जानकी पुल पर साल की शुरुआत करते हैं कुछ सादगी भरी कविताओं से. कलावंती की कविताओं से. कलावंती जी की कविताओं में हो सकता है शिल्प का चमत्कार न दिखे, भाषा का आडम्बर न दिखे लेकिन जीवन में, जीवन के अनुभवों में गहरे रची-बसी हैं उनकी कविताएं. पढ़कर देखिये- मॉडरेटर
1
पगड़ी
वह संभालती रही
कभी पिता की पगड़ी
कभी भाई की पगड़ी
कभी पति की पगड़ी
उसने कभी सोचा ही नहीं कि
हो सकती है
उसकी अपनी भी कोई पगड़ी
एक दिन पगड़ी से थककर,
ऊबकर उसने पगड़ी उतारकर देखा
पर इस बार तो गज़ब हुआ
थोड़ा सुस्ताने को पगड़ी जो उतारी
तो देखा पगड़ी कायम थी।
बस माथा गायब था।
2
डर
वह डरती है
जाने क्यों डरती है
किससे किससे डरती है
वह रात से क्या
दिन से भी डरती है
एक पल जीती है एक पल मरती है।
पहले पिता से, भाई से तब पति से ….
आजकल वह
अपने जाये से भी डरती है।
3
मन
एक नाजुक सा मन था
अठखेलियोंसा तन था
पूजा सा मन था
देह आचमन था
वो एक लड़की थी
भीड़ मेँ चुप रहती थी
अकेले मेँ खिलखिलाती थी
उजालों से अंधेरे कीतरफ आती जाती थी
वो एक औरत थी
कभी बड़बड़ाती थी
प्यार मेँ थी किनफरत मेँ
बेहोश थी कि होश मेँ थी
बात बात पर हँसती जाती थी
बात बात पर रोती जाती थी
उजालों से अँधेरों की
तरफ आती जाती थी।
एक नाजुक सा मन था
अठखेलियोंसा तन था
पूजा सा मन था
देह आचमन था
उसे जो कहना था
स्थगित करती जाती है
अगली बार के लिए
जो स्थगित ही रहता है जीवन भर
पूछती हूँ कुछ कहो –
वह थोड़ा शर्माती है
थोड़ा सा पगलाती है
एक लड़की मेरे सपनों मेँ
अँधेरों से उजालों की तरफ आती जाती है
क्षणिकायेँ
(क)
एक नदी है मृत्युकी
उस पर तुम हो
इस पार मैं
अकबकाई सी खड़ी हूँ।
(ख)
फूल गिरा था धूल पर
धूल की किस्मत थी
कि धूल कि किस्मत थी
कि फूल के माथे पर था।
(ग)
बहुत झमेलों मेंभी,
उलझी जिंदगी मेंभी
मैंने चिड़िया सा मन बचाए रखा,
इतने दिन बाद मिले हो
तो उसे उड़ाने में लगे हो।
(घ)
एक यात्रा पर
निकले हैं हम दोनों
अपने- अपने घरों में
अपने- अपने शरीर छोड़कर।