‘जनसत्ता’ संपादक, बेहतरीन गद्यकार ओम थानवी भाषा, भाषा प्रयोग को लेकर गंभीरता से लिखने वाले विचारकों में हैं। कई बार हिन्दी भाषा के प्रयोगों पर चर्चा करते हुए वे कट्टर लगने लगते हैं, कई बार बेहद जरूरी सवाल उठाते हैं। जैसे आज उन्होने अपने स्तम्भ ‘अनंतर’ में महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय द्वारा तैयार किए गए तथा भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित कोश को लेकर कई महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। सोचा जिनहोने न पढ़ा हो उनके लिए साझा किया जाये- जानकी पुल।
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वर्धा के समावेशी
एक अच्छे हिंदी कोश की हम हिंदीभाषियों को उतनी ही जरूरत होती है, जितनी अंगरेजी वालों को अंगरेजी कोश की। मुश्किल यह है कि अंगरेजी बोलने वाले घरों में तो आॅक्सफर्ड, कॉलिंस, केंब्रिज, वेब्स्टर आदि कई कोश मिल जाएंगे, हिंदीभाषी शायद सोचते हैं कि हमारी अपनी हिंदी के शब्दों को हिंदी में समझने के लिए कोश की क्या दरकार है? सो आम हिंदीभाषी के यहां बहुखंडी शब्दसागर या मानक हिंदी कोश तो दूर, ज्ञानमंडल वाला बृहत् हिंदी कोश तक कम मिलेगा। हां, अंगरेजी-हिंदी कोश बहुतों के यहां मिल सकते हैं।
बहरहाल, पुस्तक मेले में इस दफा कुछ खुशी का अहसास हुआ जब एक नया कोश वहां मिल गया: वर्धा हिंदी शब्दकोश। हिंदी के शब्दों का हिंदी में खुलासा। इस कोश को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ने तैयार करवाया और भारतीय ज्ञानपीठ ने छापा है। प्रधान संपादक रामप्रकाश सक्सेना ने विश्वविद्यालय के (निवर्तमान) कुलपति विभूतिनारायण राय को कोश का ‘‘प्रेरणा स्रोत’’ बताया है। इसलिए जिस अनर्थ को यह कोश स्थापित करता है, उसका कुछ श्रेय इसके ‘‘प्रेरणा स्रोत’’ को भी दिया जाना चाहिए।
अनर्थ क्यों? इसलिए कि साढ़े बारह सौ पृष्ठों का यह कोश खुशी-खुशी बेहिसाब अंगरेजी शब्दों को शामिल कर उन्हें बहुमूल्य मान्यता प्रदान करता है। केंद्र सरकार द्वारा स्थापित एक हिंदी विश्वविद्यालय की मान्यता। किसी भी भाषा के शब्द हिंदी के अनिवार्य अंग बन गए हों, जिनके बेहतर विकल्प हिंदी में मौजूद न हों, जो शब्द हिंदी की शब्द-संपदा का संख्या में नहीं गुणवत्ता में इजाफा करते हों, उन शब्दों को हिंदी का अंग स्वीकार करने में किसे गुरेज होगा? भारतीय भाषाओं से लेकर अरबी, फारसी, तुर्की, पश्तो आदि अनेक दूरस्थ भाषाओं के हजारों शब्द हिंदी में आए हैं। ऐसे शब्दों से हिंदी समृद्ध ही हुई है। इसी धारा में स्टेशन, बस, आलपीन, अलमारी, रेडियो, टेलिविज़न, टेलिफ़ोन, कंप्यूटर, फुटबॉल, हॉकी, स्टेडियम, होटल जैसे अंग्रेजी के ढेर शब्द जरूरत के मुताबिक हिंदी में रच-बस गए हैं। सही है कि जीवंत भाषाओं में शब्दों की आवाजाही चलती रहती है।
लेकिन वर्धा का यह कोश अधकचरी हिंदी यानी ‘हिंगलिश’ को ‘‘संक्रमण काल’’ की भाषा बताते हुए भी लगभग स्वीकृति प्रदान कर देता है। प्रमाण हैं कोश में सम्मिलित अंगरेजी के वे शब्द, जिनके लिए हिंदी में सहज शब्द और अनेक समानार्थी पहले से उपलब्ध और प्रचलित हैं। तुर्रा यह कि कोश की पीठ पर बाकायदा ऐलान है, ‘‘अंग्रेजी शब्दों के संबंध में हिंदी शब्दकोशों में फैली अराजकता से ‘वर्धा हिंदी शब्दकोश’ प्राय: मुक्त है।’’ मुक्त है या युक्त है?
प्रधान संपादक सक्सेना के अलावा एक सहायक संपादक (शोभा पालीवाल) और संपादक मंडल के पांच नाम भी शब्दकोश में घोषित हैं। इनमें निर्मला जैन और गंगाप्रसाद विमल के नाम प्रमुख हैं। हिंदी विश्वविद्यालय के इस पहले आधिकारिक कोश में अंगरेजी शब्दों का विपुल घालमेल क्या विभूतिनारायण राय की अपनी देन है? इसका संकेत उनका लिखा प्राक्कथन देता है, जहां वे पुलिस अधिकारी और कुलपति का चोगा उतार कर अपने आप को मानो भाषाविज्ञानी के रूप में प्रकट करते हैं। वे ‘‘समावेशी हिंदी’’ की अवधारणा पेश करते हैं और घोषित करते हैं कि ‘‘वर्धा शब्दकोश की बुनियादी अवधारणा के पीछे यही सोच काम कर रही है कि हमारे समय की समावेशी हिंदी के अधिकतम प्रचलित शब्द इस कोश में स्थान पा सकें।’’ (‘समावेशी हिंदी’ का इससे बेहतर नमूना क्या होगा कि कुलपति ‘‘सोच’’ को स्त्रीलिंग लिखते हैं, जबकि उनका यह कोश ही उसे पुल्लिंग करार देता है! पर इसे अभी छोड़िए।)
राय का हास्यास्पद कथन यह है कि ‘‘प्रामाणिक शब्दकोशों के निर्माण में संस्कृत को लेकर विशेष आग्रह इसी कारण दिखाई देता है।… खड़ी बोली से हिंदी बनने की प्रक्रिया काफी हद तक समावेशी थी।… इसके बावजूद तत्कालीन समाज में बढ़ रही सांप्रदायिक चेतना के कारण बड़ी संख्या में भाषाविदों और रचनाकारों द्वारा प्रयास किया गया कि खड़ी बोली हिंदी संस्कृतनिष्ठ बनें (बने) और जहां तक संभव हो उसमें अरबी और फारसी के शब्द कम से कम इस्तेमाल किए जाएं।’’ वास्तविकता इससे कोसों दूर है और अरबी-फारसी का संस्कृत से नाहक झगड़ा खड़ा कर विभूतिनारायण अंगरेजी की भरमार वाली समावेशी हिंदी की वकालत कर रहे हैं।
‘प्रचलित शब्दों’ का प्रमाण बोलचाल में लापरवाही या अज्ञानवश टपक पड़ने वाले अंगरेजी शब्दों को मानें चाहे कतिपय हिंदी अखबारों और टीवी चैनलों द्वारा सायास दूषित हिंदी को, विभूति बाबू अगर उन सारे अंगरेजी शब्दों को ‘प्रचलन’ का प्रमाण-पत्र दे रहे हैं जो इस कोश में शामिल हैं, तो अनर्थ ही नहीं, बेईमानी भी कर रहे हैं। और इसके पीछे उनका गहरा पूर्वग्रह भी है, जिसके चलते ‘‘कोश की बुनियादी अवधारणा के पीछे की सोच’’ स्थापित करने की उन्होंने चेष्टा की है। इस स्थापना से पहले का वाक्य उनके पूर्वग्रह की कलई खोल देता है: ‘‘छायावाद के समाप्त होते-होते और प्रगतिशील आंदोलन के मजबूत होने के फलस्वरूप साहित्य और बोलचाल की भाषा में फर्क धीरे-धीरे खत्म होता गया और आज सही अर्थों में एक समावेशी हिंदी प्रयोग में आने लगी है जिसमें हिंदी प्रदेशों में प्रचलित बोलियों के साथ-साथ अरबी, फारसी, तुर्की, पुर्तगाली, फ्रेंच और इन सब से अधिक अंग्रेजी के शब्दों की भरमार है।’’
छायावाद हिंदी कविता की एक धारा थी। उस दौर में ही नहीं, उससे पहले भी गद्य में ‘समावेशी’ हिंदी ‘‘सही अर्थों में’’ मौजूद थी। कोई वर्धा विश्वविद्यालय की वेबसाइट पर ही सैयद इंशा अल्ला खां या बाबू देवकीनंदन खत्री का गद्य पढ़ सकता है। आम हिंदुस्तानी की जुबान पर अरबी, फारसी, तुर्की या अंगरेजी आदि के शब्द प्रगतिशील आंदोलन के ‘‘मजबूत’’ होने से बहुत पहले बसे हुए थे। हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तान शब्द कहां से आए? गांधी, नेहरू क्या संस्कृतनिष्ठ हिंदी बोलते थे? प्रेमचंद की हिंदी कैसी थी? सच्चाई यह है कि विभूतिनारायण राय साहित्य और बोलचाल की भाषा में फर्क धीरे-धीरे ‘‘खत्म’’ होने और ‘‘आज’’ की समावेशी हिंदी में अंगरेजी शब्दों की ‘‘भरमार’’ का जो दावा कर रहे हैं, उसका हिंदी साहित्य में आज भी कोई अहम अस्तित्व नहीं है। बोलचाल और टीवी-अखबारों में अंगरेजी शब्दों की जो अनावश्यक घुसपैठ है, वह हतोत्साह की पात्र है, इस तरह की आधिकारिक हौसलाअफजाई की नहीं।
जहां तक हिंदी की वास्तविक समावेशी दृष्टि की बात है, उन्नीसवीं सदी में ही हिंदी में अरबी, फारसी, तुर्की, पश्तो आदि के बेशुमार शब्द चलन में थे। बीसवीं सदी के लगते-न-लगते हिंदी शब्दसागर का काम शुरू हुआ। 1910 तक शब्दों के संग्रह का काम पूरा हो गया। तब संकलित किए गए शब्दों में हमें गैर-संस्कृत यानी अरबी, फारसी आदि के इतने शब्द मिलते हैं कि उन्हें गिनना मुश्किल होगा। मसलन: आदमी, औरत, बच्चा, मकान, दुकान, दीवार, मैदान, दरवाजा, बरामदा, हवा, आसमान, जिंदगी, मौत, सवाल, जवाब, दोस्ती, दुश्मनी, शादी, खुशी, आराम, किताब, हिसाब, बीमार, दवा, दिल, दिमाग, आवाज, जमीन, तूफान, बहस, हैरान, बेहोश, होशियार, चालाक, सुस्त, तेज, सवार, राह, मुहल्ला, हिस्सा, गुस्सा, बाग, बहार, सूरत, सादा, खून, शरारत, शोर, बाकी, खबर, अखबार, तकलीफ, कायदा, फौरन, बहाना, जादू, वकील, नजर, चिराग, परदा, जगह, दूर, करीब, खतरा, बयान, कुश्ती, कागज, लिफाफा, हलवा, शिकायत, जहर, हिम्मत, जहाज, तीर, कमान, संदूक, फौज, खजाना, तश्तरी, नकद, सफर, लाश, कफन, दफन, आबादी, मजाक, किला, सिपाही, शाल, दुशाला, शामियाना, सब्जी, अचार, मुरब्बा, बाजार, शिकार, हजार, तकरार… जरूर हिसाब लगाया जाए कि अंगरेजी से कितने शब्द इस कदर आकर (या लाकर) हिंदी में रचे-बसे हैं?
‘‘सबसे अधिक अंगरेजी के शब्दों की भरमार’’ कहते हुए विभूति अपनी मौलिक स्थापना का साक्ष्य टीवी-अखबारों को मानते हैं या पुलिस मैस की बोलचाल को, पता नहीं, पर सवाल यह है कि उन्हें भाषा के मामले में अंतिम निर्णय पर पहुंचने (कोश का आयोजन इसका सबूत है) का अधिकार कहां से हासिल हुआ? क्या वे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी ‘‘अंगरेजी के शब्दों की भरमार’’ वाली ‘‘समावेशी हिंदी’’ को विश्वविद्यालय के कोश के जरिए ‘‘मॉडल के रूप में प्रतिष्ठा’’ दिलवा कर मान्यता दिलाना चाहते हैं?
वर्धा हिंदी शब्दकोश में नई प्रविष्टियों के विचित्र नमूने देखिए:
अंडरस्टैंडिंग, अटैच्ड, अपीलिंग, अरेस्ट, अर्बन, असेसर, आइसबर्ग, इंजील, इनसालवेंट, इंटरप्रेटर, इंटलेक्चुअल, इंट्रोडक्शन, इंडिकेशन, इंडेफ्थ, डबलटन, हेल्थ, हेमीस्फियर, हीलियम, हारवेस्टर, स्पैनर, स्पेड, स्प्रेयर, स्कै्रप, स्किपर, क्रॉइल, कॉड, लिबरेशन, लिबिडो, लाइवल, रुटीन, रिव्यू, रिलीफ़ , रिफ़ॉर्म, रिफ़ार्मर, रिफ़ार्मेटरी, मैन, मैटर्न, बैकयार्ड, बैटलशिप, फ़ीलिंग, फ़ील्डवर्क, फ़ीवर, फ़िक्शन, प्रोटोप्लाज़्म, प्रोटेक्शन, ड्रामेटाइज़ेशन, ड्रीमगर्ल, ड्रेन, ड्रिंक, डेमोके्रसी, डेफ़िनिशन, डिस्क्रिप्शन, डिजॉल्व, डि-रेगुलेशन, ट्रीटमेंट, क्रॉनिक, क्लासिफ़िकेशन, क्लाइमेट, कामर्सियालाइज़ेशन, कैजुअल्टी, हॉट, आॅनर… कोश में ‘आॅ’ के तहत तो सारे के सारे चालीस शब्द अंगरेजी के ही हैं!
कोई बताए कि क्या ये हिंदी के शब्द हैं? या यही कि ये शब्द किसी हिंदी शब्दकोश के किस आधार पर हो सकते हैं?
कहना न होगा हिंदी के विकास मार्ग पर इस तरह का उद्यम बड़ा खतरनाक काम है। प्रचलित श्रेष्ठ विकल्पों के बीच क्या ‘वाटर’ या ‘स्पेलिंग’ को इसलिए हिंदी शब्द का दर्जा दे दिया जाना चाहिए, क्योंकि बोलचाल में कुछ लोग पानी या वर्तनी की जगह इन शब्दों को बोलते हैं? बोलचाल में लोग पत्नी या बीवी को भले वाइफ कहते हों, वाइफ शब्द को अंगरेजी शब्दकोश से आयात करने से पहले क्या सोचना नहीं चाहिए? विभूतिनारायण राय को संस्कृत से चिढ़ और अंगरेजी से मोह क्यों है? मुझे कहने में कोई संकोच नहीं कि भाषा के मामले में वे एक विकृत सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं।
हिंदी की शब्द-संपदा बहुत गहरी और व्यापक है। उसे गंवाना नहीं, बचाना चाहिए। अंगरेजी के आतंक में हिंदी में नए शब्द गढ़े जाने बंद-से हो गए हैं। कौन अब ‘आकाशवाणी’ और ‘विश्वविद्यालय’ गढ़ता है? हिंदी विश्वविद्यालय के पहले कुलपति और कवि अशोक वाजपेयी ने कॉकटेल मजलिसों के सिलसिले में हिंदी को कुछ वर्ष पूर्व नया शब्द दिया था ‘रसरंजन’। निमंत्रण-पत्रों में निरंतर छपने के बाद यह प्रयोग साहित्यिक हलकों के वार्तालाप में भी जगह पा गया है। क्या इस तरह के नए शब्द हिंदी कोश में शामिल नहीं किए जाने चाहिए? क्या अंगरेजी और दूसरी भाषाओं के अनिवार्य शब्द अपनाने के साथ- बल्कि पहले- हिंदी संस्कार वाले नए शब्दों की खोज नहीं की जानी चाहिए?
यही मुश्किल है। नए हिंदी प्रयोगों की जगह वर्धा कोश का ध्यान ‘इंग्लिश’ प्रयोगों पर अधिक गया है। शायद संपादक, उनके सलाहकार लोग या प्रेरणा-स्रोत ऐसे हिंदी अखबार पढ़ते हों, जिनमें सामान्य हिंदी शब्दों की जगह अंगरेजी शब्द ठूंस दिए जाते हैं। अपने आग्रहों के चलते इसे ही वे प्रचलित भाषा मान बैठे हैं। वैसे भी संपादक महोदय (उनका परिचय कोश में कहीं नहीं है) पत्रकारिता से बहुत प्रभावित जान पड़ते हैं। या शायद किसी अखबार की अंगरेजी-हिंदी सूची उनके हाथ लग गई है। पत्रकारिता में प्रयोग होने वाले बेशुमार अंगरेजी शब्द (हेडिंग, स्पीड न्यूज, ब्रेकिंग न्यूज, डेड न्यूज, डैश न्यूज, न्यूज सेंस, न्यूज वेल्यू, ऐंकर, टाइपफेस, डेडलाइन, ड्रॉप लेटर, ऐंबार्गो, ऐड, आॅन द स्पॉट कवरेज, ब्रांड इमेज, ब्रॉडकास्ट जर्नलिज्म, बैक स्टोरी…) उन्होंने शब्दकोश में शामिल कर लिए हैं, मानो कोश पत्रकार-जगत के लिए तैयार किया हो!
क्या यह महज संयोग है कि संस्कृत मूल के अनेक उपयोगी शब्द इस कोश से नदारद हैं? और तो और, हर हिंदी कोश में वर्णमाला के पहले अक्षर ‘अ’ के बाद दूसरे ही शब्द के रूप में आने वाला ‘अंक’ शब्द वर्धा कोश में है ही नहीं! जबकि अंगरेजी मूल के नंबर, काउंट, फ़िगर, प्वॉइंट (पॉइंट) शब्द कोश में स्वाभाविक रूप से शामिल हैं।
मगर यह निरा संयोग नहीं हो सकता कि कामिल बुल्के जैसे विद्वान कोशकार इंग्लिश के लिए हिंदी में ‘अंगरेजी’ शब्द चला कर गए हैं, पर वर्धा हिंदी कोश में हमें सर्वत्र ‘इंग्लिश’ शब्द का ही प्रयोग मिलता है! ‘अंगरेजी’ शब्द का इस्तेमाल बस एक जगह कोश की पीठ पर प्रकाशित ऐलानिया बयान में है! मान्य हिंदी प्रयोग के मुकाबले ‘इंग्लिश’ के प्रति मोह का इससे अच्छा नमूना क्या होगा?