आज प्रस्तुत है जावेद आलम ख़ान की दस कविताएँ-अनुरंजनी
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(1) याद
हिचकी आए तो पानी पियो नानी कहती थीं
पानी पीता हूं तो लकीर सी खिंच जाती है हलक में
कोई कहता है किसी ने याद किया होगा
याद भी कमबख्त पानी के जैसी ही निकली
बेरंगी बेढंगी और बदमिज़ाज
कहीं से भी आकर दिमाग के गड्ढे में उतर जाती है
तुम्हें याद करते हुए कितनी बार कोशिश की
पानी पर उंगलियों से नाम लिखने की
लगता है अब वही पानी अपना हिसाब ले रहा है
(2) वे दिन
यह पिछली सदी के गुरूब होने के दिन थे
हम नहीं जानते थे
नया सूरज दिन बदलेगा या तारीख
सफेद चादर ओढ़कर निकलेगा या कोहरे को चीरकर
भात भात करता आदमी
भूख से मरता है या भोजन की अधिकता से
संसदीय मुबाहिसों से बेखबर
ग्रेजुएशन के आखिरी साल की पीढ़ी
दिन रात छाए धुंधलके से हैरान थी
मधुमक्खियों के हुनर से बेखबर
कुछ लोग थे जो फूलों से इत्र बनाना चाहते थे
खुशबुओं को शीशी- कैद देने की उनकी सनक में
फूल चंदन जंगल सब खौफजदा थे
यह पिछली सदी के गुरूब होने के दिन थे
क्षितिज के सूरज पर काला रंग चढ़ रहा था
उसकी गुलाबियत पैमानों में उतर आई थी
यह शिकारियों की आंखों में चमकती खुशी के दिन थे
यह अमराइयों और महुओं की खुदकुशी के दिन थे
ब्याहता ऋतुओं की नाउम्मीदी बूढ़े मौसमों की बाईस-ए फिक्र थी
बचपन खेल के मैदानों के साथ चौहद्दी में सिमट रहा था
प्रेम कबूतरों के पंजों से निकलकर इंटरनेट पर उड़ना सीख रहा था
बासी होने के आरोप में कविता से बेदखल हुए कमल
चेहरों और तालाबों में अपनी उदासी छोड़ गए थे
रोशनी की चंद किरचों में ख़्वाब जमा थे और क़तरों में आसमान
यात्राएं नींद के पैरों पर चल रही थीं
प्रेम नई पीढ़ी की प्रतीक्षा में स्थगित था
दूब पर फैली पीली उदासी से हताश
कोटरों में बंद बेरोजगार परिंदों के मौन में डूबी
दिसंबर के आसमान में छाई ऊब ढोने के दिन थे
यह पिछली सदी के गुरूब होने के दिन थे
(3) जीने की वजह
समय की टोकरी से छिटका पल
कितना मनहूस होता है
जब महसूस होता है
कि कोई तुम्हें प्यार नहीं करता
पर यह जान लेना
कितना जानलेवा है
कि हम खुद ही खुद को प्यार नहीं करते
सफेद बालों पर ख़िज़ाब लगाते चचा ने कहा
इतनी आत्ममुग्धता तो होनी चाहिए बरखुरदार
कि जीने के लिए बची रहे जीने की वजह
(4) हजारों ख्वाहिशें ऐसी
ऐसा होता कि मैं होता तुम होती और बियाबाँ होता
पास में नदी होती तारों जड़ा आसमां होता
हमारे पास एक हंसिया होता
एक दरांती एक हथौड़ा
बांस की पतली सी लकड़ी होती
जिसे जरूरत के हिसाब से बकरियों को हांक लगाने में इस्तेमाल करते
और उसके छिद्रों में अपनी सांसें भरकर एक सरगम को रवाना करते हवा की देह चूमने
हम प्रेम के लिए क्रांति करते क्रांति के लिए प्रेम
चिड़ियों की आवाज पर जागते और झींगुरों की आवाज़ पर सो जाते
एक फूस की झोपड़ी होती और जामुन के कुछ दरख़्त
कुछ फूल होते कुछ फसलें कुछ कहानियां
लकड़ियां सिर्फ इतनी होती जिनके अलाव में
आटे की गीली देह को तपाकर रोटियां बनाई जाती
पानी का कोई सोता होता और चार गगरियां
हम हंसते और इतना हंसते
कि इतिहास के खंडहर बर्फ के पहाड़ों में तब्दील हो जाते
खानाबदोश पैरों में ठहर जाते अनथक यात्राओं के स्वप्न
शहरों की चकाचौंध मोटरों की चिल्लपों से दूर
साहित्य की कुछ किताबें होतीं
भित्तिचित्र वाली गुफाएं होतीं
झरने हवा नदी पंछियों के साथ बहता आदिम संगीत होता
प्यार का चेहरा न होता
ख्वाबों पे पहरा न होता
काश ऐसा होता
मैं होता
तुम होती
बियाबां होता
(5) बेवजह
अगर देह में स्नेह हो
तो बांहे फैलाकर लिपटा जा सकता है हवा से भी
पोरों को भिगोकर नदी को उतारा जा सकता है अपने भीतर
बंद गुफा में मुखातिब हो सकते हैं अपनी ही सांसों से
अधैर्य होकर नाप सकते है कोई पहाड़ी दुर्ग
हल कर सकते है कई गैरजरूरी मसअले
कारण कार्य संबंध निभाती दुनिया में
बेकार भी करना चाहिए कभी कोई कार्य
बेसबब भी मुस्कुरा देना चाहिए किसी को देखकर
बेवजह किसी को प्यार तो कर ही लेना चाहिए
अनियोजित यात्राओं का अपना आनंद है
अनायास उपजी कविताओं की अपनी पुलक
प्रदर्शन से नकली हो जाता है संगीत
बड़प्पन में कुरूप हो जाती है कविता
फोटो के लिए बनावटी हो जाती है मुस्कान
मकसद आने पर हल्का हो जाता है प्यार
(6) फासिस्ट
जिसने मुसोलिनी को गोलियां मारी
जिस भीड़ ने लाश को चौराहे पर उल्टा लटकाया
गले के गोडाउन से बलगम खींचकर
जिस आदमी ने घृणा से उसकी लाश पर थूका
जिस औरत ने स्कर्ट उठाकर मुंह पर मूता
वे सबके सब जो गला फाड़कर चिल्ला रहे थे
फासीवाद मुर्दाबाद
दरअसल फासिज्म से बदला लेने के लिए
खुद भी फासिस्ट हो चुके थे
(7) गुलमोहर
गुलमोहर की फुनगियों पर
पीत पुष्पों का गझिन विस्तार
एक जोड़ा बुलबुलों का फासले से बैठकर
देखता है तितलियों को चूमते फूलों के गुच्छे
हो रहा चुपचाप
संक्रमण सौंदर्य का इस पात से उस पात
बालकनी में खड़े होकर सोच रहा हूं
कि धरती पर इतने फूल होते हुए भी
दुनिया इतनी उदास क्यों है
जबकि एक गुलमोहर को देखकर
तमाम दुख चाय के घूंटों में पिया जा सकता है
(8) अनुर्वर
बीज है बसंत है बांसुरी है
मिट्टी है महक है मंजरी है
प्यार है प्यास है पानी है पावस है
दिल है दर्द है दरिया है दरख़्त है
फूल है फल हैं फसल है फसाने हैं
नग है नगर है नज़र है नज़ारे हैं
पर धुंध है कि छंटती ही नहीं
अमर बेल जैसी फैल गई है अनुर्वरता की रुत
यह उदासी नहीं कवि की हताशा का समय है
कि कागज है
कलम है
कीबोर्ड है
कविता नहीं है
(9) स्थगित
किसी उम्मीद से भारी है हवा
या अपनी ऊब से
सूखे पत्तों सी देह चरमराती क्यों है
उदास है क्षीणकाय झरनों का संगीत
अवरुद्ध कंठ में फंसे है बसंत के गीत
पपीहे बुलबुलें खामोश हैं
नए निज़ाम में हर आवाज
कानों तक पहुंचने से पहले जामा तलाशी से गुजरेगी
मौसमों के बीच असहमति का निर्वात बना है
अभी वायुमंडल में अटकी रहेगी सभी प्रार्थनाएं
फसलों की पुकार पर हिमानियों की पिघलन थम गई है
आकाश कुसुम के लिए अबाबीलों की सभी उड़ानें रद्द है अभी
अभी लौट जाओ बादलों इंतजार करो
कि बारिश के लिए मुफीद वक्त नहीं है
तुमसे गिरी हर बूंद तेजाब हो जायेगी
कुछ दिन ठहर जाओ कोयल
कि पाला मारे बाग में आम अभी बौराये नही है
कि चोट खाया बसंत अभी होश में नहीं है
कपोतों! प्रेमियों को खबर कर दो
बीमार मौसम की सिफारिशों पर
प्रेम की सभी कार्रवाइयां स्थगित की जाती हैं
(10) जीव हत्या
बायोलॉजी के प्रैक्टिकल के लिए
जीव हत्या से पाप लगता है कहकर
मेढक का पेट चीरने से इनकार किया था
वही लड़का
दंगाइयों की भीड़ में सबसे आगे था
परिचय
नाम – जावेद आलम ख़ान
जन्मस्थान – जलालाबाद, शाहजहांपुर, उत्तर प्रदेश
संप्रति – अध्यापन
संपर्क – javedalamkhan1980@gmail.com
प्रकाशन – कविता संग्रह – स्याह वक़्त की इबारतें
बारहवां युवा द्वादश में कविताएं संकलित
पत्रिकाओं में – हंस, कथादेश,वागर्थ, आजकल, पाखी, बया, पक्षधर, गगनांचल, परिंदे, कृति बहुमत आदि।
ऑनलाइन – सदानीरा, हिंदवी, कविता कोश, पोशम पा, पहली बार, सेतु, कृत्या आदि।