आज प्रथम जानकी पुल शशिभूषण द्विवेदी स्मृति सम्मान से सम्मानित लेखिका दिव्या विजय का जन्मदिन है। जानकी पुल की ओर से उनको शुभकामनाओं के साथ पढ़िए उनकी कुछ कविताएँ-
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कुछ वर्ष पहले कोंकणा सेन को कादम्बरी के रूप में देखा था और परमब्रत चटर्जी को टैगोर के रूप में। फ़िल्म थी सुमन घोष द्वारा निर्देशित कादम्बरी। रबीन्द्रनाथ टैगोर और उनकी भाभी के प्रेम संबंधों पर आधारित। न विवाह की लकीर प्रेम को पनपने से रोक सकी न प्रेम की हदबंदी पुरुष को बाँध सकी। मूल्य ठहरा एक स्त्री का जीवन।
कला की एक विधा दूसरी विधा को जन्म देती है। इन कविताओं का स्रोत यही फ़िल्म है- दिव्या विजय
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रबि, मेरे अभिन्न सखा
क्षमा करना अपनी कादम्बरी को
कि मृत्यु का वरण किया,
मुझे ज्ञात है
मैं सदा रही तुम्हारी स्मृति में,
उतरती रही
तुम्हारे शब्दों और चित्रों में
मृत्यु के पश्चात भी,
किंतु एक क्षण भी
पश्चाताप नहीं हुआ
मुझे अपने निर्णय का,
तुम मुझे भूल जाओ
उस जीवन से
यह मृत्यु श्रेष्ठ है।
तुम्हें स्मरण है
विवाह के पश्चात्
उस नवेले घर के निबिड़ अकेलेपन में
तुम मेरे साथी हुए थे,
भर दुपहर
हम खेलते थे शतरंज,
अथवा उन रंग-बिरंगे गुट्टों से
जो तुम ले आए थे नदी से,
छिपा-छिपी खेलते हुए
मैं तुम्हें नहीं मिलती
तब तुम पुकारते मुझे ऐसे
जैसे आकाश पुकारता है धरती को।
खेलते-खेलते किस क्षण हम
प्रेम की देहरी पर जा खड़े हुए
मुझे विदित नहीं,
पर तुम्हें तो स्मरण होगा
जब-तब तुम खींच ले जाते
मुझे बाग़ीचे में,
कभी मधुर स्वर में सुनाते
मेरे लिए लिखी कविताएँ
और मैं अचरज से तकती तुम्हें,
कभी वासंती लता की छाँह में तुम कहते
कि तुम्हारे लिखने में
मेरी स्मृति बाधा-स्वरूप आन खड़ी होती है
और मैं लज्जा से सिमट जाती।
रात्रिक़ालीन नौका-विहार की स्मृति तो होगी तुम्हें
जब चंद्रमा के शीतल स्पर्श से
अमृत भर जाता था
तुम्हारे स्वर में,
काँप जाती थी मैं
तुम्हारी दृष्टि की तीव्रता से,
उस कोमल दृष्टि में
होता था अधिकार का घेरा,
हाँ, मैं तुम्हारी ही थी
समूची
कब किसी और की हो सकी!
उन रात्रियों में भी नहीं
जब किसी और ने मेरा स्पर्श किया।
तुम्हें स्मरण है
संध्या-समय टहलने जाते हुए
कभी-कभी उतर आते
तुम दुष्टता पर,
और बिगाड़ दिया करते
मेरी केश-सज्जा
किंतु जानते हो
मेरे पुष्पित जूड़े से
चुराए गये फूल,
तुम्हारी पुस्तक के पृष्ठों के बीच दबे
देख लिए थे मैंने।
वह दिन तो तुम कदापि
नहीं भूल सकते
जब मीलों की यात्रा
तुमने वर्षा में भीगते की थी,
वचन जो देकर गए थे
जानती थी लौट आओगे,
तुमसे भी कहाँ सहन होता था बिछोह
असंख्य बहानों से लदे रहते तुम
मुझ तक पहुँचने के लिए,
मैं मध्य-रात्रि तक
खिड़की से लगी खड़ी थी
बुझी हुई प्रतीक्षा में,
तुम्हें देखते ही
तुम्हारी छाती से जा लगी थी,
उस क्षण मेरा होना
हुआ था सार्थक
और तुम्हारे आगे
समर्पण किया था मैंने।
किंतु यह क्या रबि
विवाह होते ही
तुमने तय कर लिया
नए पथ पर जाना है,
तुम्हें जो पत्र लिखे थे मैंने
जिन्हें पढ़ कर तुम सुख पाते थे
तुमने वे भी मुझे लौटा दिए,
पंद्रह वर्ष का हमारा संग
एक दिन में छूट गया पीछे,
एक-एक क्षण कुचल गया
तुम्हारे निर्णय तले,
तुमने क्यों विस्मृत कर दिया
तुम्हारे अतिरिक्त मेरे जीवन में
मेरा कुछ था ही नहीं।
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मर्मस्पर्शी कविता ।क्या महान कवि विवश थे सामाजिक बंधनों से या प्रेम -क्रीड़ा के सनातन छलिया?ऐसे संबंध सोचने पर मजबूर करते हैं ।