आज प्रस्तुत है मराठी भाषा के शीर्ष लेखक बल्कि कहना चाहिए कि भारत के शीर्ष लेखक विश्वास पाटिल से बातचीत। अपने ऐतिहासिक उपन्यासों से भारतीय साहित्य में उन्होंने अपना एक अलग मुक़ाम बनाया है। इस बातचीत के केंद्र में है शिवाजी पर लिखा जा रहा उनका उपन्यास त्रयी। जिसका पहला भाग ‘शिवाजी महासम्राट झंझावात’ हिन्दी अनुवाद में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है और अंग्रेज़ी में वेस्टलैंड से। दूसरा भाग मराठी से अनूदित होकर अंग्रेज़ी में वेस्टलैंड से प्रकाशित हुआ है जिसका नाम है ‘Shivaji Mahasamrat: The Wild Warfront’. आइये उनकी बातचीत पढ़ते हैं जो मैंने की है- प्रभात रंजन
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प्रश्न 1. आपके उपन्यास के नायक शिवाजी कितने ऐतिहासिक पुरुष हैं और कितने उपन्यासकार के शिवाजी हैं?
उत्तर- मैं शिवाजी के व्यक्तित्व को केवल इतिहास का एक पृष्ठ नहीं मानता, बल्कि उन्हें एक महान मानव के रूप में प्रस्तुत करता हूँ। वे न कोई देवता थे, न कोई रहस्यात्मक मिथक—वे एक जीवंत, कर्मठ और संवेदनशील पुरुष थे। उनका कद सामान्य था और जीवन केवल 49 वर्षों का, परंतु वे अत्यंत सक्रिय, परिश्रमी, करुणामय और उदार थे।
इतिहास के तथ्य मेरे लिए एक लौह-ढाँचे की तरह हैं—स्थिर और आवश्यक। लेकिन एक लेखक के रूप में मैं उसमें भाव, संवेदना और जीवन का संचार करता हूँ। उस काल में मुग़ल साम्राज्य काबुल-कंधार से लेकर कामरूप (असम) तक फैला था, और उनकी स्थायी सेना दस लाख से भी अधिक थी। इसके विपरीत, शिवाजी का राज्य केवल पश्चिम महाराष्ट्र और कोंकण के कुछ जनपदों तक सीमित था। फिर भी उनकी दृष्टि अत्यंत दूरगामी थी।
उन्होंने स्त्रियों, बच्चों, दलितों और निर्बलों के प्रति जो व्यवहार किया, वह अद्वितीय था। जब हिंदू धर्म ने समुद्री यात्रा को धर्मविरुद्ध मान लिया और व्यापारिक समुद्री मार्ग बंद हो गए, तब शिवाजी ने आधुनिक भारतीय नौसेना की नींव रखी, व्यापारियों को संरक्षण दिया और भारत की समुद्री सीमाओं की रक्षा की।
प्रश्न 2. अनेक मध्यकालीन इतिहासकारों ने शिवाजी को लुटेरा बताया है। आप इस छवि को किस दृष्टि से देखते हैं?
उत्तर– प्रारंभिक समय में इतिहासकारों के पास बहुत सीमित स्रोत थे। अधिकतर दस्तावेज़ मराठी में थे, जो उनकी पहुँच से बाहर थे। शिवाजी स्वयं भी बेहद सीमित संसाधनों में कार्य कर रहे थे—सह्याद्रि क्षेत्र गरीब किसानों से भरा था और उनकी सेना के पास हथियार व गोला-बारूद की कमी थी।
ऐसी परिस्थितियों में उन्होंने छापामार युद्ध (गुरिल्ला वॉरफेयर) को अपनाया, जिसकी शिक्षा उन्हें उनके पिता शाहाजी राजे से मिली थी। इसी रणनीति से उन्होंने कई दुर्ग और क्षेत्र अपने नियंत्रण में लिए। लेकिन इतिहासकारों ने इस नीति को ‘लूट’ समझने की भूल की। जबकि आज गुरिल्ला युद्ध एक स्वीकृत युद्धनीति है। इसलिए शिवाजी को दोष देना न्यायसंगत नहीं है।”
प्रश्न 3. आज के समय में शिवाजी एक महानायक और प्रतीक के रूप में उभरे हैं। इसके पीछे ऐतिहासिकता कितनी है और राजनीति का प्रभाव कितना?
उत्तर– आज के भारत में शिवाजी एक महान आदर्श और प्रेरणा का स्रोत हैं। उनका परिश्रमी स्वभाव, मानवता के प्रति समर्पण और प्रकृति के नियमों के प्रति सम्मान जाति-धर्म की सीमाओं से परे था।
लेकिन दुर्भाग्यवश, आज भारत में, खासकर महाराष्ट्र में, सभी राजनीतिक दल उन्हें अपनी विचारधारा से जोड़ने की कोशिश करते हैं। वे उन्हें चुनावी प्रचारक की तरह प्रस्तुत करते हैं—जो अत्यंत खेदजनक है।
पाठक और विद्यार्थी मुझसे अकसर पूछते हैं कि ‘शिवाजी और संभाजी का धर्म क्या था?’ मेरा उत्तर सदा स्पष्ट होता है—वे हिंदू थे, उनके दरबार और परिवार में पूजा-पाठ हिंदू परंपराओं के अनुसार होता था, परंतु जीवन के अंत में उन्होंने ‘मानव धर्म’ को अपनाया। उनके जीवन आज ध्रुवतारे की भांति मानवता को दिशा दिखा रहे हैं। यह पिता-पुत्र की महानतम देन है।
प्रश्न 4. शिवाजी पर शोध करते समय इतिहासकारों से आपको क्या प्रेरणा मिली?
उत्तर– मैं भारतीय और विदेशी, सभी इतिहासकारों के प्रति कृतज्ञ हूँ। ग्रांट डफ, जदुनाथ सरकार, सरदेसाई, केलुस्कर गुरुजी जैसे विद्वानों की आलोचनात्मक दृष्टि और मानवीय दृष्टिकोण ने मुझे शिवाजी को समझने में गहरी सहायता दी।
विशेष रूप से ‘जेडे शकावली’ (Jedhe Shekawali) जैसी बखरें और उस समय के अंग्रेज़ व पुर्तगाली फैक्ट्रियों के पत्र-व्यवहार मेरे लिए अत्यंत उपयोगी रहे। इन स्रोतों ने मुझे ऐतिहासिक सच्चाइयों को महसूस करने का अवसर दिया।”
प्रश्न 5. क्या शिवाजी को राष्ट्रीय स्तर का नेता माना जाना चाहिए या वे केवल एक क्षेत्रीय शासक थे?
उत्तर– शिवाजी निस्संदेह एक महान राष्ट्रीय नेता थे। उनकी सोच अत्यंत दूरदर्शी थी। वे पहले शासक थे जिन्होंने प्रकृति की रक्षा, वृक्षों और जीव-जंतुओं के संरक्षण की बात की। वे जल-संरक्षण और सिंचाई के महत्व को समझते थे।
उन्होंने आधुनिक नौसेना की स्थापना की, युद्ध के आधुनिक उपकरणों को अपनाया और भाषाओं-बोलियों की रक्षा की। उनका दृष्टिकोण जाति-धर्म की सीमाओं से परे था। वे मानव मूल्यों के रक्षक थे। वे केवल एक क्षेत्रीय शासक नहीं, बल्कि एक महान विचारक, नेता और एक प्रकार के ‘सुपर ह्यूमन’ थे, जिनका योगदान पूरे भारत और मानवता के लिए अमूल्य है।”
प्रश्न 6: औरंगज़ेब बनाम शिवाजी के विवाद को ऐतिहासिक रूप से किस प्रकार देखते हैं?
दुर्भाग्यवश आज हम ऐतिहासिक व्यक्तित्वों और घटनाओं को राजनीतिक दलों या विचारधाराओं के प्रचार के लिए चुनते हैं। लेकिन यह याद रखना आवश्यक है कि शिवाजी के झंडे के नीचे कई मुस्लिम सेनापति कार्यरत थे। इसी प्रकार, औरंगज़ेब की सेना और प्रशासन में अनेक राजपूत राजा, मराठा और ब्राह्मण शामिल थे।
औरंगज़ेब के काल में हिंदू मनसबदारों का प्रतिशत लगभग 32% था, जो कि पूरे मुग़ल और दिल्ली सल्तनत काल में सर्वाधिक था। इसलिए यह आवश्यक है कि हम इतिहास को यथार्थ की दृष्टि से देखें और आम जनता भावनाओं में बहने के बजाय तथ्यों पर ध्यान दे। कट्टरपंथी दृष्टिकोण न केवल लोकतंत्र के लिए, बल्कि समूची मानवता के लिए खतरनाक होता है।
प्रश्न 7: क्या यह सही है कि भारत के इतिहास में हिंदू राजाओं का चित्रण ठीक से नहीं हुआ?
उत्तर– आप ऐसा नहीं कह सकते। इतिहास एक समग्र इकाई है — जैसे आकाश और पृथ्वी को पूरी तरह से मापा या बाँधा नहीं जा सकता, वैसे ही इतिहास को धर्म या जाति के नजरिए से सीमित नहीं किया जा सकता।यह सच है कि मध्यकालीन इतिहासकारों ने महान मुगलों पर अधिक और विस्तृत कार्य किया, पर सम्राट अशोक, बुद्ध और अन्य ऐतिहासिक व्यक्तित्वों पर भी व्यापक लेखन और लोकप्रियता मिली है। लेकिन यह भी सत्य है कि पुराने समय से ही मराठा इतिहास, विशेष रूप से शिवाजी, संभाजी और योद्धा बाजीराव पेशवा के योगदान को अक्सर मध्यकालीन और आधुनिक भारत के बीच ‘क्रैम्प्ड’ कर दिया गया है — अर्थात उसे सीमित स्थान मिला है। इन महान व्यक्तित्वों को पाठ्यक्रम में मात्र 3 से 4 पैराग्राफ में समेट दिया गया है। इसलिए आज समय की मांग है कि मराठा काल को इतिहासकारों और विचारकों द्वारा बड़े पैमाने पर गंभीरता से लिया जाए और उन्हें उनके समुचित ऐतिहासिक स्थान और सम्मान के साथ प्रस्तुत किया जाए।
प्रश्न 8– शिवाजी के ऊपर आपके लिखे उपन्यास के पहले दो खंडों में उनके बचपन और युद्धों को लेकर बात है। यह जिज्ञासा है कि तीसरे खंड में क्या होगा?
उत्तर– तीसरे खंड मे उनका कर्नाटक का संघर्ष है. जहा उन्होने बसरूर नाम की एक नगरी लुटी थी. जो पूर्तगीज बेपारों की वसाहत थी. और उसके बाद दख्खन पर मिर्झा राजा जयसिंग का आक्रमण और शिवाजी राजा का आग्रा मे जाना. जहा शिवाजी और औरंगजेब का मानसिक और भावनिक ऐसा तीन महिने का कडवा जंग. उसके बाद ग्रेट एस्केप ऑफ शिवाजी फ्रॉम आग्रा. मेरे पास ऐसी नइ जानकारी और हकीकत है कि, तिसरा खंड सबसे रोचक और सेंसेशनल होगा. जहा शिवाजी, मिर्झाराजा, बाल संभाजी, औरंगजेब, जहानारा बेगम, नेताजी पालकर और स्वामी परमानंद ऐसे व्यक्तिचित्रनौका जबरदस्त खेल है. और इस व्हॉल्युम का नाम है “अस्मान भरारी”.
प्रश्न-9– आपसे बातचीत हो और आपके उपन्यास ‘महानायक’ की चर्चा न हो ऐसा ही ही नहीं सकता। महानायक में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जीवन जिस तरह से आया है उस तरह से पहले कभी नहीं आया था। उसके बारे में कुछ बतायें, अपने शोध के बारे में?
उत्तर– हाँ, मैं आलोचकों की इस बात से सहमत हूँ कि मेरे उपन्यास “महानायक” में उपयोग की गई और प्रस्तुत की गई कुछ सामग्री नेताजी सुभाषचंद्र बोस की पारंपरिक जीवनी में नहीं मिलती। लेकिन ये तथ्य मेरी रचना में स्वाभाविक रूप से और प्रभावशाली ढंग से सामने आए हैं। सुभाषचंद्र बोस की खोज मेरे लिए एक तरह का जुनून बन गई थी। मैंने उनके बारे में सच्चाई जानने के लिए आधी दुनिया की यात्रा की।
अपने शोध के दौरान मैंने बंगाली की 25 मूल किताबों और जापानी भाषा की 25 पुस्तकों के उपयोगी अनुवाद कराए। इसके साथ ही मैंने बर्मा, इम्फाल और कोहिमा के जंगलों में घूमते हुए उनके संघर्ष को और गहराई से समझा। इस पूरी यात्रा ने मेरी समझ को समृद्ध किया और यही अनुभव अंततः उपन्यास के रूप में सशक्त ढंग से सामने आया।
मैंने इस विषय पर लगभग सात साल लगाए, यह जानते हुए कि नेताजी की जीवनी में कुछ ऐसे हिस्से हैं जो अधूरे हैं। मैंने अपने शोध और कल्पनाशक्ति के बल पर उन खाली जगहों को भरने का प्रयास किया। सुभाष या शिवाजी जैसे ऐतिहासिक व्यक्तित्वों पर लिखते समय मेरी कोशिश रही है कि मैं उनके जीवन की जड़ों तक पहुँच सकूँ। मुझे लगता है कि मेरे भीतर की श्रद्धा और समर्पण ने मेरे उपन्यास को वह आकार दिया जिसकी मैंने कल्पना की थी।
प्रश्न: 10 आपके उपन्यासों में इतने जीवंत और सिनेमाई दृश्य दिखाई देते हैं — क्या आपके लेखन पर फ़िल्मों का प्रभाव है?
उत्तर: मेरे लिए किसी फ़िल्म से प्रेरणा लेना आवश्यक नहीं है कि मैं अपनी कथा, पात्रों या घटनाओं को गढ़ सकूं। मैं सामान्यतः पात्रों और घटनाओं की गहन तहों में उतरता हूँ और गंभीरता से सोचता हूँ कि किसी विशेष परिस्थिति में वह पात्र स्वाभाविक रूप से किस प्रकार प्रतिक्रिया करेगा। जब मैं चरित्रों और उनकी प्रकृति का आत्मिक विश्लेषण करता हूँ, तब वे स्वयं अपनी भाषा में बोलने लगते हैं। मेरी रचनाएँ बाहरी प्रभावों का परिणाम नहीं, बल्कि भीतर से फूटती एक सहज सर्जना हैं।
प्रश्न:11 आपके उपन्यासों के विषय-चयन में ऐतिहासिक से लेकर समकालीन तक की विविधता स्पष्ट दिखाई देती है। अनेक उपन्यासकार किसी विशेष विषय पर विमर्श करना चाहते हैं, जबकि कुछ कथा-तत्त्व के प्रति इतने समर्पित होते हैं कि उनके लिए कहानी कहना ही प्रमुख होता है। इस संदर्भ में आपके अपने उपन्यासों के प्रति क्या दृष्टिकोण है?
उत्तर: मैं यह नहीं मानता कि मुझे पहले अलग से कोई कथा गढ़नी चाहिए और फिर उसे प्रस्तुत करना चाहिए। मेरे लिए लेखन, भीतर उमड़ते प्रबल भावों का सहज विस्फोट है। मैं अपने पात्रों, घटनाओं और विषय की भावधारा में पूरी तरह डूब जाता हूँ।
साथ ही, मैं विषयों को ऐतिहासिक या सामाजिक जैसे खाँचों में बाँटकर नहीं देखता। मेरे लिए प्रत्येक विषय मूलतः मानव जीवन की कथा है। तकनीकी दृष्टि से कथा की पृष्ठभूमि चाहे इतिहास की हो अथवा समकालीन परिस्थितियों की, मेरे लिए सर्वोपरि मानवीय संवेदनाएँ और अनुभूतियाँ होती हैं।
प्रश्न 12: क्या आज़ादी के बाद राजनीति में सेक्युलरिज्म का ज़ोर बढ़ा तो इस तरह का इतिहास लेखन हुआ?
उत्तर– यह कुछ हद तक सही है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद, विकास और प्रगति के आकर्षण में, वामपंथी और समाजवादी नेताओं को अधिक महत्त्व और मंच मिला।ऐसे समय में न्याय सभी वर्गों, समुदायों और विचारधाराओं को मिलना चाहिए। इतिहास न तो किसी राजनीतिक पार्टी का सेवक होना चाहिए, न किसी धर्म का।यह एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और सत्य पर आधारित अनुशासन है — और ऐसा ही रहना चाहिये.