जानकी पुल के सलाहकार संपादक प्रचण्ड प्रवीर ने साहित्यिक साक्षात्कार को लेकर अपने विचार रखे हैं और कुछ सुझाव भी। आप लोग भी पढ़िए और उनके सुझावों पर अपनी प्रक्रिया दें- जानकी पुल
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पिछले दो सालोँ मेँ हिन्दी साहित्य मेँ एक महत्त्वपूर्ण परिघटना हुयी है, वह है प्रतिष्ठित साहित्यकारोँ का विडियो साक्षात्कार। इस उपक्रम मेँ प्रमुख है – रेख्ता फाउण्डेशन के द्वारा ‘सङ्गत’ शीर्षक से ली जा रही साक्षात्कार शृङ्खला। हालाँकि साक्षात्कार और बातचीत की साहित्य मेँ लम्बी परम्परा रही है, जैसा कि हम हिन्दुस्तान दैनिक के साप्ताहिक स्तम्भ मेँ पुराने कवियोँ और लेखकोँ की बातचीत मेँ देखते हैँ। जहाँ पहले दृश्य और श्रव्य माध्यम महँगे होते थे और सहेजने मेँ महती कठिनाई और धन लगता था, तकनीक की सूचना क्रान्ति के बाद यह सब सुलभ हो गए। अब न विडियो कैसेट्स या ऑडियो कैसेट्स की जरूरत है न ही उनको चलाने के लिए महँगे उपकरणोँ की। इससे लाभ यह हुआ कि हम बहुत से विचारकोँ के विचारोँ से परिचित हो जाते हैँ और उनसे कुछ सीखते हैँ। हमेँ ध्यान देना चाहिए कि इस सुलभता का बड़ा असर पढ़ने लिखने की परम्परा पर हुआ है कि जबसे श्रव्य और दृश्य के तकनीकी माध्यम सुलभ हुए हैँ, नाटक, कठपुतली और बाइस्कोप जैसे पुराने दृश्य माध्यम की तरह ही लिखे हुए की महत्ता कम हो गयी है, उदाहरण के लिए उपन्यास।
सङ्गत की परियोजना सुविचारित है किन्तु इसे मैँ कोरोना काल मेँ ‘फेसबुक लाइव’ की बाढ़ से प्रभावित मानता हूँ और एक तरह से उसी क्रम का विस्तार समझता हूँ। जहाँ फेसबुक लाइव मेँ कोई व्यक्ति कुछ कह रहा होता है और बहुत से लोग सुन रहे होते हैँ, सङ्गत मेँ ख्यातिलब्ध साहित्यकारोँ के लम्बे साहित्यिक जीवन और कविकर्म पर सुविचारित प्रश्न पूछे जाते हैँ। ऐसा जान पड़ता है कि सङ्गत की साक्षात्कार शृङ्खला मेँ साहित्यकारोँ की प्रतिष्ठा लक्षित करने की शर्तें न्यूनतम ५० साल जैविक आयु और रचनाधर्मिता की पच्चीस साल की लम्बी यात्रा या अपार लोकप्रियता है। सङ्गत की शृङ्खला का उद्देश्य प्रतिष्ठित साहित्यकारोँ के कविकर्म पर विहंगम दृष्टि डालना है, जो कि प्रशंसनीय है। एक निश्चित अवधि के बाद साहित्यकार न केवल अपनी रचनाधर्मिता मेँ परिपक्व होता है बल्कि वह चाहे-अनचाहे उपदेष्टा की भूमिका मेँ भी आ जाता है। कई बार यह निराशाजनक भी होता है, किन्तु साक्षात्कार दर्शकोँ को प्रसन्न करने का या आनन्द देने का उपक्रम नहीँ है। इस शृङ्खला मेँ प्रश्न नियत नहीँ होते और हो भी नहीँ सकते। साक्षात्कार किसी व्यक्ति की वैचारिकी को प्रधानतया और उसके सामाजिक और व्यक्तिगत अनुभव को अमुख्य रूप से जानने का उपक्रम है।
बहरहाल एक अच्छे उपक्रम के बाद हमारी अपेक्षाएँ और बढ़ जाती हैँ। कोई यह भी कह सकता है कि उन साहित्यकारोँ के पूरी रचनावली को पढ़ कर बेहतर प्रश्न पूछे जाने चाहिए या जा सकते थे, जिससे कुछ और बातेँ प्रकाश मेँ आती। मैँ समझता हूँ दृश्य व श्रव्य साक्षात्कार मेँ कुछ सीमाएँ हैँ, अत: सारी अपेक्षाओँ पूरी नहीँ की जा सकती है।
मेरा विचार है कि रचनाकारोँ से बहुत से प्रश्न बड़ी गम्भीरता से और लिखित रूप मेँ करने चाहिए, जिससे उनका श्रेष्ठ और सुविचारित चिन्तन परिष्कृत रूप मेँ पाठकोँ तक पहुँचे।
इस प्रस्ताव मेँ बहुत सी समस्याएँ हैँ। पहली यह है कि अधिकांश कवि और लेखक लिख कर संवाद करने मेँ इच्छुक नहीँ दिखते। बहुधा साहित्यकार इसे अपमान की तरह देखते हेँ। वे चाहेँगे कि उनके काम पर पञ्चवर्षीय योजना मेँ शोध हो और उन्हेँ परेशान न किया जाए। अप्रिय, कटु, जटिल या कठोर प्रश्न जो कि सतत् साक्षात्कार मेँ नहीँ पूछे जा सकते हैँ, यदि वह लिखित प्रश्नोत्तरी मेँ पूछे जाएँ तो बहुत से लोग उत्तर देने की अपेक्षा अपने-अपने शिखरोँ में निर्वासित जीवन जीना चाहेँगे। दार्शनिकोँ की तरह का खुलापन साहित्यकारोँ मेँ फिलहाल नदारद जान पड़ता है।
यह भी विचारणीय है कि कोई साहित्यकार साक्षात्कार दे ही क्योँ? उन्हेँ इसकी क्या आवश्यकता आ पड़ी है?
मैँ समझता हूँ कि बहुत से साक्षात्कार का लब्बो-लुआब यह निकलता है कि मैँ तो बड़ा लेखक/ लेखिका/ कवि/ कवयित्री हूँ और साहित्य मेँ मेरा महत्त्वपूर्ण ही नहीँ अपूर्व योगदान रहा है। इस तरह के कहे-अनकहे कथन को मैँ वैचारिक धृष्टता और पराजित व्यक्ति का संलाप मानता हूँ। आत्मप्रशंसा जैसे अशालीन आचरण की छूट कवियोँ या साहित्यकारोँ को भी नहीँ है। ऐसा विचारने वाले काल से पराजित हैँ कि उन्हेँ या उनके रचनाकर्म को समाज मेँ दीर्घकाल तक प्रतिष्ठा नहीँ मिली, तभी तो उन्हेँ आत्मप्रशंसा करनी पड़ रही है। वे भारत मेँ ही आमजन तक ‘प्रेमचंद’, ‘प्रसाद’, ‘निराला’ के लोकग्राह्य स्तर तक नहीँ पहुँच सके या फिर एक काल खण्ड के बाद उनकी रचनाओँ को कोई प्रतिष्ठा नहीँ मिली और वे अप्रासङ्गिक हो गए। किन्तु ऐसी व्यक्तिगत कमजोरियाँ किसी के रचनाकर्म को छोटा नहीँ कर देती। किसी साहित्यकार का दूषित/ अशुद्ध/ अप्रिय/ अशालीन आचरण भी उसकी महत्ता नहीँ निर्धारित करता। उदाहरण के लिए मीर तक़ी मीर अपनी बदमिजाज़ी के लिए बदनाम रहे, लेकिन हम आज भी मीर को बड़े चाव से पढ़ते हैँ। रचनाकार की श्रेणी काल तय करता है। निश्चित रूप से साहित्य समाज मेँ प्रतिष्ठित करने का कार्य किसी काल खण्ड के आलोचक/ विचारक करते हैँ, इस अर्थ मेँ लेखक की निर्मिति साहित्य समाज के हाथ मेँ होती है, लोक समाज के हाथोँ मेँ नहीँ। इसलिए ‘गुलशन नन्दा’ या ‘वेद प्रकाश शर्मा’ हिन्दी साहित्य समाज मेँ प्रतिष्ठित नहीँ होते। वे होने चाहिए या नहीँ, यह दूसरा प्रश्न है जिस पर चर्चा करना अभी अभीष्ट नहीँ है। अन्तत: कालिक/ आनुपूर्वी विस्तार मेँ बड़े से बड़े साहित्यकार की रचनाओँ का अवैयक्तिक हो कर, निर्ममता से और निष्ठुरता से मूल्याङ्कन होता है। हम साक्षात्कार मेँ उपरोक्त प्रकार के स्वनामधन्य संलाप की विवक्षा है कि वे अपने को उत्तम श्रेणी मेँ रखना चाहते हैँ, जिसका निर्लज्जता से दावा किया जा सकता है किन्तु दुर्भाग्यवश इस निर्णय का अधिकार काल ने या सभ्यता ने उन्हेँ दिया नहीँ है।
आत्मप्रशंसा वाली बात पर फिर से स्पष्ट करना चाहूँगा कि प्रशंसा सत्य और अनृत का विषय नहीँ है, बल्कि आचरण का विषय है जो सत्य से सञ्चालित होती है। जैसे किसी दस कवियोँ की सभा मेँ यह पूछा जाए कि आपमेँ जो सर्वोत्कृष्ट है वे हाथ ऊपर करेँ। यदि कोई सच मेँ महाकवि है और वे बाकी नौ कवियोँ के विषय मेँ अपने विचारोँ से निश्चित रूप से जानता भी है कि शेष व्यक्तियोँ का कविकर्म हीन है या दोषोँ से युक्त है, फिर भी उसका दावा करना की वह सर्वश्रेष्ठ है अशालीन आचरण मेँ आएगा। अब पूछा जा सकता है कि महाकवि का सर्वश्रेष्ठ होने का दावा करना सत्य होगा और हाथ नहीँ ऊपर कर के वह झूठा आचरण करेगा, अत: उसे सत्य का आचरण करना चाहिए।
यहाँ पर यह विचारणीय है कि सत्य को उद्घाटित करने की ऐसी क्या जल्दी है। सत्य तो अपने आप अनावरित हो सकता है। इसलिए महाकवि हाथ ऊपर न कर के भी सत्य को उद्घाटित कर सकता है। वह कैसे? अनुकूल समय की प्रतीक्षा कर के! इसका उत्तम उदाहरण हमेँ बृहदारण्यक उपनिषद् के तृतीय अध्याय के पहले ब्राह्मण मेँ मिलता है। वह प्रसङ्ग ऐसा है – राजा जनक वैदेह ने बहुत दक्षिणा वाला यज्ञ किया। वहाँ कुरुओँ और पाञ्चालोँ के ब्राह्मण इक्कठे हुए। राजा को यह जानने की इच्छा हुयी कि इन ब्राह्मणोँ मेँ अनुवचन (प्रवचन) करने मेँ सबसे बढ़ कर कौन है? इसलिए उसने एक सहस्त्र गाएँ गोशाला मेँ रोक लीँ। उनमेँ से प्रत्येक के सीँगोँ मेँ दस-दस पाद (सोने का सिक्का) सुवर्ण बँधे हुए थे। जनक ने उनसे कहा – “पूज्य ब्राह्मणगण, आप सभी मेँ जो श्रेष्ठ ब्रह्म हो वह गौओँ को ले जाय। किन्तु उन ब्राह्मणोँ मेँ से किसी का साहस नहीँ हुआ। तब याज्ञवल्क्य ने अपने एक ब्रह्मचारी से कहा, “हे सोम्य सामश्रवा! तुम इन्हेँ ले जाओ।“ तब वह उन्हेँ घेर कर ले चला। यह देख कर वह ब्राह्मण क्रुद्ध हुए कि यह हम सबमेँ से यह अपने आप को वरिष्ठ कैसे कहता है। अब जो उनमेँ विदेहराज जनक का होता अश्वल था, उसने याज्ञवल्क्य से पूछा, “याज्ञवल्क्य! क्या हम सभीँ मेँ तुम ही श्रेष्ठ हो?” उसने कहा, “हम सबसे बढ़ कर ब्रह्म को नमस्कार करते हैँ। हम तो केवल गौँओँ की इच्छा रखते हैँ।“ इसी से होता अश्वल ने उनसे प्रश्न करने का निश्चय किया। इसके उपरान्त याज्ञवल्क्य सभी के प्रश्नोँ का उत्तर देते हैँ जो कि उपनिषद् का प्रतिपाद्य है। यहाँ अनन्तर प्रश्न है कि याज्ञवल्क्य की श्रेष्ठता उसके ब्रह्मज्ञान के सम्बन्ध मेँ है और कवि कर्म का क्षेत्र अलग है। अत: इसकी तुलना नहीँ की जा सकती। कविकर्म का क्षेत्र सहृदयता, रमणीयता आदि को ले कर है, ब्रह्मज्ञान को लेकर नहीँ। लेख के विस्तार के भय से मैँ इसमेँ अभी नहीँ जाऊँगा। संक्षेप मेँ कविकर्म की उत्कृष्टता भी ज्ञान का विषय है और यह अधिकांश संदर्भोँ मेँ निर्धारित भी की जा सकती है। यह उत्कृष्टता अपनी परिभाषा से ही निरेपक्ष नहीँ हो सकती है।
सामान्यतया साक्षात्कार लेने वाला इस ताक मेँ भी रहता है कि कहीँ से कोई हल्की बात मिले, कोई विवाद उत्पन्न हो जिससे उनकी पत्रकारिता की लोकप्रियता बढ़ जाए। इस अर्थ मेँ राजनेता, खिलाड़ी, सिने तारिकाएँ आदि साक्षात्कार दे कर चाहे-अनचाहे विवाद मेँ फँसते हैँ ताकि किसी तरह वे प्रासङ्गिक बने रहेँ। साहित्यकारोँ के पास यह दायित्व नहीँ है कि वे प्रासङ्गिक बने रहेँ बल्कि यह दायित्व है कि क्या प्रासङ्गिक बनाया जा सके इस पर विचार करेँ और अपना योगदान देँ।
समस्या है कि हम जिस समय और समाज मेँ हैँ, वहाँ मीडिया की पैठ बहुत जबरदस्त हो चुकी है जो प्रसिद्धि या आप्त प्रमाण तय करती है। उसी मीडिया ने हिन्दी साहित्य को ज़रा भी जगह नहीँ दी है, या दी है तो वह प्रहसन मात्र ही है। साहित्यकारोँ की क्षमता कुन्द कर दी गयी है। सोशल मीडिया इस प्रहसन/ मरीचिका का श्रेष्ठ उदाहरण है। इसका दूसरा उदाहरण भारत के लगभग सभी प्रायोजित साहित्य समारोहोँ (लिटरेचर फेस्टिवल) मेँ देखा जा सकता है कि जहाँ राजनेता, सिने-तारक, गायक, वादक, विदूषक आदि बुलाए जाते हैँ और साहित्यकार ही अल्पसङ्ख्यक हो जाते हैँ। विशुद्ध साहित्यिक समारोह की कल्पना की ही नहीँ जाती है कि कौन उन्हेँ सुनने-देखने आएगा? आश्चर्य की बात है कि ऐसे समारोह अपने-आपको सांस्कृतिक-राजनैतिक समारोह कहने की अपेक्षा ‘साहित्य समारोह’ कहलाना पसन्द करते हेँ। और तो और हिन्दी के वैचारिक रूप से ‘दरिद्र’ और ‘नैतिक रूप से समावेशी’ साहित्यकार उसमेँ सम्मिलित हो कर अपनी मूक सम्मति देते हैँ। वस्तुत: सभी को मीडिया मेँ कुछ जगह चाहिए, भले ही वह गुटखे की पूँजी से क्योँ न आ रही हो। इसलिए उनका पूँजीवाद का सारा प्रतिरोध पाँच सितारा होटलोँ की सुविधा मेँ तिरोहित हो जाता है।
सवाल यह है कि ऐसे समारोह साहित्य का ही चोला क्योँ धारण करते हैँ। वह इसलिए कि सभ्यता ने और समाज ने अभी तक साहित्य को वह उच्च स्थान दे रखा है, जिसकी गरिमा बनाए रखने का काम साहित्यकारोँ का है।
कार्ल मार्क्स का कथन था कि दार्शनिकोँ ने दुनिया को कई तरह से समझा है लेकिन मुद्दा उसे बदलने का है। इस कथन का कुपाठ ऐसा हुआ है कि हम साहित्य मेँ आयातित और प्रायोजित विमर्श देखते हैँ। हालाँकि विमर्श जरूरी है, किन्तु विमर्श का प्रतिपाद्य वही क्योँ हो जो दुनिया मेँ फैशन मेँ है? सभी जानते हैँ कि हमारे यहाँ गिरोह मेँ साहित्यिक सम्मान दिए जाते हैँ। साहित्य के तथाकथित कर्णधार इस खुशफहमी मेँ रहते हैँ कि हम सूरदास के बाद पैदा हुए तुलसीदास के पितामह सरीखे श्रेष्ठ कवि हैँ / लेखक हैँ जिन्होँने निराला, प्रसाद सबको पीछे छोड़ दिया है। समकालीन जीवन की सारी विचित्रताएँ और जटिलताएँ समझ ली गयी हैँ और केवल विमर्श कर के राजनैतिक आका बदल लेने का काम भर रह गया है। इन प्रायोजित विमर्शोँ की विशेषता इतनी है कि वह प्रतिपक्ष को सुई नोक भर जगह देने को तैयार नहीँ हैँ। वे शालीन संवाद करने के पक्ष मेँ नहीँ हैँ। यही स्थिति दुनिया भर के विमर्शोँ की है कि वह वाचिक हिंसा से भरी है। गौर से देखा जाए तो किसी भी प्रचलित विमर्श मेँ मनुष्य केन्द्र मेँ न हो कर, उसकी समूहगत अस्मिता केन्द्र मेँ है। यह राजनैतिक दृष्टि है, जिसने आम आदमी के दुख-सुख से कोई मतलब नहीँ है, बल्कि किसी समूह का पक्ष लेकर दूसरे समूह के प्रति द्वेष भर देना जितना है। बकौल मुक्तिबोध ‘समाज-सुधार’ का विचार राजनीति के एजेण्डा से बाहर है। मैँ यह जोड़ना चाहूँगा कि अब हमारी दुर्गति ऐसी हुई है कि साहित्य के एजेण्डा से चरित्र निर्माण बाहर है।
अगर कोई बड़ी मेहनत कर के हिन्दी साहित्य या पत्रिकाओँ मेँ चलने वाले विमर्शोँ पर ध्यान दे तो पाएगा कि कुछ दशक पहले तक समाजवाद से प्रभावित चिन्तन के लिए पूँजीवाद और बाजारवाद सबसे बड़ा विमर्श बिन्दु हुआ करता था। अब यह विमर्श पिट चुका है। सबने बाजारवाद से हार मान ली है। ठीक उसी तरह कि जैसे स्वतंत्र भारत ने बड़ी जल्दी चरखे और खादी का परित्याग कर दिया। हम यह कह नहीँ सकते कि प्रायोजित विमर्श कितने दिन चलेँगे। ईमानदारी की बात तो यह है कि हमेँ हमारे विमर्शों को फैशन कहना चाहिए। यहाँ फैशन शब्द से बुरा नहीँ मानना चाहिए। क्या आज कोई हिन्दी का साहित्यकार तक धोती कुर्ता पहन के घूमता है? क्या पुरुष पहले की तरह आँखोँ मेँ सूरमा या कानोँ मेँ बालियाँ पहन कर उतनी ही स्वच्छन्दता से जीते हैँ जैसे तीन सौ साल पहले रहा करते थे? हमारे विमर्श का स्वरूप सामयिक तो ही है और अन्य विचारोँ से प्रभावित है। फैशन और क्या होता है? यही न कि आपने किस डिजाइन के बाल रखे हैँ और किस तरह के डिजाइनदार कपड़े पहनते हैँ। आपका सौन्दर्यबोध समकालीन प्रायोजन से कितना प्रभावित है या आपकी कितनी निजी विवशता है! देखो कि ‘ट्रेण्ड’ मेँ क्या है? जो ट्रेण्ड मेँ है, वही फैशन है।
पुरस्कार लेने वाले तो बहुत से लोग हैँ। लेकिन पुरस्कार देने वाले की विवशता किसने देखी-समझी है? एक प्रतिष्ठित पत्रिका के सम्पादक ने मुझसे व्यक्तिगत रूप से कहा कि पत्रिका चलाना उनका शौक है, लेकिन विवशता है कि वह मध्यम या अधम कोटि की रचनाएँ प्रकाशित करते हैँ। वे ऐसा इसलिए करते हैँ कि उनके पास उत्तम कोटि की रचनाएँ नहीँ आती। यही हाल किसी भी पुरस्कार देने वाले का होता है। बहुत से फाउण्डेशन पैसा ले कर बैठे हैँ कि किसी योग्य व्यक्ति को पुरस्कार दे कर अपनी विश्वसनीयता अर्जित करेँ। पुरस्कार लेना-देना एकतरफा मामला नहीँ होता, बल्कि दो तरफा होता है। पर पुरस्कार देने वाले भी मन मसोस कर जैसे-तैसे काम चलाते हैँ, क्योँकि वे स्वयँ पुरस्कृत साहित्यकारोँ को योग्य नहीँ मानते।
अघोषित और कटु सत्य तो यह है कि प्रायोजित विमर्श और जोड़-तोड़ से प्रतिष्ठित रचनाएँ जब अनूदित हो कर वैश्विक फलक पर आती हैँ तो वे उपहास का पात्र बन जाती हैँ। और हाँ, यदि वैश्विक विमर्श भी प्रायोजित हो तो क्या कहने! दरअसल जो सच्चाई सबको मालूम है पर कोई कहता नहीँ है कि हम हिन्दी साहित्य के सबसे दयनीय दौर मेँ हैँ। दयनीयता इस अर्थ मेँ है कि उत्तम श्रेणी का शायद ही कोई रचनाकार है, और यदि है भी तो उसे प्रकाश मेँ लाने वाला एक भी ढंग का आलोचक नहीँ है। दयनीय इस अर्थ मेँ है कि विशाल हिन्दी पट्टी मेँ कोई भी समकालीन रचना समादृत नहीँ है (उस पैमाने मेँ नहीँ है जितनी हिन्दी समाज की क्षमता है)। हिन्दी साहित्यकार भारत के अभिजात्य वर्ग मेँ दया का पात्र है। हमने अपनी कारगुजारियोँ से खुद को फूहड़ता, अशिष्टता, कुण्ठा और पिछड़ेपन का प्रतीक मात्र बना दिया है। गिनती के कुछ व्यक्ति ही सम्मानीय शेष हैँ। बहुत से साहित्यकार अच्छे वक्ता नहीँ है। बहुत से आत्ममुग्धता के मारे हुए हैँ। समकालीन हिन्दी साहित्य की विश्वसनीयता संदिग्ध है या विवादित है। अपनी ढ़पली अपना राग बजाने के चक्कर मेँ हम कहीँ के नहीँ रहे। इसी कड़ी मेँ सङ्गत ने बहुतोँ की कलई खोल दी है। समझने वाले समझ गए हैँ, ना समझे, ना समझे वो अनाड़ी हैँ!
आज से करीब ग्यारह साल पहले जानकीपुल से मुझसे बातचीत का प्रस्ताव आया। उस समय मेरी पहली पुस्तक ‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ को प्रकाशित हुए तीन साल हो चुके थे। मेरी आशा थी कि पुस्तक पढ़ कर कोई विचारवान व्यक्ति इस प्रतिक्रिया देगा। हालाँकि यह दुराशा थी। मेरा मंतव्य आत्मप्रदर्शन न हो कर अपने अनुभव से एक गम्भीर बात की तरफ ध्यान आकर्षित करना है। मैँने जानकीपुल के प्रस्ताव पर अचरज प्रकट किया कि न तो मेरी पुस्तक बहुत सराही या स्वीकारी गयी है, न ही मैँने कोई इतना बड़ा लेखन किया है कि कोई मुझसे बातचीत करे। इस पर उत्तर यह आया कि यह आवश्यक नहीँ है कि लोग आपको रचना से जाने, क्योँकि सभी के पास सब कुछ पढ़ने का समय नहीँ होता। नवीन के प्रति सहज संदेह भी होता है। आवश्यक यह है कि रचना, जो कि बहुधा व्यङ्ग्य (उसमेँ भी यदि असंलक्ष्यक्रम व्यङ्ग्य ध्वनि हो और भी) अर्थ का बोध कराती है, का क्षेत्र अलग है। वहीँ रचनाकार का अभिधेय बातचीत मेँ सरल शब्दोँ मेँ या कहेँ कि अभिधा मेँ प्रकट करना, उसकी दृष्टि का परिचायक होता है। इस अर्थ मेँ रचनाकार और उसका ज्ञान उसके निजी दायरे मेँ संकुचित न हो कर समाज के सामने मुखर होँ, यह अभीष्ट है। कहीँ ना कहीँ नवीनता का उन्मेष किसी के लिए हितकारी हो। इसके अलावा यह भी कि लेखक समाज की निर्मिति है। इसलिए भी वह समाज के सामने उत्पाद की तरह प्रकट होवे।
इस कथन का भौण्डा रूप यह है कि साहित्यकारोँ की जमात आपकी रैगिंग ले कर अपने गुट मेँ शामिल करना चाहती है कि नया व्यक्ति वामपंथी है या गैर-वामपंथी। यह हमारे दिखाए एजेण्डे पर चलेगा या नहीँ। अगर भौण्डे रूप पर न भी जाएँ, तो जानकीपुल का दूसरा तर्क यह था कि हर व्यक्ति के विचारोँ मेँ परिष्कार आता है। जो विचार यात्रा के प्रारम्भ मेँ हो, वह अन्त तक बदलेँगे या नहीँ अथवा परिपक्वता का स्तर क्या है, यह कहीँ न कहीँ दर्ज होना चाहिए। जानकीपुल पर प्रकाशित बातचीत मेरी पहली बातचीत थी। इससे बहुत कुछ नहीँ हुआ, सिवा इसके कि कुछ लोग से परिचय हुआ जिन्होँने बातचीत पढ़ कर अपनी प्रतिक्रिया दी।
मेरा जानकीपुल जैसी वेब पत्रिकाओँ को सुझाव है कि हम उन रचनाकारोँ पर ध्यान देँ, जिनकी जैविक आयु ४५ वर्ष से कम हो, और रचनाधर्मिता की आयु पन्द्रह वर्ष से कम हो। लेकिन इसके लिए हर रचनाकार की सम्पूर्ण रचनावली पढ़ना एक दुष्कर कार्य है। ऐसे मेँ उसके विचारोँ को अभिधा मेँ कैसे प्रकाश मेँ लाया जाय? कम समय मेँ बृहद समाज उसकी वैचारिक अभिधा को कैसे जाने?
हिन्दी मेँ बहुधा मठाधीशी की आलोचना होती है। लेकिन ऐसा अक्सर देखने मेँ आता है कि मठधीशी का विरोध करते-करते लोग स्वयँ मठाधीश बन गए। पुरस्कारोँ मेँ या साक्षात्कारोँ मेँ रचना पीछे छूट जाती है और रचनाकार बड़ा हो जाता है। यह वरिष्ठोँ के लिए ठीक हो भी, नवोदितोँ के लिए ठीक नहीँ है। हमेँ रचनाओँ को प्रकाश मेँ लाना चाहिए। शैलेश मटियानी ने कभी कहा था कि साहित्य मेँ रचनाधर्मिता के दस साल के उपरान्त ही साहित्य समाज को किसी रचनाकार पर ध्यान देना चाहिए। मुझे उनकी बात ठीक जान पड़ती है।
किन्तु साक्षात्कार का उद्देश्य ही अन्तरङ्ग के महत्त्वपूर्ण सूत्र को पकड़ना होता है जो कि असावधानी से या किसी अन्य तरीके से सामने आ जाए जो कि अब तक छुपा रह गया हो। हम नवोदित की असावधानियोँ का क्या करेँगे जो कि प्रतिष्ठित ही नहीँ हुए हैँ! इसलिए हमेँ उनसे लिखित प्रश्नोत्तरी मेँ संवाद करना चाहिए।
यहाँ दो समस्या आती है। पहली यह कि लिखित संवाद कौन करने जाए? सबके कविकर्म को कौन पढ़े? दूसरी यह कि क्या नवोदित कटु, कठिन या अप्रिय प्रश्नोँ के लिए तैयार हैँ? डेविड हिल्बर्ट ने सन् १९०० मेँ गणित मेँ २३ प्रश्न रखे, जिसने बीसवीँ सदी के गणित की दशा-दिशा बदल दी। हालाँकि गणित और विज्ञान से साहित्य का साम्य ठीक नहीँ, क्योँकि वे क्रमबद्ध विचार शृङ्खला है और कला-साहित्य मेँ विचारोँ के उन्मेष का कोई क्रम नहीँ होता। वे प्रतिभा से विस्फोट स्वरूप प्रकट होती हैँ। इसलिए कला और साहित्य मेँ शिल्पगत और विचारगत दृष्टियाँ ढूँढी जाती हैँ, जोकि किसी न किसी परम्परा से जुड़ती भी हैँ। परम्परा अपने आप मेँ नवीनता की अपेक्षा लिए होती है। परम्परा इस अर्थ मेँ परिभाषित होती है कि पूर्वापर मेँ अविछिन्नता हो, कुछ समानता हो। जब यह कहा जाता है कि जायसी का ‘पद्मावत’ नहीँ होता तो तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ भी नहीँ होता, इसका अर्थ अभिधा मेँ लेना मूर्खता है। क्योँकि इतिहास मेँ ‘यूँ होता तो क्या होता’ का निश्चित विचार पागलपन है। उक्त कथन का इतना ही अर्थ है कि जायसी के ‘पद्मावत’ का तुलसी के ‘रामचरितमानस’ पर गहरा प्रभाव पड़ा है। दोनोँ काव्योँ मेँ एक शिल्प की निरन्तरता या कहेँ तो समानता देखी जा सकती है। हर पूर्वापर सम्बन्ध कारण-कार्य सम्बन्ध नहीँ होता।
मेरा सुझाव है कि एक प्रश्नोत्तरी बनायी जाए, जिससे कोई भी साहित्यकार जिनकी जैविक आयु ४५ वर्ष से कम हो, और रचनाधर्मिता की आयु पन्द्रह वर्ष से कम हो, वे निम्न नियत प्रश्नोँ का उत्तर देँ।
- पूर्वज स्मरण – हिन्दी साहित्य की उन पाँच रचनाओँ (कृतियोँ) का उल्लेख करेँ जो आपके लिए महत्त्वपूर्ण रहे होँ।
- यह रचनाएँ कविता, कहानी, उपन्यास, लेख, नाटक कुछ भी होँ लेकिन वह एकल रचना ही होँ। उदाहरण के लिए कहानी सङ्ग्रह या कविता सङ्ग्रह का नाम देने के बजाय किसी एक कविता या कहानी का नाम देना।
- आत्म निवेदन – अपनी दो रचनाओँ का उल्लेख करेँ जो आप पाठकोँ को बताना चाहते हैँ।
- यह आवश्यक नहीँ कि आप अपने सर्वश्रेष्ठ का निर्णय करेँ। आशय यह है कि यदि पाठक आपसे संक्षिप्त रूप मेँ परिचित होना चाहेँ, इसमेँ आप उनकी सहायता कीजिए।
- भौगौलिक सांस्कृतिक विशेषताएँ – आप जिन शहरोँ, ग्रामोँ, महानगरोँ मेँ रहे होँ, आपकी दृष्टि से वहाँ की पाँच प्रमुख विशेषताएँ क्या हैँ?
- यह समाज विज्ञान का प्रश्न नहीँ है। सरस संस्मरणात्मक विवरण से हम सभी लाभान्वित हो सकते हैँ।
- आत्म परिवर्तन – जीवन मेँ घटी कोई ऐसी घटना बताइए जिसने आपके विचारोँ पर गहरा प्रभाव डाला।
- यहाँ पर सरस व्यक्तिगत अनुभव अपेक्षित है, जिससे आत्मपरिष्कार हुआ हो।
- समकालीन चिन्ताएँ – समकाल मेँ आपकी दृष्टि मेँ पाँच प्रमुख समस्याएँ कौन सी हैँ और वही समस्याएँ आपकी दृष्टि मेँ प्रमुख क्योँ हैँ?
- समस्याएँ आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक आदि कुछ भी हो सकती है। यह सजगता से जुड़ा प्रश्न है।
मैँ फिर उस प्रश्न पर लौटता हूँ कि आखिर साहित्यकारोँ को क्या आवश्यकता पड़ी है कि वे इस तरह की प्रश्नोत्तरी मेँ पड़ेँ? कोई वेब पत्रिका दोनो सीँगोँ पर सुवर्ण युक्त सहस्त्र गाएँ तो दे नहीँ रहा, फिर प्रश्नोत्तर क्योँ?
इसका उत्तर जानकीपुल के तर्क मेँ ही निहित है कि कोई साहित्यकार शून्य मेँ पैदा नहीँ हुआ। यह उसका दायित्व है वह समाज के सामने अपने विचारोँ को प्रकट करे, ताकि उससे किसी का लाभ हो। यह पुरस्कार का नहीँ, अपितु कर्त्तव्य का प्रश्न है। हम जिस दयनीय दौर से गुजर रहे हैँ, वहाँ हमेँ युवा साहसी, प्रबुद्ध, सुशील, ज्ञानवान, ऊर्जावान व्यक्तियोँ की आवश्यकता है भले ही वे सुप्रतिष्ठित न होँ। भले ही वे अल्पज्ञात होँ अथवा सङ्घर्षशील होँ, समय की माँग है कि उन्हेँ इन प्रश्नोँ का रुचिकार उत्तर देकर प्रकाश मेँ आना चाहिए।
मैँ इस आशा से लेख को समाप्त करता हूँ कि कुछ उत्साहीजन अपने विवेक से इस यज्ञ मेँ समिधा डालेँगे, ताकि नवोन्मेष से मानवजाति के कल्याण का मार्ग प्रशस्त हो।
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प्रचंड प्रवीर अपने आलेख में साहित्य, साहित्यकार और साहित्यकारों के साक्षात्कार विषयक वर्तमान परिदृश्य पर विहंगम दृष्टि डालते हुए खासकर नवोदित साहित्यकारों का उनके समाज से परिचय कराने के लिए जानकी पुल जैसी पत्रिकाओं के समक्ष एक सार्थक विधि भी प्रस्तावित करते हैं।