आगामी आठ अगस्त को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में मनोहर श्याम जोशी स्मृति व्याख्यानमाला किया आयोजन किया जा रहा है। उसी को ध्यान में रखते हुए हिन्दी के वरिष्ठ लेखक ज्योतिष जोशी का यह स्मृति लेख पढ़िए जिसमें उन्होंने मनोहर श्याम जोशी के लेखन के सम्यक् मूल्यांकन का बहुत सुंदर प्रयास किया है-
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मनोहर श्याम जोशी आधुनिक हिंदी साहित्य में अपने विस्तार में वैश्विक समझ के लेखक थे। अनेक राहों से गुजरते हुए इक्कीस वर्ष की अवस्था में वे पत्रकारिता में आये थे। इसके पहले मात्र अट्ठारह वर्ष की उम्र में उनकी पहली कहानी प्रकाशित हुई, पर उनकी पहली पुस्तक सैंतालीस वर्ष की अवस्था में आ पाई। अपने जीवन में नाना तरह के उतार-चढ़ाव देखने और जीनेवाले जोशी जिस ढब के लेखक थे, उसे समझनेवाले हिंदी में अधिक लोग नहीं है। ‘हमलोग’, ‘बुनियाद’, ‘हमराही’, ‘मुंगेरीलाल के हसीन सपने’, ‘कक्काजी कहिन’ जैसे टेलीविजन के इतिहास में आरंभिक धारावाहिकों का सृजन करनेवाले जोशी हिंदी ही नहीं भारत के पहले टी. वी. धारावाहिकों के लेखक हैं। ये धारावाहिक भी मनोरंजन नहीं हैं, बल्कि बदलते वक्त में भारत के परिवर्तनगामी समाज की तस्वीर प्रस्तुत करते हैं । इनके चरित्र भी आम भारतीय चरित्र हैं। जिनके विकास का मान भारतीय विकास का तापमान बनता है। यह धारावाहिक एक तरह से भारतीय आधुनिक इतिहास का पुनर्लेखन है, खासकर स्वाधीनता संघर्ष से लेकर पंचवर्षीय योजनाओं के लागू होने और जनता के चमकीले सपनों के टूटने-बिखरने और उनके मोहभंग का ।
‘हमलोग’ और ‘बुनियाद’ जैसे महानतम धारावाहिकों पर तो गहरे शोध तथा अध्ययन की जरूरत है कि भारतीय जनता की उम्मीदों के बरक्स व्यवस्था की भूमिका को जोशी ने कितने स्तरों पर देखा है। हिंदी के माध्यम से जोशी ने धारावाहिकों के लेखन में जिस तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है, समाजशास्त्रीय दूरदर्शिता दिखाई है, वह अन्यतम है। इन्हें निश्चय ही उनकी अमूल्य रचनाओं के रूप में याद किया जाएगा और भारतीय जीवन तथा समाज में परिवर्तन के आधारभूत संकेतों को नए सिरे से समझने की कोशिश होगी। उनके इस कार्य को केवल छोटे पर्दे को हिंदी में खड़ा करने का कार्य कहकर छुट्टी नहीं पाई जा सकती। उनके इस ऐतिहासिक कार्य में भाषा की जो भूमिका रही है, विषय-वस्तु के स्तर पर चारित्रिक निर्मिति की जो दक्षता दिखती है, परिवेश के चित्रण और सामाजिक संघर्षों की जो विश्लेषणात्मकता प्रकट होती है, वह यह सिद्ध करने को काफी है कि जोशी की दृष्टि का विस्तार वैश्विक था और उनकी प्रतिभा ने समय की नब्ज को बारीकी से परखा था। भूल-बिसर-सी गई किस्सागोई को पुनर्जीवित कर जोशी ने उसे जितना व्यंजक बनाया और जिन-जिन स्तरों पर उसमें बदलते सामाजिक अक्सों को दिखाया, उसकी कोई मिसाल नहीं है। किसी भी मतवाद को प्रतिबद्धता से ग्रहण करने के बजाय जोशी ने जिस तरह हाशिये के लोगों को आवाज दी, उससे वे नीरस मतवादी भी सीख ले सकते हैं कि जनता के सरोकार को जनता के जीवन, परंपरा और व्यवहार के स्तर पर कैसे रूपायित किया जा सकता है। उनके धारावाहिक उनकी संवेदना और अनुभूति के जीवंत उदाहरण हैं जिन्हें अनदेखा कर जोशी को समझना असंभव है। अपने धारावाहिकों की ही तरह वे उपन्यास के क्षेत्र में भी एक चमत्कार की तरह प्रकट हुए। अपने पहले उपन्यास ‘कुरु कुरु स्वाहा’ में भी वे प्रयोगधर्मी बनकर आए। इसमें कथा वस्तु की अपेक्षा शिल्प का प्राधान्य है। जोशी ने अपने इस उपन्यास को ‘दृश्य और संवादप्रधान गप्प बायस्कोप’ कहा है। ध्यान दिया जाए तो उनके धारावाहिकों का संकेत इस उपन्यास में भी मिलता है और लगता है कि जो लेखक अपनी इस रचना को ‘पढ़ते हुए सुनने ‘ का आग्रह करता है उसके मस्तिष्क में ऐसी ध्वनियाँ सक्रिय हैं जो मनन के साथ-साथ दृश्यता के रहस्य को भी प्रकट करती हैं। एक ही वाचक को तीन अलग-अलग भूमिकाओं में रखकर जोशी ने लिखित चरित्र को जो दृश्यता दी है और उसकी भंगिमाओं को जिस बहुआयामी फलक पर अंकित किया है, उसकी मिसाल कहीं और नहीं मिलती। महानगरीय संत्रास, कुंठा, अपराध और निरर्थकता को व्यक्त करता यह उपन्यास औपन्यासिक प्रविधि की पारंपरिक पद्धति को तोड़कर उसे नई शक्ल देता है । वाचक की भूमिका से सहमति – असहमति का प्रश्न उतना नहीं है जितना कि महानगरीय जीवन की बदशक्ल छवियों का। मनुष्यता का यहाँ कोई मोल नहीं है, सिर्फ धोखा और अवसरवादिता का खेल है, ऐसे में जीवन का अर्थ क्या है, क्यों मनुष्य व्यर्थ नहीं है और क्यों वहशत में जिंदगी अपनी आन गँवा रही है, जैसे प्रश्नों को उठाता यह उपन्यास भाषा शिल्प और आख्यान के ऐसे कौशल से साक्षात्कार कराता है जो हिंदी में सर्वथा पहली बार जाना गया। ‘कसप’ के रूप में उनका दूसरा उपन्यास अपनी सरसता के कारण आज भी पाठकों को आंदोलित कर देता है। यह उपन्यास मूलतः प्रेमकथा है, पर इस प्रेमकथा में भी इतने स्तर हैं कि यह पूरा उपन्यास एक बड़े व्यंजक चित्रपट-सा दिखाई देता है। प्रेम की पारंपरिक रूढ़ि इसमें टूटती है, नए समय में उसकी परिभाषा भी बदल जाती है और वह केवल अनुभूति का विषय नहीं रह जाता, जीने का एक ढंग भी बनता है। उपन्यास में पर्वतीय बोलियों का प्रयोग, लोकसंस्कृति की छवियों का विन्यम्प और भाषा की मुग्ध करनेवाली युक्तियों के कारण हिंदी की औपन्यासिक परंपरा में ‘कसप’ को एक महत्त्वपूर्ण कृति के रूप में देखा गया। ‘कसप’ में प्रेम का संसार सघन और भावप्रवण है जिसमें प्रेमी और प्रेमिका के बीच नाना तरह के अवरोध आते हैं। त्रासदी बढ़ती जाती है, उपन्यास एक ऐसा परिवेश रचने में सफल होता है जिसमें केवल यातना है और अंतर को भिगो देनेवाली अजस्र करुणा । प्रेम को लेकर निरंतर यातना भोगते, पर अपने विश्वास पर टिके रहने के कारण ‘कसप’ के चरित्र बहुत छूते हैं। कहना चाहिए कि ‘कसप’ एक प्रेमकथा के रूप में कुमायूँ के मध्यवर्गीय समाज को उसकी सारी विरूपताओं के साथ प्रस्तुत करने में सफल हुआ।किस्सागोई इस उपन्यास का भी प्राणतत्त्व है जो एक तरह से जोशी के लेखन की अभिव्यक्ति-शैली के रूप में पहचानी गई।
‘कुरु-कुरु स्वाहा’ जहां समय के दबाव में व्यक्ति के विघटन को बहुत बारीकी से अभिव्यक्त करता है; जिसमें नामवर सिंह ‘एक पुराने ब्राह्मण युग के सामंती संसाकरों और आधुनिकता के बीच की तड़प, ट्यूटन और बेचैनी की तीव्रता के साथ अभिव्यक्त’ पाते हैं, वहीं ‘कसप’ को आधुनिक जीवन कि जटिलता और अंतर्विरोधों के बीच प्रेम को रूपायित करने की चेष्टा करता ऐसा उपन्यास माना गया जिसमें रूढ़ समाज की जड़ता अपने चरम पर है। यह दोनों उपन्यास मनोहर श्याम जोशी की उपस्थिति एक ऐसे उपन्यासकार के रूप में कराते हैं जिसमें पाठकों को बाँधनेवाली शैली है, भाषा की नई ताजगी है और किसगोई की नई प्रविधि है। इन उपन्यासों में वस्तु के स्तर पर जिस अधुनिकताबोध के संत्रास की अभिव्यक्ति है, उसे देखने की कोशिश बहुत कम हुई है; इसलिए भी कि हिन्दी का पाठक जिस तरह की रेचनों का अभ्यस्त रहा है, मनोहर श्याम जोशी उससे विलग रहे हैं। सही मायने में जोशी के उपन्यास निरंतर प्रवाहित घटनात्मकता से भरे उपन्यास हैं जिसके बारे में केवल कथा के भीतर बात नहीं हो सकती। एलेन फ्रिडमैन ने कहा था कि जो उपन्यास कथा कहने के लिए लिखे जाते हैं, उनका कोई भविष्य नहीं है। ऐसे उपन्यासों को वे ‘क्लोज्ड नॉवेल’ कहते थे। एक बंद दुनिया के भीतर चल रहे कार्य-व्यापार को अंकित करते उपन्यास अब अपनी अर्थवत्ता गँवा चुके हैं। उन्हें ‘ओपेन नॉवेल’ होना चाहिए जिसका रास्ता खुला हो, जिसमें चरित्र को कथा सीमा में ही ना बाँधा गया हो और जिसमें व्यक्त संभावनाएँ व्यक्ति की उम्मीदों को छूती हों। हिन्दी में मनोहर श्याम जोशी ‘ओपेन नॉवेल’ यानी निर्बंध उपन्यास के पुरस्कर्ता हैं जिनके बाद के उपन्यास और भी संभावनाओं के साथ खुलते हैं।
‘ट-टा प्रोफ़ेसर’, ‘हरिया हरक्यूलीज की हैरानी’, ‘हमजाद’ तथा ‘क्याप’ जैसे उपन्यास हिन्दी के पाठकों को नहीं पच पाये और वे आलोचकों के बीच भी पर्याप्त विवादास्पद रहे। पर भाषा में नए प्रयोग के साथ आधुनिकता और समकालीन जीवन की विद्रूपता को व्यंग्य और विनोद के साथ व्यक्त करते ये उपन्यास ‘ओपेन नॉवेल’ के दुर्लभ उदाहरण के रूप में हिन्दी में आए जिसको ठीक से समझने की कोशिश नहीं की गई। असल में उपन्यास और कहानी में कथासूत्र पाने और क्रमशः विकसित चरित्रों के भीतर अपने को खोजने की हमारी लाचारी इतनी उथली है कि हम किसी प्रयोग को भी समझ पाने का प्रयास नहीं करते। जोशी के ये उपन्यास बदशक्ल होते समाज की सड़ांध को व्यक्त करते हैं। जो लोग इसमें कथातत्त्व नहीं पाते और जिन्हें इनके चरित्रों से उबकाई आती है वे भारतीय समाज की नारकीय यंत्रणाओं और उपभोक्तावास की भेंट चढ़ती नैतिकताओं को समझना नहीं चाहते। ‘ट-टा प्रोफ़ेसर’ में जिस स्कूली शिक्षा का व्यंग्य है और उसकी बदहाली से जिस तरह आने वाली पीढ़ियाँ बर्बाद और विघटित हो रही हैं; क्या उस पर लिखना असंगत है? इसी तरह ‘हरिया हरक्यूलीज की हैरानी’ भी विद्रूप की शक्ल लेते सामाजिक जीवन कि समकालीन वीभतस्ता को व्यंग्य के साथ उठाता है। इसी क्रम में ‘हमजाद’ को भी देखने की ज़रूरत है जिसमें बाजारवादी नग्नता का चरम रूप दिखाई देता है। इस बाजारवाद ने जिस तरह सब कुछ को उपभोक्ता-वस्तु में तब्दील कर संबंधों तक को स्वार्थ में बदल दिया है, उसी पूरी नग्नता में उठाया यह उपन्यास धर्म, संस्कृति, नैतिकता, मूल्य और मनुष्य के निरंतर विघटन को समग्रता में व्यक्त करता ‘हमजाद’ औपन्यासिक प्रयोग का वह सोपान है जिसे ठीक से जाने बिना उत्तर-आधुनिक प्रत्ययों को भी समझना कठिन है। पशुओं की तरह संवेदना-शून्य और सिर्फ़ अपने स्वार्थ में अंधे समाज की गलीजगी को व्यक्त करता यह उपन्यास वैश्विक संकट को भी दिखाता है। पूँजी के बेपनाह विस्तार में मनुष्य की नियति ही यह होती चली जा रही है कि वह केवल अपने स्वार्थ में अंधा होकर जीता चले। इसे आज के ‘अंधेयुग’ का एक ऐसा पाथ माना जा सकता है जिसमें हर तरह की लानत-मलामत का भंडाफोड़ है। इसी तरह, ‘कैसे क़िस्सागो’ और ‘मंदिर के घाट की पैड़ियाँ’ देखें तो स्पष्ट होगा कि इन संग्रहों की कहानियाँ अपने विन्यास में कथ्य और संवेदना के स्तर पर भाषा और शिल्प के साथ-साथ नए आधुनिक बोध और एक नई सृजनात्मकता दृष्टि को प्रस्तुत करती हैं।
मनोहर श्याम जोशी स्पष्ट अर्थों में वैश्विक लेखक हैं और हिन्दी में वे हो सके तो इसका अभिमान हिन्दी को होना ही चाहिए। उन्हें केवल कहानीकार, उपन्यासकार और पटकथाकार के रूप में देखने की भूल नहीं की जा सकती। वास्तव में वे ऐसे विचारक के रूप में अपने लेखन में आते हैं जिसके मस्तिष्क में जीवन-जगत के वे सारे प्रश्न हैं जो संभ्यता और संस्कृति के विभिन्न स्तरों से उठते हैं। अपने लेखन में वे देख पाते हैं कि कैसे एक बनावटी विश्वग्राम की मुहिम चलती है, कैसे भारतीय व्यवस्था एक कुटिल तंत्र का शिकार होती है और कैसे भारतीय समाज रातोंरात अपने को ताजकर वैश्विक हो उठता है। जिस समाज में नैतिकता, सद्भाव, भाईचारा और आत्मीय पारिवारिकता एक झटके से टूट सकती है, उस समाज में ले और रस की खोज व्यर्थ है। उनकी दृष्टि उस समाज की विसंगति पर गई है जहां केवल व्यंग्य है, जहां जीवन की संगति सिरे से नदारद है। उनके चरित्र वायवीय नहीं है, वे इसी समाज की निर्मिति हैं, सड़ांध की निर्मिति हैं जिनके भीतर सिर्फ घिन भारी है और जो केवल वीभत्स व्यवहार ही कर सकते हैं। ‘गूमालिंग’ या ‘हमजाद’ या ‘हरिया’ हमारे ही भीतर के चरित्र हैं, हमारे ही ‘आत्मछलावा’ के शिकार यह चरित्र घिन पैदा ना करें तो या करें।
मुश्किल सवाल यह है कि आख़िर हम एक लेखक से उम्मीद क्या करते हैं। एक लेखक तो हमारे ही बीच का होता है। उसे भी सुख-दुख भोगने होते हैं और आँखें भी होती हैं जो दुनिया को देखती हैं। मनोहर श्याम जोशी ने अपने वैश्विक दृष्टि से भारतीय समाज की वहशत ही देखी और पाया कि इससे निस्तार पाना कठिन है। वे किसी ‘वाद’ के शरणागत नहीं हुए और जब उनकी बाद की रचनाओं पर आलोचकों ने उत्तर-आधुनिकता का लबादा ओढ़ा दिया तो वे इसका करारा प्रतिवाद करते सामने आये – “जब हिन्दी में सही मायने में आधुनिकता और यथार्थवाद ही नहीं आया तो उत्तर-आधुनिकता और जादुई यथार्थवाड कैसे आ सकता है। हमारे यहाँ आधुनिकता पश्चिम से आयातित है। मेरी रचनाओं पर ऐसे फ़तवे देना समझ से पड़े है।” हम किसी भी रचना को एक परिप्रेक्ष्य में समझना नहीं चाहते, इसीलिए उसे नाना जुमलों में बाँट कर देखने के आदी हो गए हैं। जोशी का पूरा लेखन सामाजिक परिवर्तनों को उसकी सही शक्ल में पकड़ने का लेखन है जिसमें व्यंग्य की धार और विनोद की तुर्शी है। उनकी रचनाओं का ‘पाठ’ विखंडन की छूट नहीं देता, वह आत्मपरीक्षण की ओर प्रेरित करता है। अपने भीतर की बुराई (ईविल) को आप न देख पायें, उसे किसी चारित्रिक छवि में विन्यस्त देखने की आपकी ललक मर गई हो तो आप जोशी को नहीं समझ सकते। इस तरह से उन्हें देखने की कोशिश हो तो लगेगा कि वे बिलकुल आपके भीतर के लेखक हैं।
मानवीय समाज के बाहर और भीतर की यात्रा करने में पत्रकारिता उनका बड़ा संबल रही है। पत्रकारिता की अन्वेषी दृष्टि की मदद से वे समाज की जड़ताओं को देख पाते रहे और उसके अंतर्विरोधों की पहचान करने में सफल रहे। इस स्तर पर जोशी को ‘भारतीय मध्यवर्ग के अंतर्विरोधों का लेखक’ भी कहा जा सकता है। जोशी लक्ष्यधर्मी लेखकों की तरह विकास, समृद्धि और समरसता नहीं पढ़ाते, ना ही उनके पास कोई सब्जबाग है जिसे वे दिखायें, बल्कि ब्रैश्ट के शब्दों में वे ’क्रिटिक डिस्टेंस’ के लेखक रहे जिनकी रचनाओं को इसी ‘आलोचनात्मक दूरी’ की तर्ज़ पर पढ़ा जा सकता है। आत्मछल, बुराई, अनैतिकता, भ्रष्टाचार, अनीति, मुग़ालता और स्वार्थों से मुक्ति पकड़ जीवन को सार्थक बनाने की सिख देतीं उनकी रचनाएँ अपने आत्म को परखते रहने की प्रेरणा देती हैं। वे सीधे सपाट कथा के सर्जन न थे और न ऐसा चाहते थे। अपनी आलोचनाओं से तंग आकर उन्होंने कहा भी – ‘हिन्दी वाले आज भी चुटकुले, लतीफा, आत्मप्रवंचना ही पसंद करते हैं। कटु बात को वे स्वीकार नहीं कर सकते।’ जोशी इसी कटु को व्यक्त करते लेखक हैं। निंदा नहीं कटुक्ति के लेखक, जो समाज के पाखंड, छल, धोखा, दिखावा, अनाचार और सड़ांध पर चोट करते हैं। वे आदर्श के लेखक नहीं हैं, यथार्थ के लेखक हैं। पर ऐसे यथार्थ का जिसका केवल बाहरी जगत से नाता नहीं है, मनुष्य के भीतर से भी नाता है, क्योंकि बुराई उसके अंतर से ही जन्मती है। लेखन में वे भले अमृतलाल नागर को अपना गुरु स्वीकार करें, पर नागर की क़िस्सागोई से उनकी क़िस्सागोई का कोई तालमेल नहीं है। इस वैषम्य का कारण जोशी का आधुनिक जीवन बोध रहा है जो नगर के यहाँ नहीं है। जोशी प्रचलित अर्थों में दृश्यधर्मी लहका हैं जिनके ‘नैरेटर’ में भी दृश्यों की गहरी सूझबूझ है। व्यवहार में जैसी सहजता, सरलता, विनोद और ख़िलंदड़पन उनमें था, रचनाओं में भी दिखता है। पर इन रचनाओं को ख़िलंदड़ मान लेना जोशी को ना समझना है, क्योंकि रेचनों के ख़िलंदड़पन में भी गहरा सांस्कृतिक विमर्श निहित है और जीवन के भीतर झाँकने की सतर्क दृष्टि भी। एक मायने में जोशी एक ऐसे सचेत समाजशास्त्री के रूप में भी सामने आते हैं जो सामाजिक तानेबाने के रेशे-रेशे को बखूबी पहचानता है और उसे निर्ममता से छाँटता है। वैश्विक अवधारणाओं और परिवर्तनों को बहुत गहराई से पहचानने वाले लेखक के रूप में जोशी समाज और व्यक्ति, दोनों में परिवर्तन चाहते हैं। परिवर्तन को वे प्रचलन में देखने के आदी नहीं हैं। प्रचलन को वे भ्रम और धोखे की तरह लेते हैं। उनका प्रहार व्यवस्था पर उतना तीखा नहीं होता जितना कि व्यक्ति और समाज पर, क्योंकि वे मानते हैं कि समाज की पतनोन्मुखता ही व्यवस्था का पोशाक है और व्यक्ति भी इसी कारण स्वार्थ में अंधा है। आर्थिक ज़रूरतों ने जिस तरह देशों और वैश्विक व्यवस्थाओं को नष्ट कर अनैतिक बनाया है, उसी तरह व्यक्ति भी अपने को खोकर ही जी पा रहा है।
हिन्दी के ऐसे वैश्विक सोच के लेखक को याद करना, अपने उस पुरखे लेखक को अपनी स्मृति का हिस्सा बनाना है जिसने हिन्दी को वैश्विक दृष्टि की व्यापकता देने के साथ हमें अपनी परम्परा के सृजनशील तत्वों के उपयोग और पहचान की प्रेरणा भी दी।
हिन्दी के ऐसे वैश्विक सोच के लेखक को याद करना, अपने उस पुरखे लेखक को अपनी स्मृति का हिस्सा बनाना है जिसने हिन्दी को वैश्विक दृष्टि की व्यापकता देने के साथ हमें अपनी परम्परा के सृजनशील तत्वों के उपयोग और पहचान की प्रेरणा भी दी।
धुर वर्तमान और भविष्य के लेखक थे। सामाजिक परिवर्तनों की जितनी गहरी परख उन्हें थी, उतनी किसी अन्य समकालीन लेखक में नहीं थी। वे ऐसे लेखक थे जिसके मूल्यांकन में आलोचना की सीमाएँ उजागर हो रही थीं और आलोचक सहजता खो रहे थे। भाषा की बेबाक़ी, तुर्शी, सहजता और मस्ती के साथ-साथ शिल्प की प्रयोगधर्मिता के मामले में वे अपना स्थपति स्वयं थे। विचार को गल्प और गल्प को दृश्यता देना उनके सिवा किसी और ने नहीं साधा। वे वैश्विक समझ के लेखक थे, पर निपट स्थानीयता भी उनमें उतनी ही गहरी थी। आलोचना-कर्म को जिस तरह सभ्यता-समीक्षा होने पर बल दिया जाता है; एक अर्थ में जोशी का समग्र लेखन सभ्यता-समीक्षा ही लगता है जिसमें इतिहास का आकलन है तो वर्तमान का परीक्षण और भविष्य की पदचाप सुन पाने की गहरी अंतर्दृष्टि भी। ऐसे लेखक का लेखन ही अपने समय का साक्ष्य होता है तथा पीढ़ियों की अंधेरी राह को रोशन करता है।