हमारी कोशिश है कि हिन्दी में बेस्टसेलर को लेकर हर तरह के विचार सामने आएं। पहले के दो लेखों में यथार्थवादी बातें आई आज कुछ आदर्श की बातें कर लें। हिन्दी में नए ढंग के लेखन की शुरुआत करने वाले प्रचण्ड प्रवीर ने बेस्टसेलर को लेकर दो-टूक बातें की हैं, बहुत विद्वत्तापूर्ण शैली में- जानकी पुल
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मेरा मत है हर भाषा के लेखक को बेस्टसेलर की अभिलाषा से मुक्त होना चाहिये। किताबें बिकी तो अच्छा है, न बिकी तो उसके लिए विलाप नहीं।
ख़िरदमन्दों से क्या पूछूँ कि मेरी इब्तिदा क्या है
कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है
कि मैं इस फ़िक्र में रहता हूँ मेरी इंतिहा क्या है
एक लेखक विचारशील, ज्ञानवान, समाज के कल्याण के प्रति उत्तरदायी और विश्व के प्रति सम्यक दृष्टि रखने वाला होना चाहिए। किसी समाज में नैतिकता और विचारशीलता का दायित्व दार्शनिकों, कलाकारों और लेखकों को उठाना चाहिये, और राजनेता, जनता, आलोचक, पत्रकार, अन्य लोगों का स्थान उसके पीछे होना चाहिये।
ऐसा क्यों?
ऐसा इसलिए क्योंकि सच्चे कलाकार में वह नैतिक श्रेष्ठता, त्याग और सत्यनिष्ठता होती है, जो किन्ही बंधनों से लाचार न हो. लेखक को सूरदास की तरह अँधा हो जाना चाहिये, मीर तकी मीर और ग़ालिब की तरह फकीरी में रहने का जोखिम उठाने के लिए तैयार होना चाहिए, बनिस्पत इसके कि वह अपने लेखन के प्रचार प्रसार में, उसकी बिक्री बढ़ाने में जुट जाए, या प्रोत्साहन के लिए प्रकाशकों या सरकार का मुँह देखे।लेखक जिसे सत्य समझे, उससे डिग न जाये। लेखक को इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिये कि लोग उसकी रचना पढ़ें या न पढ़ें। लोग उसे जाने या न जाने।
अगर आदर्श लेखक की कोई आकांशा हो सकती है तो वह यह कि वह कुछ पठनीय और सुन्दर लिख पाये।पठनीयता और सुंदरता लेखक का पहला दायित्व है; सामाजिक विमर्श, राजनैतिक चेतना, और समसामयिक परिचर्चा कहीं इसके बाद!
टॉलस्टॉय का कहना था कि अगर उन्हें यह मालूम हो जाये कि उनकी रचना आने वाली पीढ़ियाँ भी पढ़ेंगी तो वह अपना पूरा अस्तित्व इस काम के लिए लगा देंगे। अगर आने वाली पीढ़ी को लेखक की रचनायें पसंद आयें, वह भी उनका सौभाग्य होगा। समाज के प्रति जवाबदेह लेखक को बिक्री और पाठक वर्ग के स्नेह से नहीं, सत्य से निष्ठा रखनी चाहिए, सौंदर्य से निष्ठा रखनी चाहिए। लेखकों का वैचारिक पतन समाज के लिए दुखद है.
कितनी अच्छी समीक्षाएं या आलोचनाएं प्रकाशित होती हैं? आज कल कौन सी ऐसी रचना नज़र आती है जो ४०० पन्नों की हो? उत्कृष्टता और सार्थकता की चिंता क्यों न हो? वह चिंता और दायित्व कौन लेगा? लेखक की चर्चा और प्रसिद्धि पाठकों और आलोचकों के हाथ में होती है, उसके लिए लेखक क्यूँ चिंता करे?
सुधिजनों से अनुरोध है कि मुझ पर लेखक होने का आरोप न लगायें, मैं इसकी चेष्टा में लगा ज़रूर हूँ, पर हो नहीं पाया। लिखने-पढ़ने की गम्भीर आदत और जरूरत लेखक और आलोचक के विलक्षणता और नैतिक श्रेष्ठता से आएगी, विलाप करने या ‘मुझे भी खरीदो‘- इस तरह के बेचने के तमाशे से नहीं।
प्रकाशन, प्रचार प्रसार तंत्र का विलाप अपनी कमजोरी को ढँकने जैसे है. यह जिनका काम है, उन्हें करने दीजिये। हर साल इतने लोग मैनेजमेंट की डिग्री लेते हैं, उनको किताबें बेचने का काम दिया जाये। आपकी किताबें न बिकेगी तो प्रकाशक नहीं छापेंगे। आज के दुनिया में आपको रचना के संरक्षण कि इतनी चिंता है तो यह चिंता छोड़ दीजिये – सब लिखा इंटरनेट पर अगले नाभिकीय विश्वयुद्ध तक सुरक्षित रहेगा।
यह बेस्ट सेलर की चिंता आलोचक और प्रकाशक की समस्या रहे तब तक बेहतर है. लेखक के लेखन की सराहना हो, उसकी किताबें बिकें, पैसे आयें यह सब उसके लेखन के बाद की बात है, जब उसने सुन्दरतम साहित्य रच लिया हो. किसे अच्छा नहीं लगेगा कि उसकी सराहना न हो, लेकिन उस सराहना के पीछे उत्कृष्टता हो, जन कल्याण हो, नहीं तो हम भटक जायेंगे। उस सम्मान के लिए भी जल्दी कैसी, और किस बात की? अगर रचना में काल को जीतने का सामर्थ्य होगा तो तीस चालीस बाद भी लोग ढूँढ के पढ़ेंगे। शोर करने से बेहतर है कि काम करने में जुट जाएँ। कालचक्र का न्याय कभी बाज़ार और कभी आलोचक के तिरस्कार में आता रहेगा। इस ईश्वरीय न्याय के लिए क्यों चिंता करना?
जो इक़बाल साहब की ग़ज़ल से मैं शेर लिया, उसका दूसरा शेर हम भूल न जाएँ, इसलिए उद्धृत है –
ख़ुदी को कर बुलन्द इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
ख़ुदा बन्दे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
‘अल्पाहारी गृहत्यागी’ उपन्यास के लेखक प्रचण्ड प्रवीर आईआईटी दिल्ली से स्नातक हैं।