मनोहर श्याम जोशी की जयंती आने वाली है और कल उनकी स्मृति में व्याख्यानमाला का आयोजन किया जा रहा है। इस अवसर पर पढ़िए युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीर का लेख-
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ओटीटी और उन पर छायी वेबसीरीज के दौर मेँ अक्सर यह ख़्याल आता है कि यदि ‘मनोहर श्याम जोशी’ आज जीवित होते तो क्या सफल होते? हमने देखा कि किस तरह एक ख्यातिप्राप्त लेखक-कवि ने ‘आदिपुरुष’ फिल्म के लिए निम्न कोटि के संवाद लिखे और ‘पोन्नियन सेल्वन’ जैसे महत्त्वपूर्ण उपन्यास पर बनी फिल्म के हिन्दी संस्करण के संवाद दोयम व दयनीय निकले। सवाल यह उठता है कि क्या हिन्दीभाषियोँ का आस्वाद सड़ चुका है या हिन्दी लेखकोँ मेँ वह सामर्थ्य नहीँ रहा।
मनोहर श्याम जोशी के लेखन को देख कर यही लगता है कि दूसरा विकल्प हमारे समय के लिए समीचीन है। इसके लिए हम ‘पञ्चायत’, ‘मिर्जापुर’ आदि वेबसीरीज को देख लेँ और फिर ‘हमलोग’, ‘बुनियाद’ और ‘मुङ्गेरीलाल के हसीन सपने’ से उनकी तुलना कर लेँ। यह बात और है कि समय बेहद बदल चुका है। फिर भी तुलना करने के लिए हमारे उपकरण विषयोँ के अतिरिक्त, भाषाई पकड़, पात्रोँ के चरित्र का उद्घाटन, सम्मानजनक लोकसिद्धि आदि होने चाहिए।
जोशी जी के लेखन मेँ जो मुख्य सूत्र पकड़ मेँ आता है वह है भारतीयता का अविच्छिन्न परिवेश। वह भारतीयता अस्सी के दशक की मध्यमवर्गीय निरीहता से नहीँ समझी जानी चाहिए, क्योँकि वह पारिवारिक सम्बन्धोँ मेँ श्रेष्ठ रूप से व्याख्यायित होती है। बेट्राण्ड रसेल ने पूर्वी एशिया के प्राचीन सभ्यताओँ (चीन और भारत) की पश्चिमी सभ्यता से तुलना करते हुए यह स्पष्ट किया था कि इन प्राचीन सभ्यताओँ की विशेषता पारिवारिक सम्बन्धोँ मेँ अतिशय निष्ठा है। हमेँ याद करना चाहिए कि मदर टेरेसा ने नोबेल पुरस्कार स्वीकार करते हुए विश्व शान्ति का महत्त्वपूर्ण सूत्र यह कहा था कि हम सभी को अपने परिवार से प्रेम की शुरुआत करनी चाहिए – हो सकता है वहाँ कोई प्यार का भूखा या अनचाहा हो। परिवार मेँ सबके प्रति स्नेह भारतीय समाज की झट से पहचान ली जाने वाली विशेषता है, जो विदेशोँ मेँ कुछ समय रहने के बाद समझ आती है। हमारे आख्यान भी इसी निष्ठा के आक्षेप के इर्द-गिर्द आते हैँ जैसे कि रामायण मेँ कैकेयी का राम के प्रति वनवास का आदेश, रावण के पतन का कारण विभीषण का बनना; महाभारत मेँ भाइयोँ के बीच की लड़ाई। जोशी जी ने यह सूत्र बहुत गहरे से थामे रखा जो कि उनकी सफल टीवी सीरियलोँ मेँ दीखता है। समस्या यह होती है कि परिवार किसे समझा जा रहा है, क्या यह पति-पत्नी और सन्तान तक सीमित है या यह भाई-बहन से लेकर समाज मेँ दूर तक जा रहा है?
बहुत से पाठक किताब खरीदने की अपेक्षा, इंटरनेट पर रचनाएँ पढ़ना चाहते हैं। जो उनकी सूक्ष्म दृष्टि से अपरिचित हैँ और वे भी जिन्होँने यह कहानी नहीँ पढ़ी है, वे एनसीईआरटी की बारहवीँ कक्षा के हिन्दी के पाठ्यक्रम मेँ मनोहर श्याम जोशी की कहानी ‘सिल्वर वैडिंग’ को पढ़ सकते हैँ। (लिंक – https://www.hindwi.org/story/silwer-weding-manohar-shyam-joshi-story)। कहानी को पढ़ कर कह सकते हैँ कि अंग्रेजी शब्दोँ का प्रयोग कुछ खड़ूस लोग को ‘समहाउ इम्प्रॉपर’ लग सकता है। बहरहाल, इस कहानी के भाषाई प्रयोग को देखेँ, वह किस तरह समकाल को पकड़ते हुए असंतोष को सामने लाकर रख देते हैँ।
यदि कभी ‘कुरु कुरु स्वाहा’ पढ़ने का मौका मिले तो हम देख सकते हैँ कि जोशी जी कई भारतीय भाषाओँ का हिन्दी मेँ समावेश करते थे, वह भी इस तरह कि पाठकोँ को कुछ अखरता नहीँ था। उनके लघु उपन्यास ‘हमज़ाद’ मेँ उनकी उर्दू पर पकड़ देखते बनती है। हालाँकि यह पुस्तक उर्दू मेँ होती तो सम्भवतया अधिक आदर पाती। जैसा कि मनोहर श्याम जोशी अपने अन्तिम साक्षात्कार मेँ ‘हमज़ाद’ के सन्दर्भ मेँ कहते हैँ कि पण्डित विद्यानिवास मिश्र का मानना था कि यह हिन्दीभाषी समाज की मानसिकता से मेल नहीँ खाता।
(http://gadyakosh.org/gk/%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%B9%E0%A4%B0_%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AE_%E0%A4%9C%E0%A5%8B%E0%A4%B6%E0%A5%80_%E0%A4%95%E0%A4%BE_%E0%A4%85%E0%A4%82%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AE_%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%95%E0%A4%BE%E0%A4%B0 )
इसी साक्षात्कार मेँ जोशी जी की अन्तिम पङ्कतियाँ बहुत महत्त्वपूर्ण लगती हैँ – “मैँ हिन्दी मेँ कुछ भी लिख दूँगा तो मुझे खास मिलना नहीँ है – न बड़ा पाठक वर्ग न पैसा। मुझे हिन्दी की सीमा का पता है।“
हिन्दी की सीमा का अर्थ अपने आप मेँ बहुत जटिल है। दरअसल इसका सूत्र उनकी कहानी ‘सिल्वर वैडिंग’ मेँ बड़ी अच्छी तरह से उभर कर आती है जहाँ नायक को यह बात चुभती है कि ‘जो बेटा यह कह रहा है कि आप सवेरे ड्रेसिंग गाउन पहनकर दूध लाने जाया करेँ, वह यह नहीँ कर रहा है कि दूध मैँ ला दिया करूँगा।’ यह सीमा है दरअसल हिन्दीभाषियोँ की कृतघ्नता। वह इस तरह कि है गाँव से उठ कर शहर मेँ मकान बना लेना, शहर से उठ कर प्रदेश की राजधानी मेँ बस जाना, फिर उसके बाद ‘हौज़ख़ास, ग्रीन पार्क, कैलाश कॉलोनी कहीं-न-कहीं ज़मीन लेना और मकान बनवा लेना’’, तदुपरान्त अमरीका मेँ या योरोप मेँ बस वहाँ की कानून-व्यवस्था, आराम के कसीदे पढ़ना और रोना कि काश भारत मेँ भी यह सब होता, इस तरह की प्रगतिशीलता जिसमेँ छूट जाने वालोँ के लिए सुई नोँक भर भी जगह हमारी चेतना मेँ नहीँ है। हिन्दी पढ़े-लिखे हिन्दीभाषियोँ की छूट गयी भाषा है जो उन्होँने दसवीँ तक पढ़ी थी या उनके माँ-बाप पढ़ते लिखते थे।
‘हमज़ाद’ मेँ सवाल यह नहीँ है कि कहानी सुनाने वाले के साथ उसका हमज़ाद भी पैदा हुआ और ताउम्र हर तरह से शोषण करता रहा, बल्कि यह है कि हिन्दीभाषी समाज मेँ लोग अपनी कमीनेपन को अपने साथ-साथ ढोते रहते हैँ और अपने गिरेबान मेँ कभी नहीँ झाँकते। यह कायरता इतनी हावी है कि उसका विलाप किया जाता है पर इतनी भर भी शक्ति शेष नहीँ है कि खड़े हो कर कमजोरियोँ या मजबूरियोँ की कलाई मरोड़ी जा सके। हमारी कायरता का सबूत हमारे हिन्दी साहित्य मेँ नुमाया होती है जिसकी समकालीन ऊँचाई भी दूसरे-तीसरे दर्जे की है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है कि क्योँकि हम देख सकते हैँ कि हमारे साहित्य का मूल स्वर ‘शोषण-शोषक’, ‘पीड़ित-पीड़क’ है और उसका हल बहुधा राजनैतिक है। हमने साहित्य मेँ से ‘चरित्र निर्माण’ और आधुनिक राजनीति मेँ से ‘समाज सुधार’ दोनोँ ही बहिष्कृत कर दिया है। यदि चरित्र निर्माण सूक्तियोँ से या आदेशोँ से या विधि से हो जाता फिर साहित्य मेँ उसकी प्रासङ्गिकता हमेशा के लिए नष्ट हो चुकी होती।
सच्चाई यह है कि हिन्दी साहित्य का पाठकोँ से बड़ी सङ्ख्या मेँ जुड़ाव बरसोँ पहले कम हो चुका है। समय के बदलाव के साथ जोशी जी ने टीवी सीरियलोँ को अपनाया और वहाँ साहित्य का सुवास बनाए रखा। अपनी मेधा के बलबूते पर वह बड़े जनमानस का ध्यान खीँचने और बनाए रखने मेँ सफल रहे। थोड़े सङ्कोच के साथ यह कहा जा सकता है कि जोशी जी के साहित्यिक अवदान के केन्द्र मेँ व्यक्ति की व्यक्तिपरकता और उसके परिवेश की समस्याएँ थीँ। यह व्यक्तिपरकता, व्यक्ति के सामाजिक आधार से कटी नहीँ थीँ (जैसा कि ‘क्याप’ और ‘कसप’ मेँ देखा जा सकता)। यह ध्यान देना चाहिए कि किसी भी तरह का सामाजिक दृष्टिकोण उस चरित्र पर हावी हो कर किसी राजनैतिक आख्यान का अधिप्रचार नहीँ बनता इसलिए सत्य के समीप प्रतीत होता है। यह सत्यपरकता ही साहित्यकार को विश्वसनीय और प्रिय बनाती है।
आशा है नई पीढ़ी के आलोचक जब राजनैतिक अधिप्रचार से मुक्त हो एक व्यक्ति के अनुसन्धान में मानवता को ढूँढने का सत्यपरक प्रयास करेँगे, तब वह आनन्द के मूल्योँ को पुनर्स्थापित करते हुए जोशी जी को हिन्दी साहित्य मेँ वह आदर देँगे जिसके वे अधिकारी थे।