आदित्य पांडेय की कविताओं के प्रकाशन का यह पहला अवसर है। आप सब भी पढ़ सकते हैं- अनुरंजनी
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- स्व-ज्ञान और तुम
मैंने खुद को उतना नहीं बचाया
जितना कि तुमने मुझे बचाने के प्रयास किए
अनगिनत बार…
सड़क पर
बंद दरवाज़ों के भीतर या पार
तुमने बचाया,छुपाया, उघारा, उघरे बदन प्रेम किया
और जाने दिया
मेरे बदन से निकलने वाली खुशबू पर तुम्हारे डाले गए सेंट का लिहाफ़ है
कई चलते
रुकते
चीरते
बच जाते लिफ़ाफ़े
मुझे पीले रंग और नीली स्याही से ही पहचानते हैं
और मैं खुद को एक निश्चित पते पर पहुँच जाने से…
तो तुम समझ गई होगी
बात सीधी है मैं खुद को नहीं जान पाता कभी भी
तुम्हारे अतिरिक्त…
2. एक परिचय
कभी कोई पुकारा गया नाम या सपने में
दिखी जगहें
किसी दिन एकाएक टकरा उठें
विस्मृति के ज्वार को धकेलते हुए
तब मन के कोने पर विचरते हुए,
कोई न कोई होगा
जो सामने से बोल देगा
कई बातों के बीच
कोई जाना पहचाना
‘शब्द’
शब्द,
जिनमें गिरते पत्तों ने सहेजा था अपने
गिरने को
(अपने अस्पर्श से स्पर्श में)
इधर कुछ घड़ी से
उजाड़ शाखें टूटकर
गिर जाना चाह रही हैं।
अबकी वसन्त में
उनके फूल की पंखुड़ियों की छुअन
घुन लगी शाखों को देने जाऊँगा
उन्हें अपना परिचय दूँगा
देकर चला आऊँगा
- मैं बसंत का ठिठुरता टिड्डा हूँ
उन्होंने बड़े सलीके से सजाया अपना मन
और पूरे साल चौबीसों घंटे हाथ-पाँव मारे
करते रहे संचित इत्ता-इत्ता प्रेम
हुँह…वो चींटिया होंगी लेकिन मैं नहीं
कभी नहीं..
जो भी मिला जब कभी
आगे बढ़ते हुए दोनों हाथ हवा में खोलकर उड़ाया,
कुछ नहीं बचा पाया
न जेब में
न मुठ्ठी में
न किसी बर्तन में
मेरी और उनकी सर्दियाँ एक जैसी हो भी सकती हैं
लेकिन मेरा उनका वसंत एक जैसा नहीं है
मैं वसंत का ठिठुरता टिड्डा हूँ
- सीमेंट हुए लोग, तारे और बेला
नदी से फिसलकर बालू मिल जाती है
सीमेंट हए लोगों से
और चिपककर
समतल होकर वे घर बन जाते हैं।
एक दिन उगा हुआ चांद
उसी बालू के ताप से जलकर सूरज हो जाता है
तब उन रातों में तारे रूठकर, काला आकाश छोड़ जानें
को कहते हैं
यह जानते हुए भी कि उनकी चमक डेहरी पर
दम तोड़ती रही है,
अक्सर।
बिन देखे खूबसूरती कम तो नहीं होती,
बिन बोले हो जाती है, क्या?
हो सकता है,
किसी को देखे बिना ही
बेला के फूल झरते हों
इस पर भी
उनके बिखरे चेहरे कभी
गिरते नहीं।