यौन हिंसा पर आधारित यह कहानी लिखी है सुपरिचित लेखिका पल्लवी विनोद ने । पल्लवी लखनऊ में रहती हैं। आप भी पढ़ सकते हैं – अनुरंजनी
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दृश्य
ज़मीन पर गिरा हुआ आदमी मर चुका है। मरते समय उसने मारने वाले को जिस भाव से देखा होगा वो भाव अभी भी उसके चेहरे पर मौजूद है। घर में सामान बिखरा हुआ है। सामने मेज़ पर टी.वी. रखी है जिसके साथ सी.डी. प्लेयर भी रखा है। कमरे से एक दरवाज़ा घर के पीछे खुलने वाले आँगन में खुलता है और दूसरा दरवाज़ा बाहर के बरामदे की तरफ़। खून के धब्बे पलंग पर भी पड़े हुए हैं और ज़मीन पर भी। हल्के बादामी रंग की चादर पर कुछ और भी धब्बे दिख रहे हैं।
दूसरे कमरे में दो लड़कियाँ हैं जिसमें से एक ने साड़ी पहनी है दूसरे ने फ्रॉक जैसा कुछ। उसके नीचे पैज़ामा भी है। दोनों की आँखें आंसुओं से भरी हुई हैं आँसू गाल से लुढ़क कर उनके कपड़ों पर गिर रहे हैं जहाँ-जहाँ आँसू गिरे वहाँ-वहाँ कपड़े का रंग लाल हो गया है। ये भी कह सकते हैं कि कपड़ों पर लाल धब्बे पहले से पड़े थे। घर में उन दो लड़कियों के अलावा दो और बच्चे हैं। जिनमें से छोटा पिता की मृत्यु से बेख़बर सो रहा है और बड़ा घबराया हुआ पुलिस वालों के सवालों के जवाब दे रहा है।
“जब ये सब हुआ तुम कहाँ थे?”
“सुतल रहें”
“कहाँ?”
“अपना कमरा में”
“और कौन-कौन था तुम्हारे कमरे में?”
“जीजी और छुटकन रहले”
“कोई आवाज आई थी?”
“ना जब हमार नींद खुलल माँ अउर जीजी चीख़त रहलीं”
“फिर क्या हुआ?”
“फिर…फिर हम पापा के कमरा में गईनी। बाबू के खून गिरल रहे और बाबू …”
ये कह कर लड़का अपना आँसू पोंछने लगा।
ये दृश्य थे जो उस घर में दिख रहे थे। जिसके अनुसार घर के मालिक की हत्या घर में आए किसी अनजान व्यक्ति ने की थी। घर में फैले समान और खुली आलमारी बता रही थी कि हत्या का मक़सद चोरी रहा होगा। पर दृश्य का क्या दृश्य तो बनाए भी जाते हैं। आप किसी शहर की ड्रोन से ली हुई तस्वीरों से उस शहर की सुंदरता पर मोहित होते समय कहाँ देख पाते हैं उसके हॉस्पिटल से शमशानों तक जाने वाले रास्ते का सफ़र। पिछली रात सोशल मीडिया पर हंसती हुई तस्वीर डालने वाले लड़के ने आज अपने घर की बालकनी से छलांग लगा दी। इस बात को सुनने वाले, लड़के को जानने वाले हैरान हैं। मानने को तैयार नहीं कि लड़के ने जो दृश्य रचा था वो नक़ली था।
माहौल में बिखरा सन्नाटा पुलिस वालों की आवाज़ से टूट रहा था। सवालों की पोटली लिए तैयार पुलिस उस औरत के संयत होने की प्रतीक्षा में थी जिसे उस आदमी की बीवी बताने पर पूरे दृश्य में हलचल मची हुई थी। आदमी की बीवी के साथ बैठी दूसरी लड़की ने फ्रॉक पहनी थी वो मरने वाले की बेटी थी। पोटली खुलते ही सवाल उछलने लगे। वो इतना उछल रहे थे कि साड़ी वाली लड़की को चोट लग सकती थी। पुलिस अब मित्र पुलिस की भूमिका में दिखना चाहती है इसलिए सवालों को सँभालते हुए निकाला।
“जब ये सब हुआ तब तुम कहाँ थीं?”
पहले सन्नाटे की आवाज़ आयी उसके थोड़ी देर बाद लड़की की,
“वहीं थे”
“वहीं! वहीं कहाँ?”
“ उसी कमरा में”
“कितने लोग थे?”
“दो”
“किधर से आए थे”
“बाहर से”
“ बाहर से तो सब आते हैं। वो अंदर कैसे आए? और दरवाज़ा किसने खोला? तुमने?”
ये सवाल इतनी तेज़ी से आए कि साड़ी वाली लड़की सकपका गई।
“पीछे आँगन की ओर से आए थे। दरवाज़ा खुले ही रखा था। रात को ठंडी हवा आती थी इसीलिए खोल दिए थे।”
पुलिस वाले ने आँगन की तरफ़ देखते हुए कहा,
“और सामान क्या चोरी हुआ है?”
“हमारी सादी का गहना था”
“क्या-क्या?”
“पता नहीं। अभी याद नहीं आ रहा।”
उसके बाद उसने अपना सिर घुटनों में घुसा लिया। लगा कि वो सुबक रही है। पास बैठी लड़की उसे चुप कराने लगी।
“उन्हें पहचान पाओगी?”
…………
“बताओ?”
“मुँह बांधे थे दूनो पर सामने पड़ने पर पहचान लेंगे।”
“अच्छा! उन्होंने तुम्हारे साथ कुछ नहीं किया?”
साड़ी वाली लड़की ने आँख उठाकर उस पुलिस वाले की तरफ़ देखा,फिर से वही चुप्पी पसर गई।”
बग़ल में बैठी लड़की बोली, “माँ घबरा गयीं थीं। वो पीछे हट गई थीं। पापा उन्हें रोक रहे थे तभी तो पापा को मार दिया।”
अब सवालों की दिशा उसकी तरफ़ मुड़ गई।
“नाम क्या है तुम्हारा?”
“बिट्टी…..”
“स्कूल जाती हो?”
“पहले जाते थे”
“क्यों नहीं जाती?”
बिट्टी ने कुछ नहीं कहा। फिर दूसरे पुलिस वाले ने इस प्रश्न को असंगत जान पूछा-
“जब ये सब हो रहा था,तुम कहाँ थी?”
“अपने कमरे में सो रहे थे। पहले लगा कि हम सपना देख रहे हैं फिर माँ की आवाज़ आई और हमारी नींद खुल गई। जब हम कमरे आए तब पापा ज़मीन पर गिरे हुए थे। सब जगह खून…..”
फिर सन्नाटा फैलने लगा। उस दृश्य में मौजूद कुछ लोग माँ-बेटी को रोते देख पसीज रहे थे तो कुछ यही नहीं समझ पा रहे थे कि एक जैसी दिखने वाली दो लड़कियाँ माँ-बेटी कैसे हो सकती हैं?
वहाँ बहुत सी आलमारियाँ और बक्से थे। कुछ खुले हुए तो कुछ में ताले लगे हुए थे। खुली आलमारियों से पता चला कि साड़ी वाली लड़की मृतक की दूसरी पत्नी थी जो उसकी बेटी से तीन-चार साल ही बड़ी थी। पहली पत्नी अपने तीसरे बच्चे के जन्म के कुछ महीने बाद ही मर गई थी। बच्चे का जन्म अपने ननिहाल में हुआ था और उसकी माँ की मृत्यु पिता के पास आने के कुछ दिन बाद ही हो गई थी।
आलमारियों के बाद बक्से खोले गए। बच्चों की पहली माँ बहुत बीमार रहती थी। तीनों बच्चे मायके में हुए थे। पहली बेटी के होने के बाद वो कुछ साल तक यहाँ आई ही नहीं थी। कारण उसका बीमार रहना था पर बीमारी का कारण और नाम पता नहीं चल सका। लोग कहते थे, उसके देह में सीलन लग गई थी इसीलिए तीसरा बच्चा होने के बाद वो भरभरा कर गिर गई। उसकी मौत के बाद मायके वालों ने उसकी बारह साल की बेटी को बच्चा पालना सिखा कर साल भर में उन तीनों को पिता के पास भेज दिया। बच्चों को नयी माँ चाहिए थी का बहाना बना कर पिता के लिए नयी बीवी तलाशी गई। नयी बीवी फिर एक गरीब बाप की बेटी थी। उसके पिता को ससुराल में अन्न से भरे गोदाम दिखे और यही उसकी सोलह साल की बेटी के लिए ज़्यादा ज़रूरी थे।
पुलिस सभी आलमारियों और बक्सों को बंद करके चली गई। साक्ष्यनुमा सामान अपने साथ ले गई। घर पर बच गया भाँय-भाँय करता सन्नाटा और वो चारों।
लड़की जो मरने वाली की पत्नी थी, अब बस तीन बच्चों की माँ थी। पुलिस की सोच के अनुसार म के आगे अगर आ की मात्रा लगा दी जाए तो वो मारने वाले की कुछ हो सकती थी। मरने वाले की पत्नी के रूप में ही उसे देखना मुश्किल था तो तीन बच्चों की माँ वो कैसे हो सकती थी। पर दृश्य यही कह रहे थे। पति के जाने के बाद होने वाली रस्मों से थोड़ा भी ना घबराने वाली लड़की छुटकन के तेज बुख़ार से घबरा गई थी। उसे अपनी गोद में चिपकाए जाने क्या बुदबुदा रही थी। किसी ने ध्यान से सुना, “माँ कहीं नहीं जाएगी।” इस वाक्य को लगातार दोहरा रही थी जैसे संत्रास का मरीज़ लगातार बड़बड़ा रहा हो। बिट्टी ने उसे तेज से पकड़ लिया। लड़का पानी लेकर आया और माँ को पिलाने लगा।
पुलिस की आवाजाही लगातार चल रही थी। कुछ और बक्से खुले तो माँ बन गई लड़की के भी अतीत की तहें खुलीं।
वह एक निम्न वर्गीय परिवार की लड़की थी जिससे छोटे चार भाई-बहन थे। सबसे छोटा अभी माँ की गोद में था। पैसे की तंगी के चलते लड़कियों की पढ़ाई-लिखाई रुक गई थी। लड़की ने पढ़ाई पूरी करने के लिए कुछ घरों में काम करना शुरू कर दिया। पिता को लगा पैसा देख लड़की बिगड़ सकती है। एक बिगड़ी तो पीछे की तीनों बिगड़ जाएँगी। तभी उसे दीवार पर “बिन माँ के बच्चों के लिए माँ की ज़रूरत है” का इश्तिहार दिखा। हाँ इस तरह के रिश्ते ऐसे ही बनाए जाते हैं। असल में रिश्ता शब्द इन ज़रूरतों के लिए प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। तो एक बक्से में कुछ कपड़ों के साथ लड़की मरने वाले के घर आ गई।
पुलिस ने उस बक्से का एक-एक सामान टटोल कर देखा। बक्से के सबसे निचले हिस्से पर पुराना अख़बार बिछा था। उसे भी इस उम्मीद में बाहर निकाल कर झाड़ा गया कि कहीं कोई गुलाबी कागज या सूखा गुलाब मिल जाए। पर वो बस खबरों से भरा अख़बार था।
इन तहों को समेटने के बाद भी हत्या का मोटिव और हत्यारे पुलिस की पहुँच से बाहर थे। उन्हें माँ बनी लड़की का उन बच्चों से प्रेम दीख तो रहा था लेकिन इस बात से उस केस का कोई ताल्लुक़ नहीं था। लड़की को थोड़ा धमका कर पूछा गया। सवालों को छील कर थोड़ा पैना बना कर भी उस तक छोड़ा गया कि चुभ कर ही कोई आह निकले। बदले में बाद वही पुराने जवाब आए।
फिर ज़िले के कप्तान ने इस केस में एक नई महिला जाँच अधिकारी को भेजा। उस नई महिला अधिकारी ने सारे सबूतों और प्रमाणों को एक साथ देखना शुरू किया। वो जानती थी, खोई हुई चाभी ढूँढने के लिए उन रास्तों पर फिर से जाना होगा जहाँ-जहाँ चाभी गई थी। उन क्रियाओं को फिर से करना होगा जिन्हें करने के वो हाथ से छूट गई थी। वो चल पड़ी..
“तक़रीबन रात के तीन बजे क़स्बे के एक घर में दो बदमाश आते हैं। गहने और रुपये बचाने की कोशिश में पुरुष की हत्या हो गई जबकि महिला को उन्होंने छोड़ दिया। इतना शोर होने के बावजूद उन दोनों को आते-जाते किसी ने नहीं देखा। कमरे में मौजूद आलमारी खुली हुई थी। सामान बिखरा हुआ था। ख़ाली लॉकर भी खुला हुआ था। टी.वी. ऑफ़ थी लेकिन सी. डी. प्लेयर ऑन था।”
पुलिस सच का पता लगाने के लिए हर जगह हाथ-पैर मार रही थी।
पहला शक, बीवी का कोई आशिक़
दूसरा, ख़ुद बीवी
तीसरा, बीवी से जुड़ा कोई नया शख़्स
शक को साबित करते सबूत की तलाश में लड़की को जाँच अधिकारी के सामने लाया गया।
“देख लड़की जैसा तूने बताया था उस तरह के बदमाश इस क़स्बे में पूरे ज़िले में नहीं दिखे। अब सीधे-सीधे बता दे तूने उसे मारा कैसे?”
लड़की पहले तो चुप रही। फिर बोली, “हमारे पति को उन लोगों ने मार दिया। तीन बच्चे अनाथ हो गये और हम, हमारी तो ज़िंदगी ही बरबाद हो गई।”
“अबे! बातों को घुमा मत। सीधे-सीधे बता, क्यों मारा तूने उसे?”
“हमने नहीं मारा”
“देख लड़की, मैं जानती हूँ तुझे वो पसंद नहीं होगा। बीस साल बड़ा आदमी किसी भी औरत को अच्छा नहीं लगेगा। ऊपर से दूसरे के तीन-तीन बच्चों की ज़िम्मेदारी। तू उसे छोड़ भी सकती थी। मारा क्यों?”
जाँच अधिकारी लगातार उसके मुँह पर बदलते भाव को पढ़ रही थी।
लड़की ने तेज आवाज़ में कहा, “हमने नहीं मारा है उसे और वो हमारे बच्चे हैं। हम नहीं छोड़ेंगे उनको। हम उनकी माँ हैं। हम पालेंगे उनको।
फिर से उसकी आवाज़ में एक क़िस्म की सनक थी।
जाँच अधिकारी फिर बोलीं, “देख पता तो मैं लगा ही लूँगी। लेकिन अगर तू अपने मुँह से बता देती तो शायद मैं तेरी मदद करती।”
उस रात लड़की की आँखों में नींद नहीं थी। वैसे तो पिछले कई महीनों से वो अपनी रातें जाग कर ही काट रही थी लेकिन आज का डर अलग था। जाँच अधिकारी की बातों ने उसे बहुत डरा दिया था। जब तक बदमाश पकड़ में नहीं आएँगे तब तक वो लोग चैन से नहीं बैठेंगे। कुछ महीने पहले की ही तो बात है जब उसके हाथ में मेहंदी लगाई जा रही थी। माँ सामने बैठी रो रही थी। आस-पास की औरतें उसे समझा रही थीं, “जौना दिन लइकी जनले रहू ओही दिन से पता रहे कि एक दिन लइकी अपना घर जइहें। काहें रो रो के आपन जान दे तरु।”
वो भी कहाँ समझ पाई माँ के इतना रोने की वज़ह! वो तो ससुराल आने पर कोहबर में किसी ने उसकी गोद में बच्चा डालते हुए कहा, “ई संभार आपन लईका, अब से तू ही इनकर महतारी हऊ”।
पूरी रात ये सोच कर रोती रही कि वो सोलह साल में तीन बच्चों की माँ बन गई है। कैसे निभाएगी ये सब कुछ। अगले दिन पूजा पर बैठे-बैठे उसने संकल्प लिया कि अब जो ज़िम्मेदारी मिली है उसे तो पूरा करना ही होगा। बग़ल में बैठा आदमी पति की भूमिका में कहीं से भी फिट नहीं था लेकिन उसने अपनी आँखों को बंद करके सोचा अब जो है यही है।
रात होते ही उसे सजाया जाने लगा। जैसे शादी में सजाए जाने वाला घोड़ा निर्लिप्त भाव से तैयार होता है ठीक वही अवस्था उसके मन की भी थी। बस घोड़े को ये भी नहीं पता होता कि दूल्हा कौन है पर उस लड़की को दूल्हे के बारे में पता था और यही पता होना उसके लिए सजा था।
हिन्दी फ़िल्मों की तरह बिस्तर पर बैठी वो लड़की पति का इंतज़ार कर रही थी कि तेज आवाज़ के साथ दरवाज़ा खुल गया।
तभी छुटकन की नींद खुल गई और लड़की वर्तमान में वापस आ गई। छुटकन को भूख लगी थी। वो उसे दूध देकर सोचने लगी, अगर इसी तरह पुलिस उसे परेशान करती रही तो वो बच्चों का ध्यान कैसे रखेगी?
उधर जाँच अधिकारी फिर से उस दृश्य के पास गईं। हर सामान को टटोला। चाहें वो बिस्तर पर लगे खून के धब्बे हों या कूड़ेदान में मौजूद कॉन्ट्रासेप्टिव पिल्स का रैपर। फिर उन्होंने दस्ताने लगे हाथों से आलमारी को बहुत सावधानी से खोला, ध्यान से एक-एक खाने को देखा फिर बंद कर दिया। ढूँढते-ढूँढते उनकी नज़र कहीं ठिठकी पास गयीं तो उसे उठा कर देखा। जैसे लगा सारा राज यहीं छिपा है। वह ऑफिस से तुरंत निकल गईं। आम दिनों में गाड़ी के हूटर का शोर उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं था। लेकिन उस दिन उनके मन की कुलबुलाहट में हूटर की आवाज़ दब गई थी। सड़क पर लगा ट्रैफिक जाम और दृश्य में मिला साक्ष्य उनके मन के उथल-पुथल को और बढ़ा रहा था। आँखें बंद करने पर कुछ आकृतियाँ उभर रही थीं शायद मर्डर मिस्ट्री की कोई गाँठ खुल गई थी।
उस रात दुल्हन बनी लड़की ने भी घबराकर आँखें बंद कर ली थीं और दूल्हे ने दरवाज़ा बंद कर दिया था। दो कमरे एक बरामदा और रसोई वाले इस घर का बड़ा कमरा लड़की के पति का था। लड़के के किसी दोस्त की बीवी ने बिस्तर पर पर गेंदे के फूल बिछाते हुए लड़की से कोई भद्दा मजाक किया था जो लड़की उस समय नहीं समझ पायी थी। जब समझ आया तो सुबह हो गई थी और गेंदे के फूल लाल हो गए थे। बालों में लगा सफ़ेद पन्नी से बना गजरा ज़मीन पर गिरा हुआ था। लड़की की आँखों का काजल आंसुओं के साथ घुल कर पूरे चेहरे पर फैल गया था। वो लाल-काले धब्बे तो पानी और साबुन से धुल कर छूट गए लेकिन उस लड़की के जिस्म पर पड़े धब्बे समय के साथ गहरे होते गए।
रिश्तेदारों के जाने के बाद रात का डरावनापन दिन में भी उसके कमरे में उतर आता था। अज़ीब-अज़ीब फ़रमाइशों के साथ वो कमरे में आता जैसे लड़की किसी सर्कस की जिमनास्ट हो। दुनिया के एक कोने में एक लेखक इंसान के अंदर छिपी पाशविकता का रोमानीकरण करके अपनी किताब के ज़रिए शोर मचा रहा था। इस क़स्बे के दक्षिणी कोने में बने इस घर में एक लड़की खरोंचों से भरा शरीर लिए उठती और अपने पैरों में बंधी रस्सियों को खोलती।
“पैर उठा साली,
उलट,
खड़ी हो,
मुँह ठीक से खोल
कुतिया से कुतिया भी नहीं बना जा रहा
देख उसे, वो कैसे कर रही है! तू भी अपनी कमर…“
और वह सोलह-सत्रह साल की लड़की टीवी पर चल रहे जिन दृश्यों को अपनी खुली आँखों से नहीं देख सकती थी हर रोज़ उन्हीं दृश्यों को बंद आँखों से दोहराती थी। उस कमरे की दीवारों ने अपने कान बंद कर लिए थे। बंद कमरे में पसरी गंध इतनी तेज थी कि बाहर की हवा खिड़की और दरवाज़े की झिर्रियों से भाग जाती थी। सेमल की रूई से बना तकिया जो वो अपने मायके से लाई थी वो भी उसकी चीखें सुन-सुन कर बहरा हो गया। जो उसके साथ घट रहा था वो क्या था? पाशविकता? वहशीपन? नहीं ये बहुत छोटे विशेषण थे। कितनी बार उसका मन किया कि यहाँ से भाग जाए पर कहाँ? इस सवाल ने रोक दिया। एक बार इशारे में माँ से कुछ कहना चाहा था तब माँ ने उसे समझाते हुए कहा, “मरद एही लिए बियाह करत हैं बिटिया। लईका फ़ईका होखते ठीक हो जईहें।”
लड़की सोचती रही, माँ को याद नहीं इस मर्द के लड़का, लड़की सब हैं या वह मेरी बात समझ ही नहीं पा रही।
किसी अंधेरी रात की चोट से बिलबिला कर उसने फिनाइल की शीशी भी उठा ली थी तभी छुटकन माँ-माँ कहते हुए आ गया था।
जब हाथ में काम होता तो वह आदमी रोज़ सुबह आठ बजे तक घर से निकल जाता था। पहले एक मामूली सा मिस्त्री था बाद में ठेके पर काम लेने लगा। जब तक घर से बाहर रहता लड़की और तीनों बच्चे एक दूसरे के साथ अच्छा समय बिताते। आप कह सकते हैं कि यही समय लड़की के लिए मरहम का काम करता था। वह आदमी अपने तीनों बच्चों में बिट्टी से ही प्यार करता था। कभी-कभार छुटकन को गोद में ले लिया करता था। नहीं तो बस बेटी को ही पुचकारता रहता। लड़की का मन करता कि बोल दे, “अगर इसका मर्द भी इसके साथ वही सब करे तो तुम्हें कैसा लगेगा?” लेकिन हिम्मत नहीं होती थी।
अगले ही दिन जाँच अधिकारी लड़की के घर गईं। बच्चों को महिला कांस्टेबल से बाहर ले जाने को कहा। फिर लड़की को अपने पास बैठाया,
“देख लड़की मुझे अच्छी तरह पता है कि उसका खून तो तूने ही किया है और जिस लिए किया है उसके बारे में भी पता लग गया है। अगर तू अपने मुँह से सब कुछ बता देगी तो तेरी सजा कम हो जाएगी। हो सकता है मैं आगे बढ़ कर तेरी मदद ही कर दूँ। लेकिन अगर मैंने अपने से सबूत जुटाए तो फिर सारी ज़िंदगी जेल के अंदर सड़ती रहना। इधर इन लावारिस बच्चों के साथ जो भी होगा उसकी ज़िम्मेदार भी तू ही होगी।”
लड़की फिर भी कुछ नहीं बोली। सिर झुकाए बैठी रही।
“देख! तू चाह कर भी ये सच्चाई ज़्यादा दिन छिपा नहीं पाएगी। जिस दिन ये सच बाहर आया तू बहुत पछताएगी।”
लड़की अभी भी शांत थी जैसे कुछ सुना ही नहीं हो। जाँच अधिकारी ने अपना आख़िरी पासा फेंका,
“देखो बेटा! वो सी.डी. मैंने देख ली है। तेरे पति के बारे में भी बहुत कुछ पता लगा है। अब तुम मुझे सब कुछ सच-सच बता दो तो मैं तुम्हारी सच में मदद करूँगी।”
लड़की ने सिर उठाकर उसकी तरफ़ देखा।
“वादा करती हूँ इन बच्चों को कोई तकलीफ़ नहीं होने दूँगी।”
लड़की की आँखों से आँसू बह रहे थे। जिस बक्से की चाभी को उसने नदी में फेंक दिया था आज उसी को खोलने बैठी थी। ताला तोड़ने में उसके हाथ में भी चोट लग गई। उस चोट से टपकता खून साफ़ करने के लिए जाँच अधिकारी ने हाथ आगे बढ़ाया। लड़की बिखर गई। उसके छत-विछत टुकड़े कमरे में फैले हुए थे। फिर उस रात का हिस्सा बुदबुदाया –
“उस दिन टीवी में जो आ रहा था वो सब देख हम बहुत डर गए थे। तब हमारा आदमी बोला, देख कितना मज़ा आ रहा उन लोगों को। हम भी मज़े ले सकते हैं। जा बिट्टी को ले आ।”
जाँच अधिकारी को आख़िरी लाइन शायद ठीक से सुनाई नहीं दी या सुनने के बाद वो इसे समझ नहीं पा रही थीं। वो हड़बड़ा कर बोलीं,
“क्या ले आ?”
“बिट्टी को”
लड़की जानती थी इस बात पर विश्वास करना इतना आसान नहीं है। वो कहने लगी,
“हमारा शरीर काँप रहा था। ये तो पता था कि वो आदमी बच्चों को कभी बाप का प्रेम नहीं दिया है लेकिन ये सब… मेरी माँ कहती थी, सब मर्द ऐसे होते हैं। ग़लत कहती थीं। हमारे पापा ऐसे नहीं थे ना ही चाचा मामा ऐसे थे। हमने बिट्टी को बुलाने से मना कर दिया। उसने ग़ुस्से में एक घूँसा पीठ पर मारा। हम तब भी नहीं गए।
लड़की की आवाज़ में कंपन बढ़ रहा था। जाँच अधिकारी उसके आवेश को महसूस कर रही थीं।
“उसका ग़ुस्सा और बढ़ गया वो लात घूँसा चलाने लगा। फिर हमारे ऊपर चढ़ गया। हमारे चिल्लाने की आवाज़ से बिट्टी की नींद खुल गई और वह दरवाज़े के बाहर आ गई।”
“दरवाज़ा खुला हुआ था या बंद था?”
“बंद था, मतलब दोनों पल्ले भिड़े हुए थे। उसकी आवाज़ सुन मेरा आदमी हमको छोड़ दिया। उस दिन हमारे मरद के अंदर शैतान आ गया था। दरवाज़ा खोल कर उसने बिट्टी को अंदर खींच लिया। हमने उसके पैर पकड़े, बोले कि तुम्हारी लड़की है छोड़ दो। उसकी मरी हुई बीवी की क़सम भी दी। लेकिन वो हमको लात मारते हुए बोला, “उस हरामज़ादी का नाम भी मत ले।” फिर वो बिट्टी को …”
ये सब कहते समय वो लड़की काँप रही। आँसू उसकी आवाज़ को रोक रहे थे।
“हम कमरे से बाहर भागे कि बाहर जाकर शोर करेंगे तो ऊ बिट्टी को छोड़ देगा। तभी बाहर दरवाज़े के पास हँसिया दिखा। हमको कुछ समझ नहीं आ रहा था मैडम जी। उस समय जो ठीक लगा वो हो गया।”
ये कह कर वो लड़की फूट-फूट कर रोने लगी।
जाँच अधिकारी को शक था कि यही हुआ होगा…जो सी डी मिली थी उसे देख आदमी की मानसिकता का कुछ अंदाज़ा तो जो ही गया था। लेकिन अपनी ही बेटी के साथ…पर ये आश्चर्य का विषय भी नहीं था।
तभी लड़की ने उनके पैर पकड़ लिए, “इन बच्चों का हमारे सिबा कोई नहीं है मैडम जी। जब तक भोला और छुटकन समझदार नहीं हो जाते हमको इहाँ रहना ही पड़ेगा। आप बस कुछ साल दे दीजिए। फिर आप जो कहेंगी हम वही करेंगे।”
थोड़ी देर की चुप्पी के बाद उन्होंने कहा, “वो हँसिया कहाँ है?”
“बड़का नाला में फेंक दिए थे”
“हम्म, मैं देखती हूँ क्या कर सकती हूँ।”
“हमारे बच्चों का मुँह देख लीजिए मैडम जी, आप सब कुछ कर सकती हैं।”
चट्टान सी मज़बूत कही जाने वाली वो अधिकारी आज तक किसी भी केस में इतनी भावुक नहीं हुई थी। वो ये देख कर हैरान थी कि ख़ुद ही बच्ची जैसी लड़की दूसरों के बच्चों के लिए इतना कुछ कैसे सोच रही है? लड़की ने उसके पैर पर अपना सिर रख दिया था। जाँच अधिकारी ने उसे उठाया फिर “देखती हूँ” कहकर वहाँ से चली गईं।
रास्ते भर उनके भीतर बैठी औरत और पुलिस में मुठभेड़ चलती रही। किसी ना किसी का एनकाउंटर होना ही था। औरत ज़ख़्मी होकर भी डटी हुई थी। उसके पास अपने बचाव के लिए मज़बूत कवच थे। अंततः पुलिस हार गई। वैसे भी लड़की की उमर और हत्या का मोटिव जानने के बाद सज़ा बहुत कम होती पर उतनी भी सज़ा बच्चों से माँ को दूर कर देती।
जब दो दिन तक पुलिस दरवाज़े पर नहीं आई तब लड़की को लगा कि वो ये जंग जीत चुकी है। बिट्टी और भोला पढ़ रहे थे और छोटकन माँ के साथ रसोई में बैठा हुआ था। लड़की ने रोटी बनाते हुए उसे आटे की लोई से चिड़िया बना कर दे दी। वो उसे लेकर आँगन में दौड़ने लगा।
मैंने पहले भी कहा था दृश्य की कोई प्रामाणिकता नहीं होती। वो जैसा दिखाया जाता है सामने वाले को वैसा ही दिखाई देता है। उस रात के दो दृश्य हमारे सामने हैं लेकिन तीसरा दृश्य अभी भी उन लड़कियों के मन के अंदर है।
असल में वही इन दोनों लड़कियों की कहानी का आख़िरी दृश्य था। शुरू-शुरू में शादी कर के आई लड़की को जो दृश्य बाप-बेटी का प्यार लगा एक दिन वो दृश्य नंग-धड़ंग हालत में उसके सामने था। बेटी ख़ुद को चोट के दर्द से तो बचाना चाहती थी लेकिन उसे ये नहीं पता था कि ये चोट कोई भी बाप अपनी बेटी को नहीं देता है। उस दिन के बाद वो लड़की समझ गई थी कि उसकी शादी इंसान से नहीं राक्षस से हुई है। आख़िरी दृश्य वाली रात आदमी शराब पीकर आया था। एक नई फ़िल्म में उभरती आकृतियाँ उसकी सनसनी को बढ़ा रही थीं। अब तक जो चीज उसने छिप कर करने की कोशिश की आज उसकी डिमांड अपनी पत्नी के सामने ही कर दी और उसे बिट्टी को बुलाने के लिए कहा। लड़की के मना करने पर वो हिंसक हो गया। आवाज़ सुन कर बिट्टी दरवाज़े के बाहर आ गई।
आख़िरी दृश्य में बिट्टी के बाल उस आदमी की मुट्ठियों में थे। लड़की हँसिया लेकर आई और उसे डराने लगी कि वो बिट्टी को छोड़ दे। आदमी पर सच में शैतान सवार था। उसने लड़की का हाथ पकड़ के अपनी तरफ़ खींच लिया उसके हाथ से हँसिया गिर गया।
फिर आदमी ने उन दोनों लड़कियों का मुँह टी.वी. की तरफ़ कर दिया। बिट्टी वो सब देखकर पहले तो घबरा गई और भागने लगी। आदमी ने फिर उसे खींचकर बिस्तर पर पटक दिया। अपने पिता का वहशी रूप, बीमार माँ का चेहरा और नई माँ का रोते हुए बिट्टी को छोड़ने की गुहार लगाना सब उसके अंदर आक्रोश भर रहे थे। बिट्टी ने माँ को शांत होने को कहा।
ऐसा कहते ही आदमी और लड़की ने आश्चर्य से उसे देखा। आदमी उसके साथ थोड़ा नरम हो गया अवाक पड़ी दूसरी लड़की कुछ समझ नहीं पा रही थी। आदमी की पकड़ उसकी तरफ़ भी ढीली पड़ गई थी। वो उन दोनों के साथ गंदा खेल खेलने लगा। बिट्टी ने कोई विरोध नहीं किया जबकि लड़की उसको इस रूप में देख कर सन्न थी। अगले कुछ क्षणों की कल्पना करने में भी एक इंसान इंसानियत से पदच्युत हो सकता है। उन्हीं क्षणों के तूफ़ान में फँसी बिट्टी ने नाव की तरफ़ देखा। टी.वी. पर चलते दृश्य आदमी को उन्मादी कर रहे थे। एक उन्माद बिट्टी के अंदर भी जन्म ले चुका था और थोड़ी देर के बाद वो आदमी पलंग के नीचे छटपटा रहा था। खून रुक-रुक कर उसके गले से निकल रहा था। बिट्टी के हाथ में खून लगा हंसिया था। ये सब देख घबराई हुई लड़की ने उसे रोक दिया। पीछे का रास्ता एक दम ख़ाली रहता था। ना कोई घर ना कोई लाइट। लड़की ने बिट्टी को बड़े वाले नाले में हँसिया फेंक कर आने को कहा।
उसके बाद वो दृश्य गढ़ा गया जो पुलिस और आप सबने देखा। लड़की जानती थी कि इन बच्चों के लिए उससे ज़्यादा बिट्टी का बचना ज़रूरी था। बिट्टी बची रही तो बच्चों की माँ भी बची रहेगी।
दृश्य बदलने के लिए पुराने दृश्यों पर नए दृश्य का परदा डाल दिया जाता है। दर्शक आख़िरी और सबसे प्रभावी दृश्य की याद लिए थिएटर से चला आता है। नाटक समाप्त होते ही सारे दृश्यों के परदे निकाल कर बड़े से बक्से में सँभाल कर रख दिए जाते हैं पर असल जीवन में उन दृश्यों को सँभालना नहीं मिटाना पड़ता है। मिटे हुए दृश्य दर्शक को दिखाई नहीं देते पर वो होते हैं वहीं, कहीं किसी की सोच में…