कम उम्र में दिवंगत हो गई कवयित्री शैलप्रिया जी की स्मृति में रांची में शैलप्रिया स्मृति सम्मान की शुरुआत की गई. पहला पुरस्कार दिया गया कवयित्री निर्मला पुतुल को. उसके आयोजन की जीवंत रपट लिख कर भेजी है कवयित्री कलावंती ने. आपके लिए- जानकी पुल.
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शैलप्रिया स्मृति न्यास की ओर से प्रथम शैलप्रिया स्मृति सम्मान दुमका की सुविख्यात कवयित्री सुश्री निर्मला पुतुल को दिया गया । 15 दिसम्बर 2013 को रांची विश्वविद्यालय के केन्द्रीय सभागार में वरिष्ठ कवि श्री मंगलेश डबराल, वरिष्ठ समालोचक श्री खगेन्द्र ठाकुर तथा महादेव टोप्पो ने स्मृति चिन्ह व शाल भेंटकर उन्हें सम्मानित किया। 15000 रूपये की नगद पुरस्कार राशि भी उन्हें प्रदान की गयी। इस मौके पर रांची और आसपास के साहित्यप्रेमी बडी संख्या में उपस्थित थे। डा ऋता शुक्ल, डा श्रवण कुमार गोस्वामी, कृष्ण कल्पित, पंकज मित्र, डा0पूर्णिमा केडिया, अनिता वर्मा, शंभू बादल, शिवशंकर मिश्र, अश्विनी कुमार पंकज तथा अन्य। प्रसिद्ध साहित्यकार रणेन्द्र ने कार्यक्रम का संचालन किया । पुरस्कार की चयन समिति में तीन लोग थे -रविभूषण, महादेव टोप्पो व प्रियदर्शन।
वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने इस अवसर पर कहा कि शैलप्रिया और निर्मला पुतुल दोनो की कविताओं में स्त्री मन की अनूभूतियों की मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है। उन्होंने शैलप्रिया की कविताओं पर दिखाई पड़ते बिम्बों का उल्लेख करते हुये कहा कि आज से करीब चालीस साल पहले लिखी गई इन कविताओं में बिम्ब बिल्कुल नये व चकित करनेवाले हैं।
‘सारी ट्रेनें चली गयी हैं
प्लेटफार्म पर
खाली डिब्बे सी खडी हूँ मैं।
समय की शव-यात्रा में
अर्थी की तरह चल रही हूँ
शायद जल रही हूँ’।
वरिष्ठ समालोचक श्री खगेन्द्र ठाकुर ने कहा कि शैलप्रिया की कविताओं में व्यापकता है, एक सहजता है। कवि पत्रकार प्रियदर्शन ने कहा कि उनकी कवितायें पहले महसूस होती हैं, फिर समझ में आती हैं।
कवयित्री शैलप्रिया का मात्र 48 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उनके तीन काव्य संग्रह हैं –‘अपने लिये’, ‘चांदनी आग है’ तथा ‘घर की तलाश में यात्रा’। उनकी कवितायें भी उनके व्यक्तित्व की तरह ही सहज, सरल, निश्छल हैं। उनकी डायरी के कुछ अंश भी प्रकाशित हुये हैं। उन्होंने लिखा है:
” औरत हारती नहीं हैं, उसे युद्ध विराम के लिये विवश होना पडता है और दुर्भाग्य से इसे उसकी हार समझ लिया जाता है। औरत युद्ध विराम ना करे तो विश्व के सारे परिवार बिखर जायेंगे। हमारा सामाजिक ढांचा ही नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगा और मानव सभ्यता फिर से आदिमयुग में चली जायेगी। अपने पारिवारिक जीवन और सामाजिक ढांचे की सुरक्षा के लिये औरत जो त्याग करती है, अगर इसे हार जीत की भावना से ऊपर उठकर देखा जाये तो सारी समस्याओं का समाधान हो जायेगा।“
उनके तीनों कविता संग्रहों में अपने भरे पूरे परिवार के बीच में अपने लिये जगह तलाशती स्त्री का अकेलापन है, सन्नाटा है। परिवार की धुरी है वह। पर उसके न होने के बाद ही, उसके होने का महत्व क्यों समझ में आता है। आम भारतीय स्त्री के मानस को करीब से छूती स्त्री का बयान हैं कवियित्री शैलप्रिया की कवितायें –
”उपमाओं से लदा सूरज
पुरातनपंथी है,
रास्ते नहीं बदलता,
लकीर का फकीर है
मेरी तरह।“
उनकी रचनात्मक यात्रा को समझने के लिये उनकी तीनों काव्य संग्रहों
की पंक्तियां देखें-
सन्नाटे के सिवा/ कोई थाती नहीं है/ मेरे पास-
(काव्य संग्रह ”अपने लिये“)
अक्सर जब खाली होता है अंतर्मन/ भीतर का अंधेरा/ सन्नाटे के झाड़ बोता है मुझमें।
– (काव्य संग्रह ”चांदनी आग है“)
रजनीगंधा की कलियों की तरह / खुलने लगी थी मेरी प्रतीक्षा/ और मुझे लगा था/ कि सन्नाटे के तार पर /सिर्फ मेरे दर्द की कोई धुन बज रही है। (काव्य संग्रह ”घर की तलाश में“ )
15 दिसम्बर 2013 की शाम जब यह कार्यक्रम चल रहा था तब उनकी एक कविता बार- बार जेहन में उभर रही थी-
ओ दिसम्बरी शाम
आज तुमसे मिल लूँ
विदा वेला में
अन्तिम बार
सच है,
बीता हुआ कोई क्षण
नहीं लौटता
नहीं बाँध सकती मैं
तुम्हारे पांव
कोई नहीं रह सकता एक ठांव ।
उस दिसम्बरी शाम को सभागार में हर कोई उस क्षण को लौटा लाने को बेचैन था जब शैलप्रिया जीवित थीं और अपने शहर की गोष्ठियों में सदेह उपस्थित रहती थीं।
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