आम तौर पर शोध पत्र से मैं ‘जानकी पुल’ को बचाता आया हूँ. भारी-भरकम शोध निबंध से इसके टूटने का खतरा बना रहता है. मैंने खुद दिल्ली विश्वविद्यालय से शोध किया है. इसके बावजूद हिंदी विभागों में होने वाले शोध में मेरी कुछ ख़ास आस्था नहीं रही है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अच्छे शोध-निबंध नहीं लिखे जा रहे हैं. उदहारण के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय के इस युवा शोधार्थी सुनील मिश्र का शोध निबंध. इसे पढ़कर मैं इतना प्रभावित हुआ कि जानकी पुल पर साझा करने से खुद को रोक नहीं पाया- प्रभात रंजन
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‘बाघ‘ केदारनाथ सिंह की एक लम्बी कविता–श्रृंखला है, जिसमें छोटे–बड़े इक्कीस खंड हैं। राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित ‘प्रतिनिधि कविताएँ‘ के अन्तर्गत ‘बाघ‘ श्रृंखला की कविताओं एवम् ज्ञानपीठ प्रकाशन द्वारा ‘बाघ‘ में पर्याप्त पाठांतर है।‘प्रतिनिधि कविताएँ‘ के अन्तर्गत बाघ–श्रृंखला में छोटे–बड़े सोलह खंड हैं। यहाँ उसका शीर्षक है– ढलती शताब्दी का पंचतन्त्र। ‘बाघ‘ कविता पहले–पहल ‘आलोचना‘ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। 15.10.1984 को परमानंद श्रीवास्तव को एक पत्र में केदारनाथ सिंह लिखते हैं -”’बाघ‘ कविता ‘आलोचना‘ के इस अंक में जा रही है। कुछ अंश और जो तुम्हें नहीं सुना सका था, जोड़ दिए हैं। तुम्हारे सुनाए हुए में से एकाध अंश निकाल भी दिए हैं। अब कविता लगभग एक आवयविक संग्रथन पा गई है। मैं तो अभी इतनी जल्दी–छपाने के ही पक्ष में नहीं था। पर तुमने उस दिन नामवर जी के सामने रहस्य खोल दिया और फिर तो वे ऐसे पीछे पड़े की देनी ही पड़ी।”
‘बाघ‘ कविता में एकाध अंश‘ जोड़ने का यह क्रम यही समाप्त नहीं होता। ‘प्रतिनिधि कविताएँ‘ ;1985 के प्रकाशन के लगभग ग्यारह वर्ष बाद जब स्वतंत्र रूप से ज्ञानपीठ से ‘बाघ‘ का पुस्तकाकार प्रकाशन होता है तो उसमें कवि द्वारा ‘आमुख‘ सहित पाँच खंड और जोड़ दिये गये हैं। कारण स्वयं कवि के ही शब्दों में, ”वस्तुतः पहले टुकड़े के लिखे जाने के बाद ही यह पहली बार लगा कि इस क्रम को और आगे बढ़ाया जा सकता है। फिर तो एक खंड के किसी आंतरिक दबाव से दूसरा खंड जैसे अपने आप बनता गया। कथात्मक ढाँचे की इस स्वतः स्फूर्त प्रजननशीलता से यह मेरा प्रथम काव्यात्मक साक्षात्कार था।”
मैंने ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित ‘बाघ‘ कविता को ही अपने पाठ का आधार बनाया है। ‘बाघ‘ को लिखने की प्रेरणा कवि को हंगरी भाषा के रचनाकार यानोश पिलिंस्की की एक कविता पढ़ने के बाद मिली थी। यानोश पिलिंस्की की उस कविता में कवि को अभिव्यक्ति की एक नई संभावना दिखी थी। वह कविता ‘पशुलोक‘ से संबंधित थी और ‘पशु–लोक‘ से संबंधित होने के कारण ही कवि का ध्यान पंचतंत्र की ओर जाता है, क्योंकि उसमें ‘पशुलोक‘ का”एक बहुत पुराना और अधिक आत्मीय रूप पहले से मौजूद है।” स्पष्ट है कवि का पंचतंत्र की दुनिया में प्रवेश अभिव्यक्ति के नई संभावना के तलाश के लिए ही है।
हर बड़ा कवि अपने अभिव्यक्ति को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए नित नए–नए जतन करता है। वह कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर हो सकता है। यहाँ यह भी ध्यान देने लायक है कि कवि केदारनाथ सिंह पंचतंत्रीय ‘बाघ‘ का सीधे–सीधे अनुकरण नहीं करते और उनके अनुसार वह अनुकरण कर भी नहीं सकते क्योंकि पंचतंत्र का ढांचा, ”अपनी आपात सरलता में अनुकरणीय है।” कवि ने नई अर्थ–संभावना के लिए उस ढाँचे के ‘कार्य कारण (श्रृंखला‘ को ढीला कर दिया है यानी की ‘बाघ‘ की निर्मिति में प्रत्यक्षतः कोई तार्किक परिणति नहीं है इसीलिए पूरी कविता– श्रृंखला में बाघ जहाँ कहीं भी उपस्थित होता है वहाँ वह अपने बाघपन के एक नए अनुषंग के साथ दिखता है। पूरी कविता–श्रृंखला में ‘बाघ‘ कवि द्वारा अपने पूर्व–रूप से निरस्त कर दिया जाता है और प्रत्येक नए खंड में वह एक नया और भिन्न बाघ होता है। मसलन कविता के तेरहवें खंड में जिस बाघ का वर्णन है वह :
”वह नहीं जो मुझे एक दिन मिला था
किसी कवि की कविता में
बल्कि एक जिंदा और सुच्चा बाघ
वहाँ चुपचाप खड़ा था”
कवि केदारनाथ सिंह ‘बाघ‘ को किसी एक खास स्थान, प्रतीक या बिम्ब में स्थिरीकृत नहीं करते, वे उसे सदैव गतिशील बनाये रखते हैं और इसी कारण ‘बाघ‘ की अर्थ–सघनता बढ़ जाती है और वह ज्यादा गंभीर पाठ की मांग करती है। ‘बाघ‘ कविता सतह पर तो सरल दिखती है लेकिन इसके भीतर नये–नये अर्थ–संभावनाओं के द्वार खुलते हैं। ‘बाघ‘ में अर्थ की यात्रा मूर्त से अमूर्त की ओर है। इन्हीं मायनों में‘बाघ‘ बहुलार्थी है।
‘बाघ‘ पर बातचीत के पहले हम, केदारनाथ सिंह का पशु–जगत् के साथ काव्य–बर्ताव कैसा रहा है यह देख लें। साहित्य में और आम–जीवन में भी बन्दरों की जो छवि चित्रित है वह चंचल, उछल–कूद करने वाले, दूसरे के हाथों से कुछ छीना–झपटी करने वाली छवियाँ ही चित्रित हैं लेकिन यह कवि केदारनाथ सिंह की आखें हैं जो, ”सीढ़ियों पर बैठे बन्दरों की आँखों” की‘एक अजीब–सी नमी” को लक्षित कर ले जाती है। इसी तरह ‘बैल‘ कविता में वह ‘बैल‘ के बारे में लिखते हैं, -”वह एक ऐसा जानवर है जो दिनभर / भूसे के बारे में सोचता है / रात भर / ईश्वर के बारे में” ‘बाघ‘ कविता में भी जब बाघ का सामना बुद्ध से होता है वहाँ कवि लिखता है, ”जहाँ एक ओर भूख ही भूख थी / दूसरी ओर करुणा ही करुणा।” बाघ कवि के लिए ‘भूख ही भूख‘ है। कहने का आशय यह है कि पशु–जगत् के साथ केदारनाथ सिंह बड़ी कोमल एवम् कारुणिक बर्ताव करते हैं। दूसरी चीज यह कि ये सभी पशु उनकी कविता में अपनी ‘प्राकृतिक सत्ता‘ नहीं खोते। वे बिम्ब, प्रतीक, मिथक बाद में है, उनका प्राकृतिक अस्तित्व पहले है। ‘बाघ के बारे में‘ केदारनाथ लिखते हैं– ”बाघ हमारे लिए आज भी हवा–पानी की तरह एक प्राकृतिक सत्ता है, जिसके होने के साथ हमारे अपने होने का भवितव्य जुड़ा हुआ है।”
‘बाघ‘ पढ़ते समय सबसे पहली उत्सुकता यह होती है कि‘बाघ‘ है क्या? बाघ की कई–एक छवियाँ इस कविता में हैं। कभी हिंसा बाघ के रूप में तो कभी अपने स्वभाव के विपरीत समस्त औदार्य और करुणा से युक्त बाघ, तो कभी खिलौना बाघ के रूप में और कभी मनुष्य के अन्तर्लोक की कोमल वृत्ति प्रेम के ही रूप में चित्रित है। इसकी सूचना हमें इन पंक्तियों से मिलती है–
”कि यह जो प्यार है
यह जो हम करते हैं एक–दूसरे से
या फिर नहीं करते
यह भी एक बाघ है”
इस कविता में बाघ के जितने भी चित्र हैं उनमें वह ज्यादातर अहिंसक, मानवीय जिज्ञासा और उत्सुकता से पूर्ण, सदैव प्रश्न करता हुआ और मानवीय संवेदन–युक्त ही चित्रित है। यही चीज इस कविता को और अधिक विशिष्ट बना देती है। कविता में बाघ यह देखकर ‘हैरान‘ हो जाता है कि धुआँ क्यों नहीं उठ रहा है क्योंकि–
”उसे पता था
कि जिधर से भी उठता है धुआँ
उधर होती है बस्ती
उधर रँभाती है गायें
उधर होते हैं गरम–गरम घर
उधर से आती है आदमी के होने की गंध”
और उपर्युक्त वर्णित चीजों की अनुपस्थिति की संभावना ही बाघ को ‘हैरान परेशान‘ कर देती है।
इसके अलावा उसे ‘आदमी लोग‘ की चुप्पी परेशान करती है। वह लोमड़ी से उसका कारण जानना चाहता है-”ये आदमी लोग/ इतने चुप क्यों रहते हैं आजकल?’
यह एक विडंबना ही है कि शहर और बाजार – जिसको मनुष्य ने अपनी सुविधा के लिए रचाया–बसाया है वह आज मनुष्य और मनुष्यता को लील लेने के स्थल में परिवर्तित होता जा रहा है। केदारनाथ सिंह अपनी कविता में निरंतर शेष होती उन चीजों को बचा लेना चाहते हैं जो शहरीकरण और बाजारीकरण की प्रक्रिया में उसके ग्रास बनते जा रहे हैं। ‘बाघ‘ में कवि ‘बुनते हुए हाथ‘ और ‘चलते हुए पैर‘ को बचा लेना चाहता है। कवि की एक अन्य कविता ‘दाने‘ में ‘दाने‘ कह उठते हैं–
”नहीं,
हम मंडी नहीं जायेंगे”
‘दाने‘ की यह अनुगूँज ‘बाघ‘ में भी सुनाई पड़ती है। एक बड़ी कविता में पूर्ववर्ती कई कविताओं की अनुगूंजे साफ सुनी जा सकती हैं। ‘बाघ‘ पढ़ते समय कवि की ही ‘दाने‘ के अलावा, ‘यह पृथ्वी रहेगी‘, ‘जो एक स्त्री को जानता है‘, ‘टूटा हुआ ट्रक‘, ‘बीमारी के बाद‘, ‘महानगर में कवि‘ और ‘पड़रौना उर्फ शहर बदल‘ की याद ताजा हो जाती है साथ ही केदारनाथ सिंह के लगभग समवयस्क विनोद कुमार शुक्ल की कविता के बाघ के तरफ भी हमारा ध्यान बरबस खींच जाता है। उस पर जिस विडंबना की बात की गई है वह इस कविता से कितना मिलता–जुलता है। एक बानगी–
”एक आदिवासी लड़की
महुवा बीनते बीनते
एक बाघ देखती है
जैसे जंगल में
एक बाघ दिखता है।
आदिवासी लड़की को बाघ
उसी तरह देखता है
जैसे जंगल में एक आदिवासी लड़की दिख जाती है
जंगल के पक्षी दिख जाते हैं
तितली दिख जाती है–
और बाघ पहले की तरह
सूखी पत्तियों पर
जँभाई लेकर पसर जाता है।
एक अकेली आदिवासी लड़की को
घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता
बाघ शेर से डर नहीं लगता
पर महुआ लेकर गीदम के बाजार जाने से
डर लगता है।”
यह है सर्वग्रासी बाजार का चरित्र जो बाघ, शेर से भी ज्यादा खतरनाक और निर्मम है। ‘बाघ‘ कविता के तेरहवें खंड में बाघ बैलगाड़ियों को देखता है। बैलगाड़ियाँ हमेशा की तरह इस बार भी, ”बस्ती से शहर की ओर / कुछ–न–कुछ ढोती हुई / और अपने हिस्से की जमीन / लगातार–लगातार खोती हुई।” चली जा रही हैं। ‘बाघ‘ कविता में ‘बस्ती‘ से ‘शहर‘ की यात्रा सदैव कुछ गँवाने और लुटाने की यात्रा लगती है। इसलिए इस कविता में शहर के बारे में बाघ के विचार अच्छे नहीं हैं। वह पहली बार जब ‘शहर‘ आता है तो ‘शहर‘ को ‘गहरे तिरस्कार‘ और‘घृणा‘ से देखकर उससे बाहर चला जाता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि केदारनाथ सिंह अपनी कविता में निरंतर शेष होते जनपदीय जीवन और लोक–संस्कृति को बचा लेना चाहते हैं, यहाँ बैलगाड़ियों को शहर की ओर जाते देख बाघ का यह कहना कि, ”मुझे कुछ करना चाहिए/ कुछ करना चाहिए।‘ स्वयं कवि का कथन लगता है।‘बाघ‘ कविता का बाघ कई जगहों पर अपने रचयिता कवि से एकाकार हो गया है।
‘बाघ‘ पढ़ते समय पाठक के मन में कुछ और प्रश्न अनायास कौंधते हैं मसलन-‘बाघ‘ को ही क्यों चुना केदारनाथ सिंह ने? कविता में एक जगह बाघ ‘निरंतर वर्तमान से ऊबकर’ उस वर्तमान से जहाँ वह एक तरह से ‘दिन–रात रहने और गुर्राने के‘ लिए अभिशप्त है, खरगोश को अपने पास बुलाता है और उसके देह पर उभरे मुलायम और सफेद रोओं को छूकर उसे लगता है कि ‘यह एक नई बात है।‘ ‘बाघ‘ के लिए यह अनुभव अद्वितीय है। बाघ का निरंतर वर्तमान से ऊब व्यंजना से स्वयं कवि का भी कविता की प्रचलित रुढ़ियों फैशनों से ऊब है और पंचतंत्रीय संसार में पहुँचकर ‘बाघ‘ की तरह कवि को भी लगता है कि अरे ‘यह एक नयी बात है।” साथ ही बाघ का यह विश्वास कि–
”पहाड़ का मस्तक फाड़कर
लाया जा सकता है नदी को
समूचा उठाकर
ठीक अपने जबड़ों की प्यास के करीब‘
स्वयं कवि का ही विश्वास लगता है और यह ‘नदी‘ कोई सामान्य नदी नहीं बल्कि अर्थ की नदी है।
हिन्दी में कवियों को एक खास किस्म के फ्रेम में बांध करके पढ़ने की एक भयानक रूढ़ि है और इस लिहाज से केदारनाथ सिंह के कविता के पाठक को एक हल्का–सा झटका लग सकता है बाघ की शुरुआती पंक्तियों को पढ़कर। ‘तीसरा सप्तक‘ में ‘कवि–वक्तव्य‘ की पहली ही पंक्ति है, ”कविता में मैं सबसे अधिक ध्यान देता हूँ बिम्ब विधान पर।” और किसी अंग्रेज आलोचक का हवाला देते हुए वह लिखते हैं, ”एक अंग्रेज आलोचक का तो यहाँ तक कहना है कि आधुनिक कवि नये–नये बिम्बों की योजना द्वारा ही अपनी नागरिकता का शुल्क अदा करता है।” जबकि यहाँ ‘बाघ‘ कविता की पहली ही पंक्ति है–
”बिम्ब नहीं”
साथ ही कविता चार निषेधात्मक वाक्यों से शुरू होती है–
”बिम्ब नहीं / प्रतीक नहीं / तार नहीं / हरकारा नहीं”
‘बिम्ब‘, ‘प्रतीक‘, ‘तार‘, ‘हरकारा‘ – ये चारों संप्रेषण के माध्यम हैं। कवि इनका नकार करता है और स्वयं उपस्थित होते हुए कहता है कि, ”मैं ही कहूँगा” कारण, ”क्योंकि मैं ही/ सिर्फ मैं ही जानता हूँ / मेरी पीठ पर/ मेरे समय के पंजों के / कितने निशान हैं।”
स्पष्ट है, इससे यह बात उभर कर सामने आती है कि जिनके पीठ पर समय के पंजों के निशान होते हैं वे माध्यमों से काम नहीं चलाते। यहाँ यह सामान्यीकरण तो किया ही जा सकती है कि जिनके ‘पीठ पर समय के पंजों के निशान‘ होते हैं उनका काम केवल ‘बिम्ब‘, ‘प्रतीक‘, ‘तार‘, ‘हरकारा‘ आदि से नहीं चलता। वहां ये अभिव्यक्ति–माध्यम अपर्याप्त लगने लगते हैं और इनमें समय की क्रूरता और निर्ममता अँट नहीं पाते। इसीलिए कवि स्वयं उपस्थित होता है। इसके साथ कवि इस बात को लेकर भी काफी सचेत है कि उसके कथ्य को किन्हीं और आशयों के लिए प्रयोग न कर लिया जाए इसलिए ये शुरुआती पंक्तियाँ स्पष्टीकरण जैसी लगती हैं।
पाठकीय जिज्ञासा यह भी हो सकती है कि ‘बिम्ब‘ ‘प्रतीक‘ से जो अभिव्यक्त किया गया, वह क्या है? क्या उस समय कवि के पीठ पर ‘समय के पंजों के निशान‘ नहीं थे? यहाँ यह गौरतलब है कि ऐसा कहकर कवि केदारनाथ सिंह अपने ‘बिम्ब–व्यामोह‘ से ऊपर उठते हैं और निरंतर जटिल और क्रूर होते समय का बयान अपनी कविता में करते हैं। ‘बाघ‘ तक आते–आते केदारनाथ सिंह का काव्य–विकास अपनी परिणति में बिम्ब लगाव से लगभग मुक्त हो जाता है। उदय प्रकाश के शब्दों में, ”जमीन पक रही है‘ तक आते–आते वे कुछ और ही हो गए हैं। बिम्ब धर्मिता के प्रति आग्रह, प्रगीतात्मकता, अज्ञेय के असर और नई कविता से लगभग विमुक्त …. अब उनकी चिंता के केन्द्र में बिम्ब विधन या प्रकृति के स्मृति–चित्र ही नहीं, बल्कि समकालीन मनुष्य के मूल संकट और उसके, जीवनानुभव एक बिल्कुल भिन्न विन्यास और उद्विग्न करने वाली अर्थ–संरचनाओं के साथ उपस्थित हैं।”
यह समय– जिसके पंजों के निशान कवि के पीठ पर है– वह अपनी पूरी बनावट में नितांत ही निर्मम और क्र
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