अंबर पांडेय की ‘प्रेत सरित्सागर‘ कई स्तरों पर चलने वाली कहानी है। बिलावल, 42 वर्षीय अकेला युवक, जिसके जीवन में ‘स्त्री’ का आगमन हुआ ही नहीं, और जो परिवार जन थे वे भी एक-एक कर गुजरते गए। वहीं एक पात्र श्रीकण्ठ, विवाहित, एक समय तक रतिसुख में डूबा हुआ लेकिन ‘संयोग’ ऐसा कि उसकी ‘स्त्री’, षोडशी का ही रति से मन विमुख हो गया! यह कहानी का एक पक्ष है। इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि विधा के तौर पर लेखक ने नयापान लाने की कोशिश की है। कहानी के शुरुआती हिस्से को एकालाप की तरह बरता है और दूसरा व अंतिम हिस्सा, जिसमें विभिन्न लोग हैं, इसलिए संवाद भी हैं। आप के लिए यह कहानी प्रस्तुत है- अनुरंजनी
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प्रेत सरित्सागर
१
चमड़े के जूते बनाने के काम में नुक़सान यह है कि मेरे शरीर से हमेशा खाल की बू आती रहती है जिसकी मुझे आदत पड़ गई है बल्कि यूँ कहूँ कि अब बू आना ही बंद हो गई है मगर मेरी बहन सलमा परेशान रहती है। जब भी वह सहारनपुर से आती है तो मुझे कोई और काम पकड़ने को कहती। मुझे शादी कर लेने के लिए दिक़ करती है। तीन साल से चलती महामारी ने मेरे सेठ की कमर तोड़ दी है, चमड़े के हाथी घोड़े, शेर-चीते की खपत होते होते अब इतनी कम हो गई है कि कल कारख़ाने जाने पर काम हाथ में रहेगा कि नहीं इसका भी ठिकाना न है। इस बीच सेठ ने इन्हीं चमड़े के खिलौनों में लगनेवाली काँच की आँखें भी बनाना शुरू की, उसके बाद हिंदुओं के भगवानों के नैन, नज़रबट्टू भी हमारे यहाँ बनने लगे जिससे जैसे तैसे दो जून की रोटी मिल जाती हैं। शादी तो अब मेरी होने से रही, उमर बयालीस से ज़्यादा ही हो रही है उस पर आमदनी छोटी है।
रुख़साना जो आते जाते कभी मुस्कुरा देती थी वह भी महामारी की भेंट चढ़ गई, उसका आदमी उस्मान बच्चों को लेकर सूरत या अंकलेश्वर चला गया। किसी बोहरे की प्लास्टिक फ़ैक्टरी में लग गया है। तोड़े पर मेरा घर है और मोतीतबेले पर कारख़ाना, जाते वक़्त कितने डोकरे-डोकरियाँ ओटलों पर बैठे दिखते थे, उसमें से आधे से ज़्यादा महामारी में चल बसें। अब्बू और अम्मी के महामारी में निपट जाने के बाद मैंने हमारे मकान का ऊपरी हिस्सा किराए पर चढ़ा दिया था और बारह सौ रुपए देकर एक आदमी वहाँ रहता है। मेरी तरह उसकी भी कोई औरत नहीं है, डबलरोटी और कहीं से सालन ले आता है और खाकर पड़ा रहता है। दिनभर अख़बार पढ़ता है, रात को कहीं चौकीदारी करने जाता है। कमरा बहुत गंदा रखता है। मेरी मरहूम माँ को इससे कितनी तकलीफ़ पहुँचती होगी इसकी मुझे खबर है मगर पैसा मेरे पास है नहीं कि बिना मकान किराए पर दिए रह पाता। एक दिन उससे कमरा साफ़ रखने को कहने जब मैंने ऊपर गया तो देखता हूँ जाँघिया पहने और कान में ईयरफ़ोन लगाए कुछ सुनते हुए वह सो रहा था। उसे डिस्टर्ब करना मैंने मुनासिब न जाना और उसके बाद कभी ऊपर नहीं गया। हमारे मकान में वैसे कोई ख़ास बात है भी नहीं, दूर से बालटियों में पानी लाना पड़ता है और पाखाना आए दिन भर जाता है। नगरनिगम के लोग लाख बुलाने पर भी न आते है और प्रायवेट आदमी सफ़ाई के लिए बुलाओ तो बहुत महँगा पड़ता है। उन दिनों हम लोग नाले के किनारे निपटने जाते है और वहाँ सफ़ाईकर्मी हमें परेशान करते, निपटने से पहले ही दो या तीन रुपए धरा लेते हैं। सुलभ शौचालय दूर है। मैं कारख़ाने जाकर फ़ारिग होता हूँ।
कलालकुईं मस्जिद पर पहले जुमे के जुमे नमाज़ पढ़ता था मगर अब रोज़ मग़रिब की नमाज़ पढ़ने जाता हूँ। कुल मिलाकर बख़त जैसे तैसे गुज़र हो रही है और कुछ बदलने की आस नहीं है। मरने तक यों ही जीता रहूँगा यह सोचकर काम चल रहा है। धूप कभी कभी अच्छी लगती थी। व्यासफलां से कलालकुईं तक कारख़ाने जाते हुए माथे पर धूप जब टलमल करती तो लगता इसी तरह जिंसी तक चला जाऊँ। बनती हुई नयी मस्जिद की मीनारों और फिर व्यासफलां के पुराने पंडितों के घर से छनछनकर धूप सूधी-बाँकी लकीरें सड़क से लेकर सड़क किनारे बनी नालियों पर बनाती चलती। जहाँ धूप की लकीर न होती वहाँ ठंडक और जहाँ होती वहाँ उजाला और गर्मी होती। उजाला हालाँकि छाँव में भी होता मगर ऐसा उजाला जैसा संस्कृत पाठशाला के बालकों के माथे पर होता है, चंदन से धुली हुई रौशनी। जहाँ खूब धूप पड़ती वह जगहें सुबह सुबह अच्छी और दोपहर होने तक उजाड़ दीखती। नालियों के पानी में धूप सात रंगों में टूट जाती या काँच के गोल कंचों की तरह कहीं कहीं चमकती। कभी धूप गर्मियों की दोपहर में भी अच्छी लगती थी। बचपने में गर्मियों में होनेवाली छुट्टियों की याद आ जाती। उस धूप को देखकर लगता आगे कुछ अच्छा हो सकता है जैसे बचपने में लगता था कि अच्छा हो सकता है और कभी जाती हुई धूप को देखकर लगता आगे बस अंधेरा है। कभी धूप से लम्बी उसकी छाँह होती और छाँह बड़ी उदास लगती जैसे लम्बी बरौनियों वाली रुख़साना की आँखें उदास लगती थी। काली पुतलियाँ धूप की तरह चमकती और बरौनियाँ धूप के आड़ में आनेवाले पतरों से पैदा हुई छाँह सी फैली हुई और उदास।
एक दिन ख़रबूज़ों का थोक कारोबार करनेवाले सलीमभाई की दुकान में लगे तिरपालों के छेदों से छनती धूप में मैं कुछ देर खड़ा रहा। ख़रबूज़ों का रंग भी धूप जैसा होता है। मैंने कभी किसी औरत की नंगी छातियाँ न देखी थी नहीं तो तिरपालों से उस रोज़ छनती धूप को औरत की उघड़ी छातियों जैसा बताता। ख़रबूज़ों पर धूप रौशन थी, ढेर सारे ख़रबूज़ें और उन पर लाखों किलोमीटर से आती हुई धूप, खरबूजें अभी अभी खेतों से आए थे और धूप बहुत पुरानी थी मगर धूप ख़रबूज़ों से भी ज़्यादा ताज़ा लग रही थी। ख़रबूज़ों के ऊपर जो क़ुदरती अबीर होता है उससे धूप और भी ज़्यादा चमक रही थी जैसे पसंद के आदमी के संग चलनेवाली औरत का माथा चमकता है।
हमारे मुहल्लों में बहुत धूप थी। जैसे आसमान ग़रीबों के लिए कोई चीज़ नहीं बल्कि हवा पानी की तरह ज़रूरी है उसी तरह हम लोगों को जीने के लिए धूप की सख़्त ज़रूरत थी। हक़ीम और डॉक्टर कहते हैं धूप से हमें कोई विटामिन मिलता है। अगर विटामिन न भी मिलता, धूप से अगर हमें प्यार की तरह कुछ भी नहीं मिलता और प्यार की ही तरह धूप हमारा सब कुछ ले लेनेवाली होती तब भी हमें धूप की ज़रूरत थी। कार और हवाईजहाज़ में घूमनेवाले लोग इसे नहीं समझ सकते। धूप बहुत ज़्यादा थी फिर भी कम पड़ती थी जैसे घर में कई दफा आटा कम पड़ता था और धूप कई बार बहुत ज़्यादा हो जाती और मैं सोचता यह कम क्यूँ नहीं हो जाती और जब रात होती तो धूप से भरे हुए दिन की याद आने लगती। सपने में दिखता दोपहर की धूप में मैं व्यासफलां से लोहामंडी की तरफ़ जा रहा हूँ और रेडियो पर गाने बज रहे है। जैसे दुनिया से धूप कभी कम नहीं होगी उसी तरह मेरा यों चलना भी आख़िर रहते बख़त तक रहेगा, धूप की तरह कुछ भी ख़त्म नहीं होगा मेरा दुःख भी।
जिस रोज़ धूप नहीं निकलती थी उस रोज़ क्या होता है? जैसे बेकरियों में नानबाई आटा गूँधकर ख़मीर उठने को ढँककर रख देते है उसी तरह धूप को कई बार बख़त ऐसे ही ढँककर रख देती है। बादलों से भरे दिनों में कमउम्र लड़कियाँ और नौउम्र लड़के बड़े बेचैन हो जाते थे। वह कभी रज़ाइयों में सोते कभी पंखे चलाते कभी मोबाइल पर गाने सुनते कभी बेवजह इतने चुप हो जाते जितनी धूप होती है। आपने देखा होगा धूप की कोई आवाज़ नहीं होती। धूप हवा या पानी तो नहीं कि आवाज़ करती फिरे। धूप मेरी तरह चुप्पा थी। बरसात बड़बोली थी और इसलिए धूप और बरसात में अबोला है ऐसा बचपन में मेरी बहन सलमा कहती थी। सलमा और धूप का बड़ा बैर था। उसे लगता घाम में वह काली हो जाएगी। वह दुपट्टे से मुँह बाँधकर बचपने में मदरसे जाती थी और उम्र बढ़ने पर अपनी सहेलियों सितारा और फ़लकजहाँ में संग चूड़ियाँ ख़रीदने मारोठिया बाज़ार। धूप के रंग वाली धानी चूड़ियाँ उसे बहुत पसंद थी। जितना वह धूप से बचती उतनी धूप से घिर घिर जाती थी। फ़लकजहाँ के घर बैठी रहती कि संझा पड़े घर लौटेगी मगर अब्बा मेकैनिक की दुकान जहाँ वह नौकर थे, से जो जल्दी आ जाते तो हल्ला कर देते – “सलमा कहाँ गई सलमा को बुलाओ”। मैं घाम में ही सलमा को लेने दौड़ता। ऐसा अक्सर रमज़ाम के महीने में होता था।
शादी के बाद बड़े दिनों तक मुझे भरम बना रहा कि सलमा इंदौर में ही है। कई दफ़ा मैं उसके लिए कचौरी और रबड़ी ले जाने को हलवाई के यहाँ पहुँच जाता फिर याद आता कि सलमा तो सहारनपुर अपनी ससुराल में है। मुझे रबड़ी, कचौड़ी या जलेबियाँ पसंद न थी। शीरमाल और खाजा जो सस्ते में मिलता था अक्सर छोटी दुकानों पर मिल जाता है कभी कभी वह पेट भरने को ले आता हूँ वरना मुझे तरबूज़ और सेब पसंद हैं। सेब बहुत महँगे आते और फलफ़रोश एक सेब देने से नट जातें। तरबूज़ का सीज़न बहुत छोटा होता है। बाज़ वह भी बड़ा महँगा पड़ता। व्यासफलाँ में एक पंडित के बेटे ने अपनी बाखर के निचले हिस्से में तरबूज़ का बड़ा गोदाम क़ायम कर लिया है, जहाँ तरबूज़ सस्ते मिल जाते मगर थोक लेना पड़ते। सलमा जिस बरस जीजा हबीब और भाँजे गोलू के संग आई थी तब वहाँ से बहुत तरबूज़ ख़रीदे, बात यह थी कि वह रमज़ान पाक का महीना था और गर्मियों में पड़ा था। हबीब और सलमा दोनों रोज़ों के पाबंद थे। हमपर उन दिनों बहुत क़र्ज़ भी हो गया जो जैसे तैसे अब्बू और मैंने पटाया, अम्मी ने भी क़र्ज़ चुकाने के लिए बहुत पेटीकोट और सलवारें सी थी। उसके बाद वहाँ से तरबूज़ तो कभी न लिए मगर वहाँ जाना छोड़ न सका। मौक़ा मिलते ही पंडित के तरबूज़ गोदाम के आगे मैं जाकर खड़ा हो जाता। बहुत लिहाज़ भी होता कि लोग देखेंगे तो क्या कहेंगे मगर ख़ुद को रोक भी न पाता था। छोटे हाथी से तरबूज़ उतरते और एक आदमी दो से ज़्यादा एक बार में न ले जा पाता फिर अंदर से एक बोरा लाता और उसमें तरबूज़ भरता तब भी बमुश्किल दस तरबूज़ों से ज़्यादा पीठ पर न लाद पाता था। नए टूटे तरबूज़ों पर पानी होता जबकि कई दिनों पहले बेलों से जुदा तरबूज़ों पर एक मरूनी रोशनी छा जाती जैसे अंदर का रंग बाहर के सब्ज़ पर हावी हुआ जा रहा हो। दिवाली के आसपास शरीफ़ों के ढेर गोदाम आने लगते। शरीफ़े कच्चे आते और दिन-दो दिन में पक जाते और गली महकने लगती। मुझे फलों से कोई मतलब न था। वहाँ खड़े होकर ही मुझे रस मिलता था। बात यों थी कि गोदाम के आगे लाल फूलों का कोई दरख़्त लगा था। वह अवध के राजा रामचन्द्र जी की बीवी रानी सीता का दरख़्त था, पंडित उसे सीता अशोक कहते और हम जैसे ग़ैर-पढ़े-लिखे, लाल फूलों वाला झाड़ कहकर पुकारते। गोदाम के ऊपर आगे वाले भाग में पतरे की छत थी और उसके ऊपर खपरैल की। दोनों के बीच सीता अशोक के पत्ते उड़ उड़कर गिरते, फूलों के दिनों में फूल बरसते और वहीं एक लड़का बैठकर कुछ गाता रहता था। वह फ़िल्मी नग़मे न गाता था, वह पक्के गाने गाता, राग-रागनियाँ। शुक्लाजी उसके संग सारंगी पर संगत करते और कत्थई दाढ़ी, सफ़ाचट मूँछों वाला एक दुबला पतला हाजी तबला बजाता था। हाजी बूढ़ा न था मगर हाजी था ऐसा कि उसकी हिना से रंगी दाढ़ी और केसों से लगता था। उसका सूरमा संझा को भी दूर से चाँदी की दो लकीरों सा चमकता था। नीचे छोटे हाथी से गर्मियों में तरबूज़ और आते जाड़ों में शरीफ़े उतरते रहते और ऊपर राग उतरता। मैं कम पढ़ा लिखा छोटे घर का आदमी हूँ मुझे पक्के गानों का शऊर सिरे से न था तब भी मैं वहाँ जाए बिन न रह पाता और जाकर वहाँ से मुझसे आया न जाता। शुक्लाजी बहुत ज़ईफ़ थे उनसे देर तक बैठा न जाता वह पतरे की छत पर ही पीठ के बल लेट जाते और सीने पर सारंगी धरकर बजाए चले जाते। गोदाम बंद हो जाता, हम्माल गाली-गुफ़्तार करते लौट जाते, गोदाम के मुनीम कान पर क़लम खोंसे अपने बेटे के संग एक्टिवा पर पीछे बैठकर खाँसते हुए घर लौट जाते। छुटपुटे से अन्धेरा छा जाता, बत्तियाँ जल जातीं, दरगाहों पर चिराग़ जगमगाने लगते, मंदिरों में आरतियाँ होने लगतीं और बाज़ार में किराने की दुकानें बस रोशन बचतीं। सब्ज़ी बेचनेवाले फेरियाँ बढ़ा लेते मगर उनका गाना न बंद होता। उन्हें कहीं जाने की जल्दी न होती उन्हें चाय-पानी पान-बीड़ी की तलब न होती न भूख लगती न नींद आती। सुरीले जिन्नों की तरह वे वहाँ गाते बजाते रहते थे। उनके माथे दूर से ऐसे जगमग करते जैसे वे आदम ज़ात न होकर किसी जूनी तस्वीर में चितरे हुए किरदार हो जो पहले हिलने लगते और फिर उनमें जान पड़ जाती फिर वे गाने लगते।
जूनी बहियों की स्याही, जो अब स्याह कम सलेटी ज़्यादा रह जाती है और जिसमें दर्ज नामों की फ़ेहरिस्त कभी अपने गिरवी रखे गहने वापस लेने न पाये ऐसी स्याही में जो महक होती है वैसी ही तरबूज़ गोदाम से उठती थी। फिर एक रात लौटते मुझे नुसरत मिल गया। आँखों में वह पतला सूरमा लगाता था और उसकी बरौनियाँ दुकानों के आगे गरमियों में लगे तिरपालों के चन्दोबे की तरह लंबी थी। बाप उसका दिल में बुलबुला अड़ने से बहुत पहले चल बसा था। माँ-बेटा दोनों डबलरोटियाँ बनाकर बेचते थे। बचे बखत में वह तबला बजाता था।
“तुमने दाढ़ी सफ़ाचट करवा ली?” मैंने पूछा।
आपको कैसे पता कि पहले मेरी दाढ़ी थी? उसने पूछा। मैंने जवाब न दिया उसने भी बात आगे न बढ़ाई।
नुसरत हाजी तरबूज़ गोदाम के ऊपर तबला बजाता था। सुपैद फ़रफ़र कुर्ता पहनता था, पाँच दफ़ा नमाज़ का पाबंद था।
“गाना बजाना हराम है, ऐसा मौलवी बताते हैं” मैंने मन ही मन कहा। उसने शायद अपने तीसरे कान से सुन लिया। जवाब इसका भी न दिया। मेरा तीसरा कान भी है, ऐसा उसने मन ही मन कहा और मैंने अपने तीसरे कान से सुन लिया।
जब अम्मी मरीज़ थी, महामारी का ज़ोर था वह कुछ कह न पाती थी। वह हाँफती रहती थी और खाँसती थी उन्हीं दिनों मुझे लगता है मेरा तीसरा कान उग आया था। हम दोनों देर तक चलते रहे। उसके बाद मैंने घर का कूचा पकड़ा और उसने आज़ाद नगर का।
अम्मी बहुत आराम में गईं। बहुत इत्मीनान से वह हवा खींचने की कोशिश करती थी। कई दफ़ा उन्हें अच्छा महसूस होता तो रोटी बनाने बैठ जाती। मैं उन्हें उठाकर वापस खाट पर सुलाता। रात को किरोसीन की गोली खाने के बाद उन्हें तरावट लगती, भरी गर्मियों के दिन थे चाँदनी भी घाम सी लगती थी। वह पसीना-पसीना हो जाती। मैं बेना ठण्डे पानी से धो-धोकर उन्हें पंखा करता। वह दूर यूपी की थी, वहीं का गुनगुनाती – “रूत लागी बेना डोलन की हो रामा…” फिर हाँफकर चुप हो जाती। मेरी अम्मी हमेशा से चुपचाप रहनेवाली और बहुत काम करनेवाली थी। उन्हें अच्छा न लगता कि मैं अपनी नींद बिगाड़कर उन्हें बेना करूँ वह ऐसा दिखाती जैसे उनकी नींद लग गई हो, मेरा तीसरा कान था मुझे पता रहता कि वह तकलीफ़ में है।
अस्पतालों में लाइनें लगी रहतीं। मैं रोज़ अस्पताल का चक्कर लगाता मगर बात न बनती। अम्मी ग़ुस्सा होती। “वहाँ न जाओ, यह न हो कि तुम्हें भी रोग लग जाए ” वह कहती।
मैं उन्हें तरबूज़ की फाँक खिलाता। वे ज़्यादा खा न पाती थी। उस रात भी मेरे कने तरबूज़ था, बहुत मीठा। मैंने हाथ आगे बढ़ाया – “खाकर देखो एकदम शक्कर है।”
अम्मी वहाँ न थी। हाथ हवा में फाँक पकड़े ठहरा रहा। रात बहुत हो गई थी मगर नींद न आती थी। शायद उम्र का असर है, आ जाती तो ठीक चार बजे खुल जाती। फिर लगता पंडित जी के तरबूज़ गोदाम तरफ़ चला जाऊँ। शायद वहाँ नुसरत हाजी, पंडित का छोटा बेटा और शुक्लाजी कुछ गा बजा रहे हो। नुसरत हाजी ने बताया था कि शुक्ला जी हर वक़्त सारंगी बजाते हैं, नींद में भी। बहू उनकी मुँह में कुछ डाल देती तो खा लेते है मगर सारंगी नहीं छोड़ते। उनका बेटा जो चालीस बरस का था, उसकी मोटरसाइकिल नगरनिगम के खोदे गड्ढे में गिर गई थी। पेट में बहुत चोट आई और वह मर गया। बहू प्राइवेट स्कूल में मास्टरनी हो गई। वही घर चलाती थी, शुक्लाजी की पेंशन आती थी। दो पोतियाँ थी जो रोज़ स्कूल जाने से पहले सारंगी बजाते शुक्लाजी के मुँह में ब्लड प्रेशर की गोली डाल जातीं थी।
“क्या वह चलते चलते भी सारंगी बजाते हैं?” मैंने वाजिब सवाल किया। नुसरत हाजी मुझे देखता रहा। “तुम नाहक़ बातें पूछते हो” – उसने जवाब दिया।
पिछले सब बरसों की मुझे बस गर्मियाँ ही गर्मियाँ याद है। गर्मियों की घाम, उसकी सुराहियाँ, उसके शरबत और प्यास, ऐसा लगता दूर तक बाज़ार में चला जा रहा हूँ और बहुत प्यासा हूँ। घर पर अम्मी बीमार है, मैं उनके पास बैठकर पानी पी रहा हूँ। देवगुराड़िया में बना गेरुआ मटका, जिसपर खड़िया से बेलबूटे काढ़े गए हैं और जो नया पानी भरते ही सुर्रसुर्र आवाज़ करता है जैसे पहले वह पानी पीता है उसके बाद अंदर भरे पानी को ठंडा करता था। उसपर हाथ धरो तो गीला हो जाता है जैसे बुख़ार में अम्मी का बदन पसीजता था। गर्मियों में कैसे टाट के पर्दे गिराकर अंधेरा कर लेता और उन्हें भिगो देता ताकि ठंडी हवा चले। कितनी लंबी गरमियाँ थीं उस बरस, सुबह उठते ही लगता जैसे दोपहर हो गई हो। अम्मी उठने की कोशिश करती कि खाना बना सके। डाँटने पर चुपचाप सोती रहती। अब्बू का जाना वे अब तक समझ न सकी थी। अस्पताल गए तो लौटे ही नहीं। कभी कभी रोती थी और अपनेआप चुप हो जाती। हाँफने लगती और देर तक छत की तरफ़ ताकती रहती, ताकती रहती, ताकती रहती और सो जाती। मैं उन्हें देर तक सोने न देता था, डरता था कि वह जागेंगी नहीं अब्बू की तरह। गर्मी इतनी पड़ती थी कि जागने पर समझ न आता कि हम दोनों क्या करें!
शायद मुझे ऐसा लगता था कि गरमियों की वजह से हम इतना ख़ाली महसूस करते हैं जबकि बात दीगर थी। कारख़ाना बंद था, कच्ची मस्जिद में एक शरीफ़ से क़र्ज़ लिया था उसी में कट रही थी। अब्बू का कफ़न दफ़्न अस्पताल वालों ने कर दिया था। जूनी इंदौर में एक हक़ीम उन दिनों मुफ़्त में दवा देते थे, अम्मी के लिए वह लाता और किरोसीन के छह पत्ते अब्बू के बखत अस्पताल से मिल गए थे, उनसे काम चल जाता। रुख़साना जब गुजरात गई तो पंद्रह सेर चावल और थोड़ी मूँग की दाल दे गई थी, हक़ीम साहब ने अम्मी को अण्डे खिलाने का कहा था बस उसका खर्च था और मोबाइल में रक़म डलवाने का, सो उन दिनों उधार डलवाता था, हबीब और सलमा से बात करने के लिए। अब्बू के जाने के बावजूद राजी दिन थे क्योंकि कुछ करने की हड़बड़ न थी और किसी की ग़ुलामी न करनी थी, न कहीं जाना था। कभी कभी जी सत्तू खाने को करता था। एक रोज़ पड़ौसी की बेटी को आम खाते देखा तो जी आम खाने को किया था। फलों से लगाव उन दिनों था। अम्मी के जाने के बाद जो बिलकुल खिर गया। गोश्त से ज़्यादा मुझे फल अच्छे लगते थे बल्के यह कहना मुनासिब होगा कि गोश्त बिलकुल न भाता था और फल खाने को मन ललचाता था। ठण्डा पानी मिला जाए और फल की एक फाँक उतना जीने को बहुत था।
मैं जानबूझकर व्यासफलां, तरबूज़ गोदाम के आगे से गुज़रने को लंबा रस्ता पकड़ता हूँ, इन दिनों रोज़ी से फ़ारिग होने पर करने को कुछ है भी नहीं। डरता हूँ कि लोग देखेंगे तो सवाल करेंगे। कौन हो, क्या करते हो, यहाँ क्यों खड़े हो? उठाईगीर या उचक्का समझ लिए जाने से जी घबराता है मगर फिर भी खड़ा रहता हूँ। शाम पड़े तरबूज़ गोदाम के आगे खड़ा शुक्लाजी के सीने पर धरा बाजा सुन रहा हूँ कि एकाएक मेरी नाक और नाक से लेकर माथा तो ख़ुशबू से भर गया है। ऐसी महक कि लगे रूह ख़रगोश जैसा कोई जानवर है जिसकी नींद अभी अभी खुली है और जो अंदर कूद रहा हो। मैंने सिर उठाया तो देखा बेलफलों से वह कँटीला झंखाड़ लदा है। यह गली, सामने सीताफूल और यहाँ बेल का पेड़, इन दो झाड़ों को छोड़ पूरी पक्की है। छोटी छोटी चौकोर फ़र्शियों से कसी, जिसके दोनों किनारे पर खुल्ली नालियाँ बहती हैं, पक्के ही मकान हैं, बस आसमान कच्चा है। अगर मिस्री का हाथ पहुँचता तो इस गली के लोग आसमान भी पक्का करवा देते। रोटी खाने को थोड़ी देर दिल किया मगर सुनने में ध्यान लगाए रखता हूँ तो पेट ख़ाली है यह शरीर भी भूल जाता है। सलमा बता रही थी कि मैं बहुत दुबला हो गया हूँ, निरी सींक, इतना कि पसलियों से हड्डियाँ गिनकर कोई बता दे, हालाँकि मुझे लगता है मैं हल्का हो गया हूँ, कपास के फूल जैसे हवा में खुल जाता है और उड़ने लगता है। इतने में नुसरत हाजी ने मुझे छत से तबला बजाते देखा और इशारा किया। मैं समझा उसने मुझे छत पर बुलाया है, मैंने इशारे से पूछा, ऊपर आने की राह कहाँ है? उसने इशारा किया मैं वहीं ठहरूँ वह थोड़ी देर में नीचे आएगा। मुझे तसल्ली हुई, ऊपर जाकर अगर मैं उन लोगों का गाना-बजाना इतने नज़दीक से सुनता तो शायद बेहोश हो जाता। वे आख़ीर तक पहुँचते पहुँचते बहुत जल्दी जल्दी गाते-बजाते हैं, नुसरत हाजी के हाथ इतनी तेज़ी से चलते हैं कि दिखाई भी न देते। गवैये लड़के का सिर इतने ज़ोर से हिलता है कि लगता है वह हवा से बना हुआ है। शुक्लाजी इत्मीनान से लेटे रहते मगर बजाने में गवैये और तबलचीं से एक कनी कम न पड़ते। देर तक वे गाते रहे, वे साँस न जाने कब लेते हैं। मैं खड़ा रहा। गली सूनी होती जाती है, थोड़ी अबेर और बीती और मैंने ख़ुद को गली में अकेला खड़ा देखा। बहुत दिनों बाद जब मैंने इसका ज़िक्र नुसरती करूँगा तो वह कहेगा, राग का असर होगा। कई दफ़ा वह ख़ुद भी राग के आख़ीर में ख़ुद को तबला बजाते हुए देखता है। मतलब राग कोई ऐसी चीज़ है जो मन को शरीर से दीगर करती है जैसे मौत। क्या अम्मी ने भी अपने मरे हुए जिस्म को ऐसे ही देखा होगा? उनका मन उसी जिस्म में वापस घुसने को बेचैन न हुआ होगा जिसमें उनका बरसों से वास था मगर मुझे तो अपने आप को ख़ुद से दूर खड़ा हुआ देखकर राहत हुई थी। अगर मैं अपने जिस्म में लौट न सकूँ तो पता नहीं मुझे कैसा लगे?
कारख़ाने के काम से फ़ुरसत मिलती तो मालिक हमारा बहुत बातें करता था। बताता था बर्मा नाम के मुल्क का कोई राजा था जिसका जवान बेटा जाता रहा। राजा और रानी की दुनिया उजड़ गई। उन्होंने नगाड़ा पिटवाया कि जो शहज़ादे की लोथ में प्राण फूँक देगा उसे राजपाट देकर राजा रानी बना चले जाएँगे। शहज़ादे का ज़िंदा होकर क्या होगा इसकी कोई बात न की। भगवान बुद्ध को माननेवाला एक फ़क़ीर वहाँ आया। वह दुनिया का सबसे बूढ़ा आदमी था। उसकी उमर एक सौ उन्चास बरस थी। उसने कहा, “मैं अपने जूने-जरजर तन को त्यागना चाहता हूँ। मैं शहज़ादे के बदन में बसेरा कर सकता हूँ बल्कि करूँगा ही क्योंकि इसका सलोना गात मुझे भा गया है।” राजा और रानी उसके पैरों में लोटने लगे। फ़क़ीर तिब्बत से आया था सो उसका नाम लोगों ने तिब्बती बाबा रख दिया। तिब्बती बाबा ने अपना ज़ईफ़- क़दीम जिस्म छोड़ा और शहज़ादे के शरीर में वास कर लिया। शरीर से बढ़कर मन होता है सो शहज़ादा उठ तो बैठा मगर था वह तिब्बती बाबा। नारियों से अब उसके अंग न गरमाते न उसे ग़ुस्सा आता, खाता ऐसे जैसे मिट्टी चबाता हो। शरीर दिन ब दिन दुबलाता गया, माँ बाप पर कोई लगाव भी न था। राजा रानी बड़े मायूस हुए। उन्होंने पंजाब से फिर फ़ारस से और फिर आर्मेनिया से हूरें दर-आमद की मगर शहज़ादा जो अब तिब्बती बाबा था बुत का बुत बना बैठा रहा। रानी से राजा ने कहा, देख शौहर की वजह से शौहर अज़ीज़ नहीं होता मेरा शौहर है इसलिए अज़ीज़ होता है, बेटे के कारण बेटा दुलारा नहीं होता मेरा बेटा है इसलिए दुलारा होता है। यह बेटा हमारा नहीं क्योंकि मन से मनख होता है। इसका मन ही दूसरे का है। थक हारकर एक रोज़ राजा ने अपने बेटे का जिस्म वापस माँग लिया। तिब्बती बाबा मय शहज़ादे के जिस्म बर्मा से फ़रार हो गये। संग में एक फ़ारसी नारी भी उसके संग भाग गई जो उनकी चेली हो गई थी। राग जैसे ही पूरा हुआ नुसरती हाँफता नीचे आया और मेरे कंधे पर हथेली धरकर खड़ा हो गया। मैं पलटता हूँ, नुसरती सिर हिलाता है और बेलफल से उसके माथा टकराया, हम दोनों हँसते हुए आगे चले। उजली पाँख के दिन थे, चाँद कलालकुँई की मस्जिद की तरफ़ झुका जा रहा था। “कैसा लगा?” नुसरती ने पूछा, उसकी आँखें सूरमे के कारण ऐसी नज़र आ रही थी जैसे चाँदी की दो मछलियाँ हो जिसमें किसी तिलिस्म से जान पड़ गई हो।
ख़रबूज़ों और तरबूज़ रमज़ान लगते ही आने लगें। तरबूज़ गोदाम के आगे अब रात-दिन गाड़ियाँ लगी रहतीं। शोर मचा रहता, धुआँ भरता। हम्माल इधर से उधर दौड़ते और मुनीम को बही से माथा उठाने की फ़ुरसत न मिल रही थी। कई बार गाड़ियाँ पंक्चर हो जाती और पाने-पिंच्चीस उठाए ड्राइवर और नौकर टायर उठाये फिरते, हम्माल जल्दी जल्दी तरबूज़ उतारते और मुनीम गाड़ी के सिरहाने खड़े होकर सबको डपटते। गाना बजाना बहरसूरत तर्क था। जो पक्के गाने सुनने के आदी हैं उन्हें अगर कई रोज़ गाना सुनने को न मिले तो एक अजब बेकली उनपर हावी हो जाती है। मैं बार बार वहाँ जाता मगर महज़ शोर के अलावा कुछ न पाता। एक रात वे तीनों छत पर मुझे बैठे दिखाई दिए। सड़क को पीठ दिए कुछ खुसुर-पुसुर कर रहे थे। देर तक मैं वहाँ खड़ा रहा मगर कोई गाना उन्होंने न गाया। नाउम्मीद मैं घर लौटने को हुआ ही था कि नुसरती ने ऊपर से आवाज़ दी, “ऊपर तो आओ भाई”। मुझे बहुत लिहाज़ हुआ। इन बेचारों का गाना बजाना इतने दिनों तक इन्हें बग़ैर बताए सुनता रहा और यह लोग जब अपने पास बुलाते है तो हाथ ख़ाली लिए कैसे जाऊँ। नुसरती चुप होनेवालों में से न था, बुलाता रहा। “ऊपर आने की राह कहाँ से है?” मैंने चिल्लाकर पूछा। मोटरों ने गली में गुल किया हुआ था।
उस दिन मुझे पता चला कि ऊपर आने का रस्ता पिछली गली से है। गोदाम की वजह से इस ओर से ऊपर नहीं जा सकते। मैं घूमकर पिछली तरफ़ गया। एक आदमी जा सके इतना सँकरा फाटक था जिसे नाड़ी से दीवार पर लगे खंभे से बाँधा गया था। बरामदे में तुलसी के बिरवे के नीचे दीया जल रहा था और बायीं तरफ़ केलें के पेड़ों का अंधेरा झुरमुट था, ऐसा कि वहाँ बहुत साँप-बिच्छू होंगे। किवाड़ खुलते ही अँधेरा ज़ीना था जिसके दोनों ओर चीकट दीवारें झुकी आ रही थी। ज़ीना ख़त्म होते ही दो पाटों का एक पुराना किवाड़ और था, जिसकी साँकल बाहर से चढ़ी थी सो मैंने खोल ली मगर किवाड़ अंदर से भी बंद था। मैंने साँकल बजाई और मेरे साँकल बजाते ही अंदर बैठे वे तीनों ने गाना बजाना आरंभ कर दिया। पहले आलापना शुरू हुआ ज़नाना आवाज़ में। तो क्या अंदर बैठकर कोई औरत भी गाती है? आज तक तो मैंने बस उस पंडित लड़के का गाना सुना था। यह आलाप तो पंडित से कहीं ज़्यादा सुरीला था। फिर तबला बजा, पहले गड़बड़ाया फिर ज़नाना आवाज़ ने मराठी में कुछ कहा। मैं मराठी नहीं जानता। तबला अब दीगर ढंग से बजने लगा। ज़नाना आवाज़ में हो रहा गाना उसमें ख़ासे अच्छे ढंग से फ़िट हो गया और रागिनी चल निकली। शुक्ला जी की सारंगी भी ज़नाना आवाज़ के पीछे पीछे चालू हो गई, फिर उनकी आवाज़ आई, “बसन्त बहार वाह वाह”। मैंने साँकल फिर खड़काई अगर कोई जवाब न आया। ज़ीने पर गाढ़ा अँधेरा था, मैंने पलटकर देखा तो नीचे वाला किवाड़ भी कोई लगा गया था। मुझे बंद कमरे में वहशत होने लगती है, दम घुटता है इसलिए मैं नीचे भागा। किवाड़ यों बंद था जैसे किसी ने साँकल न लगाकर कीलें ठोंक दी हो। मैंने घबराकर किवाड़ टटोला उँगली किवाड़ के एक सूराख पर टिकी। मैंने अपनी दायीं आँख किवाड़ पर फिराई और सूराख पर टिका दी। देखा बाहर एक मोर खड़ा हुआ था, चिल्ला रहा था जैसे बरसात होनेवाली हो। उमस के मारे मेरा भी बुरा हाल था।
“मोर देखो कैसा शुद्ध खरज लगा रहा है” ज़नाना आवाज़ ने गाना रोककर रहा और फिर एक तान ली। मोर यह तारीफ़ सुनकर और और चिल्लाने लगा। मेरा माथा ज़ोर से भन्नाने लगा। अपने सिर को पकड़े मैं कुछ देर बैठ रहा। पैर के पास कुछ लिजलिजी और लंबी चीज़ महसूस हुई। जैसे साँप हो। मैं उछलकर दूर भागा और अब ऊपर वाले किवाड़ से लगकर खड़ा हो गया।
अब मुझे पता पड़ा कि ज़ीना ख़ुशबू से भरा हुआ था। कैसी ख़ुशबू थी यह तो समझ नहीं आया मगर वहाँ ख़ुशबू थी ज़रूर। अँधेरे में देर तक देखने पर ज़ीना कुछ कुछ सूझ पड़ने लगा था। सूराख से रौशनी की एक लकीर आ रही थी। वहाँ चम्पा के फूलों की माला पड़ी थी। इसे मैंने साँप समझा था। चम्पा की माला तो कोई माली इंदौर में नहीं बनाता। इसे मैंने कभी पंडितों को बुतों पर चढ़ाते भी न देखा था। बच्चियाँ खेलने को बनाती थी। मुझे सख़्त घबराहट हुई। ऐसा लगा मैं बेहोश हो जाऊँगा। मैंने ज़ोर ज़ोर से ऊपरी किवाड़ की साँकल बजाना शुरू कर दिया। “काले खाँ फिर आ गया” ज़नाना आवाज़ ने कहा। राग बंद हो गया। मुझे लगा अब किवाड़ खुल जाएगा। मैंने राहत की साँस ली। तसल्ली से अब मैं किवाड़ से लगकर बैठ गया। किसी औरत के किवाड़ की तरफ़ आने की आहट हुई। उसके कपड़े हिलने की आवाज़ और गहनों की, ख़ासकर पैरों में पड़े बिछुवे और कड़ों की आवाज़ आई। साँकल उतारने की सुरीली आवाज़ हुई और उजाले से ज़ीना भर गया। इतनी देर में कि मैं कुछ देख पाता, सिल-बट्टे का सिल मेरे माथे पर टूट पड़ा।
२
ईंट, गारे, शीशम और सागवान की लकड़ी और पत्थर से दोमंज़िला घर श्रीकण्ठ तिवारी के सगड़ दादा का बनवाया हुआ है और इसी में आज तक उसका और उसके कुटुम्ब का निवास, यह इसका सबूत है कि उनके बाद जितनी भी पीढ़ी हुई वह या तो दुनियावी तौर पर निरी फेल या उनका बैरागियों सा मिज़ाज कि इतने ज़ूने-जर्जर घर को उन्होंने ज़र का महल समझा और एक ईंट भी इधर से उधर न की। उनकी बीवियों ने भी कितना धीरज धरा यह तो कोई औरत ही बता सकती है, एक मध्याह्न श्रीकंठ ने अपनी पत्नी षोडशी से पूछा, “तुम इस घर में रह सकती हो जीवन भर?” उसने रतिक्रिया के बाद अब तक ब्रा भी नहीं पहनी है, अलसाई पड़ी अपने सेलफ़ोन पर कुछ स्क्रॉल कर रही है, निर्वस्त्र देह पर केवल हरे काँच की चूड़ियाँ हैं जो उसके ज़ोर ज़ोर से हाथ हिलाने पर बजी और उसने कहा, “न्यू जर्सी से तुमने इंडिया ला पटका और उसमें भी जूनी इंदौर के इस बाबा आदम के ज़माने की कोठी में जहाँ लैट्रिन के बजाय खुड्डी है और आधी दीवालें घोड़े की लीद से छवी है आधी पत्थर की, जहाँ पूजाघर में आज भी गोबर लीपा जाता और शॉवर बस शंकर जी लेते है वहाँ मैं जीवन भर रहूँ और साबित करूँ कि मुझे तुमसे प्रेम है तो मैं करूँगी।” गुलाबी से कत्थई पड़ते हुए उसके निपल्स फ़ुश्चिया के फूलों की तरह झुके हुए ऐसे लगते जैसे इनका अपना अलग दिमाग़ और यह किसी जटिल जुगत में भिड़े। श्रीकण्ठ के होंठों और दाँतों से काटे यह कितने संतुष्ट और कितने दुखी लगते और इनके आसपास गढ़े स्तन, कमल की पंखुड़ी से मढ़ा बिल्वफलों का जोड़ा। षोडशी बिस्तर टटोल रही थी शायद अपनी पैंटी ढूँढ रही थी। उसके झुके मस्तक पर घनी केश राशि झुक आई थी। अचानक वह मुस्कुराई, उसके हाथ में पैंटी तो नहीं मगर उसकी ब्रा आ गई थी। “काँव-काँऊ-काँओ” फ़्रेडी मर्क्यूरी चिल्लाया, ब्रा का हुक लगाने को श्रीकण्ठ ने हाथ बढ़ाए और षोडशी पलटकर उसे देखने लगी।
“क्या देख रही हो?” श्रीकण्ठ ने हुक लगाते हुए कहा। उसकी बग़लों से बहकर आए पसीने से श्रीकण्ठ की हथेलियाँ भीग रही थी, हृदय और बायीं बग़ल के बीच एक नस बहुत ज़ोरों से धड़क रही थी।
“तुम्हें नहीं देख रही, तुम्हारे फ़्रेडी मर्क्यूरी को देख रही हूँ” उसने कहा।
श्रीकण्ठ ने गर्दन मोड़ी फ़्रेडी मर्क्यूरी पिंजरे से बाहर निकलकर कूलर के ऊपर बैठा था।
कूलर के कारण पानी गिरने की झमाझम कमरे में हो रही थी। फ़्रेडी मर्क्यूरी उसे बड़े ध्यान से सुन रहा था और षोडशी फ़्रेडी मर्क्यूरी की यह करतब एकटक देख रही थी श्रीकण्ठ षोडशी को फ़्रेडी मर्क्यूरी को देखते हुए देख रहा था। अचानक फ़्रेडी मर्क्यूरी उड़ा और कूलर के किनारे जाकर बैठ गया जहाँ उसने दो बार और काँव-काँऊ की फिर कूलर के पल्लों में खुँसी खस का एक तिनका चोंच से निकालकर उसने एक सपाट उड़ान अपने पिंजरे की तरफ़ ली।
“पिंजरे में घोंसला बनाने के लिए घास-फूस इकट्ठा कर रहा है” षोडशी ने कहा और खड़ी हो गई।
उसने नीला ब्लाउज और लाल पेटीकोट पहन लिया था और जामुनी रंग की साड़ी लपेट रही थी जिसपर पीले रंग की बूँदें बनी थी। जामुनी मलमल से उसका चम्पा जैसा सुनहरा वर्ण और भी उज्ज्वल हो गया था। ‘फ्रंजीपानी’, अंग्रेज़ी में चम्पा को कहते है फ्रंजीपानी। श्रीकण्ठ ने षोडशी को गले लगाते हुए कहा, “चाय बना दो प्लीज़”। ‘फ्रंजीपानी’ ने श्रीकण्ठ का हाथ झटका और आँखें फाड़ते हुए बोली, “लंच तुमने किया नहीं। रोटी-सब्ज़ी-दाल-चावल सब बने रखे है”।
“तुम तो अचानक फ्रेंज़ी नानी बन गई। उसे डिनर में खा लूँगा” श्रीकण्ठ ने अर्ज़ की, “अभी बस चाय”।
षोडशी ने बिस्तर पर बैठते हुए माथा पकड़ लिया, “अरे क्या नाम है उसका, बिलावल! बिलावल को अस्पताल खाना तो दे आओ। बेचारे ने सुबह से कुछ खाया नहीं होगा” श्रीकण्ठ ने जल्दी से पजामा पहना और दोनों चौके की ओर दौड़े।
षोडशी ने चार डिब्बों के टिफ़िन में पहले में दाल, दूसरे में कटहल की सब्ज़ी, तीसरे में रोटी और सबसे ऊपर चावल रखे।
“इतना बिलावल नहीं खाता” श्रीकण्ठ ने टिफ़िन उठाते हुए कहा।
“तब क्या दो रोटी पर चटनी रखकर दूँ। अपने कुल का मान न रखूँ!” षोडशी ने रोटी का डिब्बा लगाकर टिफ़िन का हत्था उठाया। उसका ललाट भीगा था। उस दिन भीषण गर्मी थी। घर के दो हिस्से थे, एक जिसमें खिड़कियाँ नहीं थी और दूसरा बेडरूमों वाला हिस्सा, फिर बैठक उसके आगे पौरी और काले पत्थर का कंगूरे वाला चौंतरा जिसकी दायीं ओर सिंदूर मण्डित श्रीगणेश की मूर्ति थी और दूसरी तरफ़ चम्पा का एक पेड़ लगा था। यहाँ शीशम का एक बहुत बड़ा दरवाज़ा था जो बस दिवाली और दिवाली के दूसरे दिन खुलता था। वे लोग अब इस पुराने मुहल्ले के बदहाल लोगों और यहाँ आ जाने वाले उचक्कों और उठाईगीरों से बचने के लिए पीछे के दरवाज़े से आते-जाते थे जिसे बई पारस द्वार कहती थी और जी नौकरानियों का रस्ता। पिछला दरवाज़ा निचली तरफ़ था इसलिए उसके खुलते ही सीढ़ियाँ थी। नीचे एक तरफ़ केले का झुरमुट था और दूसरी तरफ़ वे गाड़ियाँ खड़ी करते थे। जहाँ गाड़ियाँ खड़ा करते थे उसके ऊपर एक बहुत बड़ा चमेली का पेड़ इतना लंबा जैसा चमेली का झाड़ कभी होता नहीं, कदंब के वृक्ष जितना बड़ा और उससे भी कहीं ज़्यादा छाँहदार, ठण्डा सांवलापन उसके नीचे बारहों मास रहता था। उससे सटकर एक बिल्ववृक्ष था। ज़्यादा बड़ा न था मगर फल इतने कि पत्तियाँ न दिखती थी और सुबह-सुबह गिरे फलों से आँगन में कीच मच जाती, सुगंध से आते जाते लोगों का जी क़ायल हो जाता।
जी श्रीकण्ठ को बताती थी बेल का फल जब गिरता है उस समय राग भंखार गाना चाहिए। तानपुरा, तबला तैयार कान बिल्व के वृक्ष पर लगे जैसे ही फल गिरे सो ही भंखार का आलाप।
“जी! तुमने बिलावल के माथे पर मूसल क्यों दे मारा?”
जी चमेली की वेणी अपनी चोटी में गूँथते हुए जवाब देती – “मैं प्रेतनी हूँ। मुझे न कोतवाल से डर न कचहरी से। मैं कन्नी काटूँ कभी, जो जी में आए करती हूँ।” इतनी रूपसी भूतनी आपने देखी न होगी, षोडशी से अधिक सुन्दर बिलकुल त्रिपुर सुन्दरी।
उम्र हालाँकि निन्नयानवें साल थी बाल ऐसे सफ़ेद जैसे बनारस की मिठाई मलैयो कोई गूजरी सिर पर धरे चौक से गुज़र रही हो। निन्नयानवें रंगों वाली पाटन में बुनी रेशमी पटोला पहनकर घर में इधर-उधर फिरती रहती बस कभी कभार पीछे हनुमान मंदिर चली जाती। “भूत पिशाच निकट नहीं आवे” मगर जी राम भजन बहुत खूब गाती थी इसलिए हनुमान जी के यहाँ भी उनकी गति अबाध।
“मैं शुद्ध रागदारी गवैया हूँ पर हनुमान को पटाये रखना पड़ता है सो भजन गाना पड़ता है। ज़रा उनका दिमाग़ सनके तो मेंहदीपुर बालाजी में मेरी प्रेतराज सरकार के आगे पेशी न करवा दे जैसे भैरोंलाल घाणेरा की करवाई थी।” सोने के गहनों से जी लदी रहती, तीन हार, सोने की एक बलखाई लड़ और कटहले की एक माला पहनती। जूड़े में हक़ीक की बनी हैदराबादी पिन खोंसती और कानों में कभी हीरे के जुगनू तो कभी ढाई ढाई तोले की झुमकियाँ, उँगलियों में पन्ने की अंगूठी। भूत पिशाचों को क्या कमी, पन्ना माचिस की डिब्बी बराबर था जिसमें पीछे क़ुरआन की आयत खुदी थी। जब मौज में आती तो अपनी मोटी, धौरी चोटी में कर्नाटक का सत्रहवीं सदी में बना सोने और माणिक का नाग पहनकर प्रगट होती, दावा यह कि इसे टीपू सुल्तान की औरत पहनती थी और इसे वह विजय माल्या के बैंक ऑफ़ इंडिया के लॉकर से लाई है। इससे पहले कि सीबीआई वाले पहुँचते जी ने हाथ साफ़ कर दिया।
कटहले की लड़ अल्बर्ट हॉल म्यूजियम से उड़ाई थी तो हक़ीक के अक्षमालाएँ, चम्मचें, हेयरपिनें और हीरें मोती के कई ज़ेवरात सालारजंग अजायबघर से ग़ायब किए थे। तानपुरा उनका उस्ताद अलादियाँ खाँ का था और सुरबहार किशोरी अमोनकर का, हारमोनियम बेगम अख़्तर का था जिसे रामपुर राजघराने में सेंध मारकर उड़ाया था।
जी से भैरोंलाल घाणेरा बेवजह दुश्मनी ठानता था। जी संगीत में आकंठ डूबी रहनेवाली प्रेत और घाणेरा सियागंज के परचूनियों, हम्मालों, बड़े बड़े थोक कारोबारियों और आढ़तियों- दलालों पर ज़ोर ज़बर आज़माने वाला पिशाच। छावनी में एक अनाज व्यापारी के यहाँ इसने घर कर लिया था। उनकी नयी आई बहू पर फ़िदा, बेटा ज्यों ही बहू के पास आता वह मुर्दा हो जाती, एकदम ठंडी लाश। बिज्जी की कहानी दुविधा वाला केस नहीं था। बहू को भूत से कोई मतलब नहीं था घाणेरा ही उसके पीछे पड़ा था। व्यापारी ने मेंहदीपुर दरखास्त भेजी और घाणेरा की पेशी होना शुरू हुई प्रेतराज सरकार के आगे, बस फिर क्या था सिट्टी पिट्टी गुल। अब छावनी में तो नहीं सराफ़े में कभी कभार दिखता है, हलवाइयों से गुलाबजामुन माँगता है ऊपर से मुँह नमकीन करने को भुट्टे का कीस। सोचता श्रीकण्ठ द्वार पर खड़ा था कि षोडशी पीछे से चिल्लाई, “एक काम करो अब कल ही चले जाना आज का भी खाना साथ ले जाना”।
अहिल्या बरोठे में बैठी नेल पॉलिश लगा रही थी, उँगलियाँ श्रीकण्ठ के आगे लहराते हुए पूछा, “कैसा लग रहा है फ़िरोज़ी?” श्रीकण्ठ ने ध्यान से उसके नाखून देखे जैसे नाखूनों की जगह फ़ीरोज़े जड़े हो, “क्या सूफ़ी हो गई हो?” उसने जवाब देने के बजाय अपने पैरों के नाखूनों को हरा रंगने पर तवज्जो दी, दूसरी शीशी के अभी अभी खुलने पर हवा में फॉर्मेल्डिहाइड की नशीली गन्ध फैल गई। अहिल्या आर्ट्स एंड कॉमर्स कॉलेज में हिन्दी की प्रोफेसर थी, शादी उसकी अब तक हुई न थी बल्कि यह कहे कि उसने की नहीं थी। वह श्रीकण्ठ और नीलकंठ इन तीन भाई बहनों में सबसे छोटी थी और सबसे ज़्यादा मुक्त। इतनी मुक्त जितनी शास्त्रीय काव्यों में उड़ने वाली झंझावात होती है। षोडशी दो आम लेकर पीछे आई, “यह भी ले जाओ। बेचारा खा लेगा”। श्रीकण्ठ ने ऐक्टिवा स्टार्ट की और घर्रर्रर्र फ़रार।
सरोजिनी नायडू मेमोरियल हॉस्पिटल में भीड़ न थी। शाम तक दवाखाने में डॉक्टरों को दिखाकर, दवा-दारू लेकर मरीज़ लौट जाते है। वैसे भी यह बड़ा अस्पताल नहीं है। वहाँ रात-दिन शोरगुल मचा रहता है, “कोलाहल अहोरात्र” बक़ौल अहिल्या। अहिल्या कभी यह बताना नहीं भूलती थी कि उसका पीएचडी का विषय ‘छायावादोत्तर काल की कविता में तत्सम शब्द’ था। खुले खुले सफ़ेद कमरों की ऊँची छतों पर सुथरे पंखे घूम रहे थे, उजले बिस्तर और साफ़ आसमानी कंबल ओढ़े मरीज़ अपने अपने पलंगों पर बैठे बिस्कुट के साथ चाय पी रहे थे। महामारी के समय इस अस्पताल में सबसे ज़्यादा मृत्यु हुई थी। जो यहाँ आता लौटकर नहीं जा पाता। बिलावल के अब्बा भी यहीं जन्नत-नशीं हुए थे, बिलावल ने बताया था। उसे वह बिस्तर भी याद था जो उन्हें बीमारी की शुरुआत में मिला था। बाद में उन्हें नीचे सुला दिया गया था। “पता नहीं क्यूँ। जब आख़िरी बार उनसे मैं मिलने आया तो वहाँ दरवाज़े और पेशाबघर के बीच वाली जगह वे सो रहे थे। अस्पताल में बहुत भीड़ थी। एक एक माँ और उसकी दो बच्चियाँ उनके पलंग पर लेटी थी।” बिलावल ने बिस्कुट वाला हाथ श्रीकण्ठ की ओर बढ़ाते हुए कहा, “खाइए”। श्रीकण्ठ ने बिस्कुट ले लिया और आम उसके हाथ में दे दिये। बिलावल को लगा जब तक श्रीकण्ठ बिस्कुट खा रहा है उसे पकड़ने के लिए दिए हैं। “खाओ बढ़िया सिंदूरी आम है” श्रीकण्ठ बिस्कुट खा रहा था।
बिलावल दोनों हाथों में एक एक आम लिए देर तक आम देखता रहा, “अब्बू को आम बहुत पसंद थे। मौसम के बिलकुल आख़िर में वह एक या दो बार आम लाते थे। बाहर से एकदम हरा होता जैसे कैरी हो मगर अंदर से गूदा रस से लबालब”।
“लँगड़ा आम लाते होंगे” श्रीकण्ठ ने बशी से तपाक से दूसरा बिस्कुट भी उठा लिया। नाश्ते के बाद उसने कुछ नहीं खाया था।
बिलावल ने अपना पट्टियों से बँधा हुआ सिर झुकाया और एक आम चूसने लगा। रस उसके होंठों से बह बहकर उसकी कोहनी से बूँद बूँद टपक रहा था। सफ़ेद चादर पर पीले दाग हो रहे थे पर श्रीकण्ठ उसे बस एकटक देखता रहा। उसने बिलावल से कुछ कहा नहीं। एक तश्तरी लेकर उसने बिलावल के हाथ और मुँह धुलाया। हाथ से आम का रस छुड़ाते बिलावल बोला, “गए वक़्तों में कोई बुद्ध हुए थे। ऊँचे दर्ज़े के फ़क़ीर थे और करिश्मे-मो’जिज़े से ख़ास परहेज़ रखते थे। उनका चेला आनंद एक दफ़ा उनके लिए आम लाया। बाहर से हरे और अंदर से पीले आम जो जितने खट्टे थे उतने ही मीठे जितने रसीले उतने ही रेशेदार। बुद्ध ने बस एक आम खाया। बरस भर बाद उन्होंने आम खाया था। उनपर फ़रेफ़्ता एक तवायफ़ आम्रपालि के बाग के डाल पर पका मगर तोतों की निगाह से बचा रह गया आम। बुद्ध ने गुठली किनारे धरी और चेले आनंद ने हाथ धुलाने के लिए हाथ बढ़ाया। बेध्यानी में बुद्ध ने गुठली पर ही हाथ धो लिए और गुठली एकाएक एक बहुत बड़े आम के पेड़ में बदल गई जिसपर ढेरों फल लगे थे और तरह तरह तोतें, कोयलें, बंदर, गिलहरियाँ आम खाने में मशग़ूल थे। बुद्ध ने कहा, बेध्यानी में किया चाहे काम हो या करतब पाप है। उन्होंने आम खाना हमेशा के लिए छोड़ दिया।”
“तुम्हें यह कहानी किसने बतायी” श्रीकण्ठ ने गंदा पानी मोरी में फेंकने जाते हुए पूछ।
“कहानी नहीं सौ टका सच। बुज़ुर्गों के तज़किरे सच होते है, हम जैसे लोगों की ज़ात से ज़्यादा सच।” श्रीकण्ठ से बिलावल ने कहा और लेट गया। उसके माथे के टाँकें पक गए थे, बैक्टीरियल इन्फेक्शन हो गया था। श्रीकण्ठ कल का टिफ़िन लेकर लौट आया। नुसरती और शुक्लाजी आ गए होंगे, रियाज़ का समय हो गया था।
गर्मियों के दिन थे, तापमान बयालीस डिग्री से ऊपर ही था। शुक्ला जी हत्थे वाले एक डिब्बे में श्रीखण्ड लाये थे। श्रीकण्ठ की बई अन्नपूर्णा ने उन्हें बैठक में ही रोक लिया। “छत तप रही है। वहाँ जाना जैसे चूल्हे पर धरे तवे पर चलना। आप दोनों यहीं बिराजिए।” जैसे ही शुक्ला जी श्रीखण्ड का डिब्बा खोला, घर भर इलायची और जायफल की सुगंध से भर गया। नुसरती पानी पिये जा रहा था। आधी सुराही रीत गई थी। “बहुत प्यास लगी थी” वह अपना गिलास धोने के खड़ा हुआ। अहिल्या ने उसके हाथ से गिलास झपट लिया, “सबेरे बबली आएगी वह धो देगी आप आराम से बैठे। मैं शरबत लाती हूँ। श्रीकण्ठ भी आता होगा।”
“मुलतानी की बेला है” शुक्ला जी ने डिब्बा श्रीकण्ठ की बई के हाथों में देते हुए कहा। “हें? सुल्तानी किसकी?” श्रीकण्ठ की बई ने पूछा। कमरे में तेज पंखा चलने के कारण कुछ सुनाई न दे रहा था।
“मैंने कहा मुलतानी राग का टेम हो रहा है” शुक्ला जी ने चिल्लाकर कहा, “तीव्र मध्यम सुनाई दे रहा है सुबह से”।
“मध्यम कहाँ भीषण निदाघ पड़ रहा है पंडित जी” अहिल्या सबके लिए फ़ालसे का शरबत ले आई थी और गर्मियों में वही सबसे ज़्यादा परेशान रहती थी, उसे लगता था जितनी गर्मी उसे लग रही है सभी को उतनी गर्मी लगती है।
श्रीकण्ठ की किसी भी बात पर बई ने ध्यान न दिया और श्रीखण्ड चौके में ले जाकर चखा। उन्हें शक्कर कम लगी। उन्होंने खरल में एक मुट्ठी शक्कर डाली और पीसने लगी। फिर दो मुट्ठी शक्कर और पीसी और श्रीखण्ड में घोंटकर उसे फ्रिज में रख दिया। श्रीकंठ की बई के स्वीट टूथ अर्थात् मिष्ठान प्रियता के कारण घर भर परेशान रहता था। उन्हें डायबिटीज नहीं थी मगर ज़्यादा मीठा खाने के चक्कर में वह रोटी-सब्ज़ी दाल-चावल कुछ नहीं खाती थी। शरीर में विटामिन और अन्य धातुओं का अभाव हो जाता था। “सबसे मीठी रसमलाई फीका राग मलार” अहिल्या उन्हें चिढ़ाती थी।
श्रीकण्ठ को घर पहुँचते पहुँचते रात हो गई। चार बजे का गया वह साढ़े आठ बजे घर न पहुँचा था।
नुसरती और शुक्ला जी ने मुलतानी से लेकर राग भूप की बेला तक उसकी प्रतीक्षा की। “अब केदार गाने के समय तक तो नहीं रह सकते” कहकर शुक्ला जी उठे और नोकिया के अपने मोबाइल में आँखें घुसेड़ने लगे। नुसरती नीचे गया और अपनी साइकिल का ताला खोलकर शुक्ला जी के नीचे आने की प्रतीक्षा करने लगा।
ज़ीने पर उजाले के लिए षोडशी पूजाघर का दीपक उठा लाई थी और शुक्ला जी का मार्ग दीप्त कर रही थी। तीन सीढ़ियाँ उतरे ही थे कि हाँफकर शुक्ला चौथी पर बैठ गये, “यह तुरीयावस्था है” कह ठठाकर हँसे और हाथ में पकड़ी सारंगी बजाने लगे। नीचे नुसरती जल्दी जल्दी बीड़ी पी रहा था। शुक्ला जी के नीचे उतरने से पूर्व पूरी फूँक डालना चाहता था कि उसे मियाँ की मल्हार के सारंगी पर दोनों निषाद सुनाई पड़े। षोडशी हतप्रभ उन्हें निहार रही थी, वह शास्त्रीय संगीत अधिक समझती न थी किंतु उस संध्या वह मियाँ की मल्हार के वे दो निषाद सुनकर ऐसे चित्रलिखित रह गई थी जैसे मयूर, ब्याल, हिरन, बाघ, आकाश में उड़ते खग स्वामी हरिदास की रागिनी सुन चित्रलिखित रह जाते थे।
नुसरती ज़ीने की ओर दौड़ा कि शुक्ला जी की संगत कर सके किंतु ज़ीने का किवाड़ भीतर से बंद था। दो बार कुंडी खड़काई फिर मियाँ की मल्हार के लोभ से किवाड़ से कान लगाकर खड़ा हो गया ज्यों स्थावर जीव हो। अन्तरे पर पहुँचते इससे पहले षोडशी ने देखा शुक्ला जी कुर्ते की ऊपर वाली जेब में कुछ टटोला, संभवतः बीड़ी का पूड़ा। दो दो हज़ार के चार पाँच गुलाबी, गुड़ीमुड़ी नोट पसीने से भरी हथेली में निकाले और हाथ आगे बढ़ाया जैसे सम्मुख कोई खड़ा हो। सारंगी बाएँ हाथ से छूटी और शुक्ला जी की गर्दन लटक गई। हाथ ज्यों का त्यों हवा में उठा रहा। षोडशी को कुछ सूझ न पड़ा, उसके कानों में अब भी मियाँ की मल्हार गूँज रही थी। संगीत अकस्मात् रुक जाने पर खीझा नुसरती साइकिल खींचकर फाटक पर ले आया। “श्रीकण्ठ, श्रीकण्ठ” षोडशी चिल्लाती शुक्ला जी की ओर दौड़ी।
जब प्रजापति जी ने यह सृष्टि रची, सबसे पहले आकाश बनाया जिसमें सब समय शोर होता रहता था। फिर प्रजापति ने चाहा उसे कोई छुए तो उसने आकाश में गति पैदा की। गति का अनुभव कौन सी इन्द्रिय से होता है यह प्रजापति नहीं जानता था। वह जैसे हवाई जहाज़ के वैक्यूम में बैठा था जिसे गति का अनुभव तो होता था मगर कौन सी इंद्रिय से होता था यह न पता था। शब्द और स्पर्श के बीच ऐसे गति ने अपनी जगह बना ली। आकाश स्पर्श पाकर वायु बन गया। प्रजापति को वायु देखने की इच्छा हुई और जब वायु को उसने रूप दिया वह अग्नि देवता बनकर प्रकट हुए। यह अग्निदेवता ही लक्ष्मी को लानेवाले है। अग्नि बड़ी सुंदर थी इसलिए प्रजापति को उसे खाने की इच्छा हुई। उसने चाहा अग्नि को खाऊँ। उसकी जीभ लपलपाई। उसने आग में जब स्वाद मिलाया तो वह पानी बन गई। कलकल, कनकन कंचन सा जल। पानी पीकर प्रजापति बहुत खुश हुआ। कुछ भी बनाना हो वह मेहनत माँगता है इसलिए पसीने से उसका शरीर भीगा हुआ था। प्रजापति पानी में देर तक नहाया। अब उसे लगा जल में सुगंध भी होना चाहिए। किसी अत्तार की तरह उसने वरुण देवता पर इत्र छिड़का और प्रकट हुई वृक्षों, लताओं, पशुओं, देवताओं, अप्सराओं, विद्याधरों, गन्धर्वों, किन्नरों, भूत, प्रेतों, पितरों से भरी फलवती पृथ्वी। प्रजापति फल खाकर, हिरणों और बकरों का मांस खाकर पुष्ट हुआ और छककर सोया। उसके सोने पर रात बनी। आधी रात को उसकी नींद खुली तो उसने देखा उसका लिंग तना हुआ है जैसे वह महाकाल मंदिर उज्जयिनी का शिवलिंग हो जो सृष्टि से भी पुरातन है। उसे एक से बहुत होने की कामना हुई। उसने सभी इन्द्रियों के सुख मिलाकर एक स्त्री का सृजन किया और निर्वस्त्र ही एक से बहुत होने की कामना से भरा उस स्त्री की ओर दौड़ा। प्रजापति के लिंग को देखकर स्त्री घबराई और पृथ्वी, आकाश, पाताल में दौड़ती फिरी। प्रजापति को रौद्रभाव हुआ क्योंकि श्रीमद्भगवत् गीता जी में वचन है कि वासना की पूर्ति में जो भी विघ्न उत्पन्न करता है उसके प्रति क्रोध उत्पन्न होता है और जो उसकी पूर्ति करता है उससे प्रति प्रेम। अँधेरे वनों में वह स्त्री भटकती रही। सृष्टि की प्रथम स्त्री होने के कारण वह बड़ी सुन्दरी थी, उसका रंग साँवला था और केशराशि लम्बी और घनी। ऐसी रूपसि वह थी जैसी सुन्दर शाम होती है इसलिए प्रजापति ने उसका नाम संध्या रखा। संध्या एक स्थान पर ठहरी वहाँ उसे एक क़द्दावर मर्द दिखाई दिया, जिसके कंधे भारी धनुष और तूणीर के कारण छिल छिलकर काले और कड़क पड़ गये थे, माथा उसका जेठ महीने की लू भरी दोपहर के मार्तण्ड सा तेजस्वी था मगर घाम में भटकने के कारण उसका कर्पूर सा गौर वर्ण ताम्बई पड़ गया था। उसके हाथ घुटनों से नीचे जाते थे और दाढ़ी घुँघराली थी, सीना बालों से भरा था जिसमें उसके ‘निपल’ गोमेद मणि की तरह चमक रहे थे। वह मूँज का जनेऊ और जूट की लंगोट पहने था। उससे संध्या भयभीत न हुई। उस ज़ोरावर ने सन्ध्या का दुख और डर समझा और काँधे से धनुष उतारकर उसपर तीर चढ़ाया और पहले विचारा कि प्रजापति के तने लिंग पर ही तीर चला दे फिर सोचा कि आदमी को अपना लिंग और अण्डकोष बहुत प्यारे होते है जैसे उसे ख़ुद थे इसलिए तीर उसने जाँघ पर मारा। प्रजापति गिर गया। घाव गहरा था। उसे मरना था। ऐसे मरण का आविष्कार हुआ। इच्छा में मरण विद्यमान होता है।
इस प्रकार षोडशी के बहुत रोने पर श्रीकण्ठ ने उसे यह कथा सुनाकर समझाना चाहा। वह सत्यनारायण की कथा की तरह कहानियों पर कहानियाँ सुनाता जाता था और षोडशी का शुक्ला जी को इस प्रकार मरते देखने का दुख थोड़ा कम करने का जतन करता था। षोडशी ने कभी किसी को अपने सामने प्राण छोड़ते न देखा था। इससे पहले उसकी दुनिया कामसुख में डूबी थी। विवाह हुए डेढ़ वर्ष ही बीता था। अब उसकी दुनिया यम की अटवी थी। उसे अपने दसों ओर चिताएँ जलती हुई दिखती थी। सब जग जलता देख वह उदास हो गई थी। श्रीकण्ठ जब भी उसे कण्ठ लगाने का जतन करता या उसकी गर्दन चूमता वह ऐसी पड़ जाती जैसे दो दिन पुराना मुर्दा हो। श्रीकण्ठ उसके स्तनों के बीच कान रखकर सुनने का प्रयास करता पर हृदयगति सुनाई न पड़ती, साँस चलने से जो पेट ऊपर नीचे होता वह ऐसे थम जाता जैसे वह जीती जागती औरत न होकर सजी-धजी कठपुतली हो। इस प्रकार पहले एक पखवाड़ा गया फिर सुदी- बदी दोनों बीती और दो पूर्णिमा आकर चली गई। षोडशी संसार से ठेठ विमुख बनी रही।
एक रात श्रीकण्ठ छत पर बैठा राग-रागिनियों के ध्यान धर रहा था। षोडशी बेडरूम में बैठी कुछ प्रिंटआउट निकाल रही थी। माह जेठ बुढ़ाने लगा था, प्री-मानसून के मेघ रोज़ शाम होते होते छा जाते थे और रात होते ही बरसने लगते थे। फिर बिजली गुल हो जाती। हालाँकि आज बत्तियाँ रौशन थी। फ़्रेडी मर्क्यूरी श्रीकण्ठ के पास बैठा ख़रबूज़ का एक खवा-खवाया छिलका कुतर रहा था। बीच बीच में काऊँ काँव करता जाता था। श्रीकण्ठ शीशम के एक बृहद् हिंडोले पर बैठा था जो पीतल की घंटियों वाली लड़ों से बँधा था, फ़्रेडी मर्क्यूरी कदम्ब के वृक्षों पर हज़ारों की संख्या में बैठे कौओं से भयभीत श्रीकण्ठ के आसपास ही उड़ रहा था। षोडशी ने प्रिंटआउट के काग़ज़ों को एक संग नत्थी किया और बाहर छत पर आ गई। देह का यदि श्रीकण्ठ स्पर्श न करे तो षोडशी प्रसन्नवदन रहती थी, उसकी बहुत सेवा करती और विदग्ध ठठोलियाँ भी करती थी।
“अच्छा बताओ इस कदम्ब पर कितने कौएँ हैं?” हिंडोले पर बैठते हुए षोडशी ने पूछा। सोने से पूर्व वह प्रतिदिन स्नान करती थी, आज तो केश भी धोए थे, उसके कन्धे भीगे हुए थे। ज्यों ही वह श्रीकण्ठ के निकट बैठी, श्रीकण्ठ को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे चन्दनकाष्ठ की शारदा मूर्ति उसके समीप विराजमान हो गई हो।
षोडशी की आँखों में आँखें देकर श्रीकण्ठ ने कहा, “गिनना पड़ेगा कितने कौएँ है इस कदंब पर”। षोडशी ज़ोर से हँसी। फ़्रेडी मर्क्यूरी हतप्रभ उसे एकटक देख रहा था।
“मैं बता सकती हूँ कि इस पेड़ पर कितने कौएँ हैं, न एक कम न ज़्यादा”।
श्रीकण्ठ षोडशी के देह से उठती शीतल सुवास में आँखें मूँदे झूले से टिका रहा। बहुत देर बाद जवाब दिया, “वह कैसे?”
षोडशी ने पुतलियाँ मटकाई, “इस कदंब पर पूरे उनचास हज़ार दो सौ कौएँ हैं। ”
“सच?” श्रीकण्ठ ने विस्फारित नेत्रों से षोडशी को देखा और बात आगे बढ़ाई “यदि अधिक हुए तो या कम।” षोडशी उछलकर हिंडोले से उतरी और श्रीकण्ठ के सम्मुख खड़ी हो गई, “यदि ज़्यादा हुए तो समझना कौओं के यहाँ ब्याह हो रहा है और कम हुए तो मानना कि कुछ कौएँ तीरथ करने गए हैं।”
“अच्छा” कहकर श्रीकण्ठ ज़ोर से हँसा, हँसते हँसते षोडशी की कलाई गह ली। षोडशी ऐसी रह गई जैसे बच्चे एक दूसरे को स्टेचू कहकर खेल खेल में स्तंभित कर देते है। श्रीकण्ठ तुरन्त दूर हट गया, कुछ क्षणों पश्चात् षोडशी भी प्रकृतिस्थ हो गई, “मैं तुमसे बहुत अनुराग रखती हूँ श्रीकण्ठ पर अब मुझसे यह न हो सकेगा। फिजिकल इंटिमेसी की कल्पना भी मुझे जड़ कर देती है”।
श्रीकण्ठ ने षोडशी की आँखों में दो बड़ी बड़ी बूदें और उसमें चन्द्रमा तिरते देखा, कैसी सुन्दर आँखें थी चाँदी के कजरौटे सी। संसार का कौन अभागा इस बात की कल्पना कर सकता है कि कल तक जो रूपसी तुम्हारी भार्या थी, जिससे मनोच्छित आलिंगन करते थे, रतिसुख लेते थे वह आज तुम्हारे परस भर से पाषाण हो जाती है। संभवतः यह सरस्वती की इच्छा है कि मैं संगीत को अपनी पूरी एकाग्रता, अपना सम्पूर्ण तत्त्व दे सकूँ। मैं ऐन्द्रिक आनन्द की तिलांजलि देता हूँ। शृंगार केवल मेरे रागों में रहेगा। बैठा श्रीकण्ठ सोचता रहा। षोडशी पुनः झूले पर बैठ गई, “तैंतीस कोई उम्र नहीं होती शारीरिक सुखों को छोड़ देने की।” श्रीकण्ठ ने तुरंत पलटकर कहा, “और उनतीस होती है!” दोनों हँसने लगे। षोडशी ने एड़ी से झूला बढ़ाते हुए कहा, “तुम्हारी कहीं न कहीं तो व्यवस्था हो जाएगी श्रीकण्ठ बाबू। ख़ासे हैंसम हो।” विवाह करके छह महीने बाद दूसरी व्यवस्था कर लेने को कहना क्या अन्याय नहीं है। ऐसा ही करना था तो शादी क्यों की थी, श्रीकण्ठ ने कहना चाहा पर कहा नहीं। वह षोडशी से प्रेम करता था।
“षोडशी, ले श्रीखण्ड ले जा, दोई धनी लुगाई मिलकर खा लो। मैंने खूब शक्कर डालकर मीठा कर दिया है” नीचे से श्रीकण्ठ की बई अन्नपूर्णा चिल्लाई और षोडशी नीचे दौड़ी।
षोडशी गॉबलिन्स, पेरिस की स्नातक थी, उसने एनीमेशन की शिक्षा ली थी और यू.एस.ए. में डिज़्नी के लिए काम करती थी। श्रीकण्ठ के घर से काम करने के निर्णय (वर्क फ्रॉम होम) के बाद षोडशी भी इंदौर आ गई। पिछले डेढ़ वर्ष मात्र में उसके जीवन में विवाह और फिर अपनी प्रिय नौकरी छोड़ना ऐसे दो बड़े परिवर्तन आए थे। पिछले छह महीनों से वह यूट्यूब पर एनीमेशन वीडियो बनाकर ढाई से तीन लाख की कमाई कर रही थी।
वैसे भी इस जगत में ज़िंदा जन कम और मुर्दे मानुष ज़्यादा है। महामारी के बाद तो संसार और अधिक प्रेतमयी हो गया है। फिर अर्धपिशाच नर और अधभूतनी नारियों की गणना तो और भी अधिक हो गई है। वैसे यह सब बड़े लाड़-लगाव लड़ानेवाले है, चाहे जिसको जी अनुसार लड़ैता करते चाहे जिसे अपनी लड़ैती बना लेते है और ज़रा लाग लगे तो तुरत मार डालनेवाले। घर घर श्राद्ध हो रहे हैं और पीपल पीपल फूलों की हंडिया बँधी हैं। जग मरघट और शृंगार मरघट से चलो तो चार पाँव पर नदी का घाट। मृतक फूँककर कनकन पानी में नहाओ तो तन शीतल मन निर्मल हो। जी, भैरोंलाल घाणेरा, कई कई प्रेतों की यह कथा और कथा ऐसी कि एक बार में पूरी सुनने बैठो तो आधे में हुँकारे आने बंद। या तो सामे’ईन मण्डली भयभीत या वज्द में आ जाए। कई बेहोश कई फ़रार कई स्टेचू तो कई सन्निपात में प्रलापते इस हेतु फ़िलहाल यहाँ बिसराम आगे की कथा तब जब इस साहित्यकार को उसकी धर्मपत्नी मालपुए खिलाकर खसखस बादाम का दूध दे और कलह न करके बेना डुलाकर ठंडी ठंडी पवन करे।
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एक लम्बी किन्तु हज़ार हज़ार भावों से युक्त आखिर तक बांधे रखने वाली जीवित प्रेत कथा…
अम्बर पांडे जी की पूरी कहानी पढ़कर आंनद गया। बहुत ही शानदार चित्रण किया है।