कल आर. अनुराधा जी ने ध्यान नहीं दिलाया होता तो उज्जवला ज्योति तिग्गा की कविताओं की तरफ ध्यान ही नहीं गया होता. पी.आर. के तमाम माध्यमों के बावजूद, सोशल मीडिया पर निर्लज्ज आत्मप्रचार के इस दौर में कोई कवि इतनी सच्ची कविता चुपचाप लिखते रह सकता है. सोचकर आश्चर्य होता है. आदिवासी समाज, जंगल की आग को समझने के लिए इन कविताओं से गुजरना लाजिमी है. इन कविताओं को पढ़ते हुए यही लगा- प्रभात रंजन
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धरती के अनाम योद्धा
इतना तो तय है/कि
सब कुछ के बावजूद
हम जियेंगे जगली घास बनकर
पनपेंगे/खिलेंगे जंगली फ़ूलों सा
हर कहीं/सब ओर
मुर्झाने/सूख जाने/रौंदे जाने
कुचले जाने/मसले जाने पर भी
बार-बार,मचलती है कहीं
खिलते रहने और पनपने की
कोई जिद्दी सी धुन
मन की अंधेरी गहरी
गुफ़ाओं/कन्दराओं मे
बिछे रहेंगे/डटे रहेंगे
धरती के सीने पर
हरियाली की चादर बन
डटे रहेंगे सीमान्तों पर/युद्धभूमि पर
धरती के अनाम योद्धा बन
हम सभी समय के अंतिम छोर तक
…
बांस की नन्ही सी टहनी….
जड़ों का
सघन जाल
रच देता है
एक अदभुत दुनिया
जमीन के अंदर
काफ़ी गहरे तक
कोमल तंतुओं का जाल
कि बांस की नन्ही सी टहनी
सब कुछ भुलाकर
खेलती रहती है आंखमिचौली
उन जड़ों के
अनगिन तंतुओं के
सूक्ष्म सिरों की भूलभूलैया में छिपकर
उस अंधेरी दुनिया में बरसो तक
बगैर इस बात की चिंता किए
कि क्या यही है लक्ष्य
उसके जीवन का
क्योंकि जीवन तो
जी्ना भर है
हर हाल में
…
यह बात वो बांस की टहनी
जानती है शुरू से ही
इसलिए रहती है निश्चिंत
कि तयशुदा वक्त के बाद
उसका भी समय बदलेगा
कि रखेगी वो भी कदम
रोशनी की दुनिया में किसी दिन
और अपने लचीलेपन पर मजबूत
इरादों से रचेगी एक
अद्भुत दुनिया
वो कमजोर नाजुक मुलायम सी टहनी
…
उसे अक्सर सुन पड़ता है
अजीब सी सरसराहट और सुगबुगाहट
अपने आस पास की दुनिया में
जो हंसती खिलखिलाती
बढ़ती जा रही है
अंधेरों से रोशनी की ओर
उस नयी दुनिया के
कितने ही सपने संजोए
वहां पहुंचने की जल्दी में
एक दूसरे से
धक्कामुक्की करती
लड़ती झगड़ती
जिसका सपना
न जाने कबसे
घुमड़ रहा है उनके
चेतना के फ़ेनिल प्रवाह में
…
पर छोटे से झुरमुट
की खामोश दुनिया में
बांस की टहनी
रहती है अपनी जड़ों के करीब
अपनी दुनिया की सच्चाईयों से सराबोर
कि टिकी रहे
हर चुनौती के सामने
अपने मजबूत इरादों के साथ
वो कमजोर मुलायम सी टहनी
…
जंगली घास…
नहीं चलता है तुम्हारा
या किसी का
कोई भी नियम/कानून
जंगली घास पर
भले ही काट छांट लो
घर/बगीचे की घास
जो सांस लेती है
तुम्हारे ही
नियम कानून के अधीन
…
पर/बेतरतीब
उबड़खाबड़ उगती घास
ढ़क देती है धरती की
उघड़ी देह को
अपने रूखे आंचल से
और गुनगुनाती है कोई भी गीत
मन ही मन
हवा के हर झौंके के साथ
…
जंगली घास तो
हौसला रखती है
चट्टानों की कठोर दुनिया में भी
पैर जमाने का दुस्साहस
और उन चट्टानों पर भी
अपनी विजय पताका
फ़हराने का सपना
जीती है जंगली घास
…
उपेक्षा तिरस्कार और वितृष्णा से
न तो डरती न सहमती है
बल्कि उसी के अनुपात में
फ़ैलती और पनपती है
अपने ही नियम कानून
बनाती जंगली घास…
कन्फ़ेशन- मिय कल्पा….
तो फ़िर बचता क्या है विकल्प
सिवाय कहने के/मान लेने के/कि
जी मंजूर है हमें/आपके सब आरोप
शिरोधार्य है आपकी दी हर सजा
जहां बांदी हो न्याय/सत्ता के दंड विधान की
जिसमें नित चढ़ती हो निर्दोषों की बलि
दुष्ट/दोषी हो जाते हों बेदाग बरी
गवाह/दलील/अपील/सभी तो बेमानी है यहां
कि जिसमें तय हो पहले से ही फ़ैसले
जिनके तहत/यदि जब-तब
जिंदगी के भी हाशिए से अगर/बेदखल कर
धकिया जाते हैं लोग/और
मनाही हो जिन्हें/सपने तक देखने
मनुष्य बने रहने की
नैराश्य और हताशाओं की
कालकोठरी में/जुर्म साबित होने से पहले ही
काला पानी की सजा/आजीवन भुगतने को अभिशप्त
…
…
पानी का बुलबुला…
मेरे आंसू हैं महज
पानी का बुलबुला
और मेरा दर्द
सिर्फ़ मेरा दिमागी फ़ितूर
उनके तमाम कोशिशों के बावजूद
मेरे बचे रहने की जिद्द के सामने
धाराशायी हो जाते हैं
उनके तमाम नुस्खे और मंसूबे
अपने उन्हीं हत्यारों की खुशी के लिए
रोज हंसती हूं गाती हूं मैं
जिन्हें सख्त ऐतराज है
मेरे वजूद तक से
उन्हीं की सलामती की दुआ
38 Comments
अच्छी कविताएँ है ….जितनी सराहना की जाय, कम है
अँधेरे को ज्योतित करते हुए उज्ज्वला ज्योति ! इनके साथ संवेदना की मर्मपूर्ण राहों पे गुज़रना सहज है , अद्भुत है ।
मेरी रचनाओं को जानकीपुल में शामिल करने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद!
आप सभी सुधिजनों के अमूल्य प्रतिक्रियाओं के लिए बेहद आभारी हूं.
आप सभों का बहुत-बहुत आभार…
पुराने हिंदी-साहित्यिक ब्लॉगर्स उज्जवला जी के ब्लॉग 'अग्निपाखी' (http://agnipaakhi.blogspot.in/) से परिचित हैं, जो कि वे अपने बचपन के नाम डोरोथी के नाम से बरसों से लिखती रही हैं। पर फेसबुक प्रोफाइल के जरिए मैं जब उनके ब्लॉग 'खामोश फलक' पर पहुंची तो उनकी आदिम गूंज श्रृंखला की 25 वीं कविता देख कर बंध गई कि कोई आदिवासी जीवन और भावनाओं पर इतनी कविताएं लिख चुका है। उसके बाद तो पूरा ब्लॉग पढ़े बिना उपाय ही न था। उनमें से अच्छा या ज्यादा अच्छा चुनना तो मेरे लिए एकदम संभव नहीं था।
धन्यवाद प्रभात जी, कि आपने कुछ कविताएं तो साझा कीं ही, उनके ब्लॉग्स के लिंक भी यहां दे दिए। इन कविताओं को बड़े फलक पर जरूर पहुंचना चाहिए, या कहें, बड़े फलक वंचित हैं ऐसे प्रभावशाली कत्य और शिल्प से अब तक।
अपने बारे में लिखते हुए कवयित्री ने खामोश फलक पर लिखा है: अपने आस पास की दुनिया में फैले विसंगतियों और विरोधाभासों को जानने समझने की प्रक्रिया में नित नई नई अंतर्दृष्टि एंव संवेदना से आत्मसाक्षात्कार एंव आत्मसात करने और उस दुनिया के साक्षी होने के दायित्वों को वहन करने का प्रयास…….
अपने इस इस कथ्य को जीती… साकार करतीं संवेदनशील कवितायेँ! कवयित्री को बधाई!
***
जानकी पुल ने आज खामोश फलक तक पहुँचाया… आभार!
अग्निपखी से परिचय पुराना है!
atyant samvedansil kavitayen.jeevan ke ujalon aur housalo se bhari hui.sukriya jankipul aur ujjawalajyoti ko .uske nam ko sarthak karti si kavitayen.kalawanti
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अमेजिंग ! अपने परिदृश्य में रहकर संवाद करती बेहतरीन कवितायें हैं ये .. इन कविताओं का फ्लो कितना सहज है .. कितनी कोमलता से कितनी मार्मिक बातें कह गयीं हैं .. उज्ज्वला ज्योति को पढना मेरी आज की उपलब्धि गिन रहा हूँ मैं ..
बहुत संवेदनशील कविताएं.. और शुक्रिया उनका ब्लॉग साझा करने के लिए।
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