
इस साल एक उल्लेखनीय कथा संकलन आया है ‘ये दिल है कि चोर दरवाजा‘। किंशुक गुप्ता द्वारा लिखी समलैंगिक रिश्तों की ये कहानियाँ हिंदी में अपने ढंग की अनूठी है और बहस की मांग करती है। फ़िलहाल वाणी प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह पर डॉक्टर भूपेन्द्र बिष्ट की यह टिप्पणी पढ़िए-
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वर्जित विषय, जिनका रेंज प्रकट रूप से जितना समझा जा सकता है, उसमें फैंटेसी वाली व्यापकता को भी जोड़ लें तो एक अकूत दुनिया बनती जाती है. इस दुनिया में निजता, सहमति, बलात और मूल्य ऐसे अवयव भर हैं मानो अनिर्वचनीय भटकाव के समुद्र में लाइट हाउस. ताकि हम सिर्फ़ देख सकें कि फिलहाल साहिल से कितनी दूर आ गए हैं और अनुमान लगाएं कि फिर किनारे तक लौट भी सकेंगे या नहीं ?
इन सर्वथा त्याज्य विषयों पर हमारे यहां आख्यान रचना कोई नई बात भी नहीं पर इस संदर्भ में कहानी कहने की विलंबित गति या कथा प्रक्रिया के स्थगित होते रहने की आवृति, चाहे जिन वजहों से हो, इतनी अधिक है कि यह हिस्सा आज भी छूटा हुआ ही कहा जा सकता है.
इधर तेजी से और जरा हटकर या कहूं खुलकर लिखने वाले युवा कहानीकार किंशुक गुप्ता ने पाठकों का / पत्रिकाओं के संपादकों का ध्यान खींचा है. वे यह स्पष्ट करते हुए आगे बढ़ रहे हैं कि मिलेनियल्स प्रेम के बहुआयामी अस्तित्व को केवल एक खांचे में ढालकर देखने के पक्षधर नहीं. वे लिव इन, सिंगल मॉम, पेट-डैड, वाइकेरियस डेटिंग, ओपन मैरिज, पर्पल मैरिज जैसे प्रयोगों को आजमाकर देखना चाहते हैं. …. किंशुक का मानना है कि समाज और समलैंगिकता का सालों से चूहे बिल्ली वाला नाता रहा है, जिसमें समाज हमेशा अपने तीखे पंजों और नुकीले दांतों वाली बिल्ली की भूमिका में अडिग रहा है.
उनकी 8 कहानियों का संग्रह “ये दिल है कि चोर दरवाज़ा” ( वाणी प्रकाशन ) अचानक चमकीली रोशनी लेकर आया तो है परंतु अब भी इसे नीम उजाले में ही पढ़ा जाए या फिर स्वीकार ही कर लिया जाए कि चोर दरवाजों से मुख्य दरवाजों तक आने का सफ़र दमित कामना, गुह्य ईप्सा और बेमेल तमन्ना की बात भर नहीं है अपितु इसी समाज की, इसी जमाने की दबी – ढकी गर्म आरज़ू है और इस राह पर जो चल रहे हैं वे साफ़ उजालों में भी अब बढ़ें आगे.
कुछ समय पहले एल.जी.बी.टी.क्यू. समुदाय और आयाम पर रश्मि शर्मा की कहानी “बंद कोठरी का दरवाज़ा” का बड़ा हल्ला मचा और इसी तरह आकांक्षा पारे की “सखी साजन” तथा जयश्री राय की “निर्वाण” जैसी कहानियां एकाएक चर्चा में आई. परंतु संदर्भित प्रकरण की बाकायदा शुरुआत ‘ अदब – ए – लतीफ़ ‘ में शाया हुई इस्मत चुगताई की “लिहाफ़” ( The Quilt ) कहानी — 1942 से मानना चाहिए. इस कहानी को हिंदुस्तानी साहित्य में लेस्बियन प्यार की पहली कहानी कहा गया और अदबी हलके में तवील अरसे तक एक जलजला सा नाफिज़ रहा. इससे पहले भी यद्यपि पांडेय बेचन शर्मा उग्र की कहानी “चॉकलेट” तहलका मचा चुकी थी.
इसी तरह निराला की “कुल्लीभाट” और रेणु की “रसपिरिया” कहानियों ने भी हिंदी के जगत में भूचाल जैसा ला देने का काम किया. तब भी यौन अभिविन्यास पर आख्यानपरक रचनात्मक लेखन के माइल स्टोन या निश्चित पड़ाव को अभी उतनी सहलता से चिन्हित नहीं किया जा सकता. हां, उस एक धारा की पहचान अब अवश्य की जा सकती है.
“ये दिल है कि चोर दरवाज़ा” संग्रह की पहली कहानी “मछली के कांटे” लिव इन रिलेशन संबंधों के कालांतर में औपचारिक हो जाने के विपरीत घनीभूत होते जाने की कहानी है तो “सुशी गर्ल” का कथानक जेंडर बाइनरी में जीने, सोचने और व्यवहृत होने वाले समाज के लिए रेयर किस्म का बड़ा कथानक.
मुख्य स्त्री पात्र से विवाह प्रस्ताव के दौरान श्रेय जब हड़बड़ी में बोलता है — अतीत सबका होता है. मुझे तुम्हारा जानने में कोई दिलचस्पी नहीं, तो इस हड़बड़ी की असामान्यता को कुछ ख़ास नोटिस नहीं किया गया और श्रेय का फ्रेंड व्योम ही यह रिश्ता क्योंकर लाया था, इस बात पर भी निगाह नहीं गई. आगे चलकर व्योम का इन्ही के अस्पताल में दो दिन हर हफ़्ते कैंप लगाने की इच्छा को भी समझना चाहिए था.
बाद में व्योम जब पहली बार श्रेय के घर खाने पर आया तो उसका कहना कि ‘ कच्चे फल की कड़वाहट सदृश लड़की मस्तमौला होती है, किसी के मुंह के स्वाद की फिक्र न करने वाली. जबकि औरत मीठा फल होती है, सबका ध्यान रखने वाली ‘ और श्रेय अपनी मैडम को देखो पूरी पका फल — दाल, चावल मेरी पसंद के, रोटी सब्ज़ी आपकी पसंद की बनाई है. इस बात पर उठे कहकहे ने भी इन दो पुरुषों की दोस्ती को अधिक उलझा दिया. इस चरण तक पाठक कहानी में प्रेम त्रिकोण की तवक्को कर सकता है या अधिक से अधिक विवाहेत्तर संबंध की कुछ कुछ संभावना भी देख सकता है. श्रेय के ‘गे’ होने का तो जरा भी अंदेशा वहां खुलता नहीं.
दरअसल यौनिकता का विमर्श आज भी समाज में एक गोपनीय एजेंडा है. पर्दे के पीछे मुखर लेकिन उघाड़ गाह में मूक, दमित सच जैसा. इसलिए भी कहानी की मैडम को पट्टाया ( थाईलैंड ) के पैशन शो में सुशी गर्ल की उद्दाम अवधारणा से गुजर जाने के उपरांत भी समलैंगिकता के माजरे का जरा भी भान न हुआ. आखिरकार जब भेद खुला तो हस्बे-मामूल उसकी प्रतिक्रिया भारतीय जीवन मूल्यों के मुताबिक ही जाहिर हुई.
इतना ही नहीं, उसके भीतर कुछ कुंठाओं ने भी जन्म लिया — क्या मेरे ही शरीर में वैसा आकर्षण नहीं है कि मैं श्रेय को बांध पाती ?
कहानी की संकुलता में सुखद यह कि सुशी गर्ल की नायिका इस्मत चुगताई के “लिहाफ़” वाली फकत ‘बेगम जान’ ही न बनी रही, बल्कि उसने प्रतिशोध का मुज़ाहिरा भी किया और नवाब़ साहब के ‘हमज़ाद’ की खूब खबर भी ली.
इसी प्रकार किंशुक की “बीमार शामों को जुगनुओं की तलाश” तथा “हमारे हिस्से के आधे-अधूरे चांद” कहानियों को लें. पहली में डॉ. फ्रेडरिक द्वारा फ़रमान सुनाना कि पिता की दोनों किडनी लगभग फेल हैं तो मां और बहन मालती की निराशा और दुःख के आगे सोमिल को पूनावाला का मैसेज कि बिना कपड़ों के अपनी तस्वीर भेजो, वैसे तुम्हारे मेजरमेंट्स क्या हैं या दूसरी कहानी में आदी के कारण – ल्यूकेमिया के कारण मम्मी अपने भाग को कोसती हैं और रोमू भैय्या और सोमा दीदी का प्यार परवान नहीं चढ़ पा रहा है, इसका मलाल — लार्जर दैन लाइफ की बानगी ही कही जा सकती है.
किंशुक गुप्ता की कहानियों पर टिप्पणी करते हुए अनामिका ने सही लिखा है कि ये विषय सिर्फ़ यौनजीवन की समस्याएं नहीं रह जाती बल्कि लेखक किरदारों के मानसिक उहापोह का आभास देता हुआ आसन्न परिवेश का जायजा भी लेते चलता है. सूर्यबाला ने इसे संवेदनाओं का वृहद कोलाज कहा है.
दरअसल हमारे यहां यौनिकता पर विमर्श की अपनी सीमाएं हैं. कोई भी मज़हब हो, कैसा ही संप्रदाय, कोई भी जाति, वर्ग हो और अमीर हो या गरीब — उसमें या तो कोई पुरुष है या फिर स्त्री. इन दो सांचों के इतर कोई है तो वह ” कोई नहीं है.” लेस्बियन, गे, बाईसेक्सुअल, ट्रांसजेंडर और क्वियर पर चर्चा अभी बंद समाज तो क्या खुले समाज में भी खुले तौर पर और बड़े रूप में हो नहीं पा रही. इसलिए भी संदर्भित ताने बाने को लेकर सर्व स्वीकार्य रचनात्मकता का वितान गढ़े जाने और कसे जाने में वक्त लग रहा है.
किंशुक की प्रस्तुत संग्रह में शामिल कहानी “तितलियों की तलाश में” कोई सामान्य कहानी नहीं है. एक प्लॉट बुनकर, कुछ डिटेल्स डालकर सारिका और सुधीर के मन की बदहवास कर देने वाली पीड़ा को दिखाना आसान नहीं था. उनका किशोर बेटा अनुभव – उनका भवू चॉकलेट देखते ही अपनी निक्कर उतारने लगता है ! ये दंपति इस लालसा या दबाव का कारण ढूंढते हैं या इसके पीछे के खल को ढूंढते हैं ? जो भी करते हैं; निवारण के लिए रास्ते की तलाश करते – करते एक रहस्य की सुरंग में दाखिल हो जाते हैं, जो आखिरकार संदेह में जाकर खुलता है. एक और कहानी “मिसेज रायज़ादा की कोरोना डायरी” के कुछ संवाद, मसलन — ‘ शादी की क्या ज़रूरत है, जब उसके बिना भी खुश हैं ‘ या ‘ हम दोनों बिजी हैं, रोज संभव नहीं हो पाता. मुझे आता नहीं, उसे बनाना पसंद नहीं. खाने के चक्कर में रोज रोज झगड़ा क्यों किया जाए? ‘ हमारे मआशर के ही आईने के टुकड़े हैं, जिनमें मसाइल इतने तरीके से प्रतिबिंबित हो रहे हैं कि मोहब्बत घर के बजाय बाहर की ही चीज़ होकर रह गई और बाहर की मोहब्बत कितने बाने रखती है, कितने रूप — ये शायद अंतर्मन ही जानता हो.
और किंशुक ने समर्पण पृष्ठ पर यह ‘ फतवा ‘ देकर कि
समलैंगिक समुदाय को समर्पित — जिनके प्रेम की घुन टाइम बम की टिक-टिक है, ह्यूमर और साहस दोनों को सान कर सामने रख दिया है.
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ये दिल है कि चोर दरवाज़ा
( कहानी संग्रह )
लेखक-किंशुक गुप्ता
वाणी प्रकाशन
पृष्ठ : 200
₹ 450
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डॉ. भूपेंद्र बिष्ट
लोअर डांडा हाउस
चिड़ियाघर रोड
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