नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला १ फरवरी से ९ फरवरी तक आयोजित किया जाने वाला है। पुस्तक मेले मेँ हिन्दी के छोटे-बड़े सभी साहित्यकार जुड़ते हैँ। ऐसी साहित्यिक गतिविधियोँ पर भी गम्भीरता से विचार करना चाहिए कि पुस्तक मेले से साहित्य पर कैसा प्रभाव पड़ा। प्रचण्ड प्रवीर की यह दो साल पुरानी कहानी पुस्तक मेले की संस्कृति और साहित्य समारोहोँ पर चिन्तन है। क्या हिन्दी प्रान्तोँ से इतर राज्योँ के साहित्यकर्म मेँ हिन्दी मेँ उचित स्थान मिल रहा है? क्या दार्जिलिङ् मेँ भी हिन्दी साहित्य समारोह हो सकते हैँ?
समकालीन साहित्यिक परिदृश्य से सम्बन्धित इस कहानी को पढ़ कर अपने विचारोँ से अवगत कराएँ।
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किस्सा एडगर एलन पो
हिंकार
नई दिल्ली में उन दिनों प्रगति मैदान में विश्व पुस्तक मेला हुआ करता था। आप जब इस किस्से को पढ़ रहे होंगे तो ना मालूम पुस्तक मेले होते भी होंगे या नहीं! क्या पता लोग हाथ में ले कर किताबें पढ़ते होंगे भी या नहीं? कम से कम स्कूल-कॉलेज तक पढ़ने की मजबूरी है, इसलिए लोग तब तक किताबें पढ़ लेते हैं। स्कूल-कॉलेज के बाद पढ़ने-पढ़ाने वाले अधिकतर या तो अध्यापक-प्राध्यापक होते हैं या संवाददाता जैसे व्यावसायिक रूप से लाचार लोग। इसके अतिरिक्त किसी और वर्ग में किताबें पढ़ने की दिलचस्पी कम ही होती है। हिन्दी किताबें का क्या कहना? वह नए जमाने की मार से अंग्रेजी, अश्लीलता और फूहड़ की त्रयी का वरण करते ‘नई वाली हिन्दी’ बनती जा रही है, जिसकी सारी क्रियाएँ किसी विदेशी भाषा या अंग्रेजी से बदलती जा रही है।
यह परिवर्तन जिन दिनों परवान चढ़ रहा था, तब विश्व पुस्तक मेले में देश के कोने-कोने से लेखक और प्रकाशक जुटते थे। सभी एक-दूसरे को अपनी किताब बेचने की जुगत में लगे रहते थे। यह कुछ-कुछ उन छोटे शहर की पिटी हुयी अर्थव्यवस्था वाली सोच का परिणाम था कि हर दूसरा आदमी कुछ-न-कुछ बेचने-खरीदने में लगा रहता था। इस तरह यह ‘कॉरपोरेट वाला सत्य’ मान लिया गया था कि संसार में हर चीज बिकने के लिए है, चाहे वह श्रम हो या शर्म।
इस बात से असहमति रखने वाले दो महानुभाव थे – भूतनाथ और प्रफुल्लनाथ। उम्र के लिहाज से दोनों तीस साल पार कर चुके थे। दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे। किन्तु दोनों की सोच एक तरह की थी, इसलिए वे दोनो ‘हॉल नम्बर १२’ के ‘स्टाल नम्बर ३६५’ पर किताबों का मुआयना करते हुए टकरा गए। बगल के किसी स्टाल पर खराब किताबों का धुआँधार विमोचन हो रहा था। खूसट बुड्ढे धाँय-धाँय तारीफ किये जा रहे थे, जिसको सुन कर भूतनाथ बार-बार नाक सिकोड़ रहे थे। भूतनाथ ने देखा कि कोई और भी है जो उसी की तरह उतनी ही आवृत्ति में नाक सिकोड़ रहा है और मुँह बिचका रहा है।
आज का दौर है मिलती-जुलती नापसन्दगियों के साथ आने का। इसी मूल-मंत्र से प्रेरित हो कर भूतनाथ ने प्रफुल्लनाथ का परिचय पूछा। पता चला कि प्रफुल्लनाथ पश्चिम बङ्गाल के हिन्दी कवि हैं। यह सुन कर भूतनाथ ने बड़ी सहानुभूति जतायी और बोले, “आपका भविष्य बड़ा ही धूमिल है।“
प्रफुल्लनाथ ने कहा कि उनकी कविता की पहली किताब हाल ही में ही प्रकाशित हो चुकी है। कविता करना वैसे भी ‘फिलान्थ्रिपक’ काम-काज है, मतलब जनता की भलाई के लिए किया जाने वाला निस्स्वार्थ कर्म। इसमें भविष्य क्या देखना? साथ ही उन्होंने भूतनाथ को नोट कराया कि वे हिन्दी के प्राध्यापक भी है, मतलब हिन्दी की अंदरुनी राजनीति और चाल-चरित्र से सुपरिचित। अत: भविष्य से कोई अपेक्षा ही नहीं। फिर भी, आपने तार ही छेड़ ही दिया है तो सुर में सुना दीजिए कि आपका आलाप क्या है?
भूतनाथ ने नोट कराया कि वह हिन्दी का स्वनामधन्य आलोचक है। यह भी नोट कराया कि वह दलित विमर्श, नारी विमर्श, प्रवासी विमर्श, कविता विमर्श, पुरस्कार विमर्श, साहित्य सूची विमर्श, साहित्य समारोह विमर्श, नोबल प्राइज-बुकर प्राइज रहस्य आदि-आदि का गहरा जानकार है। वह परदे के पीछे छिप कर काम करने वालों में से एक है। सारे सम्पादक उसकी जेब में हैं। कौन ऐसा सम्पादक है जिसने साहित्य अकादमी के दौरे के दौरान, रवीन्द्र भवन के बाहर उसके पैसे से मुफ्त की चाय की चुस्की नहीं ली? सारे प्रकाशक उसकी सलाह माँगते हैं। कौन ऐसा प्रकाशक है जिसने सामाजिक मीडिया के शूरवीरों पर उसकी टिप्पणी नहीं माँगी? उसी अनुभव के हवाले से भूतनाथ का कहना था कि हिन्दी में पहले काशी की, फिर प्रयागराज की चलती थी; अब दिल्ली की चलती है। चूँकि प्रफुल्लनाथ गैर हिन्दी भाषी हैं और दिल्ली से दूर हैं, इसलिए बिना किसी के आशीर्वाद के मुख्यधारा में अपनाए जा ही नहीं सकते।
प्रफुल्लनाथ भद्रपुरुष थे। अप्रिय बात को भी पचा गए। चाहते तो हिन्दीभाषियों की तरह ‘नई वाली हिन्दी’ में बिना किसी लाग-लपेट के गाली दे सकते थे। लेकिन उनमें अभी क्रान्ति का उबाल इतना नहीं था कि वे रगों में दौड़ने वाले संस्कार और गरिमा को गला डालते। लिहाजा चुप ही रहे।
प्रस्ताव
अगले साल फिर पुस्तक मेला लगा।
फिर से प्रकाशकों का रेलमपेल करती हुयी बाढ़ आयी। स्टॉल सजे और किताबें खूँटियों से टंगी। विमोचन हुआ और फुटकर में बिकीं। उन्हीं हॉल के गलियारों में प्रफुल्लनाथ चक्कर लगा रहे थे। जहाँ बाकी प्राध्यापक और लेखक अपना नेटवर्क बढ़ाने या सामाजिक मीडिया पर अपने अनुसरण करने वालों से मिलने लगे रहते हैं, वहीं प्रफुल्लनाथ जी किताबें खरीदनें में व्यस्त थे। कहीं न कहीं वह यह भी जानते थे कि महात्मा गाँधी के अनुसरण करने वालों ने उनकी राह छोड़ दी, फिर इस तकनीकी युग में ऐसा क्या चमत्कार होगा कि अनुसरण करने वाले लेखक के ग्राहक या सद्भावना रखने वाले सज्जन होंगे। दुनिया मूर्खों और हिंसकों की है। इससे बच-बचा के चलने में ही शान्ति है। लेकिन दुनिया वाले चैन से कहाँ रहने देते हैं?
हजारों की भीड़ में प्रफुल्लनाथ को भूतनाथ ने ढूँढ निकाला। मिल कर मुस्कुराए। तनिक बाहर निकल कर धूप में बैठे। भूतनाथ ने प्रफुल्लनाथ की कविता की किताब पढ़ ली थी। यह बात अपने आप में बड़ी राहत देने वाली थी, क्योंकि कवि अपना पाठक पा कर सच्चा सुख पाता है। उस पर भूतनाथ ने लच्छेदार शब्दों में उनकी कविता की व्याख्या कई आलोकों में कर दी।
“आपकी कविता में मूक प्रतिरोध और असंतोष है। निरपेक्ष के साथ-साथ सापेक्ष का अवगाहन करते हुए, मूल्यों के साथ-साथ इप्सिता का ध्यान रखते हुए आपने अनोखा संसार बुना है। यह सच है कि कविता समझायीं नहीं जा सकती। आपकी कविताएँ समझाने के लिए नहीं, राजनैतिक झंडों में डंडों की तरह काम आने के लिए नहीं अपितु आस्वाद के लिए बनी हैं। मेरा मानना है कि हो कहीं भी कविता मगर, कविता लगनी चाहिए। यह अपने “उस” को तलाश करता है जिसे कहीं ‘मुक्तिबोध’ ने खो दिया, जिसे पकड़ने की कोशिश ‘शमशेर’ ताउम्र करते रहे। साथ ही इसमें “इस” भी इतना है जितना सत्तर और अस्सी के तमाम घसियारे कवि ढूँढते रहे। देखिए, हमें गाली देनी नहीं आती वरना अस्सी के कवियों के साथ ही हिन्दी में कूड़े का अकूत अम्बार बढ़ता गया है। वह कूड़े का विशाल पर्वत इतना बड़ा हो चुका है कि साहित्य का सूरज सवेरा होने पर नहीं, दोपहर होने पर ही दिखाई देगा। याद रखिएगा कि मम्मट ने कहा था कि जो कवि है उसमें अपनी कला की कुशलता तो अवश्य हुआ करती है किन्तु जो कवि नहीं है वह कितना भी काव्य-कुशल क्यों न हो, ‘काव्य’ नहीं रच सकता।“
प्रफुल्लनाथ यह जानते थे कि आज की आलोचना बिना अतिश्योक्ति तथा बिना किसी और की घोर निन्दा के बिना पूरी हो ही नहीं सकती। इसलिए उन्होंने तुरंत ही भूतनाथ को छुपा हुआ पर धुरन्धर आलोचक मान लिया। यह आभार उनकी आँखों में छलका ही था कि भूतनाथ ने कहा, “बाबू मोशाय, तुम्हारी शकल तो ‘एडगर एलन पो’ से मिलती है।“
प्रफुल्लनाथ चौंके। यह तो आज तक किसी ने कहा नहीं। खुद को साधारण सी शक्ल सूरत का आदमी मानने वाले को सामने वाला सीधा अमरीकी रोमांसवाद का महारथी कवि और गद्यकार बता रहा है।
भूतनाथ के चेहरे पर गहरी गम्भीरता थी। उसने फौरन मोबाइल फोन पर ‘एडगर एलन पो’ की तस्वीर ढूँढ निकाली। कहने लगा, “देखिए, यह चौड़ा ललाट। बायीं आँख नीचे और दायी आँख ऊपर, वैसी ही मूँछ। वैसी ही गर्वीली नाक। किसी ने आपसे कहा नहीं आज तक? आप ही देखिए।“
प्रफुल्लनाथ ने मोबाइल पर तस्वीर देखी और उसे ताज्जुब हुआ। “हाँ, यह तो कुछ हद तक मेरी शकल से मिलती है। पर आज तक किसी ने ध्यान नहीं दिलाया।“
प्रफुल्लनाथ ने दिल्ली से बङ्गाल की वापसी में अपनी तस्वीर और एडगर एलन पो की तस्वीर के साम्य पर बहुत गौर किया। अंतत: इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया कि हो सकता है ‘एडगर एलन पो’ उनका कोई पिछला जन्म था। सब ‘जै माँ काली’ की कृपा है। इस जनम में पिछले जनम के छूटे हुए काम को आगे बढ़ाना है।
आदि
गुजरते साल में भूतनाथ ने प्रफुल्लनाथ से सम्पर्क बनाए रखा। उनकी कविताओं की नयी व्याख्या की। उन कविताओं में ‘द रेवन’, ‘एनाबल ली’, ‘ए ड्रीम विद इन अ ड्रीम’ जैसी कविताओं से साम्य दिखाया। प्रफुल्लनाथ क्या, किसी भी मौलिक कवि के लिए नकल का इल्ज़ाम बहुत बुरा लगने वाला है। यहाँ बात और थी। यहाँ अनजाने, अनचाहे में ‘एडगर एलन पो’ उतर कर उनकी कविताओं में आ गए। प्रफुल्लनाथ ने किसी गर्व में प्रतिज्ञा की, “भले ही मेरी कविताओं में आपको ‘एडगर एलन पो’ की परछाई दिख रही हो, पर मैं कसम खा कर कहता हूँ मैंने कभी ‘एडगर एलन पो’ को नहीं पढ़ा। केवल मेरी अन्तर्भावनाएँ ही मेरी कविता का मुख्य कारण हैं। मैं प्रण लेता हूँ कि आज से ताउम्र ‘एडगर एलन पो’ का कुछ भी नहीं पढूँगा। हाँ, अगर कोई पाठक उसको पढ़े तो उसका स्वागत अवश्य है।“
भूतनाथ ने उनकी भीष्म प्रतिज्ञा की भूरि-भूरि प्रशंसा की। इसके साथ ही दिल्ली फतह करने की नई तरकीबें बतायीं। प्रफुल्लनाथ ने बातों-बातों में भूतनाथ के अदम्य साहस और उत्साह का राज पूछा। जब भूतनाथ सवाल गोल करने लगे, तब प्रफुल्लनाथ ने अंदाजा लगाया कि इसका कारण जरूर कोई ‘साहित्य-सुन्दरी’ है। भूतनाथ ने कहा कि कभी पुस्तक मेले में आना हुआ तो जरूर दिखा दूँगा कि वह कौन है। फिलहाल उसे हम ‘सजनी’ नाम से पुकार सकते हैं।
चीन में कोरोना फैलने की चर्चा जोरों पर थी। फिर भी भारत में कोई खतरा नहीं जान पड़ रहा था। बहुत से लोग को पक्का विश्वास था कि कोरोना का विषाणु भारत आया तो भारत के विशाल कचरे की दुर्गंध से खुद ब खुद मर जाएगा। अत: पुस्तक मेला आयोजित हुआ।
प्रफुल्लनाथ पुस्तक मेले में नुमाया हुआ। उनकी नज़र बार-बार रहस्यमय भूतनाथ को ढूँढती रही जो न जाने कहाँ गायब थे। कभी तो घंटो बातें करतें, कभी एकदम से लापता। न जाने क्या बात है?
प्रफुल्लनाथ की दृष्टि सुन्दर सोने के बड़े कुण्डल पहनने वाली एक नयनाभिरामी सुन्दरी पर जा पड़ी। अभी नज़र हटी नहीं थी कि कानों में आवाज़ गूँजी, “वही है मेरी सजनी।“ प्रफुल्लनाथ ने चौंक कर भूतनाथ को पास खड़ा पाया। भूतनाथ ने बताया कि उस प्रसिद्ध साहित्य सुन्दरी का नाम ‘रजनी’ होना चाहिए था, पर उनका चञ्चल चित ‘सजनी’ कहने पर आमादा है। प्रफुल्लनाथ ने शुभकामनाएँ दीं और कहा कि आप कुछ आगे बढ़िए। नाम से तो सभी जानते हैं, आज उनका रूप भी देख लिया। आगे बात-वात कीजिए।
भूतनाथ ने ‘समय आने पर’ का बहाना बना कर बात टाल दी। साथ ही दोनों मेले में आगे घूमने लगे। प्रफुल्लनाथ ने अंग्रेजी स्टाल पर उमड़ती बेतरतीब भीड़ देख कर भूतनाथ से पूछा, “ऐसा क्यों होता है कि हम अंग्रेजी का अनुवाद हिन्दी में पढ़ते हैं? क्या अंग्रेजी वाले हिन्दी साहित्य का अनुवाद पढ़ते हैं?” भूतनाथ ने जवाब दिया, “यह तो साहित्य में अमरता का निशानी है। हमारे हिन्दी साहित्य में जिस भी कृति का दस-बारह विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो जाए, भले ही वहाँ की पत्रिकाओं में कोई उसे पढ़े न पढ़े, वह रचना और रचयिता साहित्य में अमर मान लिया जाता है।“
अमरता वाली बात प्रफुल्लनाथ के जेहन में गयी और शायद वहाँ मुरझाए फूल में से खुशबू की तरह बहुत हद तक उड़ गयी। उन्होंने पूछा, “आप किसी काबिल अनुवादक हो जानते हैं, जो हिन्दी की रचनाओं को यूरोपी भाषाओं में अनुवाद कर दें?
भूतनाथ सबको जानते थे। उन्होंने एक बेहद जिम्मेदार और काबिल अनुवादिका का नाम बताया।
कोरोना के दिनों में लॉकडाउन से ठीक एक हफ्ते पहले मीनू कटार को पटियाला में अपने निवास स्थान पर प्रफुल्लनाथ की कविताएँ मिली। उन्होंने प्रफुल्लनाथ को तात्कालिक प्रतिक्रिया देते हुए लिखा, “आपकी कविताओं में अमरीकी रोमांसवाद की महक शेष है। एक बात कहनी थी। आपका चेहरा ‘एडगर एलन पो’ से काफी मिलता है।“
प्रफुल्लनाथ ने प्रफ्फुल होकर यह टिप्पणी भूतनाथ को अग्रसारित कर दी।
उद्गीत
सूचियों को खारिज करने वालों ने ‘इक्कीसवीं सदी के कवि’ की सूची बनायी और सामाजिक मीडिया पर बहुत शोर मचाया। जिनका नाम आया वे ‘वाह-वाह’ और जिनका नाम नहीं आया वे ’हाय-हाय’ (नेपथ्य में आह-कराह) करने लगे। प्रफुल्लनाथ ने दिल्ली कहाँ फतह की थी? बिना दिल्ली के आशीर्वाद के उनका नाम इस सूची में कैसे आ सकता था? यही ज्ञान जब भूतनाथ ने प्रफुल्लनाथ को दिया, तब हमेशा प्रफ्फुलित रहने वाले प्रफुल्लनाथ गहरे विषाद में पड़ गए। किन्तु प्रभु की लीला अपरम्पार है। जल्दी ही एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने बङ्गाल के गौरव को हिन्दी कवियों के बीच प्रतिष्ठित किया और सम्मानित किया।
कोरोना काल चल रहा था। सामाजिक मीडिया पर गोष्ठियाँ-विमर्श हो रहे थे। हजारों की भीड़ तत्काल में देख रही थी और अनन्तर काल में लाख का आँकड़ा छू रहा था। लगने लगा कि साहित्य में बहुप्रतीक्षित आमदनी का नया जरिया बनने ही वाला है। साहित्य अब ‘टिक-टॉक’ को पीछे छोड़ देगा। प्रफुल्लनाथ को इस माहौल में रह-रह कर ‘एडगर एलन पो’ वाली बात याद आती और अपनी प्रतिज्ञा कि उनका कोई साहित्य कर्म कभी नहीं पढ़ना। किन्हीं साहित्य चर्चा से इतना मालूम हुआ कि ’होर्हे लुइस बोर्हेज’ एडगर एलन पो को उनकी कविताओं की तुलना में उनकी कहानियों को पसन्द करते थे।
प्रफुल्लनाथ को इस पर शंका हुई। भूतनाथ ने प्रफुल्लनाथ की इस शंका का निवारण करते हुए इस बात की पुष्टि की ‘एडगर एलन पो’ वस्तुत: अपनी डरावनी, जासूसी और रहस्य-रोमांच से भरी कहानियों के लिए जाने जाते हैं। किन्तु भूतनाथ मानते थे कि एडगर एलन पो की चर्चित कहानी ‘द पर्लॉइंड लेटर “(“The Purloined Letter” चोरी हुई चिट्ठी) में गहरा आलोचनात्मक सत्य छुपा है। जिस तरह लोग चिट्ठी को ढूँढते रहे और नहीं पा सके, उसी तरह कविता का रहस्य सामने टेबल पर प्रत्यक्ष खुला पड़ा रहता है लेकिन हम उसे तहखानों में या अलमारियों में ढूँढने की तरह व्यञ्जना में निकाल लाने की जिद वाली गलती करते हैं। जिस तरह “द टेल-टेल हार्ट” (“The Tell-Tale Heart” चुगलखोर दिल) में मुर्दे की दिल की धड़कन कत्ल के राज को उजागर कर देती है, उसी तरह कविता की पुकार आलोचकों द्वारा तहखाने में दफना देने के बावजूद उनके गुनाहों को दुनिया के सामने ला देती है। असली कविता को कोई माई का लाल आलोचक मार नहीं सकता। कोई उसकी आवाज़ दफना नहीं सकता।
प्रफुल्लनाथ अपनी प्रतिज्ञा से बँधे होने के कारण “द फ़ाल ऑफ़ द हाउस ऑफ़ अशर” (“The Fall of the House of Usher”, अशर परिवार का पतन), “द ब्लैक कैट” (“The Black Cat”, काली बिल्ली), “द पिट एण्ड द पेंडुलम” (“The Pit and the Pendulum”, गड्ढा और पेंडुलम) जैसी महान कहानियाँ पढ़ नहीं सकते थे। एडगर एलन पो की कहानियों की जिज्ञासा उन्हें सताये जा रही थी। अमरीकी निर्देशक रोजर कारमैन की १९६० के दशक में ‘एडगर एलन पो’ की कहानियों पर बनायी, लम्बे व नुकीली मूँछों वाले अभिनेता ‘विन्सेन्ट प्राइस’ की मुख्य भूमिका में बनी सात-आठ फिल्में उन्होंने देख डाली।
यह बात उन्होंने भूतनाथ से साझा नहीं की थी। एडगर एलन पो से शक्ल मिलना, खयाल मिलना, एक ही रुचि का होना – इतना सब कुछ संयोग कैसे हो सकता है?
एक दिन सामाजिक मीडिया के मैसेंजर माध्यम से हिन्दी की मशहूर, कन्नड़ मूल की कवयित्री ‘चित्रा बेन्द्रे’ का संदेश उनके पास आया। संक्षिप्त संदेश में उन्होंने प्रफुल्लनाथ की बढ़ती लोकप्रियता के कारण उनकी कुछ कविताएँ ‘वेब पत्रिका’ में पढ़ीं। कविताओं की प्रशंसा के बाद उन्होंने कहा कि आपकी इन कविताओं में अमरीकी रोमांसवाद मुखर है, जो कि जाने-अनजाने ‘एडगर एलन पो’ की याद दिलाता है। पता नहीं किसी ने आपसे कभी कहा या नहीं, यह कहते हुए बड़ा सङ्कोच हो रहा है किन्तु यह उतना ही सत्य है जितना सूर्य का प्रतिदिन प्रकट होना और चन्द्रमा का घटना-बढ़ना।
इस संदेश के बाद मौन हो जाने से प्रफुल्लनाथ बड़े व्यग्र हो गए। उन्होंने चित्रा जी को धन्यवाद दिया तथा उन्हें निस्संकोच पूरी बात रखने का निवेदन किया। चित्रा जी ने कहा, “दरअसल आपकी शक्ल ‘एडगर एलन पो’ से अच्छी खासी मिलती है।“
प्रफुल्लनाथ ने कहा, “अरे, यह कहने वाली आप तीसरी हैं। इससे पहले मेरे आलोचक मित्र भूतनाथ और प्रख्यात अनुवादिका मीनू कटार ने भी यही कहा है।“
इसके फौरन बाद प्रफुल्लनाथ ने भूतनाथ को फोन मिलाया जिस समय वह किसी कुएँ की जगत पर नवोदित कवयित्रों से घिरे हँसी-ठिठोली कर रहे थे। नवोदित कवयित्रियाँ कुएँ से पानी खींचती जाती थीं और भूतनाथ उनकी मटकियों पर कङ्कड़ से निशाना लगा कर फोड़ने में लगे थे। चूँकि भूतनाथ का निशाना खराब था, इसलिए कवयित्रियाँ गगरियाँ छलकाती प्रसन्न थीं। उन्होंने फोन उठा कर कहा, “कहिए मिस्टर एडगर एलन पो? सब खैरियत है?”
प्रफुल्लनाथ ने कहा, “दरअसल आपने जो सम्बोधन किया है न, इसी सिलसिले में आपको एक बात बतानी थी। हिन्दी की मशहूर कवयित्री ‘चित्रा बेन्द्रे’ का संदेश आया था। उन्होंने मेरी कविताएँ पढ़ीं और उसकी प्रशंसा की। साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि आपकी शक्ल ‘एडगर एलन पो’ से अच्छी खासी मिलती है।“
“तब आपने क्या कहा?”
“मैंने कहा कि आप ऐसा कहने वाली तीसरी हैं। मेरे मित्र भूतनाथ और मीनू कटार यह बात बहुत पहले मुझसे कह चुके हैं।“
भूतनाथ ने कहा, “यह कौन सी बड़ी बात हो गयी? सूरज को कोई जा कर कहे कि आप सूरज हैं तो क्या घट-बढ़ जाएगा। आप लगते ही हैं ‘एडगर एलन पो’ की तरह। लेकिन जिस तरह ‘एडगर एलन पो’ बेहतरीन कहानीकार थे, आपको भी अब कहानियाँ लिखनी चाहिए। वह भी भूतिया और डरावनी।“
प्रफुल्लनाथ बोले, “वह देखेंगे कभी। फिलहाल एक ही बात का अफसोस है। यूनिवर्सिटी में मैं पंद्रह साल से पढ़ा रहा हूँ। आज तक किसी अंग्रेजी के प्रोफेसर ने आकर मुझे यह नहीं कहा कि मेरी शक्ल ‘एडगर एलन पो’ से मिलती है।“
“इनमें उनका दोष नहीं।“ भूतनाथ ने कहा, “दरअसल वे बिचारे इंटरनेट से पहले के जमाने वाले लोग होंगे जो नोट्स रट-रट के परीक्षा पास करते होंगे, हमारे हिन्दी के अधिकांश आलोचकों की तरह। उनकी दृष्टि कभी इतनी विस्तृत नहीं होगी कि ‘एडगर एलन पो’ की फोटो देखें और उनकी जीवनी पढ़ें। हम लोग तो आनन्द के लिए पढ़ने वाले पाठकों में से हैं।“
प्रफुल्लनाथ ने भूतनाथ के समर्थन में कहा, “आप सही कह रहे हैं।“ प्रफुल्लनाथ ने विचारा कि चित्रा बेन्द्रे उन कवयित्रियों में से हैं जो स्त्री विमर्शकारों की चंगुल में अभी तक ठीक से फँसी नहीं है और संसार में उत्पीड़न के अलावा भी कुछ देख सकती हैं। मीनू कटार उन अनुवादकों में से हैं जो बुकर पुरस्कार के दम पर नहीं, बल्कि वर्षों की मेहनत से जानी जाती हैं। इनकी बातों में सच्चाई होगी ही। केवल भूतनाथ ही संदिग्ध है।
प्रतिहार
कोरोना की दूसरी और मारक लहर के बाद जीवन स्थिर होने लगा था। प्रफुल्लनाथ अब अपने चेहरे और ‘एडगर एलन पो’ के चेहरे के साम्य को ले कर बहुत सचेत हो चुके थे। कई बार वह चेहरे पर काला चश्मा चढ़ाते और हैट पहन लेते। डर लगता कि कहीं कोई उन्हें गलती से ‘एडगर एलन पो’ न कह बैठे। वैसे इसकी सम्भावना कम थी, पर सम्भावना थी ही न!
प्रफुल्लनाथ को एकदिन भूतनाथ ने ‘पो टोस्टर’ के बारे में बताया कि किस तरह हर साल ‘१९ जनवरी’ को लगातार ७५ साल तक कोई आदमी काले चोगे और सफेद स्कार्फ में ‘एडगर एलन पो’ की कब्र पर तीन गुलाब और शराब की बोतल उनके जन्मदिन के अवसर पर श्रद्धापूर्वक भेंट कर जाता था। प्रफुल्लनाथ ने बरबस कहा, “अव्वल मेरी कब्र होगी नहीं। अगर किसी ने मेरी समाधि बनायी भी तो मुझे कोई शराब की बोतल भेंट न करे।“
भूतनाथ ने हँस कर कहा, “आप अपनी ख्वाहिशें वसीयत कर जाइए।“
इस घटना के सत्रह दिन बाद प्रफुल्लनाथ को शाम में एक फोन आया। फोन करने वाले ने कहा, “नमस्ते, मैं गोण्डा से नरेश तिवारी बोल रहा हूँ। दरअसल मैं साहित्य का विद्यार्थी रहा हूँ। हमारे बाबू जी के पास रिश्वत देने के लिए चार लाख रुपया नहीं था, वरना मैं भी अभी हिन्दी का प्राध्यापक होता। वैसे ‘यूँ होता तो क्या होता’ विमर्श के लिए आपको तकलीफ नहीं दे रहा। मैंने अपने अनुसंधान में पाया है कि फ्रांसिसी साहित्यकार जॉर्ज पेरेक की शक्ल महाप्राण ‘निराला’ से मिलती थी। इतना ही नहीं, मैंने यह भी पाया कि फ्रांसिसी उपन्यासकार व कवि ‘मिशेल वेलबेक’ की शक्ल पाकिस्तानी उर्दू शायर ‘जॉन एलिया’ से बहुत मिलती है। उसी अनुसंधान के सिलसिले में मैंने पाया है कि आपकी शक्ल ‘एडगर एलन पो’ से काफी मिलती है।“
प्रफुल्लनाथ यह सुन कर गरम हो गए, “आप कहना क्या चाहते हैं? आपने मेरी कविताएँ पढ़ी हैं?”
“जी, उसी सिलसिले में कहना चाहता हूँ। आप अपनी कविताओं में मनुष्य के संघर्ष की बात करते हैं। लेकिन आपकी कविताओं में जो ‘एडगर एलन पो’ का छुपा हुआ रोमांसवाद है, क्या वह किसी प्रयास से आपकी कविताओं में आया है या यह कोई …?”
“वाक्य पूरा कीजिए।“
“क्या यह कोई पिछले जन्म का सम्बन्ध हो सकता है?” नरेश तिवारी ने बार पूरी की।
प्रफुल्लनाथ ने जब कुछ न कहा, तब नरेश तिवारी ने दूसरा प्रश्न किया, “क्या आपका भी जन्मदिन १९ जनवरी को आता है?”
“जी नहीं।“
“क्या यह सच है कि आप पद्य को छोड़ कर गद्य की तरफ उन्मुख हो गए हैं?”
प्रफुल्लनाथ ने विचार कर कहा, “सोच रहा हूँ।“
“क्या आपका ऐसा मानना है कि ‘पद्य’ की अंतिम परिणति ‘गद्य’ ही है। जिस तरह ऋक और अथर्व संहिता की पद्यात्मक ऋचाएँ ‘युजर् संहिता’ के गद्यात्मक मंत्रों में अंतिम परिणति में पहुँचती हैं, उसी तरह आपका प्रेम यानी शृंगार, संघर्ष यानी रौद्र में बदलते हुए, दुख यानी शोक से गुजरते हुए, रहस्य-रोमांच यानी अद्भुत-वीरता को छूते हुए अंतत: भयानक और वीभत्स में पर्यवसित हो जाएगा?”
प्रफुल्लनाथ ने प्रतिवाद में कहा, “आप अपने अनुमानों को निष्कर्ष मान कर मुझ पर थोपना चाहते हैं। आप सही अर्थों में वामपंथी आलोचक हैं।“
नरेश तिवारी ने प्रफ्फुलित होते हुए कहा, “आपने मुझे नयी परिभाषा से अवगत कराया है। आपका बहुत-बहुत आभार।“
कुछ खिन्न से प्रफुल्लनाथ ने यह घटना भूतनाथ से साझा नहीं की।
उपद्रव
प्रफुल्लनाथ का दूसरा कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। बधाई का ताँता लग गया। देश-प्रदेश के सोए हुए आलोचक-कवि-सरगना, प्रकाशक-सम्पादक-गिरोह, सभी एक साथ सक्रिय हो गए।
देखते ही देखते प्रफुल्लनाथ अपनी रहस्य-रोमांच की कविताओं से नये स्वर के लिए प्रसिद्ध हो गए। भूतनाथ ने प्रफुल्लनाथ को बधाई देते हुए कहा कि नए पुस्तक की एक प्रति ‘सजनी’ को भिजवा दी जाए। यदि सजनी भी उनकी प्रशंसिका बन गयीं, तो ‘सजनी’ को प्रफुल्लनाथ की प्रेम-कविताओं के माध्यम से प्रेम का संदेश दिया जाएगा।
भूतनाथ का घर बस जाएगा!
प्रफुल्लनाथ ने भूतनाथ की बात पसन्द की। इसके सत्ताईस दिनों के बाद प्रफुल्लनाथ ने ‘दार्जिलिंग साहित्य समारोह’ के आयोजकों की तरफ से पूस के महीने में भूतनाथ और सजनी को आने का निमंत्रण दिया। भूतनाथ ने हैरानी से कहा, “यह बात कुछ जँच नहीं रही है। मैं कहाँ का आलोचक? न मेरी कोई किताब? आखिर किसी आधार पर मुझे साहित्य में प्रतिष्ठित किया जा सकता है?”
प्रफुल्लनाथ ने वर्तमान साहित्यिक परम्परा को स्पष्ट करते हुए कहा, “साहित्य वही है जो रहस्य को प्रतिष्ठित करे। सत्य जब रहस्य की तरह छुपा रहता है तभी तक गरिमामय और आकर्षक है, बिलकुल कविता में रस की तरह। आखिर जब फिल्मी सितारे, खिलाड़ी, राजनेता साहित्य समारोह में आ सकते हैं, फिर तो आपका आना कौन सा अजूबा है?“
“आपकी बातों से सहमति-असहमति अपनी जगह पर है, किन्तु सजनी वहाँ आ रही है और उनसे मिलने का सुअवसर मैं जाने नहीं देता। हालाँकि आपकी प्रतिष्ठा दाँव पर लगेगी जब मेरी अज्ञानता मंच पर प्रकट हो जाएगी।“
प्रफुल्लनाथ ने ढाँढस बढ़ाते हुए कहा, “मौन ही ऐसे समय में काम आता है। पता है साधु और मुनि में क्या अंतर है? जिन्होंने सत्य का साक्षात्कार कर लिया है, उनमें कुछ ऋषि मौन हो जाते हैं। सत्य प्राप्ति में पाण्डित्य और बाल्य के बाद ‘मौन’ की ही स्थिति आती है। ऐसे ज्ञानी जो इधर-उधर मौन हो कर ही विचरण करते हैं, उन्हें मुनि कहते हैं। आप भी मेरी दृष्टि में साहित्यिक मुनि हैं, क्योंकि घोर पाखण्ड और अनाचार के युग में भी आप मौन ही हैं। आपने अच्छे कवियों की प्रतिष्ठा के लिए कुछ किया नहीं और ‘इक्कीसवीं सदी के कवियों’ को लक्षित होने पर भी उनकी एकरूपता और व्यर्थता पर चाबुक नहीं चलाए। आपने सास की प्रताड़ित बहुओं को, पति की सतायी पत्नियों को, प्रेमी की सतायी प्रेमिका के समक्ष विपरीत सौहार्द्रपूर्ण उदाहरण नहीं रखा। आपने भड़ास को कविता कहने वालों की भी खबर नहीं ली।“
भूतनाथ ने आश्चर्य प्रकट किया, “भड़ास भी तो भाव ही है। आप भी तो भाव को कविता का मूल मानते हैं, अचानक परिवर्तन कैसे?”
प्रफुल्लनाथ ने कहा, “जब तक मैंने गद्य की गहराई नहीं मापी थी, तब तक मैं कविता को भाव से समर्थित मानता था। गद्य में पद्य की छद्मता के पार सत्य का विवेचन है। आमतौर पर जो कवि गद्य लिखने पर उतरते हैं यदि वो कल्पित और भावित में खो जाते हैं तो वे प्रेत बनने को अभिशप्त हो जाते हैं। उनकी मुक्ति किसी न पढ़े जाने वाले महाकाव्य में होती है। पर मैंने भयानक और वीभत्स में उस सत्य को पाया है, जिसे सालों से दफना दिया गया है।“
“आप तो ‘एडगर एलन पो’ की तरह रोंगटे खड़े देने वाली बातें कर रहे हैं।“ भूतनाथ ने विस्मित हो कर कहा।
“कोई शंका है आपको?” प्रफुल्लनाथ ने अपनी बात समाप्त की।
प्रफुल्लनाथ के लिए गद्य और पद्य के बीच का चुनाव मुख्य प्रश्न बन चुका था। इस ऊहापोह के लिए उसने सीधे तौर से भूतनाथ को दोषी पाया। किन्तु गद्य के आकर्षण ने उन्हें ऐसा घेरा कि ‘एडगर एलन पो’ से उनके चेहरे का साम्य, साम्य से जुड़े सभी उपालम्भ षड्यंत्र की तरह उनके मानस पटल पर प्रकट हुए। वीर पुरुषों की तरह वह भूतनाथ को दण्डित करने को उद्धत हो गए। अंतत: उनके अद्भुत वीरता से ही रौद्र उपजेगा, जिससे भयभीत हो कर भूतनाथ की वीभत्स गति होनी थी।
निधन
दार्जिलिंग साहित्य समारोह में ‘सजनी’ और ‘प्रफुल्लनाथ’ का संवाद हुआ। विषय था ‘सामयिक कविताओं में भयानक और वीभत्स’। इस अवसर पर प्रफुल्लनाथ ने अपनी गद्यनुमा कविता सुनाई जिसमें एक सर्द रात में चुड़ैल अपनी पुराने प्रेमी के बाल सँवारने आती है और नींद में डूबा प्रेमी अनजाने में उसके मरे हुए और बर्फीले हाथों में उसी की दी गई अंगूठी को छू कर पहचान लेता है। पहचान लेने के बाद प्रेम तत्काल भय में बदल जाता है और धड़कन जोरों से बढ़ते-बढ़ते हृदयाघात तक पहुँच जाती है।
“और इस तरह हुयी प्रेम की परिणति
प्रीति जल कर बनी भीति।
इसी तरह होनी थी
प्रेम की परिणति।
काल के सम्मोहन में
सर्वस्व नाश प्रसिद्ध हुआ
जिसकी इतनी महिमा थी, वह
प्रेम केवल पाश सिद्ध हुआ।” प्रफुल्लनाथ ने अपने गद्य का पद्य से समाहार किया, जिसका सजनी ने ताली बजा कर स्वागत किया।
भूतनाथ बड़ी व्यग्रता से दूरी बनाते हुए सजनी की काली जुल्फों और सुनहरे गहनों पर नज़र डालता रहा। सजनी मंद-मंद मुस्काती रही और साथ ही प्रफुल्लनाथ चहकते रहे। कार्यक्रम के तुरन्त बाद भूतनाथ ने प्रफुल्लनाथ से आग्रह किया कि सजनी मैडम से एकबार परिचय करा दिया जाए। प्रफुल्लनाथ ने भूतनाथ से धीरज रखने को कहा क्योंकि अगले ही दिन भूतनाथ और तमाम आलोचकों का प्रसिद्ध कवयित्री सजनी से ‘मम्मट के काव्य-प्रकाश और आज की कविता’ विषय पर विस्तृत चर्चा होनी थी। अगले दिन ‘मीनू कटार’ और ‘चित्रा बेन्द्रे’ भी आने वाली थीं। वैसे भी ‘टाइगर हिल’, जहाँ से कंचनजंगा और माउण्ट एवरेस्ट दोनों चोटियाँ नज़र आती हैं, उनके ठहरने की जगह के पास ही था। योजना थी कि सभी साहित्यकार अगली दुपहर के बाद साथ ही चलेंगे।
होटल में शाम के खाने के बाद भूतनाथ ने जल्दी सोने की मंशा जाहिर की। उसका विचार था कि सुबह-सुबह चार बजे उठ कर ‘मम्मट’ के काव्यप्रकाश के सातवें उल्लास (दोष-निरूपण) और आठवें उल्लास (गुण-निरूपण) पर वह सोदाहरण चर्चा करेगा।
पूस का महीना था। शुक्ल पक्ष चल रहा था। बाहर जोरों की ठंढ थी। कहा जाता है इस होटल के बगल में स्थित कब्रिस्तान अंग्रेजों के जमाने का था। हालाँकि इस होटल में भूत-प्रेतों के वाकये के बारे में कुछ लोग ने इंटरनेट पर लिखा भी था, पर आमतौर पर इसे यात्रियों ने वहम की तरह टाल दिया। और क्यों न करें ऐसा जब हर किसी को भूत दिखे ही नहीं?
रात को साढ़े ग्यारह बज रहे होंगे जब भूतनाथ की आँखें खुली। होटल में बिजली चली गयी थी। बाहर हल्का-हल्का शोर हो रहा था। जेनेरेटर नहीं चल रहा क्या? ठंढ बहुत है। रजाई से सिर निकालने पर सिर को ठंढ लग रही है। कल शायद सजनी से मिलना होगा। सामने दीवार पर किसी की आकृति है। कोई तस्वीर टंगी है। भूतनाथ ने चौंक कर दीवार की तरफ देखा। हल्की रोशनी कहीं से आ रही है और सच में उस तस्वीर में किसी औरत की आकृति है, जिसकी आँखें जैसे जीवित हैं। उसे ही देख रही हैं।
भूतनाथ ने हड़बड़ा कर मोबाइल देखा। कोई संदेश आया था। घबरा कर उसने संदेश पढ़ने की कोशिश की। प्रफुल्लनाथ का संदेश था – “होटल में रात भर बिजली नहीं आएगी। जेनेरेटर फेल है। आप किसी तरह रात बिता लीजिए, कल सुबह आयोजक कोई अन्य व्यवस्था कर देंगे।“
भूतनाथ के कमरे की खिड़कियाँ तेजी से खड़कीं। भूतनाथ ने किसी तरह उठ कर बाहर देखा, जैसे कोई आकृति हवा में तैर कर चली गयी हो। खिड़कियाँ खोलते हुए बर्फीली हवा ने अपना ताण्डव मचाना शुरू किया। आनन-फानन में खिड़कियाँ बन्द कर भूतनाथ ने आँखें बन्द कीं।
घड़ी भर बाद जैसे किसी ने ठंढी हथेलियों से उसके गाल को सहलाया। भूतनाथ आँखें बंद किए ही किए दोनों हाथों को अपनी हथेलियों से पकड़ा। बर्फ से ठंढे हाथ रूखे और बेजान थे। धीरे-धीरे उसने हाथ ऊपर किए तो रूखे बालों की लटें मिली। हाथों को ऊपर कर जब उन्होंने सिर को हाथों मे लेना चाहा, जैसे कि बहुत सिकुड़ गयी खोपड़ी पर रूखे बर्फीले बाल उसकी हाथों में पिघल रहे हों।
भूतनाथ ने नीमबेहोशी में कहा, “मैं तुम्हें इस अंगूठी से पहचान गया हूँ।“
जोर की बर्फीली आँधी से खिड़की फिर से खुल गयी। इस बार भूतनाथ झटके से उठ बैठा। सामने की तस्वीर उसे घूर रही थी।
अगली सुबह ‘मीनू कटार’ और ‘चित्रा बेन्द्रे’ के सत्र में शानदार बातचीत चल रही थी। मीनू कटार ने नोबल पुरस्कार विजेता आइजैक बशेविस सिंगर के हवाले से कहा, “एक अनुवादक को एक उत्कृष्ट सम्पादक, एक मनोवैज्ञानिक, मानव मूल्यों का निर्णायक अवश्य होना ही चाहिए, अन्यथा उसका किया गया अनुवाद बहुत बुरा होगा। लेकिन कोई भी मनुष्य इस विलक्षण गुणों होने के बावजूद अनुवादक क्यों बनना चाहेगा? वह स्वयं लेखक क्यों न बन जाय, या स्वयं को ऐसे काम में क्यों न लगाए जहाँ मेहनत से किये गए काम और तीक्ष्ण बुद्धि के लिए अच्छा पारिश्रमिक मिले? एक अच्छा अनुवादक को साधु के साथ मूर्ख भी होना चाहिए। और आप बताइए कि आपको इस तरह की विचित्र मेल कहाँ मिलेगा?”
वहीं प्रफुल्लनाथ आयोजकों के साथ हैरान थे कि रात से भूतनाथ का पता नहीं। मैडम सजनी भी अज्ञात भूतनाथ से मिलने को उत्सुक थीं पर किसी को भूतनाथ की कोई खबर नहीं थी। प्रफुल्लनाथ अभी सोच में ही थे कि वहीं पर एक युवा उनके समीप आ कर प्रश्न करने लगा, “हालाँकि यह मेरा अनुमान है कि आप परेशान हैं। लेकिन मैं इसे निष्कर्ष की तरह थोपना नहीं चाहता।“
“नरेश तिवारी?” प्रफुल्लनाथ ने सवालिया दृष्टि से देखा।
“जी। मुझे खुशी है आज पहली बार किसी भारतीय साहित्य समारोह में ‘मम्मट’ पर चर्चा होने जा रही है, वरना सौन्दर्य और साहित्य का सारा ठेका पाश्चात्य विमर्श ने ले रखा है। अपने अतीत को अनदेखा करना और घृणा करना ही हमारी नीति रही है।“
प्रफुल्लनाथ ने नरेश तिवारी को एक चिट्ठी पकड़ाई। नरेश तिवारी ने पढ़ना शुरू किया –
प्रिय प्रफुल्लनाथ,
आपकी भयानक रस में डूबी कविता ने मुझ पर ऐसा असर किया है कि मैं सोते से जाग गया हूँ। ‘सजनी मैडम’ से मेरी तरफ से माफी माँग लीजिएगा। आपके कार्यक्रम में अब सम्मिलित होना मेरे वश में नहीं है। संभवत: अब आपसे फिर कभी मुलाकात न होगी।
आपका मित्र,
भूतनाथ
पुनश्च : – मुझे नहीं पता था कि आपने चेहरा ही नहीं, ‘एडगर एलन पो’ का नाम भी आहार्य की तरह धारण कर लिया है।
नरेश तिवारी ने प्रफुल्लनाथ से पूछा, “यह भूतनाथ कौन हैं? और यह समस्या कैसी है?”
प्रफुल्लनाथ ने परेशानी साझा करते हुए बताया -“हमारे मित्र भूतनाथ स्वनामधन्य आलोचक हैं। सजनी मैडम के साथ उनका ‘मम्मट का काव्य-प्रकाश और आज की कविता’ विषय पर कुछ ही देर में चर्चा आयोजित है। अब भूतनाथ लापता हो गए हैं। क्या करूँ? अभी प्रायोजकों को क्या मुँह दिखाऊँ?” प्रफुल्लनाथ ने चिन्तित स्वर में कहा।
“भूतनाथ क्यों गायब हो गए?” नरेश तिवारी ने उत्सुकता व्यक्त की।
“इसके पीछे लम्बी कहानी है। मुझे लगता था कि मुझे प्रफुल्लनाथ से ‘एडगर एलन पो’ की तरह बदलने में उनका हाथ है। इसके बदले मैंने कल रात होटल में बिजली गुल करवा के छोटा सा मजाक करना चाहा था कि वे डर कर गायब ही हो गए। अब लेने के देने पड़ गए हैं।“ प्रफुल्लनाथ ने रहस्य खोला।
“अरे, इसमें परेशानी की क्या बात है?” नरेश तिवारी ने रास्ता सुझाया, “मैं ही भूतनाथ बन कर सजनी मैडम से वार्तालाप कर लेता हूँ। भूतनाथ है ही कौन? उसे जानता ही कौन है? कौन-सा उसकी शकल ‘एडगर एलन पो’ से मिलती है कि वह एकदम से पहचान लिया जाए?”
नरेश तिवारी की यह युक्तिसंगत बात प्रफुल्लनाथ को पसन्द आयी। उन्होंने इस सत्य को जाना कि पहचान का उपक्रम ही व्यर्थ और मूर्खतापूर्ण है। भले ही सैद्धान्तिक रूप से ‘एडगर एलन पो’ के हुलिए से ‘प्रफुल्लनाथ’ को पहचानना गलत है। भूतनाथ को भी उसकी शकल से पहचानना बेवकूफाना बात है। रही बात ‘मम्मट के काव्य-प्रकाश की’, वह तो सजनी को भी क्या पता जो वह कुछ प्रतिवाद कर सकेगी?
दार्जिलिंग साहित्य समारोह के उपरान्त मीनू कटार के किए गए फ्रांसिसी अनुवाद ने चित्रा बेन्द्रे की हिन्दी कविताओं को वैश्विक ख्याति दिलायी, तब जाकर हिन्दी साहित्य में कन्नड़ मूल की कवयित्री चित्रा बेन्द्रे की प्रतिष्ठा हुयी। तब जाकर ही पाठकों ने उन्हीं शब्दों को दुबारा पढ़ कर उनमें प्राण फूँके। प्रफुल्लनाथ ने ‘एडगर एलन पो’ की तर्ज पर गद्य लिखना चालू रखा और इस तरह उनके ही माध्यम से पद्य पर गद्य की सुप्रतीक्षित विजय हुयी।
समकालीन साहित्य में गद्य की पद्य पर विजय के संदर्भ में सामाजिक मीडिया में बहुत वाद-विवाद हुआ जिसका उत्तर भूतनाथ मौन रह कर दे रहे थे। हालांकि माघ के महीने में एक वेब पत्रिका पर उन्होंने मम्मट के ‘काव्य प्रकाश’ के हवाले से गद्य और पद्य के आपसी ताने-बाने पर एक सुविचारित लेख लिखा। किन्तु फागुन में होने वाले विश्व पुस्तक मेला के नए संस्करण आते-आते सामाजिक मीडिया पर यह विवाद का विषय हो गया कि इसका लेखक गायब ‘भूतनाथ’ ही था या ‘नरेश तिवारी’? चूँकि वह लेख पढ़ने में कठिन था अत: उसे ‘नई वाली हिन्दी’ के कर्णधारों ने उसे ‘असाध्य वीणा’ मान कर इस अर्थों में ‘अज्ञेय’ समझा कि ज्ञान का विषय होने के उपरान्त भी इसे जानने और पूरी तरह समझने के साधन अपर्याप्त हैं, अत: समसामायिक चलन के मुताबिक अनदेखा कर दिया गया। शेष मूर्धन्य आलोचक नवोदित लेखिकाओं के साथ कुएँ की जगत पर इस आस में मटकी फोड़ने में व्यस्त हो गए कि कभी उन्हें भी हिन्दी का प्रतिनिधित्व करने देश विदेश घूमने और धाक जमाने का मौका मिलेगा। इसलिए इसके साथ ही भूतनाथ और ‘एडगर एलन पो’ का किस्सा भी जमाने भर की गप और नई किस्से कहानियों में ‘एडगर एलन पो’ की भुतिया किस्सों की तरह नए उजालों में कहीं खो गया।
वैसे भी दुनिया-जहाँ में इतने किस्से हैं, ‘किस्सा एडगर एलन पो’ में रखा ही क्या है?
इति श्री
जनवरी २०, २०२३
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अद्भुत तरलता से लिखा गया श्वेत पत्र सरीखा शोध पत्र! बहुत धैर्य एवं समझ से पढ़ने योग्य व्यंग्य,! और स्पष्ट कहूं तो शोध परक व्यंग्य।
इतना विशाल एवं विस्तृत पढ़ाए रखने तथा मजबूर करने की बधाई!