उन्होंने कर्नाटक के कस्बों से मालगुड़ी का निर्माण किया

    मैसूर में अंग्रेजी के प्रमुख लेखक आर.के. नारायण के घर को स्मारक बनाने का निर्णय हुआ तो कन्नड़ के  अनेक प्रमुख लेखकों ने उसका विरोध करना शुरु कर दिया. उनका कहना है कि आर. के. नारायण अंग्रेजी के लेखक थे कन्नड़ के नहीं, इसलिए कर्नाटक में उनका स्मारक नहीं बनना चाहिए. आज इसी प्रसंग पर प्रसिद्ध विद्वान रामचंद्र गुहा ने बहुत अच्छा लेख लिखा है. आपसे साझा कर रहा हूं- मॉडरेटर.
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    अस्सी साल पहले राष्ट्रव्यापी असहयोग आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी ने भारतीयों से इंग्लैंड में बनी वस्तुओं और अंग्रेजों द्वारा चलाए जा रहे स्कूलों-कॉलेजों के बहिष्कार का आह्वान किया था। इसके साथ ही गांधीजी ने शासकों के साथ किसी भी किस्म का सहयोग न करने की भी अपील की थी। राष्ट्रीय भावना को जगाने के अपने अभियान के दौरान उन्होंने शासकों की भाषा के खिलाफ भी मोर्चा खोल दिया था। उड़ीसा (अब ओडिशा) में अप्रैल 1921 में दिए गए अपने भाषण में गांधीजी ने अंग्रेजी शिक्षा को पूरी तरह से राक्षसी बताया। गांधीजी ने यह तक कहा था कि बाल गंगाधर तिलक और राजा राममोहन राय को अंग्रेजी शिक्षा की छूत न लगती, तो वे ज्यादा महान व्यक्ति होते। गांधीजी की राय में ये दोनों महान भारतीय इतने छोटे थे कि चैतन्य, आदि शंकराचार्य, कबीर और नानक के मुकाबले जनता पर उनकी पकड़ कुछ भी नहीं थी। गांधीजी ने कहा था कि जो कुछ अकेले शंकराचार्य कर पाए, वह अंग्रेजी जानने वालों की पूरी फौज भी नहीं कर सकती। इसके कई उदारहण हैं। क्या गुरु गोविंद सिंह अंग्रेजी शिक्षा की उपज थे? क्या एक भी अंग्रेजी जानने वाला हिन्दुस्तानी गुरु नानक के सामने ठहर सकता है? अगर भारतीय जाति को आगे बढ़ना है, तो यह अंग्रेजी शिक्षा के सहारे नहीं हो सकता। गांधीजी का यह कहना था कि राजा राममोहन राय ज्यादा बड़े समाज सुधारक होते और लोकमान्य तिलक कहीं बड़े विद्वान होते, अगर उन्हें अंग्रेजी में सोचने और विचार व्यक्त करने का बंधन न होता।
    मुङो गांधीजी के ये शब्द याद आए, जब मैं कुछ महत्वपूर्ण कन्नड़ लेखकों के एक विरोध के बारे में पढ़ रहा था। पंद्रह लेखक, जिनमें शब्दकोश निर्माता जी वेंकटसुब्बैया, कवि जी एस शिवरुद्रप्पा, उपन्यासकार एस एल बमैप्पा और आलोचक एल एस शेषगिरी राव शामिल हैं, मैसूर में आर के नारायण के घर को उनका स्मारक बनाने के प्रस्ताव का विरोध कर रहे हैं। उनका कहना है कि नारायण चेन्नई में पैदा हुए थे और शुरुआती वर्षो में वह वहीं पर रहे थे, इसके अलावा उन्होंने मैसूर में रहते हुए भी अंग्रेजी में लिखा, इसलिए उन्हें कन्नड़िगा नहीं माना जा सकता। इन लेखकों को यह भी शिकायत है कि नारायण ने कन्नड़ की किसी भी साहित्यिक कृति का अंग्रेजी में अनुवाद नहीं किया और अपने उपन्यासों की पांडुलिपियां कर्नाटक के किसी विश्वविद्यालय को मुफ्त देने की बजाय एक अमेरिकी यूनिवर्सिटी को बेच दी, इसलिए वह स्मारक के हकदार नहीं हैं।
    1921 में गांधीजी ने अंग्रेजी में लिखने वाले भारतीयों की जो आलोचना की थी, उसका प्रतिवाद गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने किया था। टैगोर गांधी के प्रशंसक थे, उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में गांधी के आंदोलन के लिए पैसा जुटाया था। उन्होंने गांधीजी के बेटों और सहयोगियों को शांति-निकेतन में जगह दी थी और गांधीजी के लिए सबसे पहले उन्होंने ही महात्मा शब्द का इस्तेमाल किया था। लेकिन टैगोर गांधीजी के संकीर्ण देशज स्वरूप के विरोधी थे। टैगोर ने लिखा कि मैं राजा राममोहन राय जैसे आधुनिक भारत के महान पुरुषों को कमतर आंकने की गांधीजी की कोशिश का सख्त विरोध करता हूं। उन्होंने अंग्रेजी शिक्षा के विरोध के कारण यह कोशिश की है। टैगोर ने लिखा कि गांधीजी के शब्द और तर्क यह दिखाते हैं कि वह अपने ही विचारों से आकर्षित हुए जा रहे हैं। यह ऐसा खतरनाक अहंकार है, जिससे महान पुरुष भी बच नहीं पाते।
    महात्मा गांधी सोचते थे कि राममोहन राय अंग्रेजी में लिखने-बोलने की वजह से सीमित हो गए थे। दूसरी ओर, टैगोर का मानना था कि अन्य भाषाओं से परिचय की वजह से राममोहन राय में वह व्यापकता आई, जिससे वह हिंदू, मुस्लिम और ईसाई संस्कृतियों की मूलभूत एकता को समझ सके। राममोहन राय बहुत स्वाभाविक रूप से पश्चिम को स्वीकार कर सके, क्योंकि उनकी शिक्षा पूरी तरह पूर्वी थी और वह भारतीय विवेक के सच्चे उत्तराधिकारी थे। वह पश्चिम के स्कूली बच्चे नहीं थे, अत: उनमें पश्चिम का मित्र होने की गरिमा थी। गांधीजी को टैगोर ने असलियत दिखा दी थी और कर्नाटक के उग्र संकीर्णता वादियों को ऐसे दो लोगों ने आइना दिखाया है, जो शायद आज के सर्वाधिक लोकप्रिय और जाने-माने कन्नड़ लेखक हैं। नाटककार गिरीश कर्नाड से जब इन कन्नड़ लेखकों के बयान पर टिप्पणी करने को कहा गया, तो उन्होंने कहा कि नारायण मैसूर में रहे और उन्होंने कर्नाटक के कस्बों से मालगुड़ी का निर्माण किया। इसलिए वह कन्नड़िगा नहीं हैं, यह कहना बेहूदा है।

    गिरीश कर्नाड की टिप्पणी ही काफी वजनदार थी और उसका समर्थन उनके समकालीन महान लेखक यू.आर. अनंतमूर्ति ने भी कर दिया। अनंतमूर्ति ने कहा कि जो भी इस राज्य में रहता है और लिखता है, वह कन्नड़ का नागरिक है। जो लोग कहते हैं कि आर के नारायण कन्नड़िगा नहीं हैं, वे अपना ओछापन दिखा रहे हैं। अखबारों में उनके बयान पढ़ने के बाद मैंने कर्नाड और अनंतमूर्ति को फोन करके बधाई दी। कर्नाड ने कहा कि उन्हें कर्नाटक में बाल ठाकरे किस्म के संकीर्णतावादी आंदोलन के मजबूत होने की फिक्र है। अनंतमूर्ति ने भी बड़े दुख से कहा कि उन्होंने आर के नारायण और उनके भाई आर के लक्ष्मण पर कन्नड़ में लिखा है और उन निबंधों की उन लोगों से चर्चा भी की है। अनंतमूर्ति मैसूर के पुराने नागरिक हैं और उन्होंने याद किया कि आर के नारायण किस तरह से पक्के कन्नड़िगा लगते थे। उनकी धोती, टोपी-झोला और धीमी चाल बताती थी कि वह पूरी तरह मैसूर निवासी थे।
    जब गांधीजी का प्रतिवाद टैगोर ने किया, तो गांधीजी ने उसका जवाब देने और अपनी गलती स्वीकारने का बड़प्पन दिखाया। गांधीजी संकीर्णतावादी नहीं हो सकते थे। अपने बचाव में उन्होंने जो कहा, वह कुछ इस तरह था, ‘मैं खुली हवा का वैसा ही पक्षधर हूं, जैसा कि महाकवि हैं। मैं अपने घर को चारों तरफ से दीवारों से घिरा और अपनी खिड़कियों को बंद रखना नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि सभी देशों की संस्कृतियों की हवा मेरे घर में आजादी से आ-जा सके, लेकिन मैं यह नहीं चाहूंगा कि मुङो कोई उड़ा ले जाए।ये पंक्तियां गांधीजी की महानता और सांस्कृतिक बहुलतावादी समझ को दिखाने के लिए अक्सर दोहराई जाती हैं। सच्चाई यह है कि ये पंक्तियां उनसे टैगोर ने बुलवाई थीं। यह बात अक्सर भुला दी जाती है।
    आर के नारायण ने कन्नड़ में नहीं लिखा, लेकिन उनके लेखन में कर्नाटक के लोग, संस्कृति और दृश्यों का संवेदनशील चित्रण है। 1938 में छपी मैसूर पर्यटन, लेखन की लाजवाब किताब है। उनके उपन्यासों का मालगुड़ी निश्चित रूप से मैसूर से पंद्रह मील दूर काबिनी नदी के किनारे बसा कस्बा नंजनगुड है। मालगुड़ी शब्द भी बंगलुरु की दो बस्तियों के नाम को मिलाकर बना है- मल्लेश्वरम और बासवानगुड़ी। इसीलिए टेलीविजन सीरियल मालगुड़ी डेजकन्नड़ में इतना लोकप्रिय हुआ। मुझे उम्मीद है कि कर्नाड और अनंतमूर्ति के हस्तक्षेप के बाद कन्नड़ लेखक अपना विरोध वापस ले लेंगे। अगर कुछ गलत हो जाए, तो उसे स्वीकार करना श्रेष्ठ परंपराओं के अनुरूप है। गांधीजी इसके उदाहरण हैं।
    ‘दैनिक हिन्दुस्तान’ से साभार 
                               

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