वरिष्ठ लेखिका अंजली देशपांडे की यह दिलचस्प टिप्पणी पढ़िए जो सिनेमा देखने के अनुभवों को आधार बनाकर लिखा गया है। आप भी पढ़ सकते हैं-
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दिल्ली की हाड़ कंपा देने वाली शीत लहर में जब गाज़ा से मणिपुर तक हाहाकार की कंपकंपी फैली हो, किसी दिन दिमाग को छुट्टी दिलाने की इच्छा भले सचिंत दुनियावालों से विश्वासघात हो लेकिन है तो कुदरती चाह. अभी कुछ ही दिनों पहले मैंने यह विश्वासघात किया, रज़ाई में खुद को लपेट कर लैपटॉप पर नेटफ्लिक्स पर फिल्म देखी ‘कहाँ खो गये हम’.
क्या फिल्म है! चुटीले संवाद, यौन शुचिता की धारणाओं से मुक्त, उम्र की बंदिशों से आज़ाद, नई पीढी के दुःख दर्द, चुनौतियों और उनके बदले यथार्थ और अंततः दोस्ती के मायनों की. फिल्म देखते हुए बार बार मन करता था कि पॉज़ दबा कर किसीसे बात करूं. पर किससे?
नेटफ्लिक्स ने सिनेमा हाल तक पहुँचने, उसमें जब तक लगी हो तभी समय निकाल कर मूवी देखने की बंदिशों से आज़ाद कर दिया है. अब और भी ऐसे मंच हैं जिनपर आप जब चाहें जो चाहें, या कम से कम अधिकाँश फ़िल्में, अपनी सुविधानुसार देख सकते हैं. चाहें तो फिल्म का जीवनसंगी बन चुके पॉपकॉर्न से पीछा छुड़ा कर कबाब को साथ ले लें. कोला ज़रूरी नहीं, वोद्का भी चलेगी. देर रात आँख खुलने पर देख सकते हैं. किश्तों में देख लें, आधा देखें आधा छोड़ दें, कितनी सहूलियत!
‘कहाँ खो गए हम’ देखते हुए किसीसे बात करने की अदम्य चाह ने फिर से एहसास दिलाया कि इन मंचों ने फ़िल्में देखने का पूरा तजुर्बा ही बदल दिया है. फ़िल्में देखने के पुराने तीते मीठे अनुभवों पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है लेकिन और भी लिख दिया जाए तो क्या हर्ज़ है?
जहाँ तक मुझे याद है मैंने जो पहली फिल्म देखी थी वह थी ‘भक्त ध्रूव’. तब माँ के साथ हम नेफा में रहते थे जिसका बड़ा हिस्सा आज अरुणाचल प्रदेश कहलाता है. वहां बिजली नहीं थी तो फ़िल्में कैसे होतीं? मैंने अपने भाई के जन्म तक बिजली देखी ही नहीं थी और पहली बार देखी तो असम मेडिकल कॉलेज में नवजात भाई के चेहरे को देखने के कुछ ही देर बाद. दोपहर का वक्त था और शाम चार बजे अँधेरा होने लगा, जैसा कि वहां होता ही है, तो पिताजी ने, जिन्हें हम काका कहते थे, पूछा, “जादू देखोगी? अभी मैं चुटकी बजाऊँगा तो कमरे में एकदम से रोशनी हो जायेगी.” हमारी शामें लालटेन की धुआंरी रोशनी पर निर्भर हुआ करती थीं जिनके शीशे के ग्लोब की कालिख को सुबह धो कर सुखाने के बाद ध्यान से लालटेन पर चढ़ाया जाता था. “हो ही नहीं सकता,” मैंने कहा. उन्होंने करके दिखा दिया! शायद बिजली का स्विच उनकी पीठ पीछे था एक हाथ से उसे दबाया और दुसरे हाथ से उन्होंने चुटकी बजा दी. एकदम कमरे में उजाला हो गया. ऊपर देखा तो सूरज का पीला टुकडा कांच के गोले में बंद!
इस गजब के जादू के बाद मैंने एक और जादू देखा, माँ के साथ डापोरिजो में रहते. टीलेनुमा पहाडियों पर बसे छोटे छोटे मकानों में रह रहे अफसरों और उनके बिहारी, नेपाली सेवकों, के लिए एक फिल्म का इंतज़ाम हुआ था. मैदान में. तब वह सिर्फ मैदान था. आज फुटबाल मैदान है और वहीं है इतना मुझे अब भी पता है. जीप में बैठा एक आदमी घूम घूम कर घोषणा कर रहा था कि शाम को सब लोग मैदान में आ जाएँ, फिल्म दिखाई जायेगी, ‘भक्त ध्रूव’.
हम तो जानते भी नहीं थे ‘फिल्म’ होती क्या है. माँ ने कहा शाम को चलेंगे. मैदान में कुछ कुर्सियां लगीं थीं और एक छोर पर सफ़ेद चादर खड़ी थी. यह पहला आश्चर्य था. चादर किसी रस्सी से टंगी नहीं थी जैसा कि धो कर सुखाने पर होती है. वह कुछ डंडों से बंधी थी सीधी तन कर खड़ी थी और उसपर एक भी सिलवट नहीं. हमने तो कभी प्रेस देखी नहीं थी तो पता ही नहीं था कि कपड़ों की सलवटें मिटाने का इंतज़ाम भी दुनिया में होता है. ऊपर खुला आसमान था.
सभी अफसरों, पोलिटिकल ऑफिसर, डॉक्टर (माँ डॉक्टर थीं), इंजिनीयर और उनके परिवार सबसे आगे कुर्सियों पर जा डटे. उन दिनों नेफा के प्रशासन का काम सेना करती थी, नागरी अधिकारियों को प्रशासन सौंपने की शुरुआत हो रही थी और वहां पर आईएएस के अधिकारी जिलाधीश नहीं पोलिटिकल ऑफिसर कहलाते थे.
उस दिन चलते फिरते संवाद बोलते, गीत गाते पात्रों को उस चादर पर उभरते देख हम दंग रह गये. मुझे तो ध्रूव के लिए जितना रोना आया उतना ही फिल्म ख़त्म होने की त्रासदी पर. ध्रूव तारे ने भी वह फिल्म हमारे साथ देखी कि नहीं पता नहीं, हमने लौटते हुए ध्रूव तारे को ज़रूर देखा जो रोशनी के प्रदूषण से मुक्त उस लगभग काले आकाश में सुनहरे लट्टू सा चमचमा रहा था.
माँ ने घर लौट कर बताया कि यहाँ की रीत अलग है शहर में, जहाँ वे पढीं थीं, हॉल होते हैं, लोग जब चाहे सिनेमा देख सकते हैं, और पीछे की सीटों के टिकट महंगे होते हैं. मुझे यह बात अच्छी नहीं लगी. आगे बैठना तो वीआईपी का अधिकार होता है. शहर के लोगों की खोपड़ी उल्टी होती होगी, यह माँ से कहने का साहस नहीं था. यह 1960 के दशक का दौर था जब अच्छे बच्चे देखे जाते थे, सुने नहीं जाते थे.
तब तक मैं डिब्रूगढ़ शहर में पढने लगी थी लेकिन वहां ऐसे हॉल हैं यह भी पता नहीं था जो लौटते ही मैंने पूछ कर पता लगाया. स्कूल था ‘लिटल फ्लावर्स’ और उसमें इतालवी नन पढ़ाया करतीं थीं. बाद में वहां ऑरोरा किनेमा (सिनेमा) हॉल में जाने कितनी फ़िल्में मैंने सहेलियों के साथ देखीं.
वहीं ‘दोस्ती’ भी देखी. वह टैक्स फ्री घोषित हुई थी. वहां के सरकारी स्कूल पूरा हॉल बुक कराकर छात्रों को फिल्म दिखाने ले गईं थीं. मेरा स्कूल ऐसी हरकतें नहीं करता था लेकिन क्लास टीचर ने सबसे कहा था जाकर देख लेना. यह नई बात थी, आम तौर से फिल्मों को बुरा माना जाता था. ‘दोस्ती’ देखने के बाद लोग फूट फूट कर रोते हुए हॉल से निकलते थे. उन कुछ पलों में सब अजनबी एक दूसरे के करीब महसूस करते थे. न भूलने वाला अनुभव था वह. सबसे अच्छी बात मुझे यह लगी थी कि उसमें टीचर ही विलेन था.
उन दिनों आस पड़ोस की, मुझसे बड़ी लडकियां, माने दीदियाँ, फ़िल्में देख देख कर प्यार करना सीख रहीं थीं. वे सरकारी स्कूल में पढ़तीं थीं, हिंदी मीडियम में और अपने स्कूल या पड़ोस के लड़कों को अंग्रेजी में ही प्रेम पत्र लिखना चाहतीं थीं जबकि सीख हिन्दी फिल्मों से रहीं थीं. यह दीदियाँ शाम को अपनी चिट्ठियां लेकर आतीं थीं कि अंजली उसे अंग्रेजी में लिख दें.
आई लव यू! यह लफ्ज़ जाने कितनी बार मैंने अपनी हस्तलिपि में कितने अजनबी लडकों के लिए लिखे. अनुवाद बहुत मुश्किल काम था, कितनी बार तो डिक्शनरी ही खंगालनी पड़ती थी. हिन्दी से अंग्रेजी का शब्दकोष तो अपने घर में था नहीं. अंग्रेजी के ही मतलब निकाल कर अंदाज़े से लिखती थी. फिर दीदियाँ अपनी हस्तलिपि में उनको टीपती थीं और मेहनताने के रूप में उन्हींसे कई बार चपत पड़ी कि हैंडराइटिंग क्यों नहीं सुधारती? इनाम कभी नहीं मिला, एक टॉफ़ी भी नहीं. दीदियों की बात मानना फ़र्ज़ होता था, इसकी फीस नहीं मिलती थी. स्पेलिंग की बात कोई नहीं करता था, उसमें मुझे महारत हासिल थी, उनको यूँ भी अंग्रेज़ी की स्पेलिंग आती नहीं थी और खैर डिक्शनरी तो बगल में ही होती थी. इन दीदियों की मेहरबानी से ही मैंने अनुवाद सीखा. दुभाषिया बनी.
यह लेख उन दीदियों के बारे में नहीं, फिल्म देखने के रोचक अनुभव के बारे में है. कई कई सालों में, गर्मी की छुट्टियों में ढेरों लड्डू और चिवडा बना कर टीन के कनस्तरों में भर कर हम पहले तिनसुकिया, फिर कलकत्ता और वहां दो एक दिन ठहर कर जाने कितने स्टेशन और ट्रेन बदल कर हैदराबाद में ननिहाल जाते थे. नाना नानी आसिफ ज़ाहि रोड पर किन्हीं रेड्डी की बड़ी सी पत्थर की हवेली में ऊपर के एक हिस्से में रहते थे.
मेरी नानी को भी प्रेमचंद और शेक्सपीयर के साथ फिल्मों का ग़ज़ब चस्का था. वे कभी भी कोई फिल्म नहीं छोडती थीं. फर्स्ट डे फर्स्ट शो! कभी कभी दो बार भी वही फिल्म देख आतीं थीं. लास्ट डे लास्ट शो! अकेले. नानाजी को फ़िल्में पसंद नहीं थीं. वे नहीं जाते थे. हर शुक्रवार को नानी खाना बना कर रसोई में रख देतीं और ठीक साढ़े ग्यारह बजे के आसपास घर से निकल जातीं. मेरा मौसेरा भाई, जो वहीं रहता था, पूरा दिन आवारागर्दी करता था, एडवांस बुकिंग कर लाता था इसलिए टिकट की चिंता नहीं होती थी.
इधर वे साड़ी बदल रही होतीं और उधर नानाजी बालकनी, बोले तो ऊपर के संकरे बरामदे, में खड़े होकर रिक्शा रोकते. ‘जमरूद महल’, वे कहते और नानी नीचे चली जातीं, मैं रुआंसी खड़ी उन्हें रिक्शे में जाती देखती रहती. जमरूद महल नानी का पसंदीदा हॉल था. आसिफ ज़ाहि रोड पर नीचे उतरने पर बाईं ओर सुलतान बाज़ार की दिशा में जमरूद महल था, एयर कंडीशंड! अन्दर जाते ही ठण्ड लगने लगती थी. यह एयर कंडिशनर क्या होता है न मुझे मालूम था न नानी को. पर उनको पसंद था. लौट कर नानी खूब विस्तार से कहानी सुनाती थीं और किसी किताब को पढने के बहाने मुंह के सामने रख कर मैं कहानी सुनती और टसुये बहा लेती कि मुझे फिल्म देखने को नहीं मिली. मेरे लिए राशन तय था. महीने में एक फिल्म!
कई सालों में नानी के साथ मैंने कई फ़िल्में देखीं. एक बार जब मेरी भी राशन की बारी आई तो नानाजी ने ही कहा इसे ‘कृष्णा टॉकीज़ में फिल्म दिखा दो’. सुन कर लगा कोई ख़ास जगह होगी. ‘जमरूद महल’ से भी अच्छी. नानी ने मुंह बिचका दिया, वे कृष्णा टॉकीज़ नहीं जाना चाहती थीं, जो नीचे उतरने पर दाईं तरफ उस्मानिया मेडिकल कॉलेज की तरफ था, सूखी मूसा नदी पर पुराने पुल के पार.
हम नीचे उतरे तो रिक्शेवाले ने पर्दा गिरा दिया. ‘गोशा नको’, नानी ने कुछ तुर्शी से कहा. रिक्शेवाले ने उतर कर पर्दा पलट कर रिक्शे की छत पर बाँध दिया. हैदराबाद की यही रीत थी, ज़नाना सवारी देखने पर रिक्शेवाले पूछते थे, ‘गोशा होना?’ ‘हउ’ कहने पर पर्दा गिरा देते लेकिन शायद कृष्णा टॉकीज़ सुन कर बेचारे ने बिना पूछे ही पर्दा कर दिया था. ऐसा क्यों था वह मुझे कुछ ही देर में समझ में आ गया.
फिल्म थी, शम्मी कपूर और नूतन की, ‘लाट साहब’.
कृष्णा टॉकीज़ देख कर मुझे घोर निराशा हुई. कोई सुन्दर इमारत नहीं. बाहर मर्दों की भीड़ टिकट की लाइन में लगी थी और हॉल के अन्दर लॉबी में बुर्का पहने औरतों की भीड़ जिनमें कुछ बच्चों के हाथ थामे, कुछ गोद में बच्चे लिए, हाथों में कपड़े की थैलियाँ टाँगें खड़ी थीं. एक दो मुसलमान औरतें भी बिना परदे के थीं जिनमें एक नानी को जानती थीं. आखिर नानी ही तो इन उच्च वर्गीय मुसलमान लड़कियों को अंग्रेजी की ट्यूशन दिया करतीं थीं. उन्होंने मेरा तार्रूफ कराया कि ‘मेरी नवासी’ है.
“उर्दू बोलती क्या?” उस महिला ने मुझसे पूछा.
“मुझे उर्दू नहीं आती,” मैंने कहा.
अपनी तर्जनी होठों से लगा कर उन्होंने कहा, “गम्मत देखो, उर्दू में’च बता रही उर्दू नहीं आती!”
तब मुझे पता चला कि मैं जो बोलती थी वह उर्दू थी. मैं तो हिन्दी समझती थी.
खैर, कृष्णा टॉकीज़ में बालकनी औरतों के लिए रिज़र्व्ड थी. आदमी अन्दर आये और बहुतों ने अपने साथ आई बुर्के वालियों को टिकट पकडाए.
मुझे कोफ़्त होने लगी क्योंकि कुछ गोदी के बच्चे रोये जा रहे थे. ऐसे में डायलॉग कैसे सुनाई देंगें? बालकनी में बैठने के बाद तो गजब हो गया. नकाब उलट दिए गए. उधर हॉल की बत्तियां बुझीं और इधर कई औरतों ने ब्लाउज के बटन खोल लिए और दूध पीते बच्चों को सीने से चिपटा लिया. छोटे बच्चे, जो पहले कभी कभी रो भी रहे थे, परदे पर रोशनी देखते ही चुपा गए. कईयों ने थैलों में से कटोरदान निकाल लिए, चौड़े रुमाल अपनी गोद में बिछा कर खाना खाने और खिलाने लगीं. बिरयानी की महक उठने लगी. यह हैदराबाद की मशहूर बिरयानी नहीं थी, घरों में पके मीट चावल के अनोखे व्यंजन थे. इनमें हड्डियां भी होतीं थीं. नानी ने पल्लू से नाक मुंह ढँक लिया. हड्डियां चूसे जाने और रोटियों बोटियों के चबाये जाने की आवाज़ों के बीच हमने शम्मी कपूर को गाते सुना ‘सवेरे वाली गाड़ी से चले जायेंगे!’. तीन तीन दिन तक ट्रेन के सफ़र को भुगती हुई मैं, मुझे समझ में ही नहीं आया कि उसे ट्रेन में चढ़ने का ऐसा क्या उत्साह था कि उछल उछल कर गा गा कर घोषणा कर रहा था. और भई ट्रेन को गाड़ी कहने का क्या मतलब?
घर लौट कर नानी ने स्नान किया और मुझे भी गुसल करने को कहा. यह वजह थी कि उन्हें कृष्णा टॉकीज़ पसंद नहीं था क्योंकि वहां से लौटने पर नहाना पड़ता था. वहां मांस खाया जाता था हालांकि एक टुकड़ा भी उनके कपड़ों को छू तक नहीं गया था लेकिन उसके नज़दीक बैठना तक उन्हें गंवारा नहीं था. “गुसल उर्दू है और स्नान हिन्दी,” उन्होंने मुझे बताया. “यह जो हम रोज़ बोलते वह उर्दू ही है. यहीं, अपने हैदराबाद में पैदा हुई, उर्दू.”
उनकी बात तब समझ में नहीं आई थी. मैं तो समझती थी कि भाषा हमेशा से रही है, पैदा भी होती है क्या? होती है. ‘कहाँ खो गए हम’ में कितने नए लफ़्ज़ सुने जो आज के बदले हालात की पैदाइश है और हम रोज़ सुन भी रहे हैं.
हम लोग सिनेमा हॉल में कुछ नहीं खाते थे. बाहर का कुछ भी नहीं खाते थे, यही रीत थी, अस्पृश्यता की. बाहर जाने कौन कौन क्या क्या बनाता है, नानी कहती थीं. मौसेरे भाई को छूट थी कि वह जहाँ चाहे जो चाहे खा ले. धर्मरक्षा औरतों की ज़िम्मेदारी होती है नानी समझाती थी.
यह और बात थी कि मुझे रोमियो जुलियट उन्होंने ही पढ़ाया, ओरिजिनल अंग्रेज़ी में. साथ में हिदायत भी दी कि यह सब इंग्लेंड में ठीक है अपने यहाँ की अच्छी लडकियां प्रेम वेम नहीं करतीं, और वहां भी देखा ना प्यार का नतीजा, दोनों मर ही गए. नानी का कहना था कि यह दुनिया टिकी है तो इसलिए कि कहीं दुनिया में एक सती है जिसे सूरज तक ने स्पर्श नहीं किया. मैं वही सती बनना चाहती थी जो दुनिया को टिका कर रख सके मगर फ़िल्में देखने और स्कूल जाने के लिए सूरज का स्पर्श ज़रूरी भी तो था. गहरी दुविधा के दिन थे वे.
दिल्ली आने के बाद तो मैंने जाना कि सिनेमा देखने के अनेकानेक तरीके होते हैं जिसमें खाने की अहम् भूमिका होती है. हम मिन्टो रोड ‘खने’ (‘नज़दीक’ का हैदराबादी उर्दू लफ्ज़) बैरन रोड पर रहते थे जिसे प्रभात रंजन ने मनोहर श्याम जोशी के वहां कुछ समय रहने की वजह से मशहूर कर दिया है. उनको मैंने बताया भी कि जोशी तो कुछ ही महीने रहे होंगे, हम तो बरसों रहे मगर मजाल है वे उस सडक का ज़िक्र करते हुए मेरा नाम ले लें?
उसके आसपास कितने ही सिनेमा हॉल थे, एक तरफ पुरानी दिल्ली के दूसरी तरफ नई दिल्ली के जिन तक हम चाहते तो पैदल ही पहुँच सकते थे. हर हॉल का अपना जलवा था.
रीगल में टिकट खिड़की की लॉबी इतनी छोटी थी कि दस कदमों में सड़क पर ही पहुँच जाती थी. लेकिन रीगल में तो बॉक्स होते थे! शायद रिट्ज़ में भी रहे हों. दूर नहीं था रिट्ज जिसे बहुत से दिल्लीवाले ‘रिटज़’ कहते थे. बॉक्स में भी मैंने अपनी कॉलेज की सखियों के साथ कई फ़िल्में देखीं जिसका एक फायदा यह होता था कि जिस्मखोर आदमियों से हम दूर और सुरक्षित रहते थे. महंगा पड़ता था लेकिन फिल्म सुख के लिए कीमत चुका देते थे.
फिल्म देखने का पूरा अनुष्ठान होता था. पहले एडवांस बुकिंग कराओ और फिर उस दिन समय से आधा घंटे पहले पहुँचो कि खाने पीने का इंतज़ाम कर सकें. ‘प्लाज़ा’ की शान निराली थी. पहली बार प्लाज़ा में हमने फिल्म देखी तो बड़ी शान से. बाल्कनी की टिकट. हॉल में एक तरफ कांच की दीवार और दरवाज़े के पार रेस्त्रां जिसमें पिताजी ने हमें कोका कोला पिलाई! खाया क्या यह तो याद नहीं लेकिन वेटर बिल लाया तो उन्होंने छुट्टे उसी प्लेट में छोड़ दी. मेरा भाई, अनिरुद्ध देशपांडे, जो आज दिल्ली विश्वविद्यालय में इतिहास पढाता है, तब बहुत छोटा था. शायद सात साल का. वह प्लेट को घूरे जा रहा था. जब हम रेस्तरां से बाहर निकलने लगे तो दरवाज़े के पास पहुँचने पर उससे रहा नहीं गया. दौड़ कर वापस टेबल पर पहुंचा और सारे पैसे उठा लिए. माँ तो उसे ज़ोर की चपत लगाती लेकिन काका खुल कर हँसे और उससे कहा कि वापस रख कर आये. मुंह सुजा कर अनिरुद्ध वापस प्लेट में पैसे रख आया. फिल्म में हमने गीत सुना, ‘बच्चे मन के सच्चे’. जो बात मुझे आज याद आती है वह यह कि हमारे बाहर निकलने तक वेटर ने पैसे उठाये नहीं थे. कितना मर्यादित रहा होगा, पैसा जल्दी से जेब के हवाले करने की अश्लीलता उसके व्यवहार में नहीं थी.
इसी तरह पुरानी दिल्ली की तरफ ‘डिलाईट’ सिनेमा था विचारधारा के दो विपरीत छोरों, स्टॉक मार्केट और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के दफ्तर, को जगह देने वाली व्यावसायिक सड़क आसफ अली रोड पर जिसका नाम भगत सिंह के वकील रह चुके आसिफ अली के नाम पर था और है.
वहां पर एडल्ट फिल्म भी लगा जाया करती थी, और टिकट खिड़की वाले युवाओं से कॉलेज का आई-कार्ड मांगते थे. पड़ोस के मेरे भाई का एक दोस्त, जो न सिर्फ उम्र का बल्कि कद का भी मारा था, ऐसी ही एक एडल्ट फिल्म देखने चला गया. टिकट वाले ने टिकट देने से मना कर दिया तो उसने अकड़ कर कहा, “मैं खुशवंत सिंह को जानता हूँ.” खिड़की वाला भी हाज़िरजवाब था, बोला, “क्या खुशवंत सिंह तुम्हें जानते हैं? लिखवा लाओ.” टिकट नहीं मिली. कायदा इतना सख्त था कि ब्लेकिये भी कम उम्र लड़कों को टिकट नहीं देते थे.
ब्लैक का बड़ा चलन था. सामने साइकिल और स्कूटर स्टैंड के आसपास लड़के हाथों में टिकटों के बण्डल लिए बुदबुदाते घूमते रहते थे ‘दो का चार,’ मतलब दो रुपये का टिकट चार का मिलेगा. ब्लैक में टिकट कितने गुना दाम पर मिल रहा है यह फिल्म की लोकप्रियता का माप होता था. वे एडवांस में ही ढेरों टिकट लेकर रखते थे. हो सकता है मेनेजमेंट से मिलीभगत होती हो. अगर पहले से बुक नहीं कराया हो और पहुँच गए तो वही इज्ज़त बचाने का सहारा होते थे. ज्यादा दाम देने के लिए तैयार होने पर भी गिडगिडाना पड़ता था. हॉल तक पहुंचे और बिना पिक्चर देखे लौटना बड़ी बेईज्ज़ती की बात होती थी. गए हैं तो फिल्म देख कर ही आना है, यह संकल्प सबका ही रहता था.
खबर तो यह भी थी कि जमुना पार के एक सिनेमा हॉल का मालिक खुद हॉल के बाहर बैठ कर ब्लैक में टिकट बेचता है. क्या व्यावसायिक जीनियस थे यह लोग. बाद में रेल मंत्री बनने पर लालूजी ने ‘तत्काल’ स्कीम निकाली, रेल के टिकट के अधिकृत काला बाज़ारी की, जो आज तक चल रही है. ट्रेन लेनी है तो लेनी है! इस बिना पर लालू गुरूजी हार्वर्ड में मेनेजमेंट वालों को दो चार गुर भी बता आये. इस कमाल की तरकीब इजाद करने वाले बिचारे पुलिस से ही बचते रह गए! उनमें तो एथिक्स भी थी, कम उम्र छोकरों को एडल्ट फिल्म की टिकट नहीं देते थे.
ऐसे ही इंटरवल भी बिकते थे स्कूल कॉलेज के लड़के लड़कियों के लिए जिनपर घर में कड़ी नज़र रखी जाती थी. आज फिल्म इंटरवल तक देख लो, कल जाकर उसके बाद का टिकट ले लो. तो टिकट लेकर हम मध्यांतर में बाहर निकल कर टिकट बेच आते उनको जो पिछले रोज़ पहला आधा हिस्सा देख गए होते. अगले दिन ऐसे ही किसीसे टिकट लेकर बाकी फिल्म देख लेते. रात मुश्किल से कटती, आगे फिल्म में क्या होगा यह बेचैनी देर रात तक जगाये रखती. घर वाले सोचते घर दो बजे आ गए तो फिल्म तो देखी नहीं होगी! उन दिनों फिल्मों के शो के तय घंटे हुआ करते थे.
दिल्ली में मैंने जाना कि बाहर खाना भी सिनेमा के उपभोग का अंग होता है. ‘डिलाईट’ सिनेमा के सामने ठेले से समोसे-छोले जिसने नहीं खाए उसे फिल्म देखने का स्वाद क्या मालूम?
एडल्ट फिल्मों के लिए लड़कों की ही मारामारी होती थी. लडकियां इतनी हिम्मत नहीं करतीं थीं.
कुछ लोगों को बाद में समझ में आया कि एडल्ट फिल्मों की यूँ ही धूम मची रहती है, इससे अच्छा तो अंग्रेजी फिल्मों को देखने का मज़ा है, पूरा ‘किस्स’ भी होता है, हीरोइन के कपडे भी उतरते हैं. ऐसी फ़िल्में ‘शीला’ सिनेमा में लगतीं थीं. यह रेलवे स्टेशन से सटा पहाड़गंज इलाके में था जिसका यह दावा उसके नामपट्ट के साथ हमेशा चिपका रहता था कि यह देश का पहला सत्तर एम् एम् का परदे वाला सिनेमा है जिसमें सिनेमास्कोप फिल्म दिखाई जा सकती है. बेशक इसका पर्दा कुछ ज़्यादा ही चौड़ा था और फिल्म भी बहुत ही शानदार दिखती थी. इसके बाहर कभी कभी इम्पाला कार भी दिख जाती थी. उन दिनों साइकिल और मोटरसाइकिल या स्कूटर ही हुआ करते थे. आज जिस तिपहिये को ‘ऑटो’ कहते हैं उन दिनों उनको भी ‘स्कूटर’ कहते थे.
बहुतों को अंग्रेज़ी समझ में नहीं आती थी फिर भी फिल्मों को देखने के लिए भीड़ जुटी रहती थी. शायद यही राज़ रहा हो कि वे ख़ास दृश्यों के लिए आते हों. यूँ ‘शीला’ में फिल्म देखना अंग्रेजी ज्ञान के रास्ते ऊंची हैसियत का ऐलान हुआ करता था. यहीं काका घसीट कर हमें ‘द लांगेस्ट डे’ दिखाने ले गए थे जो आज भी मेरे भाई की पसंदीदा फिल्मों में है मगर मुझे दूसरे विश्वयुद्ध जितनी लम्बी लगी थी. लांगेस्ट!
‘गोलचा’ में हैसियत प्रदर्शन का कोई तकाज़ा नहीं था. यह दरियागंज में था जिसमें कांच के खूबसूरत दरवाज़े होते थे. वहां का मुख्य आकर्षण था साथ की गली में मिलने वाली कुल्फी फलूदा जिसे समय हो तो फिल्म से पहले या बाद में खाया जाता था. अन्दर तो कागज़ के ठोंगों में ठन्डे पोप कोर्न मिलते थे सीले हुए. तब तक प्लास्टिक की क्रांति हुई नहीं थी. कोका कोला की कांच की बोतलें होतीं थीं जिनको खाली होने पर काउंटर का के पास रखे लकड़ी की ट्रे में रखना होता था.
क्या शानदार सिनेमा हॉल होते थे. हर एक की छत की सजावट अलग. हर सिनेमाघर में खाने की अलग चीज़ें. डिलाईट के सामने समोसे छोले का मज़ा होता था. कनॉट प्लेस में ओडियन में छोटी छोटी पेस्ट्री मिलतीं थीं, सफ़ेद या गुलाबी शुगर आईसिंग वाली और चिकन पेटिस. ऐसी पेस्ट्रीयाँ जाने कहाँ चली गईं.
रीगल ने कभी ऐसा शौक नहीं पाला. शायद उनका मानना था कि बगल में ‘स्टैण्डर्ड’ है, बहुत ही खाने का शौक हो तो उधर चले जाओ.
उन दिनों कोई रोक टोक नहीं थी, चाहो तो घर से पूरी-सब्जी लेकर पहुँचो. हर हॉल में सिर्फ सीली पोपकोर्न और कोला ही मिलते थे. बाहर की बात और थी.
हॉल में फ़िल्में देखने का अपना सुख था तो बहुत कड़वे अनुभव भी थे. लड़कियों के साथ छेड़खानी ही नहीं कभी कभी उनपर यौन आक्रमण भी होते थे. पीछे से कोई आदमी कभी आगे को झुक कर उनके बालों में आहें भरने लगता, उन्हें छूता, कभी कभी बाल खींच लेता. कभी बगल वाला अपना हाथ या कुहनी बढ़ा कर उनके अंगों को छूने लगता. वह विरोध करती तो सब कहते चुप हो जाओ, फिल्म देखने में खलल जो पड़ता था. इसलिए आम तौर से लडकियां परिवार के दो पुरुषों या बुज़ुर्गों के बीच की सीट पर बैठतीं थी, पर पीछे वालों का क्या करतीं?
यह अनुभव ‘चाणक्य’ में या ‘शाकुंतलम’ में नहीं होते थे. यह सिनेमा हॉल बाद में बने. ‘चाणक्य’ शायद सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में बना. यहाँ बौद्धिक अभिजात्य पहुंचते थे. यहाँ प्रगतिशील तेवर की बहुत फ़िल्में लगती थीं. इसकी इमारत खासी बदसूरत थी. लगता था सीमेंट के ऊपर पलस्तर करना भूल गए हों और वही नहीं हुआ तो पुताई क्या होनी थी? वहां जाना ही अपने आप में मेहनत का काम होता था. प्रगतिशील लोग ऑटो कम लेते थे, बसों का तो ठिकाना ही नहीं होता था कि कब आयेंगीं. दो घंटे तो जाने में लग जाते थे.
प्रगति मैदान का ‘शाकुंतलम’ छोटा सिनेमा हाल था जिसने ‘चाणक्य’ की लोकप्रियता उखाड़ फेंकी. इसमें दुनिया के विख्यात फिल्मकारों की फ़िल्में लगतीं थीं. बर्गमेन और सर्गेई बोंदार्चुक की फिल्मों को देखने का मौक़ा यहीं मिला. और ग्रीस में दक्षिणपंथी हुकूमत के हाथों एक वामपंथी विपक्षी नेता की हत्या पर कोस्ता गावरास की मशहूर ‘ज़ी’ भी हमने यहीं देखी. इन फिल्मों के बाद दोस्तों से हमने कई क्लासिक उपन्यासों की फ़िल्मी व्याख्याओं पर घंटों जो बहस की उसकी विषयवस्तु याद न होते हुए भी इतना याद है कि टॉलस्टॉय जैसे लेखकों के उपन्यासों की हमारी समझ उन गर्मागर्म बहसों से काफी गहरी हुई. आज क्या लोग ऐसे बहस करते होंगे फिल्मों पर?
इन दोनों सिनेमाओं के साथ भी व्यंजन विशेषता जुड़ी थी. चाणक्य के बाहर मोमोस मिलते थे, जो तभी तभी मंजनू के टीले से बाहर निकले थे और कहीं और नहीं मिलते थे. ‘शाकुंतलम’ में इंटरवल में प्रगति मैदान के ही ‘झटपट’ रेस्तरां से ट्रे में आये गर्म, विराटकाय, स्वादिष्ट समोसे मिलते थे. प्रगति मैदान में प्रेमियों का अड्डा सा लगा करता था, बड़े से मैदान में सबको अपना निजी स्पेस भी मिल जाता था, पुलिस कहीं नहीं होती थी, पूरा दिन यहाँ गीत और संगीत इसके अनेकानेक लाउडस्पीकरों से बहते रहते थे, मद्धम सुर में जो टहलने वालों के लुत्फ़ को बढाते, उनकी बातचीत में खलल नहीं डालते थे. अब तो प्रगति मैदान की शक्ल ही बदल गयी है.
फिर आ गए पीवीआर. पहला पीवीआर था ‘प्रिया’ जिसमें फिल्म देखने की डींग का गर्व फिल्म देखने के मज़े से बढ़कर ही होता था. लोग जब पूछते कि फलां फिल्म कहाँ देखी तो गर्दन को ज़रा सा घुमा कर पूछने वाले की आंख में दया भाव से देखते हुए जवाब दिया जाता, ‘पीवीआर!’ प्रिया कहने की ज़रुरत ही नहीं होती थी. अक्सर प्रिया में फिल्म देखने वालों को स्नूटी समझा जाता था और उनसे कुछ ईर्ष्या भरी नापसंदगी महसूस की जाती थी. पीवीआर का मतलब क्या होता है यह पूछने की क्या, सोचने की भी हिम्मत नहीं होती थी. अज्ञान का प्रदर्शन कौन करे?
वर्गीय भेद हमेशा फिल्म देखने के अनुभव का हिस्सा रही है. जब वीडियो केसेट्स का युग आया तो जिसके घर में वीसीआर हो उसका तो आसपास के लोगों में रूतबा ही अलग होता था. कभी सन्डे को किराए पर वीडियो केसेट ला कर पूरे पड़ोस या दोस्तों के लिए शो हो जाते, पार्टी सी होती. लेकिन फिर भी कृष्णा टॉकीज़ की बाल्कनी की पिकनिक सा मज़ा कभी नहीं आया.
मॉल के आने के बाद तो सब कुछ ही बदल गया. फिल्म देखना अब बहुत महँगा सौदा हो गया. रुपये भर के मक्के फूल कर सौ रुपये से ऊपर के हो गए. पानी भी पचास से कम का नहीं रहा होगा इसलिए किसीको तो सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना पड़ गया कि भाई कम से कम पानी तो एमआरपी पर दो! आदेश भी मिला.
अब आर्डर करने पर सीट पर ट्रे में सजे नाचोस-साल्सा और चोकलेट में सने पोप कोर्न पहुँचने लगे. सॉफ्ट ड्रिंक की अलग अलग किस्में छोटे बड़े प्लास्टिक की परत वाले कागजी ग्लासों में. जितने का टिकट है हर शख्स उतना ही खाने पर उड़ाए तब तो फिल्म का मज़ा ले. गरीब अब हॉल में फ़िल्में कहाँ देखते हैं.
पहले भी गरीबों के लिए अलग हॉल थे हालाँकि आगे बैठ कर सिनेमा देखने वालों के लिए सस्ती टिकट लगभग हर हॉल में होती थीं. अब तो त्रिलोक पूरी का चाँद हो या जामा मस्जिद का ‘एक्सेलसियर’ या ‘जुबिली’ कुछ भी नहीं बचा.
अब तो ओटीटी मंचों ने सार्वजनिक स्थलों पर एक से विचारों के लोगों के जमावड़े के बहानों का उन्मूलन कर दिया है. घर बैठे, मेट्रो में ब्लूटूथ के सहारे अकेले ही संगीत और संवाद सुनने की सुविधा के सहारे मेट्रो में, सड़क पर पार्क में कहीं भी मनोरंजन मुहैया हो जाता है.
जहां चाहे जैसे चाहे देखो. कोई प्रॉब्लम नहीं. अपने मोबाइल पर या लैपटॉप पर देखो. आरामकुर्सी पर बैठे या बिस्तर में लेटे. नाईट गाउन में देखो या रज़ाई में लिपट कर. और पात्रों के साथ हंसो, तो अकेले, रोओ तो अकेले या घर के दो लोगों के साथ. वह ‘शीला’ में साथ की कुर्सी पर बैठे अजनबियों को हँसते देख कर अंग्रेजी समझ में न आने पर भी उनकी हंसी में हंसी मिला कर यह जतलाने की ख़ुशी नहीं बची कि हाँ, हाँ हमको भी समझ में आ गया! जबकि हंसी में हुई क्षणांश की देरी पोल खोल ही देती थी. और कभी किसी दर्शक की चुस्त टिप्पणी से फिल्म के किसी दृश्य का कोई पहलु उजागर हो जाता था उसका मज़ा भी गया. सीटियों से हॉल गूंजता तो पता चल जाता फिल्म हिट हो गयी है. अजनबियों के साथ ही फिल्म के सुख दुःख बांटने का लुत्फ़ ही खो गया.
किसी फिल्म के बाद रोते हुए हॉल से निकलना या ‘शोले’ जैसी फिल्मों के बाद डायलॉग बोलते हुए एक दूसरे को देख कर हंस देना, सीढ़ियों से नीचे उतरते हुए एक दूसरे से मिनट दो मिनट बात कर लेना…सब ख़त्म. शायद यह होना भी चाहिए. जब जो चाहो देख लो का वैयक्तिक सुख भी तो सुख ही है.
बाद में फोन पर बता दो क्या अच्छा लगा या व्हाटसेप्प पर लम्बे लम्बे सन्देश भेज कर जवाब का इंतज़ार करो. लेकिन आमने सामने अगल बगल अजनबियों के साथ भी चर्चा का, हंसने या सुबकने का मज़ा अब शायद लौट कर ना आये.
अब तो सिनेमा हाल में भी वह मज़ा नहीं है. सामने के चवन्नी टिकट अब नहीं हैं जो रिक्शेवालों को हॉल में ले आती थी. अब तो वे इन थियटरों में जाने की कल्पना नहीं कर सकते जहाँ आप अपनी पानी की बोतल तक नहीं ले जा सकते. लेकिन हाँ, गरीबों को अपने स्मार्टफोन पर शायद फ़िल्में देखने का सुख वापस मिल गया जैसा कि वीसीआर किराए पर लेकर वे देखा करते थे पड़ोसियों के साथ. पूछना होगा किसीसे.
अब सिनेमा का तयशुदा समय भी नहीं रहा. कितना अच्छा लगता था, मॉर्निंग, नून, मेटिनी, इवनिंग और नाईट शो का वह तीन तीन घंटो का कैंची से कतरा सा बँटवारा. नानी होती तो कब फर्स्ट शो देखने का दावा करती? शाम चार बजे? तौबा, यह कोई फर्स्ट शो हुआ?