रज़ा फाउंडेशन की नई पत्रिका है ‘स्वर मुद्रा’, जो शास्त्रीय संगीत और नृत्य की वैचारिकी को समर्पित है. अशोक वाजपेयी न जाने कब से यह लिख रहे हैं कि शास्त्रीय कलाओं एवं साहित्य के बीच आदान-प्रदान होना चाहिए. यह पत्रिका उनके उसी स्वप्न का साकार रूप कहा जा सकता है. हालाँकि पत्रिका में अशोक जी का नाम परामर्श के तौर पर दिया गया है. इसके संपादकहैं विदुषी कथक नृत्यांगना प्रेरणा श्रीमाली और युवा संगीतविद यतीन्द्र मिश्र. यह भी एक दुर्लभ संयोग है कि एक ऐसी पत्रिका का प्रकाशन शुरू हुआ है जिसके दो संपादक हैं और दोनों अपनी विधाओं के गहरे ज्ञाता हैं.
बहरहाल, कुछ बातें पत्रिका के रूप-स्वरुप के बारे में. मुझे सबसे अधिक आकर्षित किया इस पत्रिका के आकल्पन ने. आम तौर अशोक वाजपेयी सम्पादित पत्रिकाएं या जिन पत्रिकाओं को उनकी सरपरस्ती मिलती रही है. उनका कवर तो बहुत अच्छा रहता है लेकिन अंदर ले आउट को लेकर किसी तरह का काम नहीं होता था. लेकिन यह रंगारंग पत्रिका है. इसका ले आउट, रंगों, चित्रों का संयोजन चित्ताकर्षक है. लेकिन लगता है उसमें संपादकों की कोई भूमिका नहीं है. आकल्पन एवं सज्जा के रूप में नाम गया है चर्चित युवा चित्रकार मनीष पुष्कले का.
कहा तो यह गया है कि पत्रिका संगीत एवं नृत्य को लेकर है लेकिन पत्रिका में ज्यादातर सामग्री संगीत को लेकर है. वह भी एक दृष्टि के साथ. शास्त्रीय संगीत एवं अन्य शास्त्रीय विधाओं को लेकर दो तरह की दृष्टि हिंदी में प्रचलित रही है. एक दृष्टि यह है उनके लिए लिखा जाए, पुस्तक, पत्रिका का प्रकाशन किया जाए जो इन विधाओं के जानकार हैं. दूसरी दृष्टि है वैसे लोगों को भी शास्त्रीय कलाओं के साथ जोड़ने की जो उसमें थोड़ी बहुत रूचि रखते हैं, जानकार नहीं हैं लेकिन जुड़ना चाहते हैं. दुर्भाग्य से इस दूसरी परंपरा का पोषण और संवर्धन हिंदी में कम हुआ है. ‘स्वर मुद्रा’ की इसी दृष्टि ने मुझे सबसे पहले आकर्षित किया. इसमें कोशिश यह की गई है कि संगीत को लेकर ऐसे लोगों के विचार सामने आयें जिनकी ख्याति संगीतविद के रूप में नहीं रही है. सुश्री केसरबाई केरकर पर मृणाल पाण्डे का लेख हो या अमीर खां साहब पर मंगलेश डबराल और यतीन्द्र मिश्र की बातचीत. इनमें कोई गोद बात नहीं कही गई है बल्कि आस्वादपरक ढंग से बातचीत है जिससे आम पाठक भी संगीत की उस महान परंपरा से सहज भाव से जुड़ सकता है. पत्रिका में एक खंड अमीर खां की गायकी को लेकर है जो निश्चित तौर पर पत्रिका को यादगार और संग्रहणीय बनाता है.
बहुत पहले यतीन्द्र मिश्र ने संगीत पर ‘थाती’ नाम की एक पत्रिका का संपादन किया था, ‘स्वर मुद्रा’ में उसकी अनुगूंजें सुनाई देती हैं. खासकर वाजिद अली शाह और रानी रूपमती की बंदिशों को देखकर. समकालीन समय में संगीत के अंतर्विरोध शीर्षक से शुभा मुद्गल का लेख भी इस पत्रिका में है और पाकीज़ा के गीतों को लेकर यतीन्द्र का लेख हम जैसे आस्वादकों को तृप्त कर देता है.
वैसे तो अलग अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए लेकिन एक पाठक के तौर पर मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि पत्रिका का नृत्य खंड अपेक्षाकृत कमजोर है. पत्रिका में नर्तक इन्द्राणी रहमान से उमा वासुदेव की एक अच्छी बातचीत है. लेकिन मेरी शिकायत यह है कि यह अनूदित सामग्री है. अशोक वाजपेयी की दृष्टि हिंदी में मौलिक लेखन को बढ़ावा देने की रही है लेकिन अनुवाद उस संकल्प को कमजोर करते हैं. प्रसंगवश, पत्रिका में अनूदित सामग्री बहुतायत में है. अंग्रेजी में कलाओं संगीत के ऊपर बहुत काम हो रहा है. फिर तो संपादकों को इस पत्रिका को अनुवाद की पत्रिका बना कर अपनी महती जिम्मेदारी से मुक्ति पा लेनी चाहिए.
पत्रिका में कथक को लेकर एक बुनियादी किस्म का लेख है लेखिका मनीषा कुलश्रेष्ठ का. जो इस उद्देश्य की पूर्ति करता प्रतीत होता है कि आम पाठकों को इस नृत्य, इसकी परंपरा के बारे में पता चले, उनकी ग्राउंडिंग हो सके. यह पाठकों से पत्रिका को जोड़ने के लिहाज से अच्छा लेख कहा जा सकता है. कथक और अमूर्तन पर प्रेरणा श्रीमाली का लेख भी अच्छा है. पढने लायक है.
रज़ा फाउंडेशन के इस अर्धवार्षिक आयोजन से बस एक शिकायत है कि इसकी कीमत बहुत अधिक है- 250 रुपये. अगर इस पत्रिका का उद्देश्य व्यावसायिक नहीं है तो इतना अधिक मूल्य आम पाठकों को इससे दूर करता है.
बहरहाल, इस सुन्दर पहल के लिए संपादकों और रज़ा फाउंडेशन को बधाई!
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