मैथिली भाषा के प्रसिद्ध कवि, कथाकार, आलोचक जीवकांत जी का निधन हो गया. सहज भाषा के इस महान लेखक को अविनाश दास ने बहुत आत्मीयता के साथ याद किया है अपने इस जीवन से भरे लेख में. उनके लेख के साथ जीवकांत जी की स्मृति को प्रणाम- मॉडरेटर.
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पिछले दस सालों में जीवकांत जी के दस पोस्टकार्ड आये होंगे। मैंने शायद एक भी नहीं भेजा होगा। यह कर्तव्य निबाहने और कर्तव्य से चूकने का अंतर नहीं है। जीवकांत जी जैसे कुछ लोग हमेशा रिश्तों को लेकर सच्चे होते हैं और हम जैसे लोग मिट्टी के छूटने के साथ ही मिजाज से भी छूट जाते हैं। ऐसा लगता है कि आगे का थोड़ा और पा लेते हैं, फिर पीछे का भी सब समेट लेंगे। ग्लानि तब होती है, जब पाने-छोड़ने के इस खेल में कुछ चीजें हमेशा के लिए छूट जाती हैं।
जीवकांत जी छूट गये हैं। बुधवार की दोपहर पटना के एक अस्पताल में उनका निधन हो गया। वे मैथिली के लेखक थे। सहज कवि, सरल कथाकार और सहृदय आलोचक। सन 36 में जन्मे जीवकांत जी पेशे से हाईस्कूल के मास्टर थे। उनके कई छात्रों ने बड़े-बड़े सरकारी पद हासिल किये, लेकिन उन्हें अगाध खुशी मिलती थी जब कोई कहता था, माट साब आपकी ही प्रेरणा से मैंने मैथिली में लिखना शुरू किया है। मैं उनका छात्र तो नहीं रहा, पर जब अपनी भाषा के बारे में जानना शुरू किया, तो परंपरावादियों के खिलाफ विनम्रता से जीवकांत जी ही मुझे खड़े मिले। झा और मिश्रा की मैथिली में उनका विद्रोह अपने नाम में से झा को मिटाने से शुरू हुआ था। उनकी एक कविता पंक्ति है… गांव राजपुरुष की भौंह की तरफ नहीं, पीपल के तले रखी गणपति की सिंदूर से लेपी हुई प्रतिमा को निहारता है।
उनकी कविताओं में छंद नहीं था, मिट्टी की लय थी। बातों की ताकत में विश्वास करते थे, अंदाज की कलाकारी से दूर थे। इस मायने में हम कह सकते हैं कि वे मैथिली कविता के शमशेर थे। सबसे आकर्षक पहलू ये था कि नये लोगों की रचनात्मकता को लेकर वे कभी संशय में नहीं रहते थे। यही वजह है कि जब सन 93-94 में मैंने अपने नवतुरिया उत्साह में मैथिली की एक पत्रिका निकालने के बारे में सोचा, तो पहली चिट्ठी उनको लिखी। अगली डाक से उनकी सोलह कविताएं मुझे मिली। भोर नाम की उस पत्रिका के पहले अंक में सिर्फ वही सोलह कविताएं छपीं।
उन्हीं दिनों उनका एक पोस्टकार्ड मुझे मिला, जिसमें सहरसा के कालिकाग्राम में रहने वाले गौरीनाथ नाम के किसी युवक के बारे में था। गौरीनाथ को भी उन्होंने एक पोस्टकार्ड मेरे बारे में लिख कर भेजा। फिर हम दोनों ने एक दूसरे को जीवकांत जी के हवाले से चिट्ठी लिखी और मित्र हुए और प्रगाढ़ मित्र हुए। ऐसे कई कई पत्र-मिलन समारोहों के जरिये उन्होंने कई लोगों को कई लोगों से जोड़ा। जीवकांत जी मैथिली के सद्य:नवीन लेखकों से उसी तन्मयता से मुखातिब रहते थे, जैसे भविष्य से वार्तालाप कर रहे हों।
मुझे याद है, जब मैं दरभंगा में रहता था, कई बार डेओढ़ के लिए निकल जाता था। डेओढ़ जीवकांत जी के गांव का नाम है, जो मधुबनी के एक बड़े ब्लॉक झंझारपुर से आगे घोघरडीहा स्टेशन के पास है। घोघरडीहा में मैथिली के एक विलक्षण कवि नारायणजी के यहां रुकता था और दिन भर जीवकांत जी के साथ रहता था। वे दोपहर को नियमित अपने समकालीन से लेकर युवतर मित्रों को पत्र लिखा करते थे। कहते थे, भाषा का रियाज पत्र लिखने से बना रहता है। जब लौटता था, तो वे कई सारी किताबें एक झोले में भर कर दे देते थे। कहते थे, सबको पढ़ लेना। नहीं भी पढ़ना हो तो कोई बात नहीं। उन्हीं किताबों में से एक शंकर का उपन्यास था, चौरंगी। इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद राजकमल चौधरी ने किया है। एक बार ऐसा हुआ कि शंकर रांची आये थे, तो प्रभात खबर के प्रधान संपादक हरिवंश जी ने उनसे मिलने और बात करने के लिए मुझे भेजा। संयोग से उन्हीं दिनों जीवकांत जी अपने बेटे के पास रांची आये थे, तो मेरे घर आकर भी रुके।
एक बार जब मुझे फोटोग्राफी का शौक चढ़ा, तो मैथिली की दो पीढ़ियों की संवाद शृंखला की चित्र-रचना जीवकांत जी और तारानंद वियोगी के रूप में तैयार की। महाराज दरभंगा के किले में मौजूद काली मंदिर के सामने के तालाब की सीढ़ियों पर बैठे दोनों लेखकों की कई तस्वीरें वियोगी जी के पास अब भी सुरक्षित हैं।
जीवकांत जी नहीं रहे। इस वक्त मैं खुद से ये वादा करना चाहता हूं कि मैं अपने छूटे हुए जरूरी हिस्सों से संवाद शुरू करूंगा। अतीत से संवादहीनता की नयी संस्कृति का शिकार होने के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं।
जीवकांत जी के कई कविता और कथा संग्रहों के अलावा पांच उपन्यास भी प्रकाशित हैं। उन्हें उनके कविता संग्रह तकैत अछि चिड़ै के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिल चुका है।
4 Comments
अविनाश भाई,
जीवकांत जी क शिष्य होएबाक अहांक सौभाग्य नहि भेटल…मुदा हम एहि मायने में खुश किस्मत रहलहुं जे हुनकर सानिध्य हमरा भेटल..जहिया हुनकर निधन भेलन्हि तकर अगिला दिन घोघरडीहा अपन पापा क फोन कएलहुं त ओ इ दुखद समाचार देलैथि और कहलौथि जे जीवकांत जी नहि रहलाह…मन व्यथित भए गेल…आई स किछु साल पहिने 2011 के सितंबर में घर गेल रही…त ओ अपन जीवनी आआोर एकटा पेन देलैथि आ कहलैथि जे ई राखि ल..याद करिअह जे जीवकांत जी देने छलैथि….हुनका स हम बहुत किछु सिखलहुं….अहा कहि सकैत छी जे हमरा पत्रकारिता मे अएबाक एकटा वजह जीवकांत बाबू सेहो छलैथि…बचपन मे जखन डेओठ हुनका स पढै लए जाइत छलहुं त हुनका लग दिनमान, धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान सब अबैत छल आओर हुनका स मांगि कए पढैत छलहुं…ओ हमरा आओर हमर छोट भाई दूनू गोटे के पढौने छलाह….एखनो जहिया गाम जाएत छलहुं हुनका स जरूर आशीर्वाद लैत छलहुं…
हुनकर कमी खलत…
गुरू जीवकांत जी क श्रद्धांजलि
बहुत बढियाँ
Very moving and close to the Baba we knew. Thanks for your post.
Thanks for writing such wonderful post! Baba is alive in all of us.