प्रसिद्ध विद्वान विद्यानिवास मिश्र ने 1998 में एक किताब लिखी थी- ‘सपने कहाँ गए’। यह किताब एक तरह से आज़ादी के पचास वर्षों का लेखा-जोखा है, उन सपनों का जिनको आज़ादी के दिनों में देखा गया था। किस तरह उसकी दिशा बदल गई, उससे भारतीय जन ग़ायब होता गया। प्रसिद्ध इतिहासकार हितेन्द्र पटेल का यह लेख विद्यानिवास मिश्र की किताब ‘सपने कहाँ गए’ के बहाने इतिहास के कुछ गंभीर सवालों की चर्चा करती है जो इस किताब की धुरी है। इसमें अकेले पड़ते हुए गांधी हैं, वह राजनीति है जो जन से दूर होती गई। सबसे बढ़कर भाषा का सवाल है। यह किताब आज़ादी और उसके बाद के कुछ प्रमुख विषयों को लेकर अनेक तरह के प्रश्न उठाती है तो विद्यानिवास मिश्र की भी एक अलग छवि सामने लाती है। जैसा कि हितेन्द्र पटेल ने लिखा है- ‘विद्यानिवास मिश्र जी के चिंतक रूप को समझने के लिए उनके लेखकों को बहुत ध्यान से पढ़ना होगा और यह समझना होगा कि एक भारतीय यथार्थ के बहुत स्तरीय समझ के अध्ययन के लिए साहित्य के स्रोतों की बड़ी भूमिका हो सकती है। उन्होंने सपनों के बनने और उसके बिखरने की जो अपनी कथा पुस्तक में कही है वह एक दस्तावेज है। पूर्ण सहमति की आवश्यकता नहीं लेकिन एक आलोचनात्मक रिश्ता इस पुस्तक से बनाना चाहिए। पंडित मिश्र के लेखन में एक विशिष्ट बुद्धिजीवी के साथ एक साहित्य अनुरागी और संस्कृति प्रेमी विद्वान का स्वर मिला हुआ है।‘
लेख को पढ़कर बताइएगा- मॉडरेटर
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स्वाधीनता आंदोलन के दौरान नये भारत का एक सपना भी पला था और भारतीयों ने अंग्रेजों से मुक्ति को देश की मुक्ति का पहला मोर्चा ही माना था. इसलिए जब गांधी के नेतृत्व में भारतीय राजनीतिक रूप से संगठित हो रहे थे तो वे सोच रहे थे कि भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के बाद जब देश का नेतृत्व खुद भारतवासियों के हाथ में होगा देश में एक लोकतांत्रिक और उन्नत भारत बनेगा और इस देश के लोगों को एक बेहतर जीवन मिलेगा। इसलिए १९४७ के बाद इस सपने के भारत को देखने की तमन्ना हर उस भारतवासी के में मन में रही होगी जिसने बीस से तीस के दशक की राजनीतिक और बौद्धिक सरगर्मियों की समझ होगी। उनके सपनों को नेताओं के उद्घोषों और 1942 के दौरान की जनता के समर्थन से विश्वास बल मिला होगा। भारत विभाजन ने भारत -स्वप्न को झटका तो दिया होगा लेकिन उसे ख़त्म नहीं किया। लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि स्वाधीनता प्राप्ति के कुछ सालों बाद ही यह सपना बिखरने सा लगा। आज़ादी के बाद के साहित्य और बौद्धिकता के लेखन को अगर आधार बनाया जाए तो यह स्पष्ट हो जाता है कि समकालीन राजनीतिक यथार्थ ने इन स्वप्नों को पीछे धकेल दिया और देश को राजनीतिक नेतृत्व उस दिशा में ले गया जो जागरुक भारतीयों के सपनों से मेल नहीं खाता था।
जिन स्वप्नों को लेकर जागरुक बौद्धिक चले थे उनके इस स्वप्न भंग के इतिहास को समझने के लिए हमारे पास इतिहास, साहित्य और संस्मरणों का जो समृद्ध भंडार है उससे मदद लेने की ज़रूरत है। इस दिशा में प्रसिद्ध साहित्यिक, शास्त्र मर्मज्ञ, चिंतक और प्रशासक पंडित विद्यनिवास मिश्र का लिखा “पचास वर्षों का लेखा-जोखा” (सपने कहाँ गए, 1998) एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है।
पंडित विद्यानिवास मिश्र ने स्वाधीनता को विचार क्षेत्र और कार्यप्रणाली को देशव्यापी आत्म सजगता से जोड़ा था जिसको उन्होंने अपने प्रारम्भिक जीवन में किशोर वय से ही महसूस किया था। इसे वे आज़ादी के बाद के वर्षों में (1955 के बाद स्पष्ट रूप से ) बिखरता हुआ पाते हैं। आज़ादी के पचास वर्षों बाद वे मानसिक दरिद्रता को हर क्षेत्र में महसूस करते हैं। इसके मूल में वे “जातीय भाव” के धीरे धीरे कमजोर होने को देखते हैं। वे जिन जिन क्षेत्रों में अधिक सक्रिय रहे -संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में- उनपर तो वे विस्तार से लिखते ही हैं समाज के विभिन्न क्षेत्रों में आए बिखराव पर भी भारतीय जातीय दृष्टि से विचार करते हैं। इस कारण से यह सिर्फ़ एक संस्मरण नहीं बल्कि एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज बन जाता है।
एक ख़ास बात यह है कि पंडित मिश्र किसी भी तरह से नॉस्टैल्जिया में नहीं जाते। वे मानते हैं कि “आधुनिकता हर देश और हर संस्कृति की अपरिहार्यता होती है।” पर उसके रूप को वे स्थानीय (जातीय) परिस्थितियों से जोड़ कर देखने को ज़रूरी समझते हैं। उसी संदर्भ में वे लिखते हैं कि “पश्चिम की दृष्टि हमेशा विखंडनत्मक रही है।” यह सत्रहवीं शताब्दी में शुरू हुआ और इसी ने अपने समझ को सही समझ और सभी समझों का स्रोत मानना शुरू किया। नस्ल की कोई याददाश्त ही भारतीय समाज में नहीं रही है। हमारे यहाँ जगत एक नीड़ है, सबके साथ रहने का बसेरा। इस भारतीय समाज में सामान्य जन की क्षमता में दृढ़ विश्वास था। इस सामान्य की क्षमता को वे विशेष अर्थ में लेते हैं। हर मनुष्य के भीतर एक मनुष्य होता है जो दूसरे मनुष्य के इस जुड़ने वाले क्षेत्र से मिलकर स्व का एक सामान्य जन स्वरके रूप में विकास करता है। हर मनुष्य के भीतर दूसरे से जुड़ने की इस प्रवृत्ति में ही वे महानता का वास देखते हैं। इस बात पर इस आलेख में बाद में फिर लौटना होगा। यहाँ यह कहना ही यथेष्ट होगा कि इस सामान्य जन की दृष्टि में ही देश की दृष्टि का वास होता है और यही वह चीज़ हैं जिसके साथ जुड़कर महापुरुष अपने देश की दृष्टि के साथ मिला देते हैं।
पंडित मिश्र के लिए सपने एक मेटाफर का रूप भी ले लेते हैं। वे कहते हैं कि सपने ज़रूरी हैं क्योंकि वे सपने से अधिक भविष्य का आलोक होते हैं। बाद में चलकर उनके लिए यह स्वप्न एक दीपक की लौ की तरह दिखते हैं जिनका दायित्व था कि वे अपनी लौ को दूसरी लौ से मिला दें और सपनों से नये सपनों का जन्म हो सके। यह सपना नए सपनों को जन्म नहीं दे सका ऐसा मानते हुए वे इसके लिए अपने पीढ़ी के लोगों को भी दोष देते हैं क्योंकि उन्होंने उस तरह अपने को झोंककर सपनों की रक्षा नहीं की जैसे 1942 के आंदोलन के समय देश के लोगों ने अपना सर्वस्व झोंककर अपने स्वप्न को बचाया था।
सपनों के बनने की कथा कहते हुए पंडित मिश्र अपने जीवन के अनुभव और इतिहास को रचनात्मक दृष्टि से जोड़ते हैं और अपने किशोर वय के प्रभावों की सुंदर व्याख्या भी करते हैं। अपने किशोर वय में उनके राष्ट्रीय स्वप्न के पास पहुँचने की कथा को अपने शिक्षकों, उस समय के कवियों – पुराने में गया प्रसाद शुक्ल स्नेही, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, बालकृष्ण शर्मा नवीन, माखनलाल चतुर्वेदी , सुभद्राकुमारी चौहान, आचार्य रामचंद्र शुक्ल और नए में गिरिजकुमार माथुर, प्रदीप, दिनकर, नीलकांत तिवारी, विद्यावती, कोकिल, कृष्णदेव प्रसाद गौड़, बेधक, जगदंबा प्रसाद हितैषी आदि – का तो ज़िक़्र किया ही है अंग्रेज़ी राज्य की पोल खोलने वाले प्रतिबंधित साहित्य का भी उल्लेख किया है। वे इतिहासकार ईश्वरीप्रसाद के ‘भारत के इतिहास’ को अविश्वसनीय और शरतचंद्र के ‘पथेर दाबी’, बंकिमचंद्र के ‘आनंद मठ’ और उपन्यास ‘राजा नंदकुमार की फाँसी’, ‘वारेन हेस्टिंज़’ जैसे साहित्य इतिहास ग्रंथ को अधिक रोचक मानते थे, ऐसा पंडित मिश्र ने लिखा है।
इस क्रम में दो बातों का ज़िक़्र करना उचित होगा। प्रथम, उस समय के किशोर और युवकों में क्रांतिकारी आंदोलन के प्रति आकर्षण और दूसरी बात: गांधी जी के प्रति क्षोभ। पंडित मिश्र ने कई अन्य गांधी से क्षुब्ध लोगों की तरह यह स्वीकार किया है कि उनके मन में गांधी जी के प्रति सही श्रद्धा 1947 में जगी जब वे “बिल्कुल अकेले पड़ गए थे और उनकी दिल्ली प्रार्थना सभा में भीड़ सिमटकर बीस पच्चीस तक रह गई थे।” यह एक महत्त्वपूर्ण वाक्य है जिसने बाद में गांधी के इस तरह अकेले पड़ जाने की कथा को कहने के लिए शोधार्थियों को प्रेरित किया होगा।
उनका एक महत्त्वपूर्ण कथन है कि उस समय “देश राष्ट्र शब्द से अधिक व्यापक था।” उस दौर के बारे में यह सूत्र भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है।
इस देश के बारे में कवियों, साहित्यिकों के प्रभाव को बहुत विस्तार से रखते हुए पंडित मिश्र ने अपने मन की बात कही है कि इनके प्रयासों के फलस्वरूप देश में आत्मसजगता आई। यहाँ इस बात का उल्लेख किया जा सकता है कि
अमृतलाल नागर ने अपने उपन्यासों -ख़ासकर ‘पीढ़ियाँ’ में यह दिखलाने की कोशिश की थी कि भारत में राष्ट्रवादी चेतना की लहर 1942 तक बहुत तेज थी; उसके बाद इसकी लौ मद्धिम हो गई और आज़ादी के बाद तो उन साहसी लोगों के चरित्र भी बदल गए जो 1942 के दौरान बहुत साहस के साथ देश जी आज़ादी के लिए लड़े थे। उसी तरह के भाव पंडित विद्यानिवास मिश्र के संस्मरण से भी उभर कर आते हैं। उन्होंने 1942 के दौरान हुए आंदोलन की छवियों को देते हुए युवकों के अप्रतिम साहस को दिखलाया है। वे अपने जीवन में आ रहे परिवर्तनों का वर्णन करते हुए यह लगातार दिखलाते रहे कि साहित्य इस प्रक्रिया में लगातार उनके लिए प्रेरणा का स्रोत बना रहा। अज्ञेय के लेखन का वे विशेष रूप से उल्लेख करते हैं।
राजनीतिक घटनाक्रमों में वे गांधी जी भूमिका के बारे में यह लिखते हैं कि 1942 की क्रांति के दौर में चीजें भावनात्मक स्तर पर युवकों को इतनी उद्वेलित कर गईं कि वे गांधी की बात को समझ नहीं पाए। 1857 की तरह 1942 का आंदोलन भी जीतने के लिए नहीं मरने के लिए लड़ी गई। उत्तेजना के कुछ महीने के बारे में लिखने के बाद इस तरह का निष्कर्ष थोड़ा अटपटा लगता है लेकिन पंडित मिश्र के सोचने का ढंग कुछ ऐसा था कि वे तत्कालिकता को पेश करने के बाद एक दूरगामी दृष्टि को भी रखते हुए चलते हैं।
श्री मिश्र की इस किताब में तात्कालिक प्रसंगों की समग्र उपस्थिति है और इस क्रम में वे बहुत सावधानीपूर्वक अपने को राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से बिल्कुल अछूते रहे हों ऐसा दिखलाने की कोशिश नहीं करते। 1942 के आंदोलन के कुचले जाने के बाद के प्रसंगों की चर्चा में वे संघ के कार्यकलापों का ज़िक्र करते हैं और उनके नेताओं की प्रशंसा भी खूब करते हैं। ख़ास तौर पर रज्जू भैया (संघ संचालक) की। उनके कई मित्र संघ से जुड़े हुए थे और उन पर भी दबाव था कि वे इसकी सदस्यता ले लें। वे शिविरों में तो गए लेकिन संघ के सदस्य नहीं बने। एक बात उन्होंने ईमानदारी से स्वीकार की है कि उन्हें और अन्य लोगों को यह अनुमान बिल्कुल नहीं था कि तीन चार वर्षों में देश को आज़ादी मिल जाएगी। जो कांग्रेसी नेता जेल में थे वे वहाँ आज़ादी के बाद की परिस्थितियों के बारे में गम्भीरता से विचार नहीं कर रहे थे। इधर देश में राजनीतिक मूल्यों में गिरावट का दौर इसी समय शुरू हुआ। सेना के विज्ञापनों के लिए झुकने वाले पत्रकारों के कुकुरमुत्ते की तरह उग आने की बात वे करते हैं।
यहाँ इस बात का उल्लेख किया जा सकता है कि भगवतीचरण वर्मा के उपन्यास ‘सीधी सच्ची बातें ‘ में भी इसी तरह की प्रवृत्तियों का उल्लेख हुआ है। पंडित मिश्र के अनुसार इस समय “धन एक नये शैतान के रूप में हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में घुस आया था।” इसके साथ श्री मिश्र ने लक्षित किया कि “उसी समय कुछ ऐसे लोगों का नाम सतह पर आ रहे थे जिन्होंने खून हाथ में लगाकर शहादत में अपना नाम दर्ज कराया था। उन्होंने बार बार प्रार्थना करके अपने को जेल भी भिजवाया था। कितना दिलचस्प है कि यशपाल के उस दौर पर लिखे उपन्यास ‘मेरी तेरी उसकी बात’ से इस वर्णन का मेल है। इस बात को दर्ज करते हैं कि कांग्रेस की अनुपस्थिति में मुस्लिम लीग का प्रचार ज़ोरों पर चल रहा था। इस समय संघ के कार्यक्रम के प्रति युवाओं के आकर्षण का उल्लेख भी उन्होंने किया है।
जो सबसे दिलचस्प है इस तरह के विवरण में वह है तत्कालीन जटिल राजनीतिक परिदृश्य का विश्लेषण। पंडित मिश्र ने लिखा है कि प्रचलित अर्थ में जो सुराजी कहलाते थे उसके बाहर भी देशप्रेम से ओतप्रोत लोग थे जिनमें कुछ तो सरकारी कर्मचारी भी थे और ऐसे भी लोग थे जिनकी छवि अंग्रेज पिट्ठू की थी। अपने परिवार के बड़े दादाजी का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि वे अंग्रेजों की तरफ़दारी करने वाले पंडितों को बहुत डाँटते थे। आसपास के परिवेश के तमाम लोगों के बारे में लिखते हुए वे स्पष्ट करते हैं कि उनमें जो “स्वदेश के अभिमान का रंग चढ़ा” उसका प्रधान कारण परिवेश ही था। उस परिवेश में वे पाते हैं कि “पता नहीं, तब क्यों सुराजी लोगों की अपेक्षा गुमनाम क्रांतिकारी अधिक दीप्तिमान होते थे।” उनके वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय युवा लोगों में सशस्त्र क्रांति के प्रति समर्थन अधिक था।
अपने जीवन के दस सालों (1939 से 1949) को श्री मिश्र ने राजनीतिक रूप से परिपक्व होने का समय बताया है। इस दौर में वे सी एफ ऐंड्रूज़ और माखनलाल चतुर्वेदी के भाषण और कविता पाठ के प्रभाव की चर्चा विशेष रूप से करते हैं। ‘कैदी और कोकिला‘ के माखनलाल चतुर्वेदी के काव्य पाठ से वे विशेष रूप से प्रभावित हुए थे। अपने बंगाली अध्यापकों – सी सी चटर्जी, के सी चटर्जी और मंडल -के प्रभाव की चर्चा भी वे करते हैं।
इस दौरान भी साहित्यिक कृतियों की वे चर्चा करते हैं। उनके वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि राष्ट्रवादी चेतना के विस्तार में साहित्यकारों के योगदान पर इतिहासकारों का ध्यान और अधिक जाना चाहिए। राखालदास बनर्जी के उपन्यास के प्रभाव का विशेष उल्लेख उन्होंने किया है। इस तरह की पुस्तकों की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा है कि इससे “ उपन्यासों के इतिहास का विशाल रस” उन्हें मिला। उनके एक शिक्षक क्षेत्रेसचंद्र चट्टोपाध्याय सुभाष चंद्र बोस के सहपाठी और मित्र रहे थे, जिनके साथ बोस का पत्राचार बना रहा था। चट्टोपाध्याय से विद्यनिवास जी को यह पता चला कि बोस ने अपने मित्र को लिखा था कि “तुम भारतीय मेधा को पश्चिम की नक़ल न बनाओ, स्वतंत्र चिंतन की जो हमारी लम्बी परम्परा रही है, उसका तुम ध्वज सम्भालो।”
मिश्र जी के वर्णन में उनके परवर्ती विचार भी आते हैं जब वे गांधी और सुभाष की तुलना करते हैं। वे मानते हैं कि “महात्मा गांधी को समझने के लिए बड़े परिपक्व मस्तिष्क की ज़रूरत है। उनमें एक दूरगामी दृष्टि थी। पर “तत्कालीन क्रियाशीलता नेताजी में ही थी। आज नेताजी की आवश्यकता तत्काल है।”
श्री मिश्र ने चालीस के दशक के शुरुआती वर्षों के बारे में एक टिप्पणी की है। उन्होंने लिखा है -“सन 1941 से 1945 तक के दिन बहुत उतार चढ़ाव के दिन हैं। बड़े गौरवशाली भी हैं और बड़े करुण भी हैं। यह सब इसलिए कि हमारे भीतर देश का जो भाव योगियों ने, साहित्यकारों ने, विचारकों ने, कवियों और लेखकों ने दिया था वह राज्य के आगे कुछ दब गया और यह प्रमुख कारण है कि भारत के स्वतंत्र होने पर देश का भाव जगा नहीं।”
पीछे मुड़कर देखते हुए श्री मिश्र ने तेज बहादुर सप्रू और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की दूरगामी राजनीतिक सोच की प्रशंसा भी की है। उनके अनुसार यदि 1931 में मैकडॉनल्ड के डोमिनियन स्टेटस के प्रस्ताव को भारतीय नेतृत्व मान लेता तो हम कनाडा और ऑस्ट्रेलिया की तरह बहुत बड़े राष्ट्र के रूप में जाने जाते हैं केवल विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र के थोड़े अभियान में सुलगते नहीं रहते। इसी तरह राजा जी (राजगोपालाचारी ) के बंटवारे के सलाह को अगर खून खराबे के पहले मान लिया जाता तो शायद अच्छे परिणाम होते यह भी उनका एक निष्कर्ष है।
उनका मानना है कि 1939 से 1942 के दौरान स्वाधीनता की चेतना का विकास सभी और हो रहा था यहां तक की अंग्रेजी धड़े की शिक्षण संस्थानों में भी स्वदेशी विचारों के अंकुर पनप रहे थे। विद्यानिवास मिश्र मदन मोहम मालवीय जी की प्रशंसा तो करते ही हैं पंडित अमरनाथ झा की भी प्रशंसा करते हैं। पंडित अमरनाथ झा को लोग अंग्रेजों का पिट्ठू मानते थे लेकिन मिश्रजी के अनुसार उनमें कहीं मिथिला का पानी था और उन्होंने छात्रों के राष्ट्रवादी रोष को समझा और पुलिसकर्मी को विश्वविद्यालय में नहीं घुसने देकर छुट्टी दे दी और उन्हें घर जाने के लिए कहा जब 1942 के उस माहौल में ऐसा न करने पर विस्फोटक स्थिति हो सकती थी। यहां यह इस बात को दर्ज किया जाना चाहिए की विद्यानिवास मिश्र के लिए सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति पुरुषोत्तम दास टंडन थे जो अपनी कर्तव्य निष्ठा और राष्ट्रभक्ति के लिए श्री मिश्रा के आदर्श माने जा सकते हैं।
1942 से 1947 की बीच की कई बातें ऐसी हैं जिससे पता चलता है कि सपनों की हकीकत क्या थी। पंडित मिश्र ने लिखा है 1942 के आंदोलन के तूफानी दिनों के बाद 1946 में आजाद हिंद फौज ट्रायल के बीच जो कुछ हुआ उसमें यह बात महत्वपूर्ण थी कि 1942 में जो कुछ हुआ उसकी जिम्मेदारी कौन लेगा। जब कांग्रेस के बड़े नेता जेल से निकले तो उन्होंने 1942 का पूरा श्रेय लिया हालांकि आंदोलन की शुरू होने के कुछ दिनों बाद ही गांधी जी ने इस आंदोलन की हिंसात्मक कार्यवाही से अपने को अलग कर लिया था। विद्या निवास जी ने नेहरू द्वारा इलाहाबाद में एक सभा जो उनके जेल के जेल से निकलने के बाद हुई थी उसका उल्लेख किया था। इस सभा में नेहरु जी ने कहा था की 1942 में जो कुछ हुआ उसकी सारी जिम्मेदारी मैं अपने ऊपर लेता हूं। इस भाषण के प्रभाव की विशेष रूप से चर्चा इस पुस्तक में है। राहुल सांकृत्यायन द्वारा हिंदी के प्रश्न पर कम्युनिस्ट पार्टी से अलग होने की सीमा तक जाकर अधिक रहना श्री मिश्र के लिए एक महत्वपूर्ण बात थी।
इस पुस्तक में विद्यानिवास मिश्र जी ने भाषा के प्रश्न पर जो कुछ लिखा है वह भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनका मानना था की संविधान सभा में जब भाषा के प्रश्न पर बहस हो रही थी तो उसमें अंग्रेजी कहीं भी नहीं थी। सारा विवाद हिंदी व हिंदुस्तानी के बीच में था और हिंदी के पक्ष में निर्णय हिंदी भाषी सदस्यों के कारण हुआ। यह उन्हें दुर्भाग्यपूर्ण लगता है क्योंकि उनके अनुसार यह हिंदी के उदार मन की हार थी। इस संदर्भ में उनका यह कथन है कि अगर आचार्य नरेंद्र देव और जवाहरलाल नेहरू के प्रस्ताव को मान लिया जाता और हिंदुस्तानी को देश की राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार कर लिया जाता (जिसे देवनागरी लिपि में लिखा जाना था ) तो संभवत उसे दिन से हिंदुस्तानी चल पड़ी होती और धीरे-धीरे वह ऐसी भाषा में ढल जाती जिसमें सहज रूप से संस्कृत के शब्द आ ही जाते।
देश की जनता में एकता का मंत्र फूंकने का संकल्प इस दौर में धराशाई हो गया भाषा का प्रश्न एक बड़ा मुद्दा था। उनके अनुसार दूसरा बड़ा मुद्दा था भाषा के आधार पर राज्यों का गठन किया जाना।
इस परिवेश में पंडित मिश्र ने गांधी जी के दुःख की विशेष चर्चा भी की है। उन्होंने लिखा है कि गांधीजी इस बात से सबसे ज्यादा आहत हुए जब उनका अनुरोध ठुकरा दिया गया कि स्वाधीन भारत की अर्थनीति और शासन नीति तय करने के लिए हिंद स्वराज पर एक मसौदे के रूप में विचार हो। गांधी जी ने अखबारों में छपाने की धमकी दी तो तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष नेहरू ने व्यक्तिक संबंधों की ओट लेकर गांधी जी को लाचार कर दिया कि वह चुप रहें। गांधी जी की प्रतिरोध करने वाली शक्ति एकदम हिल गई थी। उन्होंने किसी दूरगामी संभावना को देखते हुए पाकिस्तान के ऊपर भारत की देनदारी को माफ करने के लिए अनशन किया था और उसका भयंकर विरोध हुआ था। वह अत्यंत अलोकप्रिय हो गए थे परंतु उनके मन में देश की एकता का संबंध स्वप्न तब भी नहीं टूटा था।
विद्यानिवास मिश्र जी का निष्कर्ष है कि 1947 के बाद देश में आंतरिक विभाजन की एक प्रक्रिया शुरू हुई। वे लिखते हैं कि देश में उस समय तक जातियां थी जाति द्वेष नहीं था और गांव के समाज में किसी ने किसी रूप में भाईचारा था। उस समय देश के प्रति भाव भी था। स्वाधीनता के शुरू के दिनों में कई उलझने थी। उन उलझनों का समाधान ऊपर से नहीं हो सकता था। सरदार पटेल बहुत कम समय तक गृह मंत्री रहे और उन्होंने अपना वह समय अंग्रेजों की कुचक्र सफल करने में जब देशी रियासतें अपनी डफली अलग बजाने में लगे थे, लगाया। उन्हें कम समय मिल सका। अगर उनको समय मिलता तो देश के स्वरूप को नए सिरे से खड़ा करने पर भूमिका हो सकती थी।
श्री मिश्र की इस पुस्तक में इलाहाबाद विश्वविद्यालय का और इलाहाबाद का एक सांस्कृतिक केंद्र के रूप में अवसान एक बहुत बड़ी ट्रेजेडी के रूप में देखते हैं। वह उस समय के यशस्वी साहित्यकारों और देश प्रेमियों को श्रद्धा के साथ याद करते हैं।
1947 में आजादी मिली उसके पूर्व मुस्लिम लीग के नेतृत्व में पाकिस्तान के लिए चलने वाले आंदोलन के दौरान की स्थिति में किस तरह सांप्रदायिक भावों ने अपनी जकड़ में ले लिया था इस प्रसंग में विद्यानिवास जी ने 1946 में हुए दंगों का विशेष जिक्र किया है। वह कोलकाता गए थे और वहां की स्थिति को देखकर उनको बहुत धक्का लगा वे प्रसिद्ध भाषाशास्त्री डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी के यहां भाषा विज्ञान का पाठ पढ़ाने जाते थे जहां उन्होंने डॉक्टर सुनीति कुमार चटर्जी के मुंह से सुना कि “जिस पूर्वी उत्तर प्रदेश व बिहार के लोगों को भद्र बंगाली खोट्टा कहते हैं वे अगर नहीं होते तो आज कोलकाता में किसी बंगाली की बहू बेटी की इज्जत नहीं बचती।” दंगों के भयावह दिनों के बारे में बात करते हुए पुरुषोत्तम दास टंडन के गांधी जी के द्वारा विभाजन को स्वीकार कर लेने की के निर्णय पर के बारे में उन्होंने लिखा है। वह पुरुषोत्तम दास टंडन और अब्दुल गफ्फार खान के दर्द को हमारे सामने रखते हैं। पुरुषोत्तम दास टंडन के बारे में ज्यादा चर्चा इतिहास के पन्नों में नहीं होती इसलिए विद्यानिवास मिश्र द्वारा बंटवारे के विरोध में पुरुषोत्तम दास टंडन का गांधी जी के समक्ष यह कहना कि “जिस भारत माता की वंदना की थी उसी के दो टुकड़े करने जा रहे हैं, जिस वंदे मातरम की पीछे इतने बलिदान हुए उसे वंदे मातरम का कोई भाव आपके भीतर नहीं है ? …आप एक आप प्राकृतिक विभाजन स्वीकार करने जा रहे हैंI टंडन जी का गांधी को यह कहना बहुत ही महत्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्य है। विद्यनिवास मिश्र जी ने इस बात का उल्लेख किया है कि पुरुषोत्तमदास टंडन के भाषण से लोग इतने विचलित हो गए कि गांधी को बैठक में लाना लाचारी हो गई। गांधी जी के आते ही टंडन जी ने कहा कि मुझे दुख है कि गांधी जी आज चुप बैठे हैं। आपने अपनी मंशा जाहिर की थी कि मैं विभाजन का प्राण प्रण विरोध करने जा रहा हूं। आपको याद दिलाने जा रहा हूं कि आपने कभी कहा था कि पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा। आप मेरे साथ हैं या मैं अकेली ही यह मोर्चा लूं?
गांधी की हत्या के बाद श्री मिश्र को टंडन जी की बातें याद आई। उनकी कही हुई हर बात सही सिद्ध हुई। गांधी जी के दर्द को और उनकी आशा को श्री मिश्र ने इस तरह व्यक्त किया है: “गांधी जी ने उसे विभाजन को स्वीकार नहीं किया मन में कहीं आशा से जुड़े रहे कि यह दो बँटे देश कभी न कभी किसी ने किसी रूप में फिर प्रेम सूत्र में बनेंगे इसलिए जैसा कि उनसे डॉ राम मनोहर लोहिया ने कहा था गांधी जी ने अपने हृदय के पुत्र वल्लभ भाई पटेल को प्रधानमंत्री नहीं बनाया पंडित नेहरू को बनाया। पंडित नेहरू से आशा थी कि उनके प्रधानमंत्री रहने से दोनों देशों के दिल मिल सकेंगे।” टंडन जी के एक प्रस्ताव की भी चर्चा श्री मिश्र ने की है। टंडन जी ने सुझाव दिया था कि विभाजन पर आप तुल ही गए हो तो कम से कम इतना तो करो की सेना की कमान एक रखो और सेना की छत्रछाया में जनसंख्या और संपत्ति की अदला-बदली की अवधि निश्चित करो ताकि लोग सुरक्षित इस पार से उस पार आएँ जाएँ। ऐसा यदि नहीं करोगे तो लाखों लाखों स्त्रियों के शील भंग का, लाखों लाखों के बेघर होने का पाप तुम्हारे सिर पर चढ़ाना पड़ेगा। अर्थव्यवस्था लड़खड़ा जाएगी और सबसे अधिक क्षति होगी मानव संस्कृति का। मनुष्य का शरणार्थी होना मनुष्य का परिस्थिति वश दयनीय बनना बड़ी दर्दनाक स्थिति है। इस स्थिति में आदमी बड़े निकृष्ट समझौते करता है और अपसंस्कृति को जन्म देता है।
1947 में स्वाधीनता के बाद यह माना जाता है कि कम्युनिस्टों ने इसे अधूरी आजादी कहा था लेकिन श्री मिश्र इस बात का उल्लेख करके थोड़ा चकित करते हैं कि हमारी पीढ़ी के उस समय के युवक जानते थे की स्वतंत्रता अधूरी है अभी कई स्तरों पर स्वतंत्र होना बाकी है।
श्री मिश्र द्वारा भाषा के प्रश्न को बार-बार उठाना कई मायनों में महत्वपूर्ण है। जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है वह मानते थे कि भारतीय भाषाओं में कोई आपस की लड़ाई नहीं है और अगर 1947 के बाद लोगों ने सकारात्मक तरीके से सोचा होता तो भाषा की समस्या मिट सकती थी। हिंदी को इस रूप में राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकृति दिलाई गई जिससे अंग्रेजी को मौका मिला वापस महत्वपूर्ण हो जाने का। उन्होंने कई कोशिशों का जिक्र किया उसमें डॉक्टर रघुवीर राहुल सांकृत्यायन का जिक्र तो है ही है साथ ही हजारी प्रसाद द्विवेदी, बनारसी दास चतुर्वेदी का भी है। राहुल जी की विशेष चर्चा करते हुए श्री मिश्र लिखते हैं कि राहुल और अन्य लोग जनपदीय भाषाओं का विकास चाहते थे इसलिए नहीं कि इन जनपदीय भाषा को अलग-अलग हिंदी के प्रतियोगी के रूप में खड़ा किया जा सके बल्कि इसलिए की हिंदी इन समृद्ध भाषाओं से निरंतर रस ग्रहण करते हुए आगे बढ़े। उनके अनुसार हिंदी इसी तरह से जीवंत बनी रह सकती है। वह महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा भाषा को एक खास रूप में रखने के विरुद्ध बोलते हैं क्योंकि उनका मानना है कि द्विवेदी जी ने हिंदी के लचीलेपन को कम किया। वे कहते हैं की भाषा का जो लचीलापन हमें माधव प्रसाद मिश्र, बालमुकुंद गुप्त, बालकृष्ण भट्ट, पंडित प्रताप नारायण मिश्र आदि में मिलता है वह लचीलापन द्विवेदी में नहीं है। इससे हिंदी की क्षति हुई है। श्री मिश्र मानते हैं कि हिंदी के विविध रूप हैं। विविधता में एकता है यह तो सभी कहते हैं लेकिन विविध रूपों के साथ सार्वग्ग्राह्यता किस रूप में है, परस्पर किस प्रकार की संबद्धता है, उसका क्या नाता रिश्ता है यह जानना भी बहुत आवश्यक है।
वह स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि हिंदी साहित्य का इतिहास खड़ी बोली का इतिहास नहीं है। हिंदी साहित्य का इतिहास ब्रज, अवधी, भोजपुरी, राजस्थानी, मैथिली इन सभी भाषाओं में जो साहित्य रचा गया सार्वदेशिक भाव से रचा गया वह है हिंदी साहित्य का इतिहास। वे इस बात का उल्लेख करते हैं कि जब एक साथ आदमी तीन-तीन भाषण कुशलता के साथ सीखना है तो सभी भाषाएं समृद्ध होती हैं वे इस बात पर अफसोस व्यक्त करते हैं भाषा के प्रश्न को आज हमने ऐसा प्रश्न बना दिया है कि हम कुछ ही कुछ कर ही नहीं सकते, हम चुपचाप केवल बैठकर देख सकते हैं कैसे कटान हो रही है इसके अलावा कुछ नहीं कर सकते।
विद्यानिवास मिश्र जी के लिए राम मनोहर लोहिया अत्यंत महत्वपूर्ण राजनीतिक व्यक्तित्व है और वह उनकी सांस्कृतिक समाज को भी अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हैं उनके अनुसार लोहिया गांधी जी के बाद ऐसे राजनेता थे जिन्होंने 1955 के बाद साहित्य पर छाप छोड़ी। वह इस बात का उल्लेख करते हैं कि देश की अपनी एक विचारधारा होती है वह सबके साथ रहती है सबसे हिलती है मिलती है लेकिन उसका कोई एक आधार होता है। इलाहाबाद इसके लिए एक महत्वपूर्ण केंद्र है जिसने छोटे आदमियों को खड़ा किया इसलिए फनीश्वरनाथ रेणु ने वामन दास को खड़ा किया और सारी बड़ी शक्तियों सारे बड़े आंदोलन के बीच में एक अकेले छोटे से आदमी की आवाज को बुलंद किया। वह वात्सायन जी के प्रतीक का भी उल्लेख करते हैं और उनके व्यक्तित्व की प्रशंसा करते हैं। श्री मिश्र ने अपने बारे में विनयपूर्वक यह लिखा है कि मैं एक साथ कई जगह जुड़ा हुआ रह सकता था। इस संदर्भ में वे ये भी कहते हैं कि मैं हिंदी के लिए बाहरी आदमी हूं। हिंदी से अपने संपर्क के संबंध में बताते हैं कि वह बहुत बड़े लोगों के संपर्क में आए जिन्होंने हिंदी की निष्ठा पूर्वक सेवा करने की प्रेरणा दी। वे पंडित श्रीनारायण चतुर्वेदी, पंडित राहुल सांकृत्यायन और सबसे अधिक राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन की चर्चा करते हैं। उनका निष्कर्ष है कि हिंदी एक आत्मीयता की भाषा है दूरी रखने वाली भाषा नहीं है।
हिंदी के हिंदी और भाषा के बाद वह इस बात पर लौटते हैं की आजादी के बाद कैसे सत्ता के कारण कांग्रेस में दोष आने लगे उनकी उनके अनुसार ऊपर का शासन केवल ध्वजा परिवर्तन और राष्ट्रगीत परिवर्तन तक सीमित था। वे लिखते हैं कि जैसे अंग्रेजो ने अपने लोकतांत्रिक स्वभाव को तात्पर्य रखकर मुगलिया तरीके से भारत प्रशासन किया वैसे ही शासन का स्वभाव बनाने पर केवल कुछ आवश्यकता से अधिक बल दिया गया। इन बातों को वह बहुत अधिक विस्तार नहीं देते हैं लेकिन कई बार उनकी पुस्तक में रेणु के वामन दास की चर्चा हुई है और उसे समय के संदर्भ में महत्वपूर्ण संकेत देने वाले के रूप में चित्रित किया है। श्री मिश्र ने रेणु की इस बात के लिए प्रशंसा की है की वामन दास को उन्होंने बड़े-बड़े सत्ताधारियों के सामने अकेले खड़ा किया। लोहिया को भारतीय संस्कृति की समझ वाला राजनीतिक नेता को वे इसलिए भी मानते हैं कि उनके राम सबके राम थे। लोहिया के राम धनुर्धर राम थे मुकुटधर राम नहीं थे। हिंदुस्तान में रहने वाले लोगों का काम इस राम के बिना नहीं चल सकता।
श्री मिश्र ने उस जमाने के कई नेताओं की प्रशंसा इस बात के लिए की है कि उन्होंने समाज के बारे में सोचा अपने और अपने परिवार वालों के बारे में नहीं सोचा। वह लिखते हैं कि उसे समय की राजनेता ऐसे थे जो अपने लड़कों के लिए स्वयं भी कुछ नहीं करते थे। उन्होंने टंडन जी का उदाहरण दिया। और भी कई नेताओं के बारे में लिखते हुए कहते हैं कि उनमें संकोच था कि वह जब समाज के बारे में काम कर रहे हैं तो अपने घर परिवार के लोगों के बारे में कैसे कम कर सकते हैं!
श्री विद्यानिवास मिश्र को बहुत समाज और संस्कृति को समझने का एक मौका तब मिला जब वह राज्य से जुड़कर कुछ काम करने की भूमिका में रहे उसका भी उन्होंने उल्लेख किया है लेकिन यहां इस संदर्भ का जिक्र अधिक महत्वपूर्ण होगा जब चिंतक विद्यानिवास मिश्र ने नए राज्य के पुनर्गठन को विघटन के रूप में देखा। इसके कारण भारत में एक संकीर्णता का उदय हुआ- ऐसा वह मानते हैं। श्री गोविंद बल्लभ पंत के की दूरदर्शिता का उल्लेख करते हैं क्योंकि पंत ने भाषा और प्रांत के खतरों को अपनी दूरदर्शिता से भाँप लिया था।
वे संपूर्णानंद को भी बड़ा नेता मानते हैं और उनके कार्यों की प्रशंसा करते हैं।
विद्यानिवास मिश्र जी का यह स्पष्ट मत है कि लोगों का मोह भंग 1955 के बाद शुरू हो गया और 1962 में चीन के साथ लड़ाई में भारत की शिकस्त के बाद नेहरू का प्रभाव बहुत कम हो गया।
राजनीतिक रूप से वह समय थोड़ा जटिल समय था जब पहली बार ऐसे प्रश्न उठाए गए जिसमें आम आदमी को जनतंत्र का नायक बनाने की कोशिश हुई । वह कहते हैं कि गांधी, लोहिया, जयप्रकाश, नरेंद्र देव के आदर्श बहुत ऊंचे थे लेकिन उन आदर्शों पर चलना कठिन था। राज्य स्तर पर राजनीतिक लड़ाई कई तरह की संकीर्णताएँ हावी होने लगी। वे लिखते हैं कि बिहार के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर ने कुछ ऐसी बातें की जिससे पहली बार पता चला कि आम आदमी ही जनतंत्र का नायक है। इस दौर में ये बातें तो हुईं लेकिन इसी के साथ कई तरह की जोड़-तोड़ भी शुरू हुई । राज्य में सूबेदारी की होड़ शुरू हो गई। यह इसलिए भी हो होने लगा क्योंकि केंद्र कमजोर हो चुका था। नेहरू के कमजोर होने और शास्त्री के जल्दी चले जाने के कारण परिस्थितियों सुधरी नहीं।
विद्यानिवास मिश्र जी इंदिरा गांधी के शासनकाल के दौरान की कुछ महत्वपूर्ण बातों का उल्लेख करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं की इंदिरा गांधी ना चाहते हुए भी राजनीतिक संकट को बढ़ा गई। वह मानते हैं कि यदि इंदिरा जी ने अपने विवेक से काम लिया होता तो वह आपातकाल की घोषणा न करती। इस घोषणा के बाद वह एकदम लोकमत से कट गई। श्री मिश्र ने उन बुद्धिजीवियों की आलोचना की है जिन्होंने इंदिरा गांधी को ठीक से परिस्थिति का जायजा नहीं लेने दिया। बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर बात करने का एक मौक़ा बना जब दो लोगों – नुरूल हसन और विद्यानिवास मिश्र को बुद्धिजीवियों की एक सूची बनाने का दायित्व सौंपा गया। यह लिस्ट नहीं बन सकी। मिश्र जी इस संदर्भ में महत्वपूर्ण वाक्य लिखते हैं कि इंदिरा जी में दृढ़ता के साथ एक लचीलापन भी था पर उस लचीलीपन को सक्रिय होने का मौका ही नहीं मिला। इंदिरा गांधी समझ नहीं पाए पाई की जनतांत्रिक भावना इस देश की नसों में है।
1977 से 1980 के बीच के समय में जो राजनीतिक संघर्ष चला उसमें सपनों के फिर से महत्वपूर्ण होने की संभावना थी लेकिन वह हो ना सका। आपसी विचारधारात्मक संघर्ष इतने तीव्र थे की जनता पार्टी पार्टी पूरी तरह बन ही नहीं सकी।
श्री विद्यानिवास मिश्रा ने मंडल कमीशन के आने के बाद की राजनीति पर गहरा असंतोष व्यक्त किया है जिसके कारण उनके अनुसार सामाजिक बिखराव बड़ी तेजी से हुआ। वह लिखते हैं कि आज से पचास साल पहले तक जो जाति भेद के रहते हुए भी पारिवारिक रिश्ते का भाव था उसको कौन वापस लायेगा? मंडल आयोग के मसीहा क्या मेरे उसे रिश्ते को वापस लायेंगे जो रिश्ता गांव के अनपढ़ गँवार, बुड्ढे -जवान हम उम्र स्त्रियों में था? कोई ताई थी कोई भाभी कोई दीदी आज भी सब अहीर हैं, मल्लाह है, बढ़ई हैं, लोहार हैं, दलित हैं।
जाहिर है 1998 में जब भी लिख रहे थे उनको लग रहा था कि मंडल कमीशन के बाद जो पिछड़ी जातियां के नेतृत्व में राजनीति हुई थी उसके फलस्वरुप सामाजिक विभेद बहुत बढ़ गए। स्पष्ट रूप से कहते हैं कि आठवें दशक के पहले तक जाति वोट का आधार नहीं बन पाई थी किंतु आठवें दशक में जाति ही राजनीति हो गई और यह विडंबना ही है कि ऐसा व्यक्ति जो लोहिया की राजनीति को सकारात्मक मानता हो उसके लिए लोहिया के अनुयायियों द्वारा की गई राजनीति को इस रूप में देखता है।
श्री मिश्र समन्वयवादी दृष्टि के साथ चलने वाले व्यक्ति हैं और उनको ऐसा लगता है कि जाति को लेकर चलने वाली राजनीति समाज में विभेद को बढ़ावा देती है। नरसिंह राव और अन्य नेताओं के बारे में भी उन्होंने टिप्पणियां की हैं और यह कहने की कोशिश की है कि इन लोगों ने परिस्थितियों को अपनी तरीके से संभालने की कोशिश तो की लेकिन वह कोशिश पर्याप्त नहीं थी। पुस्तक के अंत में एक आशावादी स्वर रखते हुए वह कहते हैं सपना और भोर के पहले देखे जाने वाले सपने हमारे भविष्य होते हैं। जो लोग स्वाधीनता के लिए फांसी पर चढ़े फांसी के पहले रात भर खर्राटे लेकर सोते थे। जो लोग घर-घर गांधी की अलख जगाते वह जमीन पर ही गहरी नींद में सोते थे। सपने देखना अकर्मक क्रिया नहीं है। सार्थक सपने वही देखता है जो सार्थक जीवन जीता है। जीवन वही सार्थक है जो अपना नहीं होता। हिंदुस्तान का सपना केवल हिंदुस्तान के लिए सोचना नहीं रहा है। हिंदुस्तान का स्वभाव केवल आदमी के लिए सूचना नहीं रहा बल्कि चर अचर सबके लिए सोचने का रहा है। हिंदुस्तान की पहचान ना भूगोल से थी ना इतिहास से। इसकी पहचान एक विशाल भाव से थी एक बड़ी साझेदारी से थी।
एक तरह से विद्यानिवास मिश्र जी ने यह कहने की कोशिश की है कि हमारे सपने इसलिए पूरे नहीं हुए क्योंकि हमने साधारण आदमी के भीतर सक्रिय विराट को देखना छोड़ दिया, उसके विराट भाव को देखना बंद कर दिया, उसकी विराट करुणा को देखना बंद कर दिया, देश को तो भुला दिया। हम उनसे शिक्षा ग्रहण करने लगे जिन्होंने हमें लाचार किया था कि हम अपनी गति भूल जाएं, उन्होंने हमें विवश किया कि हम मन को किसी तरह उनके तरीके से बढ़ाने में बंधे रहने में। श्री मिश्र ने साहित्य को अपने पूरी सोच में महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है। देश के जागने और उसके स्वप्न को समझने में वे लगातार साहित्य की भूमिका को लेकर सचेत हैं। एक स्थान पर जयशंकर प्रसाद की एक कविता पेशोला की प्रतिध्वनि में वे महाराणा प्रताप के साथ गांधी को भी देख पाते हैं।
श्री मिश्र इस बात को भी दोहराते हैं की स्वाधीनता मिलने के बाद गांधी भी अकेले पड़ गए थे। संसद में और बाहर निपट अकेले पड़ते हुए कुछ देशभक्त नेता भी इन पंक्तियों में झांकते हैं। इन पंक्तियों में अनेक ऐसे क्रांतिकारी झांकते हैं जिन्हें स्वतंत्रता सेनानी का तमगा नहीं लिया, जिन्होंने स्वतंत्रता के ठेकेदारों से कभी समझौता नहीं किया। ऐसे अकेले पड़े लोगों में विशेष रूप से अज्ञेय और लोहिया का जिक्र करते हैं और यह भी कहते हैं कि यही अकेले पड़े लोग हिंदुस्तान की जनता को जोड़ने वाले लोग हैं।
विद्यानिवास मिश्र जी के चिंतक रूप को समझने के लिए उनके लेखकों को बहुत ध्यान से पढ़ना होगा और यह समझना होगा कि एक भारतीय यथार्थ के बहुत स्तरीय समझ के अध्ययन के लिए साहित्य के स्रोतों की बड़ी भूमिका हो सकती है। उन्होंने सपनों के बनने और उसके बिखरने की जो अपनी कथा पुस्तक में कही है वह एक दस्तावेज है। पूर्ण सहमति की आवश्यकता नहीं लेकिन एक आलोचनात्मक रिश्ता इस पुस्तक से बनाना चाहिए। पंडित मिश्र के लेखन में एक विशिष्ट बुद्धिजीवी के साथ एक साहित्य अनुरागी और संस्कृति प्रेमी विद्वान का स्वर मिला हुआ है।