अपर्णा मनोज की कविताओं का मुहावरा एकदम अलग से पहचान में आता है. दुःख और उद्दाम भावनाओं के साथ एक गहरी बौद्धिकता उनकी कविताओं का एक अलग ही मुकाम बनाती हैं. कई-कई सवाल उठाने वाली ये कविताएँ मन में एक गहरी टीस छोड़ जाती हैं. आज प्रस्तुत हैं उनकी पांच कविताएँ- जानकी पुल.
सब ठीक ही है :
कहाँ कुछ बिगड़ा है ?
यूँ तो सब ठीक ही लगता है.
पड़ोस से उठने वाला मर्सिया
कनेर के गुलाबी फूलों के बीच से गुज़रा है
ज्यादा फर्क कहाँ पड़ा है ?
हवाएं कई पनडुब्बियों में समुद्र को भेद रही हैं
थोड़े जहाज़ों का मलबा दबा है
इतिहास के सन्निपात में रोते हुए बेदम हो गया है बचा हुआ वर्तमान.
भविष्य तो पाला हुआ हरा तोता है
रट लेगा तुम्हारी पुरा -कथाओं के अक्षर
चोंच में जो भरोगे वही कहेगा.
गले में बाँध लेगा लाल पट्टी सुन्दर
और जनतंत्र की जय कहेगा.
कुछ अधिक नहीं घटा है.
एक छोटा -सा ईश्वर है
अभी आँख भी नहीं सधी है उसकी
माँ के स्तन को टटोल रहा है
हाथ पर लगा दिठौना उसने काबिज़ करने से पहले जान लिया है
कि कभी भी हो सकता है उसका क़त्ल
फिर भी बहुत सारे पते हैं जिंदा
ख़ुदा न तर्स दूसरों के घरों के दरवाज़े पर अपना नाम लिखते
रिसती हुई साँसों में गुमशुदा की तलाश ज़ारी है अब भी
आंकड़ों से भर गया है धुंआं.
शहर तो उसी तर्ज़ पर नाच रहा है रक्कासा -सा
उम्मीद की गलियाँ नुक्कड़ों पर चाय पी रही हैं छूटे कस्बे के साथ .
गौरतलब कहाँ कुछ बदला है!
सब ठीक-ठाक ही दीखता है इस अल्लसुबह.
प्रसव के बाद:
खूब रात है
नींद भी गहरी है खूब
और सम्भावना है कि कोई सपना जीवित रह जाए
तुम्हारी आँखों के कोटर में.
वैसे बाहर गश्त पर सपेरों ने औंधा दी हैं अपनी बेंत की टोकरियाँ
छोड़ दिए हैं सर्प सन्नाटों के
टूटे हुए विषदंत में
अभी भी शेष रह गए हैं
ज़हरीली सफ़ेद गैस के संवाद
जंगल में इससे अधिक और क्या हो सकता है?
सपनों के अण्डों पर बैठी मादा
क्रेंग-क्रेंग करती है
सुबह से पहले दरक जाए उसका खून
और चीखती जनता का काफ़िला उड़ जाए डैने फैलाये
सूरज गोल -गोल आँख लिए देख रहा है मादा को
प्रसव के बाद की उम्मीद भी क्या है!
खेल:
तुम अपनी बंद मुट्ठियों से
हर बार वही खेल खेलते हो
जो अकसर पापा खेलते थे मेरे साथ.
उनकी कसी उँगलियों को खोलने
मैं लगा देती थी नन्हा दम
जबकि जानती थी कि वहाँ सिवाय खाली लकीरों के
और कोई कुबेर नगरी नहीं.
एक जमा हुआ काला तिल उनकी हथेली का
मेरी जीत का साक्षी रहता
बड़ा जादू था इस खाली होने के खेल में
औरतें पता नहीं किस अलीबबाबा की गुफा में बैठी
यूँ ही खेलती हैं खालीपन से.
चालीस चोर -सी जिन्दगी
और एक तिल्लिस्म सुख का
न जाने किस डिब्बे में बंद
हर आवाज़ पर एक तलाश शुरू होती है
ख़त्म होती है जो खाली मुट्ठी पर.
रुदालियाँ:
मैंने उन्हें देखा है
कब से छुड़ाती रही हैं
कभी न छूटने वाला, जिस्म और आत्मा पर चिपका : सदियों का बकाहन -दुःख.
रुदालियाँ जीवन की.
कच्ची नागफनियाँ हरी
जिनकी देह के पानी को हो जाना है शूल
आँखों में भर लेना है खून
कि जब टपके तो दरकने लगे किसी पुख्ता दीवार का सीना
और भीग जाएँ सीलन से नींव के पुराने ज़ख्म और दरख्तों की गहरी जड़.
पता नहीं, छाती पीट कह देना चाहती हैं अपनी किस व्यथा को
काले घाघरे , उससे भी ज्यादा गहरे काले ओढ़ने
नाक में बिंधी लौंग, कभी अपनी न सुनने वाले कान –
जिनमें नुमाया हैं पहचान बनाते बुन्दके, वे जब सिहरते तो काँप जाती पछुआ.
और इन सबके बीच ठहरा है लम्बे समय का मौन
जिसमें वे टिकी रहती हैं
बरसों पुराना रुदन लिए
अपनी छोटी जात के साथ
कितनी छोटी औरत बनकर.
वे किसी मुहर्रम-सी
न जाने किस कर्बला का दुख हैं?
लौटा लाता है समय उन्हें अपने ताज़िए के साथ
न जाने कैसी आवाज़ आती है ज़मीन से
कुछ दफ़न होने की.
हुज़ून हैं .
जिनकी पीड़ा को अंतहीन हो जाना है
उस काले नेगेटिव की तरह
जिसकी दुखती रग से गुज़र जाती है रोशनी और खड़ा हो जाता है मिथ्या छायाचित्र औरत का.
करुणा की कौन-सी नदी
जहां अंत हो जाना है तुम्हारे दुखों का
कौनसा महाभिनिष्क्रमण जहां यशोधरा तक लौट आए कोई बुद्ध.
रुदालियाँ हैं औरत के भीतर की .
भीगती हुई झील में तहनशीन
सूखी आँखों का तहज्ज़ुन आंसू .
(अमृता शेरगिल की प्रसिद्ध पेंटिंग्स )
तैलचित्र:
भारत का वह कौनसा आसमान , कैसी ज़मीन
फूलों पर चिपके वे कौनसे रंग
कैसी आत्माएं तितलियों की
कौनसे तहखाने जिनमें लेटा बुद्ध सुनता रहा बाहर से आती सुगबुगाहटें
दुखांत छायाओं की
कि जब वे बनती रोशनी के खून से
तो आदतन कोई अँधेरा पसर जाता और दूर बैठी वह
घोलने लगती रंग अपनी आठ बरस की आँखों की कटोरियों में .
बनफशी , नीली उसकी आँखें
जिनमें तैरती सफ़ेद पुतलियाँ अकसर बुना करती अपने भीतर चलती उन आकृतियों को
जो बैठी रहती उसके अथाह में
बिछाए बरौनियों की चटाई
न जाने कौनसे फूल पिरोने होते थे उन्हें
कि सूई चलती रहती समय के झड़े दर्द में
और कोई उदास मौसम गुँथ जाता गिरे पत्तों के साथ.
उसके अभिजात्य में उनका आना कैसा था
जैसे पेड़ों का श्राप है उनपर
कि रहेंगे उनके दुःख में हरे ज्यूँ रहता है पत्तों का रंग
कि जड़ों को अपने गहरे भूरे के साथ धंसना होता है
तब तक जब तक ज़मीन की निचली परत का पानी खींच न लाये
और सौंप दे कोंपल को उसका स्वत्व
आकाश का बकाहन कैसे पकड़ लाती हैं उनकी लटकी छातियाँ
जहां दूध में चिपका होता है कोई चीखता पुराना ज़ख्म
वे हमेशा एक ही तरह से झुकी रहती हैं
54 Comments
औरतें पता नहीं किस अलीबबाबा की गुफा में बैठी
यूँ ही खेलती हैं खालीपन से.
चालीस चोर -सी जिन्दगी
और एक तिल्लिस्म सुख का
न जाने किस डिब्बे में बंद
हर आवाज़ पर एक तलाश शुरू होती है
ख़त्म होती है जो खाली मुट्ठी पर.
kya sach me aurton ke saath hi aisa hota hai!!
sach me adbhut, anupam ek se badh kar ek! ham navsikhiyon ke pass to shabd bhi nahi hote ki sahi tarike se bata payen ki aapki kavita me kya khasiyat hai…!!
kaun kehta hai..hindi ka bhavishya……..adhar mein hai…
aparnaji aapka srijan…uspe kuch comment karun..wo shabd nahi mere pass…shubhkamnayen…
अनुपम अभिव्यक्ति..:)
अद्भुत अभिव्यक्ति!
"जैसे वे कुछ पकड़ रही हों दूर होता
जैसे कोई छूट गई हो कामनाओं की गेंद सूरज के हाथ से
और धंस गई हो भूमि के निर्जन कोने में
जहां सीता की जिन्दगी के टुकड़े लथपथ पड़े रहे सदियों"……
अद्भुत शब्द-प्रयोग, अनोखी अभिव्यंजना, अपर्णा जी की इन कविताओं को पढ़ कर एक ऐसी अन्तर्दृष्टि मिलती है, जो दूर तक हमारे आगे-आगे हमारे रास्ते को आलोकित करती रहेगी। मार्मिक कविता, मनोहारी पेन्टिन्ग, प्रभावकारी संगीत कुछ भी कहा जा सकता है इन कविताओं को। बधाइयाँ!
वे किसी मुहर्रम-सी
न जाने किस कर्बला का दुख हैं?
लौटा लाता है समय उन्हें अपने ताज़िए के साथ
न जाने कैसी आवाज़ आती है ज़मीन से
कुछ दफ़न होने की……. बार बार का दफ़न बहुत दर्दीला होता है और औरत सहती है ,विडम्बना है ये …….अपर्णा जी शब्दों में लिखने में असमर्थ हूँ आपकी कविताओं का विधान |
एक छोटा-सा ईश्वर है
अभी आँख भी नहीं सधी है उसकी
माँ के स्तन को टटोल रहा है
हाथ पर लगा दिठौना उसने काबिज़ करने से पहले जान लिया है
कि कभी भी हो सकता है उसका क़त्ल
………..(no words)………
क्या कहूँ अपर्णा…सब कहा जा चुका…कुछ अपने-आप में ऐसा उलझा था कि इधर आ ही नहीं सका. बस इतना कहूँगा कि अपनी कसौटी बहुत ऊपर कर ली है आपने…और इसे बनाए रखियेगा. ये समकालीन कविता की धरोहर बनेंगी. बधाई
jindgi ke dukho ki pahar hai kavita gamo ki aah jeevan ki majdhar hai kavita tute dilo ko jorane ki patwar hai kavita aparanaji suparana ki talabgar hai kavita
"करुणा की कौन-सी नदी
जहां अंत हो जाना है तुम्हारे दुखों का"
ab apko lagatar padhna padega. is tarh abhi tak parichit nahin hua tha apse…
aap sabhi ka aabhaar!
किसी कापी पर लिखना आसानहै कविता
कविता रेत पर भी लिखी जा सकती है…..
लेकिन जो कविता हवाओं की हथेलियों पर तुमने लिखी है
उसे सिर्फ तुम लिख सकती हो
क्योंकि कविता लिखना बहुत आसान नहीं होता
{भी वह ,आपकी कविताएँ संवेदना के स्तर पर बेहद मारक हैं.
बधाई }
औरतें पता नहीं किस अलीबबाबा की गुफा में बैठी
यूँ ही खेलती हैं खालीपन से.
चालीस चोर -सी जिन्दगी
और एक तिल्लिस्म सुख का
न जाने किस डिब्बे में बंद
हर आवाज़ पर एक तलाश शुरू होती है
ख़त्म होती है जो खाली मुट्ठी पर…marmik satya
अपर्णा जी की इन कविताओं में हम मानवीय संबंधों की गहराई को देख/पा सकते हैं | यह इसलिए संभव हो पाता है क्योंकि उनकी इन कविताओं में व्यक्तिमत्ता है और समग्र प्रवाह को बेहद ऐंद्रिक भाषा के सहारे, हमारे अंतर्जीवन से जोड़ दिया गया है | यह महत्वपूर्ण है कि अपर्णा जी की इन कविताओं में जो अवसाद है उसे छूकर हमें लगता है कि जैसे हम रिश्तों को, संबंधों को उसके सामाजिक खाँचे से बाहर आकर देख ही नहीं रहे हैं, बल्कि उसे अनुभव भी कर रहे हैं |
.अपर्णा दी, क्या कहू स्तब्ध हूँ और निशब्द भी, आपकी रचनाएँ मानो रचनाएँ नहीं एक संसार है अद्भुत भावनाओं से घिरा, जहाँ बिम्ब आकृति ले साकार हो उठते हैं, छूते हैं और उपस्थिति दर्ज कराते हुए अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं! एक एक शब्द मानो सीधे हृदय द्वार पर बिना दस्तक दिए प्रवेश कर जाता है, स्थायी घर बनाने के लिए……..बधाई!
अच्छा लिखा है आपने….बहुत बढ़िया…बधाई…
"कुछ अधिक नहीं घटा है.
एक छोटा -सा ईश्वर है
अभी आँख भी नहीं सधी है उसकी
माँ के स्तन को टटोल रहा है
हाथ पर लगा दिठौना उसने काबिज़ करने से पहले जान लिया है
कि कभी भी हो सकता है उसका क़त्ल"
!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
अपर्णा…अपर्णा…अपर्णा !!!
अप्रतिम ,अद्भुत ,आह्लाद सौंपती है आपकी कलम,सखी को सलाम !!!
एक नि:शास्त्र पाठक की तरह मेरी नज़र में अपर्णा जी की कविताओं की सबसे बड़ी खासियत उनकी सघनता है। मुझे इन कविताओं पर बात करने के लिए सही मुहावरे की तलाश है। फिलहाल सघनता मुझे निकटतम शब्द दिखाई दिया जो उनकी कविताओं में स्पंदित संसार को थोड़ा-बहुत समेट सकता है।
उनकी कविताओं में क्या नहीं है – इतिहास, समृति, मिथक, आख्यान और समय का अविरल यथार्थ सब कुछ। बहुज्ञता की काव्यमयी अन्वितियाँ अपर्णा जी की कविताओं में नया आस्वाद और नया आकर्षण पैदा करती हैं। अपर्णा जी की आत्मस्वीकृति एक प्रमाण तो है ही वरना अब यह एक मान्यता तो बन ही गई है कि अरुण देव माने हिंदी में वर्तमान कविता का एक स्कूल। अपर्णा जी की कविताएं अर्थवत्ता में सयानी होती जाती कविताएं हैं।
बधाई हो … अपर्णा जी।
कवितायेँ पढ़ी और भीतर बजने लगी …….. अभी उस संगीत से गूँज रहा हूँ ……… इन कवितायों पर अभी सिर्फ इतना ही कह सकता हूँ……… अपर्णा जी आपको बधाई …………….
शहर तो उसी तर्ज़ पर नाच रहा है रक्कासा -सा
उम्मीद की गलियाँ नुक्कड़ों पर चाय पी रही हैं छूटे कस्बे के साथ .
गौरतलब कहाँ कुछ बदला है!………….वाह जी …अद्भुद संकलन है इनको पढ़ कर मुझे तो ये लगा खुद में की एक ढलती शाम में कोई किराये की आत्मा मुझ में प्रवेश कर रही है और मुझ पर काबिज हो रही है …जाह्न तक आज के इंसानी चरित्र की बात है जहाँ में मैं भी सभी के साथ जी रहा हूँ .और कही स्र्मतियों ने साथ छोड़ दिया है जो पीड़ियों से है उन स्म्रतियों से खुद के हाथ कही स्याह कर दिए है …और और सोच की समाधान भी उसी वर्तमान के हिसाब से तय होतें है हम अत्तित से सबक लेतें है की नहीं ये भविष्य के घर्भ में पर उस से अपेक्षाएं की जा सकती है इन्सान और उसकी आत्मा शायद ये है कहती है पर कही न कही इंसानी प्राकृतिक या नेसर्गिक गुणों के करण अतीत निश्चित है अप्रिवार्त्यानीय भी वर्तमान प्रत्यक्ष और भविष्य संदिघ्ध ..इन्सान को आपना नजरिया बदलना बहुत जरुरी शायद …. जबरदस्त शब्दों की माला है …इनके सामने टिप्पणी करना भी वश में नहीं मेरे …पर आत्ममुघ्ध करगई और जो दिखा वाही लिख दिया …गलत भी हो सकता हूँ !!!!!!!!शुक्रिया (NIRMAL PANERI
अच्छी हैं कविताएँ, अपने मुहावरे की तलाश में धीरे धीरे आगे बढती हुई.. विषय और बिम्ब तो अछूते हैं ही… बधाई
स्त्री अपने अनुभवों का इतना सच्चा संसार हमारे लिए खोल सकती है बिना रोक टोक के—यह वाकई नया अनुभव है। जो जाना हुआ है वहां से शुरु होकर जो जानना है और जो जानना ही होगा तक पहुंचती हैं ये कविताएं। शब्द और मुहावरे पूरे निजीपन के साथ इस्तेमाल करने की यह कला अदभुत है। बधाई कवयित्री को और आभार प्रस्तुतकर्ता के प्रति।
कुछ अधिक नहीं घटा है.
एक छोटा -सा ईश्वर है
अभी आँख भी नहीं सधी है उसकी
माँ के स्तन को टटोल रहा है
हाथ पर लगा दिठौना उसने काबिज़ करने से पहले जान लिया है
कि कभी भी हो सकता है उसका क़त्ल
फिर भी बहुत सारे पते हैं जिंदा
ख़ुदा न तर्स दूसरों के घरों के दरवाज़े पर अपना नाम लिखते
रिसती हुई साँसों में गुमशुदा की तलाश ज़ारी है अब भी
आंकड़ों से भर गया है धुंआं.
शहर तो उसी तर्ज़ पर नाच रहा है रक्कासा -सा
उम्मीद की गलियाँ नुक्कड़ों पर चाय पी रही हैं छूटे कस्बे के साथ .
गौरतलब कहाँ कुछ बदला है!
बहुत ही अद्भुत कविताएं है अपर्णा जी! बधाई
इन कविताओं से गुजरते हुए यही लगता है, जैसे हमारे अतीत, वर्तमान और भविष्य में ठीक का अनुपात बहुत थोडा रह गया है। ईश्वर, समाज और समय पर्दे के पीछे स्त्रियों के साथ जो खेल खेलती रही है, अपर्णा ने जैसे आजिज आकर उस तिलिस्म को बेपर्द कर दिया है इन कविताओं में और रुदालियों को सौंप दिया है उस कर्बला का दुख, जिसका कोई सिरा नहीं सूझता। …इन कविताओं को पढकर अवाक् हू…।
बेहतरीन कविताएं!
देखी हुई चीजों के लिये भी एक नया नज़रिया दे जाती हैं ये कविताएं…कुछ भी कहना कठिन बनाते हुए…जैसे कि्सी ने किसी वाद्य का कोई ऐसा तार छेड़ा हो कि उसकी गूंज जब बाहर बजना बंद हो जाती है तब अपने भीतर सुनाई देती है…. बहुत देर तक….
अपर्णादी को बधाई……….आपका शुक्रिया.
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