आज पढ़िए सौरभ मिश्र की कुछ कविताएँ। इन कविताओं का फ़लक बहुत विस्तृत है। ‘दिल्ली की हत्या’ पढ़ते हुए कमलेश्वर की ‘दिल्ली में एक मौत’ तुरंत याद आ जाती है। आगे की कविताओं में कवि का कविता प्रेम भी है, प्रेम और संभोग के अंतरसंबंध के सवाल भी हैं, मनुष्य के आपसी सहज संबंध की इच्छा भी है और मानवीय स्वभाव की जटिलताएँ भी हैं। इससे पहले सौरभ की कविताएँ अमर उजाला, हिन्दीनामा, हिन्दवी और वागर्थ पर प्रकाशित हैं। जानकीपुल पर उनका प्रथम प्रकाशन अब आपके समक्ष है।
=========================
1. दिल्ली की हत्या
बहुत साल बीते इस शहर में
जिसे दिल्ली कहते हैं
याद नहीं कब खुल के हँसा था
इस शहर की हुकूमत ही नहीं बदलती
इस शहर के दिल भी बदलते हैं
दिल्ली में देह ज़रूर रहते हैं
बस दिल नहीं रहता
जगहें रहती हैं
सराय है ये
चाय और सिगरेट पीने वालों का
नशे में धुत सड़क पे पड़े लोगों का
दफ्तर के बॉस से लेकर हुकूमत तक को गरियाने का
बीवी और प्रेमिकाएं भी
इसकी भेंट चढ़ती हैं
गालियों में चली आती हैं
ज़िन्दगी में नहीं आती
मोहब्बत करने की
मोहब्बत से बिछड़ने की
मोहब्बत में टूटने की
एक सज़ा ये भी है–
गालियों की जगह मोहब्बत अश्लील हो जाती है
दिल्ली तुझे मोहब्बत की अश्लीलता ने मारा डाला
तेरी हत्या हुई और तू ही हत्यारी भी कहलाई।
2. सुख
मैं न शत्रुओं में रहा
न मित्रों में
मैं अक्सर कविता में रहा
जिसने मुझे देर तक सुना
अनवरत साथ निभाया
एक मनुष्य के लिए
इससे बड़ा सुख क्या है?
कि उसे देर तक सुना जाए
उसके साथ रहा जाए
अनवरत!
3. रात गई बात गई
देह प्रेम
प्रेम देह
उकता जाता है प्रेम
तन जाती है भृकुटी
मांसल जकड़ लेता है देह
स्त्री-पुरुष नग्न हो जाते हैं
गुत्थम गुत्था हो जाती है
जिस्म की तनी हुई ऊर्जा
लज्जा, पाप-मोह, मोक्ष
सब प्रेम का धोखा सहते हैं
देह महज़ देह रह जाती है
प्रेम रसखलित हो जाता है
देह प्रेम
प्रेम देह
कुछ नहीं बचता है
बिस्तर सिलवटों से सन जाती है
भोर दो अलग-अलग देहों को
दो अलग-अलग गंतव्य तक छोड़ देती है
चरितार्थ करते हुए
रात गई बात गई।
4. प्रेम बचा रहे
कभी-कभी कोई पूछ ले
कि कैसे हो?
इतना भर प्रेम बचा रहे
कभी-कभी कोई कह दे
तुम्हें याद किया
इतना भर प्रेम बचा रहे
किसी का बोलना
किसी को न अखरे
इतना भर प्रेम बचा रहे
नाराज़ होने का हक हो
न कहने की जगह हो
दो पल साथ बैठने का सुख हो
जी भर प्रकृति को निहारने का वक्त हो
इतना भर प्रेम बचा रहे।
5. दुःख की विडंबना
दुःख शांति का प्रतीक है
प्रदर्शनी का औज़ार नहीं
दुःख खुद के भीतर डुबकी है
किसी को आकृष्ट करने का मंत्र नहीं
दुःख स्थिर चित की ओर अग्रसर करता है
किसी की पनाह मांगने का आवाहन नहीं
बुद्ध का दुःख जैसे साधना का मार्ग था
दुःख वैराग्य उतपन्न करता है
जैसे महावीर के अंतः करन में किया था
दुःख दुनिया में रहकर भी
दुनिया को बाहर से देखने कि दृष्टि देता है
दुःख महिमाण्डन नहीं करता
दुःख तोड़ देता सारे किलों को
ढाह देता है मंदिर-मस्जिद के दोगले पन को
दुःख को समझो
दुःख भी समझा जाना चाहता है
एकांत में तुम्हें खुद से मिलाना चाहता है
आह! ये विडम्बना है दुःख कि
महज़ सहानुभूति का पात्र बन जाना।
6. अकर्मण्य
कितना कुछ हो जाता है
जाने अनजाने हम से
कितना बोझ उठा रखा है
जाने अनजाने हम ने
कितनी देर लग जाती है
सही करने में
एक टूटी हुई
पुराने फ्रेम की काँच
उतरी हुई किताब की जिल्द
आँगन में रखी चारपाई
टूटी हुई साइकिल की चेन
पुराने रिश्ते की डोरी
बोझ में इज़ाफ़ा करता है
टूटी हुई चीज़ों का इंतज़ार
मनुष्य इसी से अकर्मण्य हो जाता है।
7. सांवला रंग
त्वचा रंग बेरंग सा
कालिख लगा चाँद
चुभता शूल सा
हृदय रोग विशाल
तानों की भट्टी में
जलता ये अनगिनत बार
स्त्री पर कालिख सा
बनाता घृणा का पात्र
वहीं पुरुष कृष्ण कहलाए
बने पूजा के पात्र
बहुत से विरोधाभास हैं
इसके भी चारों ओर
इसमें भी बस इतना ही फर्क है
जितना एड़ी-चोटी का स्थान।