण जीवन से काटकर सौंदर्य- बोध मेरे लिए झाग था। मैं श्रृंगार रस में भीगी कविता रचता लेकिन ऐसी कि अंतिम प्रभाव विचार का होता जो सोचने के लिए मजबूर करता।
हालांकि मैं पूरी तरह आश्वस्त था कि ऐशगाह में मेरी एंट्री असंभव है, बावजूद इसके उम्मीद दिल में दिए की तरह टिमटिमा रही थी।
यह उम्मीद धूलदास का वह ख़ासुलख़ास, कवि, पटवारी था जिसने धूलदास की उलझी पड़ी ज़मीनों का मामला सुलझा दिया था!
यह पटवारी मेरे गांव से लगे गांव का था। मंच का कवि होने के नाते उसका सब दूर नाम था। वह मेरे काव्य से परिचित था और मेरी इज्ज़त करता था। दरअसल उसे अपने बारे में इल्म था कि जो वह रच रहा है, उसका कितना अर्थ है ! और कितना व्यर्थ है! यही कारण था कि वह मेरी कविता को असली कविता, जीवन की कविता मानता जिसमें विचार है, जीवन की हलचल है जो सुलाती नहीं, बल्कि जागृत रखने की ताब रखती है। कविता के इस पक्ष के अलावा एक अन्य कारण भी था जिस वजह वह मुझ पर जान छिड़कता था। उसकी बड़ी बेटी की शादी मेरे गाँव के एक कायस्थ परिवार में हुई थी। लड़का शहर की एक प्रिंटिंग प्रेस में कम्प्यूटर आपरेटर था। जो दहेज दिया गया था, उस पर कोई आपत्ति न थी। एक अन्य मांग थी जो लड़के ने की थी जिसे नज़रअंदाज किया गया जिस वजह से वह अंदर ही अंदर नाराज़ हो गया और उसने नव- ब्याहता से दूरी बना ली। उससे बोलना-चालना बंद कर दिया। नवब्याहता के लिए यह दुखदाई था। एक दिन उसने अपनी मां से यह बात बता दी। पटवारी ने जब यह बात सुनी तो भयंकर चिंतित हुआ। उसने लड़के और उसके मां- बाप से बात करनी चाही। दुखद यह था कि कोई कुछ बोलता न था। होंठ सी लिए थे जैसे सभी ने। आदमी बात करे तो मामला समझ में आए। यहां संवादहीनता में सब डूबा हुआ था।
इसी बीच पटवारी ने अपना दुखड़ा मुझसे साझा किया। इस मामले में जब मैं सक्रिय हुआ तो मामला सुलझ गया। लड़के को एक बाइक की ज़रूरत थी जिसके मिलते ही सारी संवादहीनता तार-तार हो गई। लड़के के बाप मां भी ख़ुश हो गए। लड़के और नवब्याहता की दूरी भी पट गई।
मेरी यह छोटी और ग़ैर ज़रूरी- सी लगने वाली मदद पटवारी पर एक बोझ की तरह थी। यह बोझ उसके सिर से तब उतरा और राहत की सांस ली जब उसने ऐशगाह में मुझे प्रवेश दिलवा दिया।
*
रोज़ाना की तरह आज भी धूलदास सिंहासन पर पसरे बैठे हैं- आंखें मूंदे। आंखें वे ज़रूर मूंदे हैं, लेकिन ऐशगाह के अंदर की तस्वीर उन्हें साफ़ दीख रही है। जैसे यही कि जब वे सिंहासन पर आ बैठे, सभी कवि जन अपने-अपने आसन पर हरकत में आ गए। सबके चेहरों पर ख़ुशी तैर गई और सब उनके नाम का ऐसे उच्चार करने लगे जैसे कोई प्रार्थना कर रहे हों।
सहसा विशाल विक्रम ने कुहनियों के बल घिसटना शुरू किया। घिसटते हुए वे धूलदास के सामने आते हैं। खड़े होते हैं और झुकके मुस्कुराते हुए कोर्निश बजाने लगते हैं। मानों यह ज़ाहिर कर रहे हों कि आपकी सलामती की दुआ ईश्वर से करते हैं। ईश्वर आपको लम्बी उमर दे और धन-धान्य से भरता रहे और यह ऐशगाह सालों साल जगमगाता रहे और वे जीवनपर्यंत उसकी सेवा में अपना सब कुछ न्योछावर कर दें।
विशाल विक्रम के बाद कवि मुकुट मैदान में उतरते हैं और सपाटे से घिसटकर धूलदास के सामने कोर्निश बजाते हैं। मुकुट के चेहरे पर विशाल विक्रम के चेहरे जैसा भाव प्रकट हो रहा है।
इसी तरह रत्नाकर पांड़े मीना, आला अफ़्सर कवि, नाटे गुरू, चित्रकार कवि और पटवारी कवि ने भी पूर्व के कवि साथियों का अनुसरण किया ।
जैसा कि कहा गया है, धूलदास आंखें मूंदे थे और सारा क्रिया-कलाप घटित होता उन्हें दीख रहा था।
और तभी जैसा कि धूलदास को आभास हुआ, एक कवि ऐशगाह में ऐसा आया जिसने ऐशगाह के नियमों को मानने से इन्कार कर दिया। कुहनियों के बल घिसटकर उनके सामने जाकर कोर्निश बजाने और उनकी जय के उच्चार से इन्कार कर दिया।
यह आभास सच था।
वे तिलमिला गए। उन्होंने आंखें खोलीं।
वह कवि मैं था, अपनी जगह से चलकर धूलदास के सामने आ खड़ा हुआ था।
मैं मुस्कुराया और नमस्कार की मुद्रा में मैंने छाती पर दोनों हाथ जोड़े और सिर झुकाकर उन्हें अभिवादन किया।
धूलदास ने मेरे अभिवादन का कोई जवाब नहीं दिया। सहसा उन्होंने आंखें मल डालीं। कहीं यह स्वप्न तो नहीं !
लेकिन यह स्वप्न न था, सच्चाई थी।
उनके माथे पर बल आया। उन्होंने मुट्ठियां भीचीं।यह तो धृष्टता है ! अनादर !! हुक्मउदूली !!!
उन्होंने जलती निगाह से पटवारी की ओर देखा। मानों कह रहे हों कि इसी मरदूम की तूने सिफारिश की थी! यह तो परले दरजे का मूजी आदमी लगता है! पहले ही दिन इसने नंगई दिखला दी!
पटवारी पसीना-पसीना हो गया। हे भगवान! यह कैसी मुसीबत आ पड़ी मेरे सिर पर ! यह नाकिस खुद तो मरेगा, हमें भी कहीं का न छोड़ेगा! इसकी भुखमरी पर मैं पसीज गया और इसे यहां ले आया। क्या पता था कि यह अपना कमीनपन यहां उघाड़ेगा! भूखा आदमी हर तरह की गजालत बर्दाश्त करता है लेकिन यह कत्तई भूखा नहीं। यह इसकी गंदी ज़ात है जो यहां दिखला रहा है ! ओफ्फ !
सहसा उसने अफ़सोस में सिर नीचे झुक लिया जैसे अपनी ग़ल्ती की माफ़ी मांग रहा हो।
धूलदास ग़ुस्से से मुझे देख रहे थे।
अब पटवारी भी मुझे ग़ुस्से से देखने लगा।
दोनों के ग़ुस्से की मैंने परवाह न की और धीरे-धीरे चलता मैं अपने आसन पर आया और कालीन में धँस कर बैठ गया।
ऐशगाह में गहरा सन्नाटा था। सभी कवि पसीना-पसीना। मेरी धृष्टता की गाज कहीं उन पर न गिर जाए।
“सरकार !!!”
पटवारी सहसा तेजी से घिसटता धूलदास के सामने जा पहुंचा। दोनों हाथ जोड़ता अपना सिर धूलदास के चरणों में रखता, आर्द्र स्वर में बोला- “सरकार”…
“थू !!!” – पटवारी को जलती आंखों देखते, पैर से उसे परे करते धूलदास सहसा ऐशगाह से बाहर निकल गए।
*
धूलदास लकड़ी के पुल की रेलिंग से टिके खड़े पानी में खेलती रंग- बिरंगी मछलियां को देख जरूर रहे थे लेकिन दिमाग़ ऐशगाह में घटी घटना में उलझा था। उनके टुकड़ों पर पलनेवाले ने उन्हें चिढ़ा दिया था। उनको जो पसंद था उसे करने से इन्कार कर दिया था! यह बात उन्हें खल गई थी। ऐशगाह के सारे कवि जैसा वे चाहते हैं, करते हैं। फिर इस कवि ने उनकी मंशा के ख़िलाफ़ यह हरकत क्यों की- यह बात उन्हें परेशान कर रही थी।
बेचैनी की हालत में वे डगमगाते हुए पुल के उस पार आए और तालाब की तरफ़ जाने की सोच रहे थे तभी वे पलटे और फिर पुल पर आ गए। कमर पर मटका फँसाए वे पनिहारन को देखते सोचने लगे कि दरअसल यह उनका नहीं बल्कि उस स्त्री का अपमान है जिसके रंग- रूप के साम्राज्य में वे सांस ले रहे हैं जिसके सौंदर्य का बखान करते थकते नहीं।
इस गंदे व्यवहार के लिए जितना दोषी यह कवि है, उतना ही दोषी बल्कि उससे ज़्यादा वह कवि है जिसने उसकी अनुशंसा करके ऐशगाह में प्रवेश दिलवाया।
तभी उनका मन पटवारी को तलब करने का हुआ। उन्होंने हुक्म बजा लेने को सामने आतुर खड़े पी ए की ओर देखा लेकिन बिना कोई हुक्म दिए वे पोर्च की ओर बढ़े जहां से ऐशगाह का रुख़ करेंगे।
धूलदास लम्बे डग बढ़ाकर पोर्च पर खड़े हो गए। यहां से अंदर का दृश्य दीख रहा था। सारे कवि अपने-अपने आसन पर बिराजे हुए थे। सभी के चेहरे लटके हुए थे। जैसे किसी आसन्न संकट ने उनका सत्त्व खींच लिया हो।
सुरक्षाकर्मी गेट खोले खड़ा था। अटेंशन की मुद्रा में। इंतज़ार में था कि साहब अंदर जाएंगे लेकिन साहब थे कि अंदर जा ही नहीं रहे थे।
दाहिने हाथ की दीवार पर बड़ा-सा टी.वी. स्क्रीन था जिसमें एक सुंदर बाला अंगूठे से सिक्का उछाल रही है संभवत: यह निश्चय करने के लिए कि उसका प्रेमी उसके आमंत्रण पर तुरंत अभी आएगा या देर लगाएगा।
सिक्के के उछलने पर धूलदास के दिमाग़ में यह बात आई कि सिक्के के दो पार्श्व होते हैं – हेड और टेल। ऐशगाह में भी सिक्के के दो पार्श्व हैं – एक पार्श्व वो कवि हैं जो मेरे इशारे पर चलते हैं, दूसरा पार्श्व वह दुष्ट कवि है जिसने मेरे आदेश को कचर डाला है!
लेकिन – धूलदास के दिमाग़ में एक बात रौशन हुई जिसके आलोक में वे सोचने लगे – किसी का विरोध है तो उसे ग़लत कैसे मान लिया जाए! सहमति एक पक्ष है, वैसे ही असहमति दूसरा पक्ष। लेकिन किसी एक को ग़लत कहना न्यायसंगत नहीं है। फिर ऐशगाह भी तो एक खेल का मैदान ही तो है। स्त्री- सौंदर्य की उदात्त कविता तभी संभव है जब मान-अपमान के भाव से हम दूर होंगे।
यह सोचते ही वे मुस्कुरा उठे और ऐशगाह में दाख़िल हुए। उन्हें देखकर सुरक्षाकर्मी ने फुर्ती से सैल्यूट मारा था।
लम्बे डग रखते वे सिंहासन की ओर बढ़े और आकर सिंहासन पर बैठ गए।
उनके चेहरे पर वह ग़ुस्सा न था जो पहले था। वे मुस्कुरा रहे थे। लगता था अभी हँस पड़ेंगे। सबको वे अपने जैसा तनावमुक्त देखना चाहते थे। जैसे कुछ अप्रिय घटित ही न हुआ हो।
लेकिन यहां माजरा ही कुछ और था। सभी के चेहरे अभी भी लटके हुए थे।
पटवारी कवि बार-बार सिर झटक रहा था और कनखियों से मुझे देख रहा था। जैसे कह रहा हो कि धूलदास की यह मुस्कराहट अब क्या गुल खिलाएगी! देखते जाओ। तुमने तो अपनी बहादुरी दिखला दी और बेख़ौफ़ बैठे हो, यहां तो अपना तम्बू गिर जाएगा।
चित्रकार कवि अपनी जटा जैसी बढ़ी दाढ़ी-मूंछों को नोच – सा रहा था। ऐसा कर वह जैसे धूलदास से कह रहा हो कि आपने मुझे यहां से निष्कासित किया तो मैं आत्मघात कर लूंगा। वैसे मैं इस छद्म विद्रोही कवि को अच्छे से जानता हूं। यह अपनी बिरादरी का कवि है ही नहीं! यह बेपेंदी का लोटा है,अवसरवादी! मजदूरों की फटी बिबाई पर शोकगीत लिखनेवाला! ये तो जरीब घुमानेवाले पटवारी कवि की ग़ल्ती से यहां पनाह पा गया, नहीं तो गांव में बैलों का गोबर उठाता और कस्बे की नाबदानी गलियों में नाक बहाते बच्चों को ककहरा रटवाता फिरता…
सहसा रत्नाकर पांड़े मीना ने गहरी सांस छोड़ी मानो अपनी आराध्या मीना को यादकर उससे संकट से उबारने की अरदास कर रहे हों!
विशाल विक्रम हाथ मीज रहे थे। मानों ऐसा कर आह छोड़ रहे हों। दरअसल अपनी प्रेमिका को ऐशगाह का बड़ा ख़्वाब दिखलाकर वे यहां आए थे, हकाले जाने की हालत में वे उसे मुंह दिखलाने लायक न रहेंगे – सोचकर परेशान थे।
मुकुट और आला अफ़्सर कवि धूलदास के आक्रामक व्यवहार से डरे हुए थे लेकिन अंदर ही अंदर यह माने बैठे थे धूलदास का ग़ुस्सा क्षणिक है। शांत हो जाएगा। विरोधी कवि भी पटरी पर आ जाएगा।
नाटे गुरू घुटे सिर पर हाथ फेरकर दाढ़ी-मूंछें सहलाते सोच रहे थे कि अगर धूलदास का दिमाग़ पलटा खाया जैसा कि सुन रखा है, वे किसी भी हद तक जा सकते हैं, तब वे कहीं के न रहेंगे और अपनी उस खर्राट गंदी औरत के पैरों से लतियाए जाएंगे। हे ईश्वर! धूलदास को सद्बुद्धि दे और इस कमीने कवि को भी जो झूठा अभिनय करके अपने को अलग दिखलाना चाह रहा है …
धूलदास सहसा सिंहासन से उठ खड़े हुए। मुस्कुराए और सभी कवियों को प्यार भरी नज़रों से देखा। उन्हें कुछ अटपटा – सा लगा। मनहूसियत जैसा। माथा सिकोड़कर बोले – आप लोग सहमे और भयभीत लग रहे हैं। ऐशगाह स्त्री सौंदर्य की कुबेर नगरी है। डर जैसी मनहूसियत के लिए यहां कोई जगह नहीं।
सहसा उन्होंने दोनों हाथों को उठाया और आदेश के स्वर में कहा – “आप लोग एक बार ज़ोरों से हँसें, ऐसा कि खिड़कियों के कांच झनझना जाएं। पेंटिंग्स की अप्सराएं अपने दिल थाम लें। ये डायस अपनी जगह से उछल जाए।” कहकर धूलदास ने ज़ोरों का ठहाका लगाया। फिर तेज़ आवाज़ में कहा – “हँसिए ! ज़ोर से हँसिए !!!”
आदेश के बाद भी हँसने की बात अलग थी, कोई कवि मुस्कराया तक नहीं। सिर्फ़ एक अट्टहास था जो मेरा था, गूंज रहा था।
धूलदास ने नाराज़गी में माथा सिकोड़ा। ओफ्फ! सिर्फ़ एक को नहीं सबको हँसना चाहिए। यह क्या बदतमीजी है!
उन्होंने सिंहासन का हत्था पीट डाला। जैसे अपना मत्था पीटा हो।
सहसा चुटकी बजाकर उन्होंने विशाल विक्रम का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया और पूछा – “क्यों कवि महोदय, आपसे पूछ रहा हूं। हँसने के लिए कहा गया था। हँसना तो दूर, आप मुस्कुराए तक नहीं !!!”
विशाल विक्रम कुहनियों के बल रेंगकर उनके सामने जाकर पहुंचे। कोर्निश बजाई और हाथ जोड़कर बोले – “आदरणीय, आप दिल्लगी कर रहे हैं !”
– “दिल्लगी !” धूलदास ने उन्हें आश्चर्य से देखा।
– “”जी हुजूर , दिल्लगी ! ऐशगाह का जो नियम है, हम उसी का पालन करते हैं।”
– “क्या नियम है ऐशगाह का?” – धूलदास के चेहरे पर ग़ुस्सा था। चश्मे के ऊपर आंखें लाल। माथे से सटीं।
– “यही कि कोई कवि हँसेगा नहीं।”
– “ओह! इसीलिए आप हँसे नहीं।” – धूलदास चश्मा उतारते कुटिलता से मुस्कुराते बोले।
-“हुजूर , बात उसूल की है” – हम उसी से बँधे हैं।
– “अच्छा!” सिर हिलाते धूलदास बोले – “जो मैंने कहा , वह आदेश नहीं था?”
– “हुजूर, आदेश देकर आप मेरे धर्म की परीक्षा ले रहे हैं। इस परीक्षा में अयोग्य माना जाऊं – यह मुझे स्वीकार्य नहीं।”
सहसा कवि मुकुट कुहनियों के बल रेंगकर धूलदास के सामने आ खड़े हुए और कोर्निश बजाकर बोले – “हुजूर, आप कवियों के कवि हैं। मेरे उच्चादर्श ! कृपया हमें अड़धब में न डालें। ऐशगाह का जो उसूल है, उसका अपमान हमारा अपमान होगा। हम ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे उसूल को आंच आए।”
धूलदास अब नाटे गुरू से मुख़ातिब थे, नाटे गुरू बोले – “कवि-सम्राट! यहां आने से पहले ही हमने हँसने जैसी क्रिया का गला मसक दिया था। मृत चीज़ अब जीवित नहीं हो सकती…”
पटवारी कुछ कहने को कसमसा रहा था, कुहनियों के बल घिसटने को हुआ कि धूलदास ने उसे रोका – “पटवारी सीताराम, मेरे पास आने की जरूरत नहीं। वहीं से मेरे प्रश्न का जवाब दो।”
पटवारी माना नहीं। कुहनियों के बल घिसटता वह उनके पास जा पहुँचा। खड़ा हुआ और कोर्निश बजाता, हाथ जोड़कर बोला – “कवियों के कवि, मैं आपका दासानुदास हूं।”
धूलदास बोले – “ठीक है ! ठीक है ! एक बात बताओ – जब मैं तुमें आदेशित कर रहा हूं। कुहनियों के बल न घिसटो, कोर्निश न बजाओ…”
– “कवियों के राजा”! – पटवारी बोला – “यह तो दास का आभूषण है। इस आभूषण को मैं भला कैसे त्याग सकता हूं।”
धूलदास ने अफ़सोस में सिर थाम लिया – ओफ्फ!
आला अफ़्सर कवि अपनी एक प्रेयसी में खोये हुए थे। प्रेयसी ग़जब की सुंदर तो थी ही , उसकी ठोड़ी और उस पर तिल का जवाब न था। इस वक़्त उसकी याद ने उन्हें कामुक बना दिया था।
“आला अफ़्सर कवि!!!”
आला अफ़्सर कवि उनको देखते हुए भी अपने में खोये हुए थे।
– “आला अफ़्सर कवि!!!”
इस बार की पुकार पर आला अफ़्सर कवि बुदबुदाए – “ठोड़ी ! तिल !!!”
“ठोड़ी ! तिल!!!” धूलदास कुछ समझ न पाए।
– “बहुत सुंदर है ठोड़ी! और तिल हाय! हाय!” आला अफ़्सर बुदबुदाए।
धूलदास मामला समझ गए। जोरों से हँसे और चित्रकार कवि से मुख़ातिब हुए – “क्यों भाई कविवर, तुमारी चित्रकारी क्या कहती है मेरे आदेश पर?”
धूलदास ने आगे बढ़कर दोनों हाथों से चित्रकार कवि के कंधों को दबाया और कहा – “अपने आसन से बोलो। उठने की ज़रूरत नहीं।”
दाढ़ी में उंगलियां फँसाते हुए चित्रकार कवि बोले – “कवियों के कवि ! लियोनार्दो द विन्सी की एक पेंटिंग है लास्ट सपर ! ईसा मसीह के सूली पर चढ़ाए जाने से पहले का एक दृश्य है…”
धूलदास बोले – “ईसा मसीह के बाद भविष्य की चिंता में न गलो मेरे प्यारे कवि ! वर्तमान को बूझो। तुम हँसे क्यों नहीं – मुझे इसका जवाब चाहिए।”
– हुजूर, जब अंतिम भोज हो – लास्ट सपर तो हँसी भला कैसे फूट सकती है !
– “अंतिम भोज पर भी लोग आज दुख में डूबे हुए नहीं पाए जाते, बल्कि भारी खुश दीखते हैं जैसे किसी जश्न में आए हों।”
– सरकार ! – चित्रकार कवि ने माथा सिकोड़कर कहा – “मैं ऐशगाह का कवि हूं जो ‘जान जाए पर वचन न जाए’ वाले सिद्धांत – नियम को मानता है।”
– तुमारा कहने का मतलब – “मैं दिल्लगी कर रहा हूं।”
– “जी मालिक, दिल्लगी !!!”
पटवारी कवि बीच में बोल पड़ा – “काव्य शिरोमणि ! अभी भी आप दिल्लगी कर रहे हैं । हम जान – समझ रहे हैं। आप कित्ती भी परीक्षाएं लें, हमें डिगा नहीं पाएंगे।”
यह वाक्य सहसा सभी कवियों ने दोहराया।
मैं देख रहा था , धूलदास सिंहासन पर सिर थामे बैठे थे।
तभी मैं ज़ोरों का ठहाका लगा बैठा।
सभी कवि सहम से गए।
धूलदास मुस्कुराते हुए भी नहीं मुस्कुरा पाए।
*
दूसरे दिन जब धूलदास ऐशगाह में आए, गंभीर मुद्रा में थे और उन्होंने ऐशगाह के सारे नियमों को सिरे से ख़ारिज कर दिया और सख़्त लहजे में कहा – “इसे दिल्लगी क़त्तई न माना जाए। यह सच्चाई है ! सच्चाई!!!”
सारे कवि कुहनियों के बल घिसटते धूलदास के पास आने लगे।
धूलदास ने उन्हें ऐसा करने से रोका किन्तु वे माने नहीं। घिसटते गए और आख़िर में धूलदास के सामने खड़े होकर कोर्निश बजाने लगे।
विशाल विक्रम ने विनती के स्वर में कहा – “हुजूर, कवियों के कवि, हम लोगों के घिसटने और कोर्निश बजाने से आपको क्या आपत्ति है ? क्या यह बदसलूकी है ? ऐशगाह के नियमों को आहत करता है ?”
आला अफ़्सर कवि ने कहा – “काव्य शिरोमणि, यह तो अनुशासन की सीढ़ी का पहला पायदान है जिस पर चढ़कर हम संस्कारी इंसान बनते हैं।”
कवि मुकुट बोले – “ऐशगाह के नियम काव्य की गरिमा में चार चांद लगाते हैं, इसलिए इनको ख़ारिज करना हम लोगों के साथ अन्याय होगा।”
नाटे गुरू ने कहा – “ऐशगाह के नियम अच्छे नागरिक की पहचान देने वाले हैं। कृपाकर उन्हें बने रहने दें। ख़ारिज न करें।”
पटवारी कवि ने अपना मत्था धूलदास के चरणों में टिका दिया और गीली आवाज़ में बोला – “कवियों के कवि, मैं आपका दास हूं और आजीवन दास ही बना रहना चाहता हूं। इसीलिए अनुरोध है कि यहां के नियमों को यथावत चलने दें। उन्हें ख़ारिज न करें। यह हमारी आत्मा में बस गया है। इसके बिना हम जी न सकेंगे। जब तक हम घिसटकर आप तक न आएंगे, कोर्निश न बजाएंगे, हमारे दिल से कविता न फूटेगी !”
ऐसा कहकर पटवारी कवि ने अपने कवि साथियों की तरफ़ देखा।
कवि साथी सिर झुकाए खड़े थे। मानो पटवारी की बात पर सहमति जतला रहे हों और साथ ही यह उम्मीद लगाए थे कि धूलदास उनकी बात मानेंगे। बस डर यही था, विद्रोही कवि कहीं भांजी न मार दे।
धूलदास ने अफ़सोस में सिर हिलाया और गहरी सांस लेकर सिंहासन में पसर से गए। वे सोच रहे थे कि खेल-खेल, मौज -मस्ती में उन्होंने ऐशगाह का ख़्वाब पाला था लेकिन कवि इस हद तक चले जाएंगे, उन्हें गुमान न था।
उन्हें दुख हुआ और वे रह – रह मत्था पीट रहे थे। तभी उनकी निगाह मुझसे टकराई। उन्होंने मुझे इस तरह देखा जैसे पूछ रहे हों कि इस दुर्भाग्य पर तुम क्या सोचते हो?
अपने आसन से मैं उठ खड़ा हुआ। अभिवादन कर बोला – “हुजूर, आपने जंगल-राज को ख़त्म किया है। सच कहूं तो ऐसी व्यवस्था होनी ही नहीं चाहिए जहां आदमी सांस न ले सके। हँस न सके। एक- दूसरे से बात न कर सके। ऐसा करने का मकसद व्यक्ति को अकेला कर देने जैसा है। और यह जान लें , ऐसा आदमी ख़तरनाक होता है, आत्महंता।”
क्षण भर ठहरकर मैं आगे बोला – “हमारे कवि मित्र इस व्यवस्था को गले क्यों लगाए रखना चाहते हैं – मेरी समझ से परे है यह बात! यहां सभी शीर्षस्थ कवि हैं। यह बात सभी जानते हैं कि कविता हमें सामूहिकता सिखलाती है जिसमें आदमी अपनी कमजोरियों के साथ इंसान होता है। हम यह कमजोरी खो देंगे तो क्या बनेंगे ? यह विचारणीय बात है। फिर ऐसे व्यक्ति की कविता का मंतव्य क्या होगा ? वह हमें किस तरफ़ ले जाएगी ? मैं तो कहूंगा ऐसे व्यक्ति की कविता भी हत्यारी होगी। वह स्त्रियों के पक्ष में रहकर भी उनकी हत्या का षडयंत्र रचेगी जबकि कविता इंसान को बेहतर इंसान और उच्चतर मूल्यों का पक्षकार बनाती है। और सबसे बड़ी बात जो मेरा निवेदन है, हमारे कवियों को दासता क्यों पसंद है ? उन्हें दासता को गले नहीं लगाना चाहिए। उससे मुक्त होने में ही भलाई है…”
पुन: अभिवादन कर मैं अपने स्थान पर बैठ गया।
जैसा कवियों को शक था। विद्रोही कवि ने बाजी मार दी थी। सारे कवि इसके तोड़ की व्यूह रचना-सी करते कुहनियों के बल घिसटते अपने-अपने आसनों की ओर बढ़ने लगे।
धूलदास सहसा सिंहासन से उतरे और गंभीर स्वर में बोले – “मैं यहां न्याय की तराजू लेकर नहीं बैठा हूं कि किसी एक की बात को सच कहूं और दूसरे की बात को झूठ। लेकिन इतना मैं जरूर कहूंगा कि मेरा खेल, मेरा ख़्वाब यहां आहत हुआ है। मैं चीज़ों को कुदरती रूप में देखना चाहता हूं लेकिन चीज़ें हैं कि कुदरती रूप में आना ही नहीं चाहतीं। ख़ैर, एक बात मैं स्पष्ट कर देना चाहता हूं। ऐशगाह के पुराने नियम आपको पसंद हैं, आप उन्हें सर्वस्व मानें, मैं उसमें दख़ल नहीं दूंगा। लेकिन एक व्यक्ति के अंदर दो व्यक्ति होना मुझे स्वीकार्य नहीं। इस आधार पर मैं आपसे कुछ सवाल करना चाहता हूं जिसमें आप जैसे हैं , वैसे दिखने चाहिए। बिल्कुल आईना सरीखा। हालांकि आपकी सारी बातें जगज़ाहिर हैं, बावजूद इसके हम आपके मुख से आपकी आत्मस्वीकृति सुनना चाहते हैं। मेरी प्रार्थना है, यही विनती है। सहमत हों तो बताएं अन्यथा ऐशगाह में इसी बखत ताला लग जाएगा।”
सभी कवियों ने एक स्वर में धूलदास की बात मान ली ।
धूलदास मुस्कुराए, बोले – “शाबाश!” कुछ क्षण रुककर वे आगे बोले – “बार-बार मैं आपसे प्रार्थना, हां प्रार्थना, इस शब्द पर ग़ौर करें, प्रार्थना करता हूं कि लोकापवाद का लिहाज न करें। दिल खोलकर जैसा आप सोचते हैं और जैसे आदमजात रूप में आप हैं – उसका प्रिंट आने दें। यह आपकी परीक्षा है। एक सवाल है जो मैं सभी साथियों से पूछूंगा। उस का जवाब सबको देना है। कवि विशाल विक्रम, सबसे पहले आप आमंत्रित हैं। आप डायस पर आएं।
कवि विशाल विक्रम ख़ुश हुए और कुहनियों के बल रेंगकर धूलदास के पास डायस पर आए। खड़े होकर कोर्निश बजाने लगे।
धूलदास के चेहरे पर शांति थी। मुस्कुराते हुए उन्होंने प्रश्न रखा : स्त्री के बारे में आप क्या सोचते हैं? अर्थात स्त्री आपके लिए क्या है?
कवि विशाल विक्रम के चेहरे पर प्रसन्नता तैर गई। साथी कवियों को देखते और ऐसा सवाल पूछे जाने पर धूलदास के प्रति कृतज्ञता से झुकते वे बोले – “जीवन में पहला मौक़ा है जब दिल की बात रखने के लिए अनुरोध किया गया। मेरे मन में कोई टैबू अर्थात निषेध नहीं है लेकिन हमारा समाज निषेधों से लबालब है। कोई उसे खोल नहीं सकता, कोई तोड़ नहीं सकता। जो खुद निषेधों से भरा हो, वह निषेधों को क्या खोलेगा और क्या तोड़ेगा!”
कवि विशाल विक्रम सहसा हँस पड़े । क्षणभर को वे ट्रांस में चले गए जहां उनके समक्ष गांव की पत्नी थी और कस्बे में किराए के मकान में रहनेवाली दूसरी पत्नी जिनको उन्होंने अपने जीवन से निकाल दिया था। उनके साथ बिताए कोई भी ख़ूबसूरत लम्हे उनके दिल- दिमाग़ में शेष न थे। जिन ख़ूबसूरत लम्हों की याद उनको थी उनमें बहुत सारी छात्राओं की एक फ़ेहरिस्त थी। ये सभी छात्राएं एक-एक कर उनको याद आने लगीं। वर्तमान में एक छात्रा थी जिस पर वे जीवन न्योछावर कर चुके थे, आंखों के आगे घूम गई। वे क्रिया-कलाप घूम गए जिन्हें वे ख़ास तौर पर करते आए थे – सभी को याद करके वे अंदर ही अंदर ख़ुश हुए । बोले – “सच कहूं तो मैं बेसिकली लंठ क़िस्म का आदमी हूं। शर्म-लिहाज मुझमें ज़रा भी नहीं। लोकापवाद की वजह से मैं उसे ढांप के रखता हूं। वैसे खुल भी जाए तो कोई हर्ज नहीं। हालांकि मेरी सारी बातें खुले पाठ की तरह हैं जिसके लिए मैं बदनाम हूं। अब हूं तो हूं। क्या किया जाए। मेरा कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता।” सहसा वे हँसे – “बिगाड़ने वाला कोई कम है क्या ? मैं तो कहता हूं वो हमसे जादा हरामी है। मैं डंके की चोट पर ढिठाई की सीमा पार कर अपने हरामीपन का बखान करता हूं। जी हां , ये मैं हूं। लेकिन दूसरों में मेरे जैसा साहस नहीं। सच कहूं तो वे कायर हैं। ज़्यादा कमीने हैं, कुत्ते, जो छिपकर व्यभिचार करते हैं और अपने को भला इंसान बताते हैं। यह भी जान लीजिए, सारा समाज उन्हें अच्छे से जानता है, पहचानता है लेकिन बोलता नहीं। पत्नी भी आदमी की हरकतों को जानती है, भोली -भाली बनी रहती है। डरती जो है। इसी शहर में बहुतेरे कवि हैं, ख़ासी इज्जत है, ढेरों पुरस्कार लिए बैठे हैं – समाज के मुकुट, मुकुट जी आपके लिए नहीं कह रहा हूं, समाज के मुकुट बने बैठे हैं, लेकिन मेरी जूठी पत्तल चाट रहे हैं। मतलब जिस प्रेमिका से मेरा मन भर गया, वे उसे अपना कंठहार बनाए हुए हैं। ख़ैर, मैं मुद्दे से भटक गया। सच कहूं तो मैं एक गंदा आदमी हूं। मेरे आगे संबंधों का कोई अर्थ नहीं। सगे संबंधियों,भाई- बहन-मां- बाप का कोई अर्थ नहीं। पढ़ाई- लिखाई, डिग्री, नौकरी का कोई मानी नहीं। मेरे लिए स्त्री की चाहत सब कुछ है! मुझे वह स्त्री ज़रा भी पसन्द नहीं जो हाथ पकड़ते ही घर- गृहस्थी का रोना रोने लगे। भूल जाए कि वह प्यार कर रही है।मेरी दोनों पत्नियां बड़ी रांड़ें थीं। प्यार तो वो जानती न थीं। बस उन्हें रक़म चाहिए जिनसे वे घर-गृहस्थी सँभाल लें और अपने अरमान पूरे कर लें। सुंदर रसोई, अच्छे नई काट के कपड़े-बर्तन-भांड़े! थू है ऐसी स्त्रियों पर।और यह भी बता दूं , जिन-जिन छात्राओं को मैंने प्यार किया या जो प्यार के ख़ातिर मेरे पास आईं – वे सिर्फ़ स्वार्थ से जुड़ी थीं। किसी तरह मतलब निकले – पढ़ाई या पी-एच.डी. पूरी हो या मेरी सिफारिश से कहीं नौकरी लग जाए बस! इसके बाद वे मेरी तरफ़ देखती भी नहीं थीं। और विडम्बना देखिए, उनके लिए मैंने जीवन का अमूल्य समय लगा दिया। मैं ख़ूब पढ़ सकता था लेकिन मैंने सब कुछ दरकिनार कर दिया। विश्व की एक से एक पुस्तकें थीं जिन्हें मैं पढ़ना चाहता तो था – ख़रीद भी लाया पर उन्हें खोल तक नहीं पाया ! खोलता कैसे ? दिमाग़ तो सुंदर बालाओं को भोगने में लगा था। और यह देखिए, क्लास में जाने से पहले मैंने कभी तैयारी न की। सब स्मृति के सहारे चलता रहा। फिर विद्यार्थियों में भी पढ़ाई में ज़रा भी रुचि न थी। वे मजबूरन क्लास में आते। जानते थे कि सब फिजूल है। जब वे नकल से पास हो जाएंगे तो पढ़े क्यों? फिर कुंजी किस दिन काम आएगी। ख़ैर, बालाओं की बात चल रही थी। सब समझते हुए भी मैं उनसे जुड़ा रहा। आज की तारीख़ में जो मुझ पर जान छिड़क रही है – उसकी असलियत भी मैं जानता हूं। शादीशुदा है, ख़सम को छोड़े बैठी है। वह उसे मारता-पीटता है। ख़ैर, क्या करूं, विवश हूं।उसे छोड़ नहीं सकता। और आज इस निचोड़ पर हूं, कह सकता हूं- स्त्री मेरे लिए सिर्फ़ भोग्या है – और कुछ नहीं। यहां यह भी कह दूं, स्त्री को इस तरह पेंट कर मैं अच्छा हूं, देवता हूं, सरासर ग़लत है …”
कवि विशाल विक्रम बोलते- बोलते सहसा रुक गए। धूलदास की ओर श्रद्धावनत दृष्टि से देखने लगे जैसे कह रहे हों कि आपकी आज्ञानुसार मैंने कुछ छिपाया नहीं। यही सच्चाई है। आप अच्छा माने या बुरा ।
कहकर उन्होंने कोर्निश बजाई और कुहनियों के बल घिसटते अपने आसन की ओर बढ़े।
कवि मुकुट ने ऐशगाह के नियमों की औपचारिकता पूरी की और हाथ जोड़कर धूलदास से कहा -“ काव्य शिरोमणि, स्त्री को लेकर मेरा जीवन ऊबड़खाबड़ नहीं है लेकिन है ऊबड़खाबड़ ही। और इसकी वजह है मेरी पत्नी ! मैं उसी को जिम्मेदार ठहराता हूं। पत्नी ने कभी क़लम नहीं पकड़ी थी। शादी होकर आई तो मेरी देखा- दाखी वह भी लिखने लगी- वह भी कहानी ! मैंने कहा – कहानी क्यों लिखने लगी तुम। वह बोली – कविता में बँध जाते हैं , यहां खुला स्पेस है। अब आप देखिए, मैं स्त्री-सौंदर्य का पुजारी और ये महोदया, आप जानते हैं, क्या लिखती हैं ? झुग्गी- झोपड़ी पर! ठेलेवालों पर ! जूठन बटोरनेवालों पर! मुर्गी बेचनेवालों पर! चोट्टे कबाड़ियों पर! उन भिखारियों पर जिनके कपड़े तार-तार हैं और चीलरों से भरे! उस औरत पर जो नशेखोर आदमी को चप्पलों से मारती है ! बताइए, ये कोई लिखने का विषय है ? मैंने कहा – ये नहीं चलेगा। बदलो अपने को। वह नहीं मानी और आज तक मनमानी करती आ रही है। इस कारण मैंने अंदर ही अंदर उससे किनारा कर लिया। अपनी अलग दुनिया ही बना ली जिसमें बीसों सुंदरियां हैं। आपको पता ही है बाज़ारे – हुस्न पत्रिका निकालता हूं जिसमें एक से एक सुन्दर कवयित्रियां हैं जो शौकिया गीत- ग़ज़ल लिखती हैं जिनके शीन काफ मुझे ही दुरुस्त करने पड़ते हैं,छापता हूं। मेरे ऑफिस में सुंदरियों का मेला लगा रहता है। एक कवयित्री है जो दोहे लिखती है,वह सोचती है कि मैं उनकी ख़ासुलख़ास हूं,प्रेयसी हूं, आराध्या जबकि वह है नहीं। कोई खुशफहमी में जी रहा है, जीने से उसे कौन रोक सकता है! मैंने रूपनामा नाम से एक महाकाव्य लिखा और यूं ही उसके नाम लिख दिया, उसकी ख़ुशफहमी पक्के विश्वास में बदल गई। अब वह कहती है कि कथालेखिका को घर बाहर करो। जब मैं हूं, आपकी आराध्या तो उस बेग़ैरत की क्या जरूरत!”
बोलते-बोलते सहसा कवि मुकुट रुक गए और धूलदास की ओर हाथ जोड़कर बोले – “कुछ जादा समय तो नहीं ले लिया।”
धूलदास ने जब अपनी बात जारी रखने का संकेत किया तो उन्होंने कहा – “दरअसल स्त्री मेरे लिए एक सीढ़ी जैसी है जिस पर चढ़कर मैं दूसरी को पाना चाहता हूं।”
आला अफ़्सर कवि को जब बोलने को कहा गया तो ख़ुशी में इतनी कोर्निश बजाई कि धूलदास को उन्हें बीच में रोकना पड़ा। ख़ैर, उन्होंने कहा – “मैं ख़ालिश कवि हूं और उस पर स्त्री – सौंदर्य का उपासक ! ज़ाहिर है जो कवित्त होगा इसी धुरी पर केंद्रित होगा। लेकिन मेरी रचना और जीवन में चूंकि आप सच जानना चाहते हैं तो स्पष्ट कर दूं, बड़ी दरार है। रचना के निहितार्थ कुछ और हैं जबकि जीवन के कुछ और। सच कहूं, मेरे लिए दोहरे मानदंड जीना ही जीवन की सच्चाई है। आप कहेंगे यह पहेली है, सुलझने का रास्ता नहीं पाएगी। इसीलिए मैं आपको उलझाना नहीं चाहता – मुख्य मुद्दे पर आता हूं। मेरे बारे में लोगों को पता है कि मैं हरामी किस्म का इंसान हूं, किसी का सगा नहीं। पांच-छ: विभाग हैं जहां मेरी प्रेमिकाएं नौकरी पर हैं जिनको मैंने छल-प्रपंच से सेट करवा दिया है। प्रेमिकाओं को पता है मुझसे प्रेम करने वाली वो अकेली नहीं हैं। बावजूद इसके वे मेरे प्रेम-पाश में हैं। जानती हैं राज खोलने पर ख़तरा है। मेरी पत्नी को भी इन बातों की ख़बर है। लेकिन वह बोलती नहीं। आपको बताऊं कि वह ख़ामोश क्यों रहती है । वह एक डाक्टर को दिल दे बैठी है। यही वजह है कि वह मेरे पास यानी बंगले पर आने से कतराती है। आती है लेकिन बहुत कम और बहुत कम समय के लिए। दूसरे शहर में वह एक बड़े आहदे पर है। उसका प्रेमी डाक्टर रंगीला आदमी है। हर वक़्त वह उसके आस-पास मँडराता रहता है। पत्नी की रंगरेलियां के बारे में किसी को कानों-कान ख़बर नहीं है। मैं भी उससे ऐसे मिलता हूं जैसे कुछ जानता ही नहीं। ख़ैर, समाज की नज़रों में मैं अपराधी जैसा हूं जबकि पत्नी देवी जैसी है। विकटिम। ऐसे में मैं स्त्री को एक धोखेबाज के रूप में लेता हूं। यह भी संभव है पत्नी भी मुझे धोखेबाज़ के रूप में लेती हो।”
आला अफ़्सर कवि क्षणभर को रुके,गहरी सांस छोड़ी और आगे बोले – “मैं कठोर सच कहने का आदी नहीं, किन्तु कहना विवशता है। स्त्री संभोग- कर्म से अलग कोई अस्तित्व नहीं रखती। वह वीर्य में लिथड़ी वस्तु है। बावजूद इसके वह छोड़ी नहीं जाती। संभव है, स्त्री भी मुझे इन्हीं संज्ञाओं से अभिहित करे जो मुझे कत्तई अस्वीकार्य नहीं।”
रत्नाकर पांड़े मीना ने कहा – “जैसा कि पूर्व के कवियों ने अपने-अपने अनुभव व्यक्त किए – मैं भी अपने ढँके – मुंदे ज्ञात-अज्ञात अनुभवों को क्योंकि कवि के साथ मैं एक वकील भी हूं – प्रस्तुत करना चाहूंगा। “मेरे लिए स्त्री ग़ुलाम है। मैं भाई विशाल विक्रम और आला अफ़्सर कवि की तरह अपनी बात नहीं कह सकूंगा। फिर भी कहता हूं कि स्त्री ग़ुलाम होती है। इसका भी एक कारण है। ज़्यादातर वह आर्थिक रूप से स्वावलंबी नहीं होती, इसलिए घर-परिवार या समाज उसे संचालित करता है। वह उसी के अनुसार संचालित होती है। ऐसे में वह अंधेरी बँधे घोड़े की तरह होती है जिसे उसका मालिक प्यार- दुलार और कोड़े से हँकाता है। मैं यहां अपनी पत्नी की बात रखूं तो बात स्पष्ट हो जाएगी। मेरी पत्नी घरेलू महिला है। जो मैं कहता हूं आदेश मानकर करती है। मैंने उसका नाम बदलकर अपनी प्रेमिका का नाम रख दिया। थोड़े डांट-फटकार, ना-नुकुर के बाद वह उसे स्वीकार लेती है। वह जानती है कि बात न मानने पर वकील साहब नाराज़ हो जाएंगे फिर तलाक़ के लिए तो वे एक पैर पर खड़े रहते हैं। अगर वह कहीं नौकरी पर होती तो मेरी परवाह न करती। मैं समाज की स्त्रियों की बात करूं तो कह सकता हूं कि उच्चवर्ग और तल में बैठी स्त्री तकरीबन एक जैसी होती हैं। उच्च वर्ग की स्त्री आर्थिक रूप से मजबूत होती है जबकि तल की स्त्री आर्थिक रूप से टूटी किन्तु श्रमशील होती है । श्रम उसके स्वावलंबन का आधार होता है। इसलिए ये स्त्रियां मनवांछित जीवन जीती हैं। पति की परवाह नहीं करतीं। इसलिए ये दासत्व स्वीकार नहीं करतीं। ख़ैर, स्त्री को मैं इस रूप में लेता हूं।धन्यवाद।”
चित्रकार कवि ने कहा – “मैं मूलत: चित्रकार हूं और अविवाहित। चूंकि मेरी ज़िन्दगी में किसी स्त्री का प्रवेश नहीं हुआ है इसलिए स्त्री के बारे में कोई टिप्पणी नहीं कर सकूंगा। हां , चित्रकला में स्त्री के जो रंग दर्ज हैं ,कहें तो उन पर कुछ कहूं।”
धूलदास ने इजाज़त नहीं दी।
पटवारी कवि का नम्बर था। वह बोला – “वैसे मैं किसान का बेटा हूं और पेशे से पटवारी। खसरा – खतौनी और नक्शे में मेरी जान बसती है क्योंकि यह हमारा परिवार चलाता है इसलिए मेरे लिए जीवन की पहली शर्त है। मेरी पत्नी इंतहा सीधी है, गऊ जैसी। मेरा उससे छोटी – मोटी बातों को छोड़कर कभी कोई टंटा नहीं हुआ। इसलिए मेरी स्त्री गऊ है। हालांकि आस-पास की औरतें गऊ कत्तई नहीं। वे सांड को भी मात देती दीखती हैं…”
– ठीक है, ठीक है ,बैठ जाइए – चुटकी बजाकर हँसते हुए धूलदास बीच में बोल उठे और उन्होंने नाटे गुरू से आंखों का इशारा किया कि वे अपनी राय प्रस्तुत करें।
नाटे गुरू ने आसमान की ओर आंखें कर झिपझिपाते कहा – “मेरे जीवन की किताब पूरी तरह खुली हुई है। मैं विशुद्धत: स्त्री – सौंदर्य का उपासक हूं।इस उपासना ने मुझे कवि बनाया और इसी ने मुझे कहीं का नहीं रक्खा। यह सही है कि मेरी कविता ने मुझे शोहरत दी और इसी कविता के चलते मैं बर्बाद हो गया। बर्बाद इस तरह कि इस कविता ने मेरे दिल में ख़ंजर चुभो दी। यह ख़ंजर मोहब्बत की थी। मोहब्बत भी किससे थी – पत्नी से। पत्नी पहले मेरी प्रेमिका थी। उस पर मैं जान छिड़कता था। शादी के बाद भी वह पत्नी कम प्रेमिका ज़्यादा रही। लेकिन यही पत्नी ख़ंजर हो जाएगी, अंदाज़ा न था। सच कहूं धन-दौलत को मैं कविता के मार्ग का रोड़ा, अड़ंगा मानता था। उसके झंझट में पड़ना नहीं चाहता था। इसी सोच के तहत मैंने पत्नी को घर की चाबी दे दी। मतलब सारी जायदाद उसके नाम कर दी। मालिक बनते ही वह रांड आग मूतने लगी। जानते हैं आप, वह मुझे आलसी, उपजीवी कहने लगी। मैं एक कवि ठहरा, सीधा-सादा इंसान, उसकी बातों को मजाक़ के रूप में लेता रहा लेकिन वह औरत कमीनपन पर उतर आएगी, मुझे गुमान न था। वह अब मुझे यह कहने लगी कि तू मेरा गू खाके जिंदा है ! मेरे गू पर पलनेवाला इंसान है…”
नाटे गुरू की आंखों से सहसा झरझर आंसू बहने लगे और वह ज़ोरों से रो पड़े। फिर यकायक वे आंसू पोंछकर सख्त आवाज़ में बोले – “गू मैंने नहीं उस कुतिया ,उस रांड ने खाया है। और वह उस पर जिंदा है। बेईमान चोट्टी औरत ! ओफ्फ ! इसीलिए कवि – सम्राट, आपने जो पूछा, औरत क्या है ? मेरे लेखे औरत गू से अलग कुछ नहीं। नाबदान, छल- धोखा है ! ये उसके नाम का पर्याय नहीं, असल नाम हैं। यहां यह बताना ज़रूरी है – इस औरत ने कभी मुझे प्यार नहीं किया। सब एकतरफ़ा था – मैं ही इसके लिए पागल था। बाद में यह तस्वीर साफ़ हो गई । दरअसल वह मेरी नाक से घिनाती थी , मेरे गंजेपन से चिढ़ती थी। मुझे शक नहीं ,पक्का यक़ीन है ( नाटे गुरू ने जलती आंखों आला अफ़्सर की ओर देखा जैसे उस पर थुड़ी बोल रहे हों ) वह रांड एक सड़े से कवि और टुच्चे अफ़्सर से फँसी थी क्योंकि वह अफ़्सर- कवि मेरे घर पर मेरी अनुपस्थिति में आता था। वह कवि मुझे कवि नहीं मानता था जबकि मैं उसकी बात पर कान नहीं देता था। सच बात तो यह है कि वह मुझे नीचा दिखाने की ख़ातिर ऐसा करता था। और मैं क्या समूचा लेखक समाज उसे कवि मानने से इंकार करता था जिसका भारी दुख उसे था। ख़ैर, इस तरह मैं कहूं कि स्त्री एक धोखा है जिसे आप कभी समझ नहीं पाएंगे! हे ईश्वर!”
सहसा वे कुहनियों के बल घिसटने लगे और धूलदास के सामने जा पहुंचे और खड़े होकर कोर्निश बजाने लगे।
जो औपचारिकता उन्हें पहले करनी थी, अब कर रहे थे।
धूलदास मुस्कुराए, बोले कुछ नहीं।
सहसा उन्होंने मुझे देखा और आंखों के इशारे से डायस पर आने का आमंत्रण दिया।
डायस पर आकर मैं खड़ा हो गया। धूलदास को अभिवादन कर मैं कवियों को देख रहा था और सोच रहा था कि इनके सोच पर यदि मुंह खोलता हूं तो ये फुंफकारने लगेंगे। वैसे भी ये उसके ख़िलाफ़ हैं ।अंदर ही अंदर कोई न कोई षडयंत्र रचते रहते हैं। लेकिन क्या इस डर से अपनी बात न रखी जाए – जब मैं सोच रहा था तभी धूलदास ने कहा – “आप अपनी बात रखें और बेहिचक रखें। ऐशगाह में डर- संकोच के लिए कोई जगह नहीं। कृपया अपना मत रखें।”
– “आदरणीय!” – मैं धूलदास से संबोधित था -“ इन कवियों की बातें आपने सुनीं। आप सोच रहे होंगे या नहीं लेकिन मैं इनके बारे में कहूंगा कि ये बीमार लोग हैं, आत्मरति से पीड़ित। स्त्री को जिस तरह ये पेंट कर रहे हैं, उससे स्त्री अपमानित नहीं हो रही है बल्कि ये कवि खुद अपना अपमान करते हुए अपने को अपराधी सिद्ध कर रहे हैं। दरअसल ये बीमार मानसिकता के ऐसे लोग हैं जिन्हें भ्रम है कि ये खाद हैं और स्त्री इनसे खुराक लेकर जिंदा है। इन्हें यह भी भ्रम है कि ये समाज को दलदल से निकाल कर ऐसे रास्ते पर ले जा रहे जिसे विकास का रास्ता कहा जाता है जबकि ये समाज को नहीं बल्कि खुद को पीछे ले जा रहे हैं। यह दुर्भाग्य है कि समाज इनको उच्चादर्श के रूप में मानता है क्योंकि ये बुद्धिजीवी हैं, शिक्षक हैं, आला अफ़्सर हैं। हालांकि समाज इनके सोच, इनकी असलियत को पहचानता है भले वह मौन रहे।”
धूलदास मुझे देखते हुए कहीं खोए हुए थे। सारे कवि गुस्से में लाल एक- दूसरे को ऐसे देख रहे थे जैसे तय कर रहे हों हम लोगों को नीचा दिखाने वाले इस दूध के धुले कवि को कहीं और नहीं, यहीं, इसी ऐशगाह में हम कहीं का न छोड़ेंगे !
एक क्षण रुककर मैं बोला -“ बावजूद इसके मैं सोचता हूं कि इस सोच के लिए हमारे ये कवि कत्तई दोषी नहीं। दोषी तो कहीं न कहीं वह व्यवस्था है जो असमानता पर आधारित है और इन्हें कहीं का नहीं छोड़ रही है। ऐसे में ये हमें असहाय नज़र आते हैं, इसलिए करुण!”
– “स्त्री के बारे में आप क्या राय रखते हैं” – धूलदास के सहसा सवाल किए जाने पर मैंने कहा – “काव्य शिरोमणि, मेरे लिए स्त्री कई संज्ञाओं का समुच्चय है। वह किसी की पत्नी होते हुए किसी की बहन, किसी की मां जैसे अन्य कई रिश्ते को जीती है। वह सिर्फ़ विषय- वासना की वस्तु नहीं है। छोटी- मोटी कमज़ोरियों के बावजूद जीवन की सम्पूर्णता में उसका अर्थ है।” क्षणभर ठहरकर मैंने आगे कहा – “स्त्री आसमान में चांद है जिसकी रश्मियों को पकड़कर हम आसमान हो जाते हैं।”
अपनी बात समाप्त कर मैंने धूलदास को अभिवादन किया और कवियों को आदर भरी निगाह से देखता अपने आसन की ओर बढ़ गया।
धूलदास प्रसन्न दीख रहे थे। वे अभी भी आंखें मूंदे थे। आंखें मूंदे – मूंदे वे बोले – “वाह!”
जब उन्होंने आंखें खोलीं, सारे कवि ग़ुस्से में भरे कुहनियों के बल रेंगते सिंहासन की तरफ़ आ रहे थे।
विशाल विक्रम ने खड़े होकर कोर्निश बजाकर कहा – “हुजूर, कवियों के कवि ! आपके हुक्म पर ही मैंने अपने हृदय की बात कही लेकिन ऐशगाह में मेरा अपमान किया गया ! मुझे क्या से क्या नहीं कहा गया…”
कवि मुकुट ने कहा – “हम कवियों का यह चरित्र हनन है।”
आला अफ़्सर कवि ने कहा – “ये पाक साफ़ है ,सब ख़राबी हममें है। हम आत्मरति के शिकार हैं,बीमार मानसिकता के मारे हैं। स्त्री को अपमानित करने वाले और क्या – क्या नहीं कहा गया …”
रत्नाकर पांड़े मीना ने कहा – “इत्ता कहके लीपा- पोती देखिए, हम बेबस,;असहाय और दया के पात्र हैं। सड़ी-गली व्यवस्था ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा। ये उच्चादर्श है। हद्द है !!!”
विशाल विक्रम फिर बोले – “हमने तो अपना अंतस्तल खोलकर रख दिया, इसने तो अपने बारे में कुछ बताया नहीं। इस पतनशील समाज में पतन की छाया केवल हम कवियों पर गिरी, यह पूरी तरह अछूता रहा। हे भगवान! इससे बड़ा अंधेर क्या होगा !”
आला अफ़्सर बोले – “स्त्री इनके लिए आसमान में चांद है ! और ये महाशय उसकी रश्मियां पकड़कर खुद आसमान हो जाते हैं ! ये है इनका आसमानी कवित्त!!!”
– “हुजूर”, – कवि पटवारी ने दांत पीसते हुए कहा – “ये झूठा है! मक्कार है !!! इसकी असलियत तो मैं जानता हूं।”
कवि मुकुट ने कहा – “यह तो नकलची कवि है ! इसके पास एक भी कविता अपनी नहीं।”
– “ये तो” – पटवारी बोला – “सौंदर्य का कवि भी नहीं है। मजदूरों -खलासियों , हल की मूठ और भैंस की पूछ पर कवित्त रचता है और नारी का हितू बन रहा है।”
विशाल विक्रम बोले – “जबकि ये नारी का सबसे जादा शोषण करने वाला होगा।”
– “होगा नहीं, है !!!”- पटवारी बोला।
– “हुजूर”,- नाटे गुरू घुटा सिर थामे ग़ुस्से में भरे अभी तक चुप बैठे थे। ग़ुस्से में वे मन ही मन में अपनी पत्नी को बीसों चप्पलें मार चुके थे और अभी भी मारने को उद्यत थे । सहसा हाथ लहराकर बोले – “इसके हाथ देखिए, पशुओं जैसे हैं ! यह सौंदर्य का कवि नहीं। आप इसकी हथेली छूकर देखें सब भेद खुल जाएगा।”
सहसा उन्होंने आसमान की ओर देखकर आंखें झिपझिपाते हुए आगे कहा – “कवि सम्राट ! मैं यहां फ्रांस या जर्मनी का एक सच्चा वाक़या सामने रखना चाहता हूं । इस देश में एक समय सत्ता विरोध इस हद तक हुआ कि तख़्तापलट की नौबत आ गई। हालांकि तख़्तापलट सफल नहीं हो पाया। सेना हरकत में आ गई थी। जब विद्रोहियों की पकड़-धकड़ हुई तो पता चला कि तख़्तापलट में बुद्धिजीवियों की बहुत बड़ी भूमिका है। और तब जानते हैं आप, अधिसंख्य बुद्धिजीवी गांव की ओर भागे और किसानों के बीच छिप गए। उनकी पहचान अब मुश्किल थी लेकिन सैनिकों ने उन्हें उनकी हथेली छूकर पहचान लिया और सबको फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया। कविवर, इस कवि को देखकर लगता है कि इसके DNA में वही बुद्धिजीवी हैं।”
धूलदास आंखें मूंदे सिंहासन के हत्थे से टिके नाटे गुरू की बात पर कुछ सोचते हुए रह-रह सिर हिला रहे थे।
सहसा वे मुस्कुराए।
– “हुजूर”,- विशाल विक्रम ने धूलदास से हाथ जोड़कर कहा – “हम सिर्फ़ आपकी की ही बात रखते हुए इस कवि से कहते हैं कि अपना हृदय तो खोलो। सच्चाई को सामने रखो ! उसे क्यों छुपा रहे हो ?”
कवि मुकुट ने कहा – “हम तो हुजूर से विनती करते हैं कि इस कवि से सावधान रहें ! यह अपनी जमात का कवि नहीं है ! यह दोहरे चरित्र का दोगला कवि है ! यह वह सांप है जिसे कित्ता भी दूध पिलाओ, आखिर में आपको डस ही लेगा…”
सहसा सभी कवियों ने सम्वेत स्वर में यह बात कही।
धूलदास उसी तरह निश्चल सिंहासन के हत्थे से टिके रहे। आंखें अभी भी बंद थीं।
सहसा उनके दिमाग़ में एक सवाल उठा कि इस कवि ने लाख अच्छी बात कही लेकिन इसने कहीं न कहीं अपने को छुपाया है जो उचित नहीं जान पड़ता।
सिर हिलाते हुए धूलदास ने आंखें खोलीं।
सामने हाथ जोड़े कवि खड़े थे।
कवियों को लगा कि धूलदास उनकी बात से सहमत हुए हैं और कोई न कोई ठोस क़दम उठाएंगे।
धूलदास बोले कुछ नहीं। सिंहासन से उतरे और धीरे-धीरे चलते ऐशगाह से बाहर निकल गए।
*
कार में बैठते ही धूलदास मेरी बात पर फिर सोचने लगे कि मैंने जो बातें प्रस्तुत की थीं, उनमें वास्तविकता थी, सच्चाई थी लेकिन जैसा कि सारे कवियों का कहना था,उसने अपनी बात छुपाई। वह सच उसने नहीं बताया जो उसके अंदर था । वहीं सारे कवियों की सोच निश्चित रूप से गंदी थी ,अश्लील, किसी भी रूप में ग्राह्य नहीं, लेकिन उन्होंने अपना अंतस्तल खोलकर रख दिया, कुछ छिपाया नहीं – यह एक बड़ी बात थी जिसकी सराहना की जानी चाहिए ! आत्मस्वीकृति के सामने बड़े से बड़े दुष्कृत्य को क्षम्य माना जाता है। वहीं छुपाने वाला व्यक्ति चाहे वह कितने ही बड़े सत्य का उजागर करने वाला हो – वह स्वीकार्य नहीं होता।
धूलदास से यहां मैं मात खा गया था।
दूसरे दिन जब धूलदास ऐशगाह में आए, सारे कवियों के प्रति सहज थे जबकि मेरे प्रति असहज। यही नहीं, कुहनियों के बल घिसटते कवि उन्हें अच्छे लग रहे थे, वहीं मैं उनकी नज़रों से गिर गया था। कह सकता हूं – वे मेरी उपेक्षा कर रहे थे। मेरे अभिवादन का जवाब देना तो दूर, मेरी तरफ़ देख भी नहीं रहे थे।
धूलदास के इस रवैये से सारे कवि काफ़ी ख़ुश थे। सोचते, उनकी भद्द पीटने वाले को इससे बड़ी सज़ा मिलनी चाहिए , उसे ऐशगाह से बाहर का रास्ता दिखला देना चाहिए।
धूलदास का यह व्यवहार मेरी सांस रोक रहा था। अब एक पल भी यहां रुकना भारी पड़ रहा था। सोचता यहां लाकर उपकार करने वाले पटवारी कवि के प्रति आभार व्यक्त कर मैं बहिर्गमन कर जाऊं।
दुखद पक्ष यह था, धूलदास की वह खेल भावना जो ऐशगाह की नींव थी, सिरे से ग़ायब हो गई थी । उसकी जगह अपने-पराए की ओछी भावना ने अपना गंदा खेल शुरू कर दिया था ।
धूलदास सोचते, उन्हें ऐसा कवि-व्यक्ति चाहिए जो अधम, पापी भी हो किन्तु वह उनका अपना सगा हो। मुसीबत में उनके लिए जान न्योछावर कर दे। सच्चे आदमी को लेकर क्या करेंगे ? सच्चा आदमी किसी का सगा नहीं होता ! वह कभी भी किनारा कर सकता है !
इस सोच के तहत धूलदास प्रतिदिन कोई न कोई ऐसा खेल रचते जिसमें अपने और पराए की पहचान होती। मैं ही अकेला ऐसा कवि – व्यक्ति था जो धूलदास की हां में हां नहीं मिला रहा था जबकि अन्य कवि उनके कहे पर जान देने को तैयार थे। बावजूद इसके धूलदास का प्रयास था कि मैं उनके पाले में आ जाऊं। उनका भरोसा निष्कासन में नहीं, मन बदलने में था।
उस दिन भी उन्होंने एक नया खेल रचा।
सुबह का वक़्त था। धूलदास ऐशगाह में आए और सिंहासन पर विराज गए।
कवि गण भी कुहनियों के बल घिसटके कोर्निश बजाके अपने-अपने आसन पर बैठ गए थे।
धूलदास ने एक नज़र कवियों पर डाली और मुस्कुराते हुए कहा – क्या तो घनी अंधेरी रात है ! हर तरफ़ जुगनू तैर रहे हैं! अहा ! हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा …
सहसा चुप होकर उन्होंने विशाल विक्रम से सवाल किया – “कवि विशाल विक्रम,मैंने जो कहा,उस पर तुम्हारा कवि क्या कहता है ?”
कवि विशाल विक्रम ने कुहनियों के बल घिसटकर औपचारिकता पूरी की और हाथ जोड़कर कहा – “कवियों के कवि ! सौंदर्य के सम्राट! आपने जो कहा वह सच है। वास्तव में घनी अंधेरी रात है ! हर तरफ़ जुगनू डोल रहे हैं ! हाथ को हाथ नहीं सूझ रहा है !”
धूलदास ने आला अफ़्सर से यही सवाल किया । आला अफ़्सर ने भी विशाल विक्रम जैसा जवाब दिया।
“शाबाश!!!”
सारे कवियों से एक – सा जवाब पाने पर धूलदास ने ख़ुशी ज़ाहिर की। सहसा वे मुझसे मुख़ातिब हुए, पूछा – “कविवर, रात है और हर तरफ़ चांदनी बरस रही है ! इस पर आपकी कविता क्या कहना चाहेगी। क्या आप इस समय चांद की रश्मियां पकड़कर आसमान की सैर पर हैं ?”
– “हुजूर”! – अभिवादन कर मैंने कहा – “इस समय मैं ऐशगाह में हूं और सुबह का समय है। हालांकि यहां हर समय एक-सा रहता है। बहरहाल, यही मेरी कविता है।”
धूलदास कुटिलता से मुस्कुराए।
सहसा उन्होंने कवियों पर नज़र डाली और कहा – “सौंदर्य के पारखी कवि गण , आप लोग इस सौंदर्य के उपासक कवि की कविता पर क्या राय रखते हैं ?”
– “हुजूर, जैसे ये झूठा है , उसी तरह इसकी कविता भी झूठी है ! दरअसल झूठी मुख़ालफ़त इसके ख़ून में है ! सच्ची बात इसे सुहाती नहीं, तभी यह झूठ पर झूठ बोलता है ! अभी भी यह सरासर झूठ बोल रहा है!”
सारे कवियों ने एक स्वर में यह घोषणा की।
मैंने सभी कवियों को घृणा और क्रोध से देखा।
धूलदास ने मुझे देखा जैसे कह रहे हों कि ऐशगाह में क्रोध और घृणा के लिए कोई जगह नहीं है।
तभी उन्होंने अपने कर्मचारियों को निर्देशित किया कि वे दहकते अंगारों को फ़र्श पर बिछाएं।
कर्मचारियों ने आदेश का पालन किया।
– “क्या बर्फ़ के डले हैं ! ख़ूबसूरत ! शानदार!!!”
मुस्कुराते हुए धूलदास कवियों से मुख़ातिब थे – “हैं न ये ख़ूबसूरत, शानदार?”
– “सच कह रहे हैं आप ! ये बर्फ़ के डले हैं ! ख़ूबसूरत ! शानदार !!!”
कवि गण ख़ुशी से झूमकर बोले ।
सहसा धूलदास ने मेरी तरफ़ देखा और मुझे बर्फ़ के इन डलों पर चलने का निर्देश दिया।
– “ये बर्फ़ के डले नहीं ,अंगार हैं ! दहकते अंगार!!!”
मैंने कहा और इन पर चलने से इंकार किया।
दूसरे क्षण मैंने देखा कवियों के पैर जल रहे थे और छौंछियाते हुए वे उन पर चल रहे थे और बुदबुदा रहे थे – क्या तो बर्फ़ के डले हैं! ख़ूबसूरत और शानदार!!! इन पर मर-मिटना ही जीवन का सार है!!!
धूलदास मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे कह रहे हों कि तुमें इन कवियों से सीखना चाहिए मेरे सौंदर्य का नया कवित्त, नया पाठ !
मुझे लगा जैसे वो मेरा हाथ पकड़े हैं और आग्रह कर रहे हैं ग़ुस्सा थूक देने का।
मैं घिन से भर उठा था। एक पल भी वहां रुकना फांसी के फंदे को गले लगाना था।
थोड़ी देर बाद धूलदास मेरे आसन के आस-पास चहलक़दमी – सी कर रहे थे। गोया मुझे ढूंढ रहे हों , फिर यकायक वे ज़ोरों से हँसे।
मेरी अनुपस्थिति के बावजूद सारे कवियों ने धूलदास का अनुसरण किया।
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