यह साल प्रेमचन्द के प्रसिद्ध उपन्यास रंगभूमि के ही सौ साल नहीं हो रहे बल्कि उनकी पत्नी शिवरानी देवी की पहली कहानी ‘साहस’ के भी सौ साल पूरे हो गए। उनकी यह कहानी 1924 में “चाँद” पत्रिका में छपी थी।
शिवरानी जी ने करीब पचास कहानियां उस ज़माने में लिखीं। उनक़ा पहला संग्रह “नारी हृदय” खुद प्रेमचन्द ने सरस्वती प्रेस से छापा था। उनका दूसरा संग्रह 1937 में ‘कौमुदी’ नाम से आया था। ये दोनों संग्रह वर्षों से उपलब्ध नहीं थे। पिछले दिनों उनकी असंकलित कहानियों का संग्रह “पगली” आया। इन तीन संग्रहों के आधार पर कहा जा सकता है कि सौ साल पहले स्त्री कथाकार पुरुष कहानीकारों से अलग दृष्टि से समाज को देख रहीं थीं और स्त्रियों की मुक्ति की अलग राह की कल्पना कर रहीं थी जो पुरुषों से भिन्न राह थी। साहस कहानी की मुख्य पात्र रामप्यारी प्रेमचन्द के स्त्री पात्रों से अधिक साहसी हैं।
स्त्री दर्पण कल शिवरानी जी को याद कर रहा है। शिवरानी जी पर हिंदी साहित्य में कोई कार्यक्रम हुआ ही नहीं था। स्त्री दर्पण ने शिवरानी जी को काव्यांजलि भी दी है। दोनों कविताएं और” साहस” कहानी प्रस्तुत है।
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काव्यांजलि
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1
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मैं न कोई लेखिका हूँ
न कलाकार
न बुद्धजीवी
एक स्त्री हूँ
तमाम स्त्रियों की तरह
लड़ती हुई अपने समय में
अपनी जिंदगी में
एक यात्री हूँ
उनके साथ
नाव पर सवार
देखा था हम लोगों ने
स्वप्न साथ साथ
जिया हम लोगों ने
दिन साथ साथ
दुख सहा था
साथ साथ
छूट गया एक दिन साथ
रह गया अकेला यह हाथ
फिर भी हूँ जिंदा
उसी नाव पर बैठी
अकेली
याद करते हुए उनको
उनकी किताबों में सांस लेती
उनके लिखे में जीती
कभी निर्मला बनती
कभी धनिया
कभी सुमन
शब्दों के उस पार जीते हुए
पार करते यह शताब्दी
मिल जाऊंगी एक दिन सबके सामने
इतिहास के किसी कोने में
खड़ी रौशनी की तलाश में
फिर से नए जीवन की आस में
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काव्यांजलि–2
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मैँ भी थी
एक बाल विधवा
उन तमाम बाल विधवाओं की तरह
जिन्हें धकेल दिया गया था नरक में
मैँ भी थी वंचित
पढ़ाई से
उन तमाम लड़कियों की तरह
जो कभी स्कूल नहीं भेजी गयी
मुझे भी बिना बताए
बांध दिया गया
एक खूंटे से गाय की तरह
फिर
तब से
जिंदा हूँ मैं
अब तक
कई कहानियों के किरदारों में
शब्दों के भीतर
बेचैन
तड़पती हुई
सबकी
मुक्ति की कामना लिए
मैंने देखा था
बड़े घर की बेटी को
अपमानित होते हुए
मैने देखा था
निर्मला को घर मे
चुपचाप सिसकते हुए
उन्हीं किरदारों ने मुझे दिया था साहस
सौ साल पहले
लिखी इसी नाम से
एक स्त्री के साहस की कहानी
मुझे भूल गए लोग
याद नहीं किया किसी ने
नहीं की मैंने कभी
किसी से शिकायत
मुझे मालूम है
इतिहास से अक्सर
बहिष्कृत कर दी जाती हैं स्त्रियाँ
पर अभी भी जिंदा हूँ मैं
देखती अपने किरदारों के जख्म
उनकी व्यथा को सुनते हुए
मैँ मुंशी जी की पत्नी नहीं थी केवल
नहीं थी दो बेटों और एक बेटी की माँ
मैँ तो अपने आप में एक कहानी थी
एक सम्पूर्ण नाटक
दरअसल में
हर स्त्री का जीवन
एक उपन्यास है
जिसे बार बार लिखा जाना चाहिए
अपने समय में
कहीं कुछ छूट न जाये
कहीं कुछ अनकहा न रह जाये
मैँ आज आयी हूँ
अपनी कहानी खुद कहने
इस कविता में
आप सबके सामने
यह बताने
इतिहास में इसी तरह लौटती हैं
स्त्रियाँ
अंधेरे में एक रौशनी की तरह
चमकती हुई
जिसे तुम अपनी मुट्ठियों में बन्द नहीं कर सकते
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साहस
1
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इस महंगाई के जमाने में गृहस्थी चलाना आसान काम नहीं और यदि कुटुंब बड़ा हुआ और आमद कम, तब तो ईश्वर ही मालिक है। पंडित दीनानाथ के सिर पर नौ प्राणियों का भार था-स्वयं थे, स्त्री थी, तीन लड़के थे और चार लड़कियाँ।। दिन भर स्कूल में माथापच्ची करते और सुबह-शाम अन्य लड़को को पढ़ाते, इस प्रकार महीने में 50) रुपये कमा लेते थे, लेकिन 50) रुपये में होता क्या है? खाने-पीने का खर्च, कपड़े लत्ते का खर्च, लड़कों की पढ़ाई का खर्च और आये दिन के त्योहारों का खर्च अलग-बेचारे अध्यापक महाशय इन्हीं झंझटों में दिन-रात परेशान रहते।
हिन्दू-परिवार में सबसे बड़ी मुसीबत लड़कियाँ होती हैं। पण्डित जी की बड़ी लड़की श्यामप्यारी का किसी-न-किसी तरह बेड़ा पार हो गया। उसके मामा निसंतान थे, अतएव उन्होंने उसे पाला-पोसा, और जब वह बड़ी हुई, तो उसे एक अच्छे कुल में ब्याह दिया। एक पाप टल गया, पर अब दूसरी लड़की रामप्यारी भी सयानी हो गयी थी। पण्डितजी को सबसे बड़ी चिन्ता यह थी कि रामप्यारी का ब्याह कैसे हो? अच्छे वर के बड़े मूल्य होते हैं, पर दहेज के लिए रुपया आये कहाँ से? जो कुछ मिलता है, महीने के अन्त तक साफ हो जाता है। लेकिन टोले-मुहल्ले वालों को इन बखेड़ों से क्या मतलब, वह तो सिर्फ कानाफूसी करना जानते हैं! मर्द कहते-आखिर यह उसकी शादी क्यों नहीं करते, इसमें क्या भेद है? स्त्रियाँ हाथ चमका-चमका कर कहतीं-बोर दिया, जवान पठिया घर में बैठाले हुए हैं और कान पर जूं तक नहीं रेंगती, कलियुग का ज़माना लग गया। इस कठोर आलोचना की भनक पण्डित जी की स्त्री जानकी को नित्य मिलती, अभागिन दिन-रात कुढ़ा करती।
2
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संध्या का समय था। पति-पत्नी में इसी विषय पर बातचीत होगी। जानकी ने पंखा झलते हुए पूछा-क्यों, कहीं लड़का ठीक हुआ?
दीनानाथ ने उदास भाव से उत्तर दिया। अभी तो कहीं ठीक नहीं हुआ।
कल पण्डित गंगाधर के यहाँ गया था। लड़का तो बड़ा अच्छा है। इस साल बी. ए. की परीक्षा में बैठा है। लेकिन पण्डित जी का तो दिमाग ही नहीं मिलता। पाँच हजार मांगते हैं। बताओ, इतनी बड़ी रकम कहाँ से आये?
जानकी-अंधेर मचा हुआ है अंधेर। तो कहीं और ढूँढ़ो।
दीना.कहाँ ढूंढे, कुछ समझ में नहीं आता। दो महीने से तो इसी के पीछे परेशान हूँ।
जानकी-कहीं-न-कहीं तो उसका ठिकाना लगाना ही होगा। पड़ोसियों के ताने-बाने कौन सुने?
दीना-बकने दो! यह तो संसार का नियम ही है। किस-किस की ज़बान पकड़ोगी?
जानकी-मुझसे तो नहीं सुना जाता।
दीनानाथ ने झुंझलाकर कहा-तो उसे भाड़ में ढकेल हूँ। फिर तो तुम्ही कहोगी कि लड़का अच्छा नहीं है।
जानकी- मैं कुछ नहीं बोलूँगी। किसी तरह इसकी भांवरें पड़ जायें तो क्लेश
कटे।
दीना- अगर यह बात है, तब तो एक लड़का बड़ा अच्छा है। उमर यही तीस-चालीस की होगी। यह उनकी तीसरी शादी है, चार लड़के भी हैं, यर में खाने-पीने को बहुत है, अच्छी सम्पत्ति है।
जानकी ने उदास भाव से कहा-उमर तो ज्यादा है।
दीना- तो भाई, एक ही वर में सब बातें तो नहीं हो सकतीं-कुल भी अच्छा हो, धनी भी हो, आयु भी कम हो-ऐसा वर तो मिलना कठिन है।
जानकी-तो मैं कुछ कहती थोड़े ही हूँ।
दीना. तो मैं जाऊँ ठीक कर आऊँ, यही अगले लगन में शादी हो जाए।
जानकी -जैसा ठीक समझो, करो।
पण्डित जी ने उठकर दुपट्टा उठाया, सोंटा सँभाला और धीरे-धीरे बाहर हो गए।
3
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रामप्यारी के पिता को बाहर निकलते हुए पांच ही मिनट हुए होंगे कि पार्वती आई और चंचलता से हैंसते हुए रामप्यारी से बोली -रम्मी मिठाई खिलाओ तो एक चीज दिखलाएँ।
राम- तो यह क्यों नहीं कहती कि मिठाई खाने का जी चाहता है। अभी ही स्कूल से आ रही है क्या?
पार्वती -हां , अभी तो चली आ रही हूँ। मकान भी नहीं गयी, इस चीज को तुमको दिखाने की इतनी उत्सुकता हुई कि गाड़ी से उतरकर सीधी पहीं चली आयी है।
राम. तुम मुझे धोखा दे रही हो।
पार्वती- (अपनी जेब में आँखें गाड़कर) कैसी प्यारी चीज है। यदि रग्मी इसे पाए, तो आँखों से प्यार करे।
रामप्यारी झपटी और जेब में फौरन हाथ डाल दिया। उसने देखा कि एक कार्ड है। समझा कि शायद मेरी शादी के बारे में कहीं से आया है। उसने निकालने के लिए चेष्टा की, लेकिन पार्वती क्यों निकालने देती। इसी बीच में पार्वती का हाथ रामप्यारी के कान में छू गया। यह ‘कान दुखा दिया, कान दुखा दिया’ कहती हुई बैठ गयी देखती नहीं कि कल ही कान छिदाया है?
पार्वती ने उसको प्रसन्न करने के लिए कार्ड को निकालकर कहा-तुम पास हो गयी हो और दूसरे डिवीज़न में।
रामप्यारी ने उत्सुकता से कार्ड ले लिया और पढ़ा। हृदय प्रफुल्लित हो गया।
4
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उपर्युक्त घटना के तीन घण्टे बाद पण्डित दीनानाथ ने फिर घर में प्रवेश किया। रामप्यारी के पास होने का शुभ समाचार सुना, लेकिन उदासीनता से ‘अच्छा हुआ कहकर कपड़ा उतारने के लिए दालान में चले गये। जाते-जाते अफसोस कर रहे थे कि ऐसी पढ़ी-लिखी, घर के काम-काज में कुशल लड़की के लिए बूढ़ा ही किस्मत में था। पण्डितजी की आवाज़ सुनकर जानकी रसोई से बाहर निकल आयी।
जानकी ने पण्डिजी के मुख की ओर देखते हुए कहा-क्यों, रामप्यारी का नतीजा सुना, सुस्त क्यों हो, वहाँ भी ठीक नहीं हुआ क्या? (रामप्यारी) जरा बेटी रसोई घर में जाओ, तरकारी चढ़ी हुई है, कहीं जल न जाए। रामप्यारी ने ‘अच्छा’
कहकर पार्वती के कान में कुछ कहा और रसोई घर में चली गयी। पार्वती भी धीरे से घर के बाहर हो गयी। पण्डित जी कपड़े उतारकर आँगन में आये और चारपाई पर बैठ गये पूछा-लड़के पढ़ने के लिए आये होंगे, उनसे क्या कहा?
जानकी-हाँ, आये थे, कह दिया कि आज तुम्हारे पण्डित जी बाहर गये हैं, लड़के खुशी-खुशी लौट गये।
पण्डित जी एक ही घण्टे में लौट आता, लेकिन कुण्डली वगैरह मिलाने में देर हो गयी। शादी तय हो गयी, परसों तिलक है। देखने में लड़के की उम्र तीस-चालीस साल से ज्यादा नहीं मालूम होती है, किन्तु जन्म-पत्री से मालूम हुआ कि उसकी उम्र पचपन साल की है। भगवान ने खूब दिया है। सुख का पला हुआ बदन है। देखने में तन्दुरुस्त मालूम होता है।
जानकी-उमर तो बहुत ज्यादा है, क्या मेरी लड़की की किस्मत में यही वर लिखा था?
पण्डित जी किस्मत की गति को कौन टाल सकता है? ईश्वर को जो करना मंजूर होगा, वही होगा। कुछ सोचकर पण्डित जी बोले-पुरानी काठी वाले ज्यादा जीते हैं, आजकल के हमारे लड़के तो बिल्कुल दुबले-पतले होते हैं। हर साल नवयुवकों की कितनी बड़ी संख्या मृत्यु का ग्रास होती है। उम्र पर विश्वास करना निरी भूल है।
जानकी ने आकाश की ओर देखते हुए कहा तो मैं कुछ कहती थोड़े ही हूँ! बड़ा खानदान होगा, बराती लोग तो बहुत आएँगे, बिरादरी वालों को भर-पेट खाना मिलेगा, स्त्रियों की चुहल होगी, पण्डितों को दक्षिणा मिलेगी और चाहिए ही क्या।
पण्डित जी होश में आकर मानो भूल गये हों। वे कमर में अपने हाथ में ले गये और कुछ कागज जानकी के हाथ में देते हुए बोले-यह लो पाँच सौ रुपये के नोट! पण्डित अमरनाथ ने कहा है-हम लोग कितने ही कम-से-कम आएँगे, तो डेढ़ सौ हो ही जाएँगे, तो आपको लेने में क्यों इनकार है। हम ही लोगों को तो खाना है, आप ले लीजिए और जाकर प्रबन्ध कीजिए।
जानकी के हाथ में रुपया आया। बोझ कुछ हल्का हुआ, बोली-तिलक का सामान लेने कब जाओगे?
पण्डित जी-कल सबेरे जाऊँगा।
रामप्यारी थी तो रसोई घर में, लेकिन उसके कान इसी ओर लगे हुए थे।
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उसने सब बातें सुनीं। अपने पास होने की सारी खुशी किरकिरी हो गयी। उसके दिल में बार-बार यही विचार आता कि जिस सखी पार्वती का ब्याह बूढ़े के साथ हुआ, और वह बेबा हो गयी, यही परिणाम मेरा भी होने वाला है। तरकारी उतारकर माँ से उसने कहा-अम्मा। जरा पार्वती को खाना खाने को बुला लें, नहीं तो वह अपने यहाँ खा लेगी। इतना कहकर वह नंगे पैर ही पार्वती के यहाँ उदास-मुख चली गयी।
पार्वती बैठी हुई रामप्यारी के न आने के कारण सोच रही थी, जैसा कि उसने चलते समय कहा था। इतने ही में दरवाजे का किवाड़ खटका, और घोड़ी ही देर में रामप्यारी आयी, लेकिन इस समय उसके मुख पर स्वाभाविक चपलता न थी खिला हुआ गुलाब न था, मुरझायी हुई कली थी, पार्वती को आश्चर्य हुआ। रामप्यारी दौड़कर उससे लिपट गयी और फूट-फूटकर रोने लगी। पार्वती के सवाल के जवाब में उसने सारा किस्सा कह सुनाया, अंत में कहा-बहिन, मेरे तो भाग्य फूट गये, तुम्हीं मेरी सहायता करो!
दोनों की सलाह से रामप्यारी ने एक अर्जी लिखी। लड़कियों के एक स्कूल में अध्यापिका की ज़रूरत थी। पार्वती ने प्रार्थना-पत्र अधिकारियों के हाथ पहुंचा देने का भार लिया! सखी के पास से उठकर रामप्यारी अपने घर गयी और बिना कुछ खाए पिए जाकर सो रही।
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इधर पार्वती ने दूसरे दिन सबेरे ही अर्जी रवाना कर दी, उधर जानकी ने पण्डित दीनानाथ को तिलक का सामान खरीदने भेजा। रामप्यारी अब परेशान है, उसके समझ में नहीं आता कि उसकी किस्मत में क्या-क्या बदा है? उसे चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा दिखाई पड़ता है। अर्जी का क्या ठीक, मंजूर हो या न हो! अगर न मंजूर होगी, तो ज़हर खा लेने के सिवा और कोई उपाय नहीं! इसी विचार में डूबी हुई थी कि ख्याल आया कि गुमनाम पत्र भेजूँ !
इस निश्चय के बाद रामप्यारी ने बूढ़े अमरनाथ के नाम एक गुमनाम पत्र भेजा, जिसमें वृद्धावस्था के विवाह के दोषों का सविस्तार वर्णन था। इस पत्र में अंतिम शब्द यह थे-यदि आप इस पत्र की ओर ध्यान न देना चाहें, तो आप यह समझ लें कि दीनों की आहें बुरी होती हैं, अधिक क्या लिखूँ?
बूढ़े अमरनाथ को यह ख़त मिला तो अवश्य, लेकिन इसकी ओर उसने कुछ ध्यान नहीं दिया, इसे उसने अपनी भावी पत्नी की चुहल मात्र समझा !
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तिलक गए एक महीना बीत गया, कल रामप्यारी की शादी होगी ।रामप्यारी एकदम दुबली हो गई है। जानकी बार-बार पूछती है क्यों बेटी, तुझे भीतरी बुखार रहता है क्या?
वह जवाब देती -नहीं अम्मा, गर्मी का मौसम है।
घर में घूमधाम मची हुई है। मेहमान आए हुए हैं। सारे-दिन ढोलक मंजीर की आवाज गूँजती रही, लेकिन रामप्यारी के हृदय में आनन्द कहाँ? वह तो विचार-सागर में डूबी हुई है। इतने में उसके भाई ने लिफाफा दिया। यह लिफाफा कुछ और न था, उसकी अर्जी का जवाब था। उसको नौकरी मिल गई। सात दिन के भीतर आकर चार्ज लेने को लिखा था। रामप्यारी की परेशानी कुछ दूर हुई, कुछ कमाकर अपना जीवन अच्छी तरह व्यतीत कर सकती है, अपने पैरों पर खड़ी हो सकती है। जिस तरह पार्वती रहती है-उसी तरह में भी रहूँगी, यह विचार आते ही इसके हृदय का बोझ बहुत हलका हो गया।
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आकाश बादलों से घिरा हुआ था। पानी की फुहारें गिर रही थीं। रामप्यारी के दुख की सीमा न थी। अपनी डबडबाई हुई आँखों को चारों ओर फेंकती, मानो कोई सहायक ढूँढ़ रही हो, उसकी आँखों से आँसू की धाराएँ बह चलीं। सहसा रामप्यारी के मन में एक विचार आया, उसके अश्रुपूर्ण नेत्र चमक उठे, मुख-मण्डल प्रसन्नता से खिल गया।
विवाह का मण्डप सजा हुआ था। वर-वधू और दोनों ओर के पुरोहित आमने-सामने बैठे हुए थे। पण्डित दीनानाथ कन्या देने के लिए मण्डप में उपस्थित हुए। रामप्यारी धीरे से अपने बगल में हाथ ले गई, फिर तनकर खड़ी होकर उसने घूँघट उलट दिया, सहसा ‘तड़तड़ा’ की आवाज से मण्डप गूंज उठा। उपस्थित सज्जनों ने चकित होकर देखा -वर के सिर पर जूते पड़ रहे हैं, किंतु सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि यह काम किसी और का नहीं था, स्वयं वधू ही यह अप्रिय कार्य कर रही थी!! दस-पन्द्रह जूते जमाकर रामप्यारी ने अपने हाथ का पुराना जूता अपने पिता के सामने फेंक दिया और शीघ्रता से बाहर चली गई!! यह काम इतनी जल्दी हुआ कि किसी को हस्तक्षेप करने का अवसर ही न मिला- जो था अवाक् था-चित्र-लिखित-सा खड़ा था! भारतीय बालिकाओं की उद्दण्डता का यह पहला ही नमूना था!
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इस आश्चर्यजनक घटना की रिपोर्ट समाचार-पत्रों में प्रकाशित हो गई। पण्डित अमरनाथ को कहीं मुँह दिखलाने के लिए स्थान न था।
सारे शहर में रामप्यारी की प्रशंसा हो रही थी। हर एक कहता था-वाह, कैसी दिलेर लड़की है। ऐसी ही देवियों से जाति का मुख उज्ज्वल होता है। हितैषियों के प्रशंसा से भरे हुए पत्र नित्य आते रहते, किन्तु एक दिन इन पत्रों से अधिक मूल्य का उसे एक लिफाफा मिला। लिफाफे के अन्दर 1000 रुपयों का एक नोट था, और एक सादे कागज पर केवल एक शब्द लिखा था-क्षमा ! पत्र गुमनाम था, किन्तु रामप्यारी ने भेजने वाले को वापिस भेजना उचित न समझकर उसने उसे पाठशाला के अधिकारियों को लड़कियों की आवश्यकता पूरी करने के निमित्त अर्पित कर दिया। रामप्यारी आज भी अध्यापिका का कार्य बड़ी प्रसन्नता से कर रही है। उसे 80 रु. वेतन मिलते हैं। उसने भीषण प्रतिज्ञा कर ली है कि आजीवन कुमारी रहकर वह केवल सामाजिक कुरीतियों का मूलोच्छेदन करेगी! ऐसी ही बालिकाएँ देश का मुख उज्ज्वल करेंगी, भोली भेड़-बकरियों, जो अपना उद्धार स्वयं नहीं कर सकीं, उनसे क्या आशा की जा सकती है?