आज ‘जनसत्ता’ में वरिष्ठ पत्रकार, http://www.hindisamay.com के संपादक राजकिशोर का लेख छपा है ‘प्रेमचंद के मित्र’. पढ़ा आपने? राजकिशोर जब लिखते हैं बहसतलब लिखते हैं- जानकी पुल.
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मैं समझता था कि प्रेमचंद इतने अच्छे लेखक हैं कि उन पर बहस नहीं हो सकती। वे हिंदी कथा साहित्य के मनु हैं। (वह मनु नहीं जो मनुस्मृति बनाते समय सहज मानवीय संकोचों के चक्कर में नहीं पड़ा। मनु वह, जिसके बारे में माना जाता है कि हम सब उसी की संतानें हैं।) लेकिन प्रेमचंद पर अंतहीन बहस जारी है। पहले दलितों ने उनके कफन को छेड़ा, फिर उनकी नीली आँखों पर नजर गड़ाई गई। अब यह जाँच चल रही है कि वे कम्युनिस्ट थे या नहीं। मानो कम्युनिस्ट होना कोई अच्छी बात हो। ऐसे महानुभावों ने साहित्य का जितना भला किया है, उससे ज्यादा उसे चोट पहुँचाई है। दुर्घटनावश नहीं, बल्कि योजनापूर्वक। यह योजना पंचवर्षीय नहीं थी, क्योंकि आज भी जारी है। दरअसल, आदमी का दिमाग इतना खुराफाती होता है कि जब उसके गर्भगृह में कोई चीज एक बार शुरू हो जाती है, तो आदमी के साथ ही दम तोड़ती है।
प्रेमचंद का सहित्य कुछ ऐसी कूची से बना है कि वह लगता भोला-भाला है – लेखक के अपने अनेक पात्रों की तरह, लेकिन भोले लोग भी इतने गंभीर हो सकते हैं कि बड़े-बड़ों को पसीना आने लगे – भले ही मौसम सर्द हो। प्रेमचंद पर विवाद उनके जीवन काल ही में शुरू हो गया था, अगरचे उसका मिज़ाज अलग था। जब वे ‘मोटेराम का सत्याग्रह’-नुमा कहानियाँ लिखने लगे थे, तब काशी के विप्र समुदाय ने उनके ललाट पर ‘घृणा का प्रचारक’ गोदने की कुछ कम कोशिश नहीं की। प्रेमचंद आम तौर पर आरोपों का जवाब नहीं देते थे, क्योंकि उनके पास लिखने को इतना था कि उसी के लिए समय नहीं मिलता था। लेकिन घृणावाद की तत्व मीमांसा उन्हें जरूरी लगी। वे जितना साफ लिखते थे, उससे कुछ अधिक साफ भाषा में उन्होंने लिखा (जो कम्युनिस्ट नैतिकता से मेल नहीं खाता) कि हम व्यक्तियों से घृणा नहीं करते, उनकी विकृतियों से जरूर घृणा करते हैं। इसलिए हमारी लड़ाई व्यक्तियों से नहीं, प्रवृत्तियों से है। वैष्णव जन इसी से तो घबराते थे। वे चाहते थे कि व्यक्तियों में लट्ठम-लट्ठा भले हो जाए, पर प्रवृत्तियों पर बहस न छेड़ी जाए। डर यह था कि इससे हिंदू समाज का राष्ट्रव्यापी तंबू पारदर्शी हो जाएगा और बहुत कुछ ऐसा दिखने लगेगा जो गम्य नहीं है।
बाद में, कम्युनिस्ट लेखकों ने प्रेमचंद की इस कड़ी को बनाए रखा, पर उनकी पार्टियों ने धर्म, ईश्वर, छुआछूत, जाति भेद, ब्राह्मणवाद आदि के विरुद्ध कोई सांस्कृतिक अभियान नहीं छेड़ा। लेखक को पाठक चाहिए और पार्टियों को वोट। यह मेरा अंध-विश्वास नहीं है कि अगर प्रेमचंद कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए होते यानी कम्युनिस्ट पार्टी ने उन्हें शामिल होने दिया होता, तो वे अपने नेताओं से, मुक्तिबोध से भी अधिक कड़कपन से, जरूर पूछते : कॉमरेड, तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है? कुछ इसी विह्वलता से मुक्तिबोध ने उस समय के उच्चतम कम्युनिस्ट नेता ई.एम.एस. नंबूदिरीपाद को एक सुदीर्घ पत्र लिखा था – अंग्रेजी में, ताकि वे समझ सकें। मुक्तिबोध को जवाब नहीं मिला था। अगर उन्होंने हिंदी में पत्र लिखा होता, तब तो जवाब आने का कोई डर ही नहीं था। इसी तरह, क्या प्रेमचंद को भी अपने सवाल का जवाब मिला होता? कुछ विशेषज्ञों का कहना है, प्रेमचंद कम्युनिस्ट नहीं थे, लेकिन प्रगतिशील थे। मैं जानना चाहता हूँ, कम्युनिस्ट पार्टी (क पार्टी) प्रगतिशील थी या नहीं? फिर उसने प्रेमचंद से दोस्ताना रिश्ता क्यों नहीं बनाया? हरकिशन सिंह सुरजीत के मुताबिक, कपा की स्थापना 17 अक्तूबर 1920 को (ताशकंद में) हुई। 1920 से 1936! इन सोलह वर्षों में क. पार्टी ने क्या कभी प्रेमचंद से संपर्क किया? क्या यह प्रेमचंद का काम था कि वे क. पार्टी के नेताओं के पास जाते और पता लगाते कि किस तरह का साहित्य लिखा जाना चाहिए? निःसंदेह राजनीति से निराश हो जाने के बाद ही प्रेमचंद ने लिखा होगा कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है।
अलीगढ़ विश्वविद्यालय के रिटायर प्रोफेसर शैलेश जैदी को मैं नहीं जानता। फिर भी, उनके अन्य लेखन को देखते हुए, उनके ये वाक्य फरेबी नहीं लगते : ‘देखते-देखते सम्पूर्ण देश में प्रगतिशील लेखक संगठन की शाखाएँ फैलने लगीं। किंतु संगठन के प्रति हिन्दी लेखकों के उत्साह में कोई गर्मी नहीं आई। 9-10 अप्रैल, 1936 को प्रेमचंद की अध्यक्षता में होने वाले लखनऊ अधिवेशन में हिन्दी लेखकों की कोई भूमिका नहीं थी। वे एक तटस्थ दर्शक मात्र थे। वह भी सभा में शामिल होकर नहीं, केवल घर बैठे-बैठे। रामविलास शर्मा और निराला दोनों ही उस समय लखनऊ में थे, किंतु सम्मेलन में कोई शरीक नहीं हुआ। प्रेमचंद, जैनेन्द्र को अपने साथ खींच जरूर ले गए, किंतु जैनेन्द्र की सोच संगठन की सोच से मेल नहीं खाती थी।… हाँ, प्रेमचंद का अध्यक्षीय भाषण, जो उर्दू में लिखा और पढ़ा गया था, आगे चलकर जब हिन्दी में रूपांतरित हुआ तो हिन्दी लेखकों की प्रेरणा का स्रोत अवश्य बन गया। लखनऊ अधिवेशन में कई आलेख पढ़े गए जिनमें अहमद अली, रघुपति सहाय, मह्मूदुज्ज़फर और हीरन मुखर्जी के नाम उल्लेख्य हैं। गुजरात, महाराष्ट्र और मद्रास के प्रतिनिधियों ने केवल भाषण दिए। प्रेमचंद के बाद सबसे महत्वपूर्ण वक्तव्य हसरत मोहानी का था।’
रूस की क्रांति के करीब दो साल बाद, 29 सितंबर, 1919 को अपने मित्र और ‘जमाना’ के संपादक मुंशी दयानारायण निगम को एक पत्र में प्रेमचंद ने लिखा था, ‘‘मैं अब करीब-करीब बोल्शेविक उसूलों का कायल हो गया हूं।’’ यहाँ दो चीजें ध्यान देने की माँग करती हैं। प्रेमचंद कम्युनिस्ट उसूलों की बात नहीं कर रहे थे। बोलशेविक आदर्शों की बात इसलिए कि बोलशेविकों के नेतृत्व में ही रूस की क्रांति हुई थी और शुरू में उसने कई अच्छे काम किए थी। बोलशेविक रशियन सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी का अंग थे। दूसरी चीज है और ज्यादा महत्वपूर्ण भी – ‘करीब-करीब’। कोई भी बड़ा लेखक या चिंतक न तो खुद अंधभक्त होता है, न किसी को ऐसा होने के लिए प्रेरित करता है। प्रेमचंद जब ‘करीब-करीब’ का प्रयोग करते हैं, तो वे कुछ जगह शंका के लिए भी छोड़ देते हैं। अर्थात वे पूरी तरह कायल नहीं थे। या, सोचते थे कि जरा और देख लें, तब अपना पूर्ण समर्थन दिया जाए। बाद में उन्होंने यह बात एक बार भी नहीं दुहराई, बल्कि कम्युनिस्टों की आलोचना ही की। इसीलिए आप पाएँगे कि उनके अंतिम उपन्यास, जो उनकी जीवन भर की कमाई का सार था, कम्युनिस्टों या कम्युनिस्ट पार्टी की चर्चा ही नहीं की है। क्या भूलवश ऐसा हो गया था? विशेषज्ञों को इस पर भी प्रकाश डालना चाहिए।
प्रेमचंद ने गांधी युग की छाया में अपना संपूर्ण लेखन किया। यह साहित्य का आठवाँ, या हो सकता है नौवाँ, आश्चर्य है कि जब देश भर में गाँधी की आँधी चल रही थी, तब हिंदी साहित्य पर उसका कोई असर दिखाई नहीं देता (गालिबन यह मेरी आँखों का कसूर नहीं है)। सोहनलाल द्विवेदी, सियारामशरण गुप्त, बच्चन आदि ने कुछ काव्य जरूर रचा, पर वह साहित्य की निधि बनने लायक नहीं था। ऐसी मौसमी फसलों के लिए साहित्य के रत्नागार में जगह नहीं होती। प्रेमचंद द्वारा बड़े मन से लिखा हुआ उपन्यास ‘रंगभूमि’ इसका समर्थतम अपवाद है। मैं समझता हूँ कि यह ‘गोदान’ से बेहतर उपन्यास है। अन्याय से अपने अकेले दम पर संघर्ष का यह बेहतरीन नमूना है। इसमें औद्योगिक समय के आने की आहट और उससे होनेवाले नुकसान की झाँकी भी है। ‘गोदान’ में ऐसा कोई संघर्ष दिखाई नहीं देता। वहाँ एक नई चीज जरूर है – मेहता और मालती का सह-जीवन। मेहता इसे विवाह में बदलना चाहता है, पर मालती विवाह संस्था का ही विरोध करती है। कहती है कि इसके बाद हम अपने घोंसले तक निरुद्ध हो जाएँगे। कम्युनिस्ट भी इस संस्था की निरर्थकता को समझते हैं। एंगिल्स ने विवाह को निजी संपत्ति के उदय के साथ नत्थी कर यह स्पष्ट कर दिया है कि सामंतवाद और पूँजीवाद से मुक्त समाज में स्त्री-पुरुष संबंध का स्वरूप क्या होगा। अचरज की बात है कि प्रगतिशीलों ने ही नहीं, कम्युनिस्टों ने भी प्रेमचंद की इस स्थापना पर विचार नहीं किया। क्या इन्हें क्रांति से डर लगता है?