स्मिता सिन्हा की नई कविताएँ

    युवा कवयित्री स्मिता सिन्हा का कविता संग्रह आया है ‘बोलो न दरवेश’सेतु प्रकाशन से प्रकाशित इस कविता संग्रह की कुछ कविताएँ पढ़ते हैं-
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    (1)
     
    दरवेश
     
    ———————
     
    उस आकाश और इस धरा के बीच
    जहाँ क्षितिज विस्तार पाता है
    वहीं उसी बिन्दु पर पाती हूँ मैं तुम्हें
    हर रोज़ देखती हूँ तुम्हें
    अतीत की गहराइयों में उतर कर खोते हुए
    समझती हूँ तुम्हारी अवशता
    कि कितना मुश्किल है
    उस जिये हुए से छूटना
    जिसकी गंध
    अब तक हवाओं में घुली हुई है…….
     
     
     
    फ़िर मैं क्या करूं !!
    समेट लाऊँ
    उस बिखरे हुए सन्नाटे को
    हमारे बीच
    या कि हो जाऊँ मौन
    तुम्हारे मौन पर
    या कि बन जाऊँ
    बिना प्रत्याशा की बहती हुई
    कई कई रंगों की नदी
    या कि गिनती रहूँ
    तुम्हारे वजूद के आरोह अवरोह में
    कसती – ढीली पड़ती
    अपनी सांसों की गांठ को……….
     
     
     
    सुनो दरवेश !
    उस निस्तब्ध काली रात में
    जब हम एक साथ करेंगे इंतज़ार
    अपने-अपने हिस्से के प्रेम का
    उस एकांत में
    जब मैं गुनगुनाऊंगी
    अपनी धड़कनों के शोक गीत
    और दबे पाँव उठा लाउँगी
    मुट्ठीभर महकते पारिजात
    कुछ चम्पई सितारे
    और एक पूरा चाँद
    तो तुम ऐसा करना
    मेरे सबसे अधिक
    उदासी वाले उन दिनों में सुनाना
    अपनी सबसे प्रिय प्रेयसी की बातें
    उससे जुड़ा अपना सबसे मीठा सपना
    उसके लिये लिखी अपनी सबसे खुबसूरत नज़्म
    और हँसना अब तक की अपनी सबसे बेपरवाह हँसी
    मैं ऐसा करूँगी
    तुम्हारे घुटनों पर सिर टिकाये
    सुनती रहुंगी तुमको देर तक
    और धीरे धीरे सो जाऊँगी
    अब तक की अपनी सबसे गहरी नींद में
    तुम ऐसा करना
    ओस-सी धुली सुबह में जगाना मुझे………
     
     
     
    (2)
     
    नमक
     
    ———-
     
    मैंने देखे हैं
    उदासी से होने वाले
    बड़े-बड़े खतरे
    इसीलिए डरती हूँ
    उदास होने से
    डरती हूँ जब गाती है
    वो नीली आँखों वाली चिड़िया
    सन्नाटे का गीत
    सारी-सारी रात
    उस सूखे दरख्त पर बैठे हुए
    ताकते हुए आकाश
     
     
    उदास तो वो
    आले पर रखा हुआ दीया भी है
    जिसमें रोज़ जलती है
    उम्मीद की लौ
    उदास तो वो चूल्हा भी है
    जिसके पास बच जाती है
    बस थोड़ी-सी ठंडी राख
    वो हरी कोमल दूब भी उदास होती है न
    जब लाख कोशिशों के बावजूद
    संभाल नहीं पाती
    ओस की एक अकेली बूंद
    वो नदी भी
    जिसमें होती है
    सागर जितनी प्यास
     
     
    मैंने देखा एक मन को उदास होते हुए
    देखी शिद्दत से सहेजी
    उसकी सारी नमी को बह जाते हुए
    होठों ने भी चखी उदासी
    और कहा
    नमक-सी तासीर है इसकी
    बस उसी दिन से डरती हूँ मैं
    छिपा देती हूँ
    अपनी पीठ के पीछे
    नमक के बड़े-बड़े पहाड़
    हाँ डरती हूँ
    क्योंकि मैंने भी सुन रखा है
    नमक की क्रांति के बारे…………..
     
     
     
    (3)
     
    आत्महंता
     
    __________
     
    वे बड़े पारंगत थे
    बोलने में
    चुप रहने में
    हँसने में
    रोने में
    उन्होंने हमेशा
    अपने हिस्से का
    आधा सच ही कहा
    और अभ्यस्त बने रहे
    एक पूरा झूठ रचने में
     
     
     
    अपनी इसी तल्लीनता में
    वे अंत तक
    इस सत्य से अनजान रहे कि
    उन्हीं के प्रहारों से
    धीरे-धीरे टूट रहा था
    उनका दूर्भेद्य दुर्ग।
     
     
     
    (4)
     
    समय का सच
     
    ———————–
     
    नक्शे में अब भी नदियाँ उतनी ही लंबी, गहरी तथा चौड़ी दिखती हैं
    जबकि जमीन पर अधिकतर के सिर्फ़ जीवाश्म बचे हुए हैं
    कितनी विलुप्त, कितनी सूख चुकी हैं
    पहाड़ों की ऊँचाई कायम है
    जबकि लगातार सड़क, बाँध और भवन बनाये जा रहे हैं
    जंगल के पेड़ों की कटाई की तसदीक ये नहीं कर पा रहे हैं
     
     
     
    इसी तरह की कई विसंगतियाँ जिन्हें नक्शों ने छिपा लिया है
    हमारे समय का यथार्थ बनकर खड़ी है
     
     
     
    अरावली का मस्तक झुकने से
    रेगिस्तान दिल्ली की तरफ बढ़ा चला आ रहा है
    सूखती गंगा में अनगिनत पिलर गाड़े जा रहे हैं
    बाँधों की ऊँचाई बढ़ाई जा रही है
    मछलियां रेत पर छटपटा रही हैं
    लोग विस्थापित होते जा रहे हैं
    … और बड़े वातानुकूलित हॉल में
    ‘पर्यावरण बचाओ’ विषय पर डिबेट जारी है|
     
     
     
     
     
    (5)
     
    और हम निश्चिंत हो जाते हैं
     
    _____________________
     
    देश के एक मुहाने पर खड़े
    हम देर तक देखते रहते हैं
    भभकती हुई आग की ऊँची लपटें
    दरकते हुए मानचित्र
    फ़िर सहसा नाप आते हैं
    अपने घर की दिवारें
    पाट आते हैं चहुंदिश
    और हम निश्चिंत हो जाते हैं
     
     
    हम सुनते हैं परिंदों की चीत्कार
    घूंटती हुई चीख व पुकार
    फ़िर कुत्तों के रोने पर
    या कि दरख्तों की चरमराहट पर
    घबड़ाकर धर देते हैं
    अपने दोनों कानों पर हाथ
    और हम निश्चिंत हो जाते हैं
     
     
    हम चुपचाप गुज़रते हैं
    लावारिस ख़बरों की दुनिया से
    देखते हैं जबह होती जिन्दगियां
    और टूटते बिखरते हुए घर
    हम सहमते हैं
    सिहरते हैं
    फ़िर डर कर फेरते हैं
    अपने गर्दन पर उंगलियां
    असुरक्षित से माहौल में
    थोड़ा और सुरक्षित करते हैं अपनों को
    और हम निश्चिंत हो जाते हैं
     
     
    हर नये दिन के साथ
    हमारे दिल और दिमाग से
    उतरती जाती है
    बारुद और लाशों की गंध
    धुलते जाते हैं
    बेमौसम के सारे घिनौने धब्बे
    खुद को समेटते सम्भालते
    हर पल गुम होते जाते हैं
    अपनी व्यस्तताओं में
    हम हर दिन निश्चिंत , निश्चिंत
    और निश्चिंत होते जाते हैं
     
     
    हालांकि ये समझना मुश्किल तो नहीं
    कि इस बदहवासी में हम लगातार
    खोखले होते जा रहे हैं
    ख़त्म हो रहे हैं अपने अंत तक
    और ये भी कि
    ये निश्चिंत होने का वक़्त तो बिल्कुल भी नहीं
    पर क्या करें
    कहीं किसी ख़बर
    कहीं किसी दृश्य में
    हम हैं भी तो नहीं…..
     
     
     
     
     
    (6)
     
     
    हँसी
     
    _____
     
     
    वह हँसता है
    मुझ पर
    मैं हँसती हूँ
    ख़ुद पर
    और इस तरह
    मैं बचा ले जाती हूँ उसे
    दुनियाभर की हँसी से
     
     
    मुझे हर उस बात पर
    हँसी आती है
    जिसपर क्रोधित हुआ जा सकता है
    हताश और निराश भी
    पर एक बेहतर ज़िंदगी के सापेक्ष
    बस यही एक हँसी है
    इसे मैं खूब समझती हूँ
     
     
    ऐसा अक्सर होता है कि
    बहुत हंस चुकने के बाद
    मैं एकदम से चुप हो जाती हूँ
    गम्भीर और शांत भी
    मेरी चुप्पी पर एकसाथ
    कई सारे लोगों को
    खुश होते देखा मैने
    बेवज़ह हँसते हैं वे देर तक
     
     
    समझदार लोग
    बड़ी समझदारी से हँसते हैं
    रखते हैं अपनी एक एक
    हँसी का हिसाब
    इस मामले में मैं
    बड़ी बेवकूफ ठहरी
    फिजूलखर्च कर दी
    अपनी सारी हँसी
    अब जो मिल जाये
    मुट्ठी भर उदासी भी
    तो उसे ही चूमती हूँ
    और हँस पड़ती हूँ
    वक़्त बेवक़्त
    बेपरवाह-सी ………
     
     
     
    (7)
     
    उपसंहार
     
    __________
     
    वह मरना चाहती थी
    एंगेल्स की किताब होकर
    चाहती थी कि
    जब मरे तो
    एक बार फ़िर से मर जाये उसका शहर
     
     
    वह बरमूडा ट्राइंगल के एकांत में
    अपना सबसे पसंदीदा गीत गुनगुनाते हुए
    अपने प्रेमी की बाँहों में
    मर जाना चाहती थी
     
     
    वह कई आसमानों के दर्द को महसूसते हुए
    हवा, पानी, धूप होकर …
    या दूर क्षितिज से अपने पंखों को टकराकर
    मर जाना चाहती थी !
     
     
    वह चाहती थी
    किसी भट्टी की भभकती आग होकर राख होना
    किसी बंदूक की गोली-सी होकर
    खत्म होना था उसे
     
     
    वह चाहती थी
    टेफलास की लाल दीवारें होना …
    पूर्वांचल में उड़ते सिगरेट के धुएँ की धुंध में
    मरना था उसे !
     
     
    एक ही उम्र में जाने कितनी बार
    मरना चाहा था उसने
    और एक हड़बड़ाहट में
    पूरी उम्र निकल गयी हो जैसे
     
     
    उसे समझ नहीं आया कि
    कैसे मरे वह
    सियासत के मुँह पर पड़े
    उस थप्पड़-सी होकर
    या कि
    अपने महबूब के चुम्बनों से पिघलकर …
     
     
    सो एक दिन वह मर गयी
    अपने ही सपनों में आकर
    और यह भी उसका भ्रम निकला कि
    उसके हंसने से हंसती है दुनिया
    उसके मरने से मर जायेगी !!
     
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