अनामिका और पवन करण की कविताओं पर ‘कथादेश’ में शालिनी माथुर के लेख के प्रकाशन के बाद उन कविताओं के कई पाठ सामने आए. आज वरिष्ठ लेखक-पत्रकार राजकिशोर का यह लेख- जानकी पुल.
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स्तनों पर लिखना बहुत मुश्किल है। स्तनों पर कुछ लिखा गया हो, तो उस पर विचार करना और भी मुश्किल है। अगर किसी ने विचार किया है, तो उस पर चर्चा करना तो समझिए सबसे मुश्किल काम है। अगर आप पुरुष हैं, तब तो आप को इस बारे में सोचना ही नहीं चाहिए।
फिर भी पवन करण और अनामिका की कविताओं पर शालिनी माथुर और दीप्ति गुप्ता ने जो गदर मचाया हुआ है, उसमें हस्तक्षेप करना अनैतिक नहीं लग रहा है, तो इसीलिए कि कविताएँ पढ़ने का जो नया शास्त्र विकसित करने की कोशिश की जा रही है, वह अपने मूल में साहित्य विरोधी है। यह दृष्टि लगभग वैसी ही है जिसके आधार पर ‘कफन’ कहानी में एक जाति विशेष के उल्लेख पर प्रेमचंद को दलित विरोधी साबित करने का अभियान लगभग सफल दिखाई देता है। प्रेमचंद के प्रशंसक और भक्त भी अवचेतन में शायद यह सोच रहे हों कि इतने महान लेखक ने यह कहानी न ही लिखी होती, तो बेहतर था। पर प्रेमचंद जब लिख रहे थे, तब उन्हें क्या पता था कि कुछ ही दशकों में साहित्य को समाजशास्त्र की तरह पढ़ा जाने लगेगा।
ये दोनों कविताएँ प्रत्यक्षतः हैं तो कैंसर के बारे में – एक के तो शीर्षक ही में कैसर का जिक्र है, लेकिन इनकी विषयवस्तु स्तन हैं – उनका आकर्षण, उनका गौरव और उनकी लज्जा। बहुत पहले एक फिल्मी गीत लोकप्रिय हुआ था – चोली के पीछे क्या है। इसका जवाब सभी को पता था, इसलिए गायिका जो बताना चाहती थी, वह हास्यास्पद नजर आता था। साफ है कि यह गीत किसी खुराफाती दिमाग की उपज था। व्यावसायिक सिनेमा में स्तनों को भुनाने की लंबी परंपरा रही है। स्त्री शरीर की मारकेटिंग में जिन अवयवों पर विशेष रूप से ध्यान केंद्रित रखा गया है, उनमें स्तनों का दर्जा सबसे ऊपर है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य में तो इनका बोलबाला है, क्योंकि तब सौंदर्य के प्रतिमान ज्यादा स्थूल थे। हिंदी में भी कुछ दिनों तक यही स्थिति रही – सिर्फ रीतिकालीन साहित्य में नहीं, सूरदास जैसे कवि में भी, पर जैसे-जैसे शालीनता का दबाव बढ़ा, प्राथमिकताएँ बदलने लगीं। लेकिन कौन कह सकता है कि वास्तविक जीवन में भी – पुरुष ही नहीं, स्त्री जीवन में भी – स्तनों की हैसियत में फर्क आने लगा? लोग मुँह भले ही बंद रखें, आँखें खुली रखते हैं। इसलिए जब कैंसर के संदर्भ में स्तनों पर कविता लिखी जाती है, तो वह चाहे जिस करवट बैठे, उस पर प्रश्नवाचक चिह्न लगना अनिवार्य है। क्योंकि मामला कैंसर का नहीं, स्तनों का है। रोओ तो मुसीबत, हँसो तो मुसीबत।
अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द फीमेल यूनक’ में जर्मेन ग्रियर ने लिखा है कि देखनेवालों की नजर में स्तनों का आकार कभी आदर्श हो ही नहीं सकता – वे या तो जरूरत से बड़े होंगे या फिर जरूरत से छोटे। जाहिर है, देखने की यह नजर उपभोक्ता की है, अन्यथा तो ईश्वर ने जिसको जैसा बनाया है, उसमें मीन-मेख निकालना कहीं से भी बुद्धिमानी नहीं है। लेकिन आदमी है कि हाथ पर हाथ रख कर नहीं बैठ सकता। इसीलिए पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी स्रष्टा के काम में संशोधन करने का अधिकार सुरक्षित रखती हैं।
ग्रियर ने अकसर किए जानेवाले जिस मूल्यांकन की बात कही है, वह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है, किंतु क्या वह आधारहीन भी है? वास्तव में यह एक गंभीर समस्या है, जिसकी गुत्थियों को समझने में स्त्रीवाद असफल रहा है। सिवा बहुत खूबसूरत लोगों के कोई नहीं चाहता कि उसका मूल्यांकन सिर्फ उसके शरीर के आधार पर हो। जब आदमी का व्यक्तित्व विराट हो जाता है, तब उसके मूल्यांकन में उसके शरीर का प्रतिशत एकदम नीचे आ जाता है। कइयों ने लिखा है कि गांधी जी बदसूरत थे, पर उनसे ज्यादा आकर्षक व्यक्तित्व और किसका था? इसी तरह, कम सुंदर स्त्रियाँ भी अपने आंतरिक गुणों के कारण महान प्रतीत होती हैं। लेकिन शरीर सिर्फ चेतना नहीं है, वह पदार्थ भी है, इससे कौन इनकार कर सकता है? अभी तक पुरुष समाज इस बात पर अनुपात से बहुत ज्यादा जोर देता रहा है। तभी तो कोई किसी युवती का चित्र देख कर ही उस पर दीवाना हो जाता था या किसी स्त्री के सौंदर्य के बारे में पढ़ या सुन कर ही उसे हासिल करने के लिए रवाना हो जाता था। यह दावा करना नादानी है कि सौंदर्य के इस मूल्य बोध को स्वीकार कर स्त्रियों ने पितृसत्ता की कैद को स्वीकार कर लेने की मरणांतक भूल की है : कुछ मामलों में स्त्रियाँ स्त्रीवादियों से ज्यादा बुद्धिमान होती हैं। वैसे, मैंने बहुत-सी स्त्रीवादिनियों को भी अपने स्त्रीगत आकर्षण की पर्याप्त चिंता करते हुए पाया है।
इस नजरिए से देखने पर पवन करण का अपराध – अगर वह अपराध है – बहुत छोटा नजर आता है। उनकी कविता में कहीं भी यह बात नहीं है कि ‘वह’ अपनी पत्नी को सिर्फ खिलौना समझता था। स्तनों से उसका लगाव बहुत उत्कट था, लेकिन इसमें अस्वाभाविक क्या है? कोई किसी पहलू पर फिदा होता है, कोई किसी पहलू पर। हाँ, ‘शहद के छत्ते’ और ‘दशहरी आमों का जोड़ा’ – ये उपमाएँ अवश्य घटिया हैं। यहाँ कविता मार खा जाती है। यह भी कोई कहने की चीज नहीं थी कि ‘उस खो चुके एक के बारे में भले ही / एक-दूसरे से न कहते हों वह कुछ /मगर वह विवश जानती है / उसकी देह से उस एक के हट जाने से/ कितना कुछ हट गया उनके बीच से’। लेकिन यह भी सही है कि दो आदमियों के बीच जो कुछ घटित होता है, उसका हिसाब कोई और नहीं रख सकता, न उसे रखना चाहिए। मैं यह अनुमान करने की स्वतंत्रता चाहता हूं कि शुरू-शुरू में भले ही ‘उसने’ और उसके साथ की स्त्री ने उस एक निकाल दिए गए का जितना भी गम मनाया हो, उनके पारस्परिक प्रेम ने धीरे-धीरे उनके जीवन को सामान्य बना दिया होगा। जीवन कुछ स्त्रीवादियों की आलोचना की तरह इतना हिसाब-किताबी नहीं होता।
पवन करण के रुदन से अनामिका की खिलखिलाहट क्या बेहतर है? कहना मुश्किल है। लेकिन कल्पना की जा सकती है कि कैंसर के उपचार में दोनों स्तनों को निकाल दिए जाने पर सचमुच वैसा ठट्ठा किया जा सकता है जैसा अनामिका की नायिका करती है। जो अनामिका जी को जानते हैं, वे तो इसे स्वाभाविक भी मानेंगे। उद्दीप्त जिजीविषा का यह प्रसाद विरल होगा, पर असंभव नहीं है। शालिनी माथुर ने जिन कुछ अभिव्यक्तियों पर नाराजगी जाहिर की हैं, उन्हें अधिक-से-अधिक काव्य भाषा का स्खलन कहा जा सकता है, पर सिर्फ इनके आधार पर इस कविता में पोर्नोग्राफी देखना वैचारिक गुंडागर्दी है। ‘मेरे शब्दों पर मत जाओ, मेरे भाव देखो’ – इस उदारता की माँग करना क्या आजकल चाँद माँगने के बराबर हो गया है? बल्कि अनामिका की कविता में ‘दस बरस की उम्र से / तुम मेरे पीछे पड़े थे’ की विडंबना को जितने मजाहिया तरीके से प्रगट किया गया है, उसका आनंद लेने के लिए एक बहुत खुला हुआ मन चाहिए, जो या तो ठेठ ग्रामीण परिवेश में सहज ही पैदा होता है या फिर जिसके लिए एक पका हुआ आधुनिक दिमाग चाहिए। हाइपर संवेदनशीलता एक बीमारी है और सभी प्रकार के अभियानवादी आचरण में दिखाई देती है। इसमें रूढ़ि और नवीनता, दोनों का विनाशकारी समुच्चय है। इस समुच्चय के प्रभाव में ही मैत्रेयी पुष्पा जैसी लेखिकाओं को अकसर कटघरे में खड़ा किया जाता है। स्त्री के बारे में लिखने का शौक बनाए रखना है, तो शालिनी जी और दीप्ति जी, दोनों को मेरी सलाह है कि उन्हें कृष्णा सोबती का लघु उपन्यास ‘ऐ लड़की’ का पाठ महीने में एक बार अवश्य करना चाहिए – संभव हो तो आमने-सामने बैठ कर। 000