विवाह संस्था की नींव स्त्री-पुरुष पर टिकी रहती है, यह तो सामान्य सी बात है लेकिन प्रत्येक स्त्री-पुरुष की स्थिति एक-दूसरे से भिन्न ही होती है। कुछ बातें ऐसी भी हैं जहाँ प्रत्येक ‘जोड़ी’ समान भौतिक इच्छा रखती है, वह है अपने घर का होना। रोटी, कपड़ा, मकान तो किसी भी व्यक्ति की बुनियादी ज़रूरते हैं लेकिन इस विडंबना से हम सब वाक़िफ़ हैं कि इनकी आपूर्ति भी सबों तक नहीं हो पा रही है। उस पर से यह भी कि ज्यों-ज्यों बाज़ारवाद का विकास होते जा रहा है त्यों-त्यों हमारी माँगें भी बढ़ती जा रही हैं, उससे भी अधिक हम दिखावे की ज़िंदगी की ओर चलने लगे हैं।ऐसे में संपत्ति की इच्छा और महँगाई की मार के अंतर्विरोध स्पष्टत: उजागर होते हैं। आज ऐसी ही एक कहानी हमारे समक्ष है ट्विंकल तोमर सिंह की, ‘दो दीवाने शहर में’ – अनुरंजनी
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‘दो दीवाने एक शहर में’
“जानती हो, मीनारों के अंदर रास्ते घुमावदार क्यों होते हैं?” इंजीनियर पति ने अपनी पत्नी से पूछा। पत्नी पढ़ी-लिखी थी, पर विज्ञान से अधिक कला और दर्शन से प्रेम रखती थी। उसे अपने विज्ञान प्रेमी पति के प्रश्नों की आदत थी। कहीं भी घूमते घूमते उसके दिमाग़ में साइंस के सवाल उग आते थे। “जानती हो आकाश का रंग नीला क्यों होता है?” “जानती हो, सिनेमा में प्रोजेक्टर से फ़िल्म चलती हुई कैसे दिखती है?” वह ‘जानती हो’ सुनते ही सतर्क हो जाती थी, कोई प्रश्न आने वाला है।
दोनों पति-पत्नी आज इस इमारत के एक ऑफिस में फ्लैट खरीदने की बात करने आए थे। इमारत की गोल-गोल घुमावदार सीढ़ियों पर पैर धरते हुए दोनों ऊपर की ओर बढ़ रहे थे। छठी मंजिल पर ऑफिस था। अचानक बिजली चले जाने के कारण लिफ़्ट बन्द हो गई थी। दोनों ने सोचा क्यों न बातें करते-करते सीढ़ियों के रास्ते ऊपर चला जाए।
“मैं क्या जानूँ? क्या इंजीनियर से शादी कर लेने से इंजीनियरिंग भी आ जाती है?” मृगा ने हँसते हुए कहा। उसके उत्तर सदा यूँ ही आते थे। अपने युवा पति की थोड़ी सी खिंचाई करते हुए प्रेम में पगे जवाब। “अरे… फिर भी सोचो। दिमाग़ लगाओ।” अनुराग ने एक सीढ़ी पीछे चल रही मृगा का हाथ पकड़ लिया और उसे ऊपर अपने साथ बगल में खींच लिया। दोनों साथ-साथ ऊपर बढ़ने लगे।” क्या अनुराग! हर जगह तुम्हारे साइंस के सवाल शुरू हो जाते हैं।” मृगा ने थोड़ा सा मुँह बनाते हुए तुनक कर कहा। अनुराग ने उसके चेहरे की ओर देखा। कृत्रिम गुस्से की लाली उसके सलोने मुख को और सलोना कर देती है। उसकी गोल नाक बेर के जैसे चमकने लगती है। उसकी आँखें पनीली सी हो जाती हैं। उसे अपनी पत्नी पर प्यार आ गया। उसका मन हुआ यहीं उसे बाहों में भर ले। उसका हाथ थामे वह एक सीढ़ी आगे चढ़ गया।
“अच्छा देखो…कितनी कम जगह में यहाँ पर ये घुमावदार सीढ़ी निकाल दी गयी है। अब सोचो। ” अनुराग ने मुस्कुराते हुए एक संकेत दिया। वह कभी भी यह नहीं भूलता था कि मृगा उससे दस साल छोटी है। उसे पूरे धैर्य के साथ जैसे एक बच्चे को समझाते हैं वैसे समझाता था। “इतना तो मैं भी समझती हूँ। सीधी सीढ़ी के लिए अधिक जगह चाहिए होती है, गोल सीढ़ी के लिए कम। ” मृगा ने अक्लमंद बनते हुए कहा। मृगा ने हाथ छुड़ा लिया और एक सीढ़ी आगे बढ़ चुके अनुराग के दोनों कंधों पर प्यार से अपने दोनों हाथ टिका दिए। अब दोनों वैसे आगे बढ़ने लगे जैसे बच्चे रेलगाड़ी बना कर खेलते हैं।
अनुराग ने बिना पीछे देखे ही सिर हिलाते हुए हँसते हुए कहा, “हा हा हा, जानता हूँ बुद्धू, तुम कितनी अक्लमंद हो, हिंट दो तब तुम्हारी अक्ल जागती है। मृगा का इस नहले पर कोई दहला नहीं आया। उसने अपने हाथ अनुराग के कंधे से हटा लिए। अनुराग ने पीछे मुड़ कर देखा- ” क्या हुआ?”
“कुछ नहीं।” मृगा अपनी गुलाबी रंग की साड़ी के पल्लू को संभालने लगी थी, जो अभी-अभी उसकी सैंडिल के नीचे आ गया था। अनुराग वहीं ठहर गया और बोला, “देखो, होता क्या है कि मीनार के अंदर लंबी सीढ़ियाँ बन ही नहीं सकतीं। पतली सी पतली मीनार भी सिर्फ़ घुमावदार सीढ़ियों के सहारे अधिकतम ऊँचाइयों तक पहुँच सकती है।” अनुराग ने सिर ऊपर उठाया, ये देखने के लिए कि ये सीढियाँ कितनी ऊँचाई तक गई हैं। ऊपर इमारत की घुमावदार सीढ़ियाँ जहाँ ख़त्म हो रहीं थीं वहाँ से प्रकाश छन कर आ रहा था। ऊपर पारदर्शी फाइबर ग्लास से झाँकता हुआ आकाश बहुत सुंदर लग रहा था जैसे लगता था कि इस इमारत का चाँद यही चमकता हुआ गोला है। मृगा ने उसे ऊपर ताकते हुए देखा। वह भी उसके साथ ऊपर देखने लगी। कुछ क्षण तक दोनों इस सुंदर दृश्य को मन में बसाते रहे। फिर दोनों अपनी गर्दनों को स्वाभाविक अवस्था में ले आए। दोनों के मन में इस कृत्रिम चाँद की चाँदनी ने आनंद भर दिया। दोनों की मुग्ध दृष्टि आपस में टकराई। ऐसा ही चाँद तो उस इमारत में भी है न, जहाँ उन दोनों ने फ्लैट पसंद किया है? दोनों ने ही एक दूसरे से मूक प्रश्न पूछा। पर साथ में ही एक और मूक प्रश्न दोनों के मध्य आकर खड़ा हो गया।
“कहीं हमने वास्तव में चाँद की कामना ही तो नहीं कर ली? अपनी जेब की हकीकत तो पता है न ?” दोनों के मन प्यार से एक दूसरे को ताक रहे थे, चाँद उपहार में देने का विचार ही कितना सुंदर है पर अवचेतन मन जेब टटोल रहा था।
“अरे..हम तो पाँचवे माले तक पहुँच गए है।” अनुराग अपने को शाहजहाँ समझ लेने वाली तंद्रा से बाहर आया। ” बस एक मंजिल और।” अनुराग ने मृगा को उंगली के इशारे से दिखाया। सीढ़ी से लिफ्ट का दरवाज़ा दिखाई दे रहा था। दरवाज़े के ऊपर लिखा दिख रहा था – पाँच। अनुराग जानता था मृगा के लिए छह मंजिल तक चढ़ कर आना बहुत मेहनत का काम है। उसका क्या है वो तो सिविल इंजीनियरिंग के काम में दो-चार मंजिल यूँ ही उतरता चढ़ता रहता है। मृगा ने माथे पर झलक आई पसीने की बूंदों को अपने रुमाल से पोछा। एक गहरी साँस भर ली। फिर दोनों जल्दी जल्दी ऊपर चढ़ने लगे।
ऑफिस के बाहर दोनों की साँस रुक गई थी , कुछ सीढ़ी चढ़कर आने के कारण, कुछ व्याकुलता के कारण। अनुराग ने अपना बैग व्यवस्थित करके टाँग लिया, जिसमें फ्लैट खरीदने के लिए माँगे गए सभी जरूरी कागजात थे। मृगा ने अपना पर्स कसकर पकड़ लिया। जिसमें उसकी बचत के कुछ रुपए रखे थे। दोनों ने संकोच के साथ दरवाज़ा खोला और अंदर चले गए। अंदर का परिवेश घोर औपचारिकता से परिपूर्ण था। तेज़ ए० सी० में भी दोनों को घुटन का अनुभव होने लगा।
थोड़ी देर बाद दोनों बाहर निकले। अंदर जाते समय जिस प्रफुल्लता और उमंग को वे अपने साथ लेकर गए थे, उसे अंदर ही भूल आए थे। जाते समय प्रेम से एक दूसरे की आँख में आँख डालकर अपने स्वप्नों का महल देख रहे थे, अब दोनों एक दूसरे से नज़रें भी नहीं मिला पा रहे थे। दोनों एक दूसरे से संकोच कर रहे थे। अपने प्रिय को अपनी आँखों में टूटे स्वप्न की किरचें दिखाना सबसे कठिन कार्य है।
अनुराग ने रुमाल निकाला और चेहरा पोछा। मृगा चुपचाप खड़ी थी, क्या कहे, क्या बोले ? नई-नई शादी हुई हो तो अपने पति में हर पत्नी एक नायक देखती है। उस नायक को उसने अभी मरी आवाज़ में विनती करते सुना था।
अनुराग ने ऊपर देखा कृत्रिम चाँद अब भी चमक रहा था।
“ऊपर चलें ?” और कोई अवसर होता तो अनुराग मृगा की आँखों में झाँक कर बच्चों जैसी गोल आँखें चमका कर उत्साह से कहता। अभी तो वह मृगा से आँखें ही चुरा रहा था। मृगा ने ऊपर देखा। “ये इमारत दस मंजिल तक है। चल पाओगी ? चलो, छत पर चलकर देखते हैं।” अनुराग ने कहा।
मृगा ने ऊपर चमकते चाँद को देखकर सोचा, अभी वह छठी मंजिल पर है, मतलब चार मंजिल और चढ़नी पड़ेगी। उसने पानी की बोतल खोलकर दो घूँट हलक के नीचे लुढ़काए, फिर बोतल का ढक्कन बन्द करके अपने पर्स में रख लिया। उसने हामी में सिर हिला दिया एक ठंडी साँस छोड़कर, कुछ कहा नहीं ,बस आगे चढ़ने लगी। दोनों फिर से उसी घुमावदार सीढ़ी के एक एक पायदान पर थके हुए से पैर रखते हुये चढ़ने लगे। दो मंजिल चढ़ने तक शान्ति रही, न अनुराग कुछ बोला, न ही मृगा। अबोला भी विचित्र सी स्थिति है, लड़ने वाले भी धारण कर लेते हैं, और प्रेम करने वाले भी। इस क्षण दोनों एक दूसरे की मनःस्थिति से अच्छी तरह वाकिफ थे। फिर दो मंजिल के बाद मृगा हाँफते लगी, थोड़ा रुक गयी।
अनुराग उसके लिए रुक गया, कमर पर हाथ रख कर उसे देखने लगा। मृगा ने हाँफते हुए उसे देखा। दोनों की नजरें अचानक से मिल गयीं। मुस्कान की एक क्षीण रेखा फिर से आँखों में चमकी, बुझी। “चलें?” अनुराग ने पूछा। “हूँ…” मृगा ने आँखें नीची करके कहा और दोनों बढ़ने लगे।
“अच्छा अनुराग, तुम बता रहे थे पतली से पतली मीनार भी सिर्फ घुमावदार सीढ़ियों के सहारे ही अधिकतम ऊँचाई तक पहुँच सकती है। अपनी बात पूरी करो।” मृगा ने बात शुरू की। “हाँ… यही तकनीक है। मीनार में सीढ़ियाँ बनाने की और उसे ऊँचा करते जाने की। कुतुबमीनार के अंदर ऐसे ही सीढ़ियाँ बनाई गईं है।” अनुराग के स्वर में पहले जैसा उत्साह न था, पर वो थोड़ा सा खुश हो गया। मृगा बोली तो सही। मृगा का स्वर सामान्य ही लग रहा था। उसकी वाणी की पिच बता रही थी वह संयत होने लगी है।”ओह हाँ…. जानती हूँ, कुतुबमीनार में सीढ़ियाँ हैं।”
अनुराग के चेहरे पर अपनी पत्नी की बात पर मुस्कान आ गई। जो भी कहो, ये सब जानती है। अभी थोड़ी देर पहले भी उसने यही कहा था, हाँ, जानती हूँ, घुमावदार सीढियाँ कम जगह लेती हैं। उसने पूछा- ” तुम कैसे जानती हो? देखा है कभी?” मृगा के संयत होकर बात करने से उसे हवा मिली थी। दोनों के बीच जो थोड़ी सी सीलन आ गई थी, सूखने लगी थी। पत्नी को छेड़ने वाले उसके प्रश्न वापस अपनी जगह लौट रहे थे।एक ही मंजिल शेष थी। मृगा उत्साह में थोड़ा अधिक तेज पैर बढ़ाने लगी। उसके अंदर खुली हवा में साँस लेने की चाहत बढ़ गई थी।
“मैंने नहीं देखा है। दादा जी ने बताया था। उनके समय में कुतुबमीनार के अंदर जाने देते थे।” मृगा ने कदम आगे रखते हुए कहा। “कुतुबमीनार के अंदर जा सकते थे ? वास्तव में ? मुझे नहीं पता था।” पीछे रह गए अनुराग ने आँखों को आश्चर्य से गोल करते हुए कहा। मृगा ने पीछे देखा। अनुराग थोड़ा चकित सा खड़ा था। उसका चेहरा देखकर मृगा को हँसी आ गयी। उसने अनुराग को चिढ़ाते हुये कहा,” ये लो…अब बताओ ज़रा, कौन बुद्धू है? ” अबकि बार कृत्रिम क्रोध से तुनकने की बारी उसकी थी। मृगा ने मुस्काते हुए उसे देखा और उसे सीढ़ी पर नीचे छोड़ते हुए आगे बढ़ गयी। आगे बढ़ते-बढ़ते उसने कहा-” अरे, तुमने वो हिंदी फ़िल्मी गाना नहीं देखा है ‘दिल का भँवर करे पुकार’ जिसमें देव आनंद साहब नूतन से सीढ़ियों पर चढ़ते हुए इश्क़ फरमा रहे हैं।”
“हाँ, देखा है।”
” उसी में तो कुतुबमीनार के अंदर की शूटिंग है। “
अनुराग जल्दी-जल्दी पाँव धरते धरते मृगा के समीप आ गया। “अच्छा, मैंने ध्यान ही नहीं दिया कभी। और मेरे दादा जी मुझे ये बताने से पहले ही कुतुबमीनार से बहुत-बहुत ऊपर चले गए।” अनुराग ने जिस तरह हाथ घुमा कर ऊपर की ओर इशारा करके अभिनय किया, दोनों के चेहरे पर एक साथ हँसी फूट पड़ी।
सीढ़ियाँ खत्म हो चुकीं थीं, छत आ गयी थी। दोनों झेंप को विदा देते हुए सामान्य हो रहे थे। उन्होंने प्रफुल्लता को पाने की कोशिश करने के साथ एक दूसरे का हाथ पकड़े हुए छत पर कदम धरा। दसवीं मंजिल की छत से शहर का दृश्य बहुत ही सुंदर दिख रहा था। फाइबर ग्लास का बना चाँद उनके एकदम समीप पड़ा हुआ था, पर अपनी चमक खो चुका था। अब मात्र वह प्लास्टिक था। दूर छोटे-छोटे बने हुए मकान दिख रहे थे। हवा के झोंके दोनों के चेहरों को सहलाने लगे थे। दोनों ने एक सुखद ताज़गी का अनुभव किया। रेलिंग के पास आकर दोनों मंत्रमुग्ध होकर इस मन को मोहने वाले दृश्य का रसास्वादन करने लगे। दूर पृथ्वी और आकाश एक दूसरे का आलिंगन कर रहे थे। सूरज ऑरेंज टॉफी की तरह चमक रहा था।मृगा की साड़ी का पल्लू हवा में फरफरा रहा था। वह दूर क्षितिज पर दृष्टि जमाए हुए बोली- “अनुराग, जीवन में भी कई बार लगता है कितने घुमावदार रास्तों पर हम भटक रहे हैं। जिस दिशा से चलना शुरू करते है वापस उसी दिशा में आ खड़े होते है, जैसे किसी सर्कल पर चल रहे हों। लगता है आगे बढ़े ही नहीं।”
अनुराग उससे एकदम सट कर खड़ा था। वह एक इस पल को भरपूर जी लेना चाहता था। इस पल में असीम शांति है। उसकी आँखें नारंगी सूरज पर टिकी थीं। मृगा ने सामने से दृष्टि हटा ली और अनुराग की आँखों में झाँकने लगी। अनुराग की आँखें सामने टिकी थीं। साइड से उसकी आँखों की मूक पुतलियों में टूटे स्वप्नों की किरचें अभी भी तैरती दिख रही थीं। मृगा मुस्कुरा कर बोली- ” पर वह सर्कल नहीं होता है। कोई है न ऊपर बैठा, जो हमें गोल-गोल सीढ़ी दर सीढ़ी ऊपर उठा रहा होता है, आगे बढ़ा रहा होता है।”
“और पता तभी चलता है जब वो मीनार बन कर तैयार हो चुकी होती है और हम ऊँचाइयों से नीचे देख कर मुस्कुरा रहे होते हैं।” अनुराग ने सामने से दृष्टि हटा कर मृगा की आँखों में प्यार से देखा और उसका हाथ लेकर अपने गाल से लगा लिया।
एक हसीन फ्लैट की चाहत उनकी अधूरी रह गयी थी। लोन रिजेक्ट हो चुका था। पर फिर भी दोनों मुस्कुरा रहे थे क्योंकि उनके सपनों ने सीढ़ियाँ चढ़ना नहीं छोड़ा था।
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लेखिका परिचय
लखनऊ में अध्यापिका के पद पर कार्यरत। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं जैसे कथादेश, वागर्थ, वर्तमान साहित्य, ककसाड़, परिंदे, कृति बहुमत, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, जनसत्ता, अमर उजाला, राजस्थान पत्रिका आदि में कहानियाँ/लेख प्रकाशित। कई साझा-संकलनों में सहभागिता।
2 Comments
मध्यमवर्गीय दम्पत्ति की विवशता और सामंजस्य की खूबसूरती से गढ़ी हुई कथा नेक्स्ट टू डोर जैसी बहुत अपनी सी और बड़ी परिचित सी बधाई हो मित्र
बहुत खूबसुरत लिखती हो