विद्यार्थी कवि निर्वाण योगऋत की कविताएँ

    हिंदी कविता की विविधता भाषा में भी दिखाई देती है। बिहार के भोजपुर अंचल के कवि निर्वाण योगऋत की इन कविताओं की भाषा ने भी प्रभावित किया। आजकल ऐसी क्लासिकल हिंदी कौन लिखता है? अच्छा लगता है जब कोई युवा इस भाषा में लिखता है-
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    1
    शिवरंजनी
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    हे शिव!
    अर्पित है तुमको
    हृदय का चीत्कार!
     
    कोमल हृदय
    सहा जिसने
    नेह से जन्मे
    पाषाण का वज्रपात!
    हे आशुतोष!
    लहूलुहान हृदय का
    भोग-लगाओगे न तुम?
     
    मेरे जूठे भावों का
    जो बचा है उसके
    नकार के बाद।
     
    तड़पते मन का
    कोमल गंधार!
    प्रेम का परित्यक्त
    संसार! असह्य वेदना
    से घायल मन! दु:ख
    से तार-तार तन!
     
    अर्पित है तुमको
    कर लो स्वीकार
    हे शिव! भावनाओं
    की शिवरंजनी!
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    २–
    देह-यात्रा
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    उंघता था चांद तब
    अपनी प्रिय रोहिणी
    के गोद में!
     
    चांद के प्रेमक्रीणा
    का प्रभाव धरती पर
    भी हुआ और मेघवन की
    परिणीता उस सांझ हुई
    प्रथम बार हुई रजस्वला!
     
    माता को विवाह की चिंता
    हुई और पिता ने अलग घड़े
    में जल भरकर लाया।
    शरीर की पीड़ा पर दु:ख
    जताती मा फेंक आई कई
    खून से सने सफेद कपड़े
    अपनी कुटी के बाहर!
     
    अगली सुबह कृष्ण के
    भोग के जूठे बर्तन वो
    वो नहीं मांज सकती थी
    आरती का थाल। स्पर्श भी
    न होने पाए उससे पिता ने
    सख़्त हिदायत दी थी मा को।
     
    उस दिन भात मिला अलग
    थाली में उसे, जिसे देखकर
    वमन कर दिया उसने। पीठ
    और कमर-दर्द में ऐंठती वो
    समझ नहीं सकी करतूत
    अपने मासिक-धर्म का!
     
    देह का रक्त, देह से बाहर
    जाकर देह को कैसी कर
    देती है अशुद्ध ?
    इस मानसिक उद्वेग में
    जरूरत थी उसे प्रेम की
    भावनाओं के कोमल-
    बरसात की! पर मिली
    घृणा और परित्यक्तता।
     
    उसके मन की तरंगे
    जमकर चढ़ चुकी थी
    उसके आत्मा पर!
    परिणीता अब बच्ची नहीं
    एक अशुद्ध नारी हो चुकी थी।
     
    चांद अब मृगशिरा की
    तरफ जा चुका था।
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    ३–
     
    बसंत
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    बसंत!
     
    कांपते अहसासों की
    गर्माहट है
    प्रियतम के धीमे कदमो
    की आहट है
    बसंत!
     
    नए आलता का बोतल है
    प्रेयसी का मधुमय आंचल है
    बसंत!
     
    वृक्षों का शृंगार काल है
    पक्षियों का नया साल है
    बसंत!
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    ४—
     
    आर्यबाला के लिए प्रतीक्षा
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    उस पागलखाने के मुख्य द्वार पर
    मैं बैठा रहता हूं घंटों-
    पाषाण गौतमी की तरह
    और तुम्हारी राह
    तकता हूं-आर्यबाला!
     
    मुझे अटूट विश्वास है
    उषा के आगमन और
    संध्या के विसर्जन जैसे
    सनातन सत्यों की तरह-
    ये भी सत्य होगा कि
     
    तुम आओगी यहां
    और भर दोगी अपनी गंध-
    इस पागलखाने में!
     
    तुम पागल नहीं हो आर्यबाला!
     
    हां तुम पागल नहीं हो
    पर इन हजारों पागलों की ज्वाला-
    उन्माद के वैदिक विसर्जन
    के लिए आओगी ही तुम-
     
    रूद्र की जटा से शीतलता लिए
    अपने नारी-अतीत की रक्षा के लिए
    फिर क्या होगा आर्यबाला?
     
    क्या फिर तुम्हें ही नोच खाएंगे
    तुम्हारी कोख से जन्मे कौए?
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    ५–
     
    अंतिम याद
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    मुझे याद है अंतिम मिलन
    अंतिम रात
    अंतिम बात
    याद है अंतिम चुम्बन का स्वाद!
     
    याद है तुम्हारे हथेलियों
    की अंतिम गर्माहट और
    अधिकार की अंतिम
    जकड़न!
     
    याद हैं अंतिम आंसू
    बहते तुम्हारे गालों पर,
    याद है विदाई की बड़ी ‘ई’!
     
    याद है प्रेम का अंतिम उपहार
    बस जो याद नहीं वो
    वो अंतिम ‘तुम’ हो।
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