आज अमर कलाकार कुंदन लाल सहगल की पुण्यतिथि है। इस अवसर पर पढ़िए लेखक, संगीतविद प्रकाशचंद्र गिरि का यह सुदीर्घ आलेख- मॉडरेटर
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वे बीसवीं शताब्दी में भारतीय संगीत जगत के सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्ति थे।अविभाजित भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक और बंगाल-असम से लेकर लाहौर-करांची-पेशावर-काबुल तक जैसी लोकप्रियता उन्हें प्राप्त थी,वैसा सौभाग्य किसी और को नहीं मिला।वे हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार अभिनेता,पहले यशस्वी और कालजयी प्लेबैक सिंगर तथा अद्भुत कम्पोजर और गीतकार थे।इन सबसे बढ़कर वे निहायत उम्दा इंसान थे।जैसे हिंदी के अनेक श्रेष्ठ कवियों के मध्य निराला जी अपनी मानवीयता,उदारता और दानशीलता के लिए विख्यात थे वैसे ही भारतीय सिनेमा के विगत सौ वर्षों के इतिहास में कुंदन लाल सहगल थे।एक ऐसे मनुष्य जिसे हर किसी से प्यार हो और जिस पर हर किसी को प्यार आये।आदि शंकराचार्य,संत ज्ञानेश्वर,स्वामी विवेकानंद, भारतेंदु हरिश्चंद्र जैसे महान भारतीयों की तरह वे भी 50 की उम्र से पहले ही दुनिया छोड़ गये लेकिन उन्होंने अपनी अद्भुत और अप्रतिम साधना से नश्वरता पर विजय प्राप्त की और अमरता का वरण किया।18 जनवरी 1947 को मात्र 42 वर्ष 9 माह व 7 दिन की उम्र में जब उनका पार्थिव शरीर संसार से विदा हुआ तो उस दिन पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में हज़ारों लोग बिलख-बिलख कर रोये।साहित्यकारों और संस्मरणकारों ने लिखा है कि सहगल के शहर जालंधर में उस दिन अधिकांश घरों में शोक से चूल्हे नहीं जले।उनकी अंतिम यात्रा में हज़ारों लोगों का जनसैलाब उमड़ पड़ा।किसी के भी जीवन की इससे बड़ी सार्थकता क्या हो सकती है कि वह न सिर्फ़ अपने समय में बल्कि लगभग एक सदी के बाद भी आज तक असंख्य लोगों के हृदय से जुड़ा हुआ हो।जिसकी अद्भुत आवाज़ से रसिक हृदयों को इतना प्रेम हो कि वे उसे सुनते ही आनंदित और भावविह्वल हो जायें, ऐसा सौभाग्य कितने कलाकारों के भाग्य में होता है ?
वे ऐसे समय में पैदा हुए जब भारतीय संगीत एक युगांतरकारी परिवर्तन से गुज़र रहा था इसीलिए उनकी हिंदी में उपलब्ध एकमात्र जीवनी के लेखक,दूरदर्शन के पूर्व अधिकारी शरद दत्त उन्हें रेनेसां पुरुष के रूप में याद करते हैं।इस प्रसंग में यह भी विचित्र है कि ऐसे विख्यात कलाकार पर हिंदी में बहुत ही कम सामग्री उपलब्ध है।अंग्रेजी में उन पर कुछ बहुत अच्छी किताबें हैं तथा 1947 में उनके निधन के बाद के5-6दशकों में समय-समय पर कुछ पत्रिकाओं में उनके समकालीनों के संस्मरण हैं किंतु यह सब अंग्रेजी में ही हैं।हिंदी में शरद दत्त की किताब 1997 में उनकी पुण्यतिथि की स्वर्णजयंती के बादआई।कुंदन लाल सहगल के जन्म और मृत्यु की तिथियों में भी अभी कुछ वर्ष पूर्व तक मतभेद था किंतु विगत 2-3दशकों में उनके प्रेमियों द्वारा किए गए शोधपूर्ण लेखन से अब कई बातें प्रामाणिक रूप से ज्ञात हुई हैं।
के एल सहगल का जन्म 11 अप्रैल 1904 को सायं 6 बजकर 30 मिनट पर जम्मू के नवाशहर में हुआ था जहां उनके पिता अमर चंद सहगल जम्मू कश्मीर रियासत में तहसीलदार पद पर कार्यरत थे।उस ज़माने में वह एक सम्मानित प्रशासनिक सेवा थी।सहगल के पिता चाहते थे कि वे पढ़-लिख कर उन्हीं की तरह अफ़सर बनें किन्तु बालक कुंदन का मन संगीत में ही रमा रहता था।उनकी माँ को संगीत से बहुत प्रेम था और वे घर में भजन और सबद वगैरह गाया करती थीं।कुंदन होश संभालने के बाद से माँ के साथ ही लगे रहते और वे जो गातीं उसमें उनका साथ देते।उस समय जम्मू शहर और वहां का राजदरबार संगीत का अद्भुत केंद्र था।प्रख्यात शास्त्रीय गायक उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ान के पिता और चाचा उस्ताद अलीबख़्श और फत्ते ख़ान जम्मू-कश्मीर के दरबार में ही थे बाद में वे लोग पटियाला आकर बसे और उनके घराने की गायिकी कश्मीर घराने से बदलकर पटियाला घराने की गायिकी कहलाने लगी।प्रसिद्ध संतूर वादक पंडित शिवकुमार शर्मा के पिता भी उसी राजदरबार में थे।शिव कुमार शर्मा ने अपने एक संस्मरण में उस दरबार के संगीत,साहित्य और सनातन धर्म की कुछ प्राचीन साधनाओं से संबंधित अद्भुत संस्मरण लिखे हैं,उन्होंने लिखा है कि महाराजा के राजमहल के एक हाल में अनेक वाद्ययंत्र रखे थे जो एक विशेष तिथि की मध्यरात्रि में अपने आप बजने लगते थे।एक बार बचपन में शिवकुमार जी अपने पिता की उंगली पकड़कर उस दृश्य के साक्षी बने थे और डर गये थे।उस घटना के बारे में यह मान्यता थी कि राजदरबार के पुराने कलाकारों या गंधर्वों की आत्माएं आकर इन वाद्ययंत्रों को बजाती हैं।यह प्रकरण अलग से चर्चा योग्य है।विख्यात तबलावादक उस्ताद अल्लारखा खां ने भी अपने संस्मरणों में जम्मू में बिताए दिनों को जिस आत्मीयता और भावुकता के साथ याद किया है उससे वहां की तत्कालीन सांस्कृतिक सम्पन्नता का प्रमाण मिलता है।जम्मूकश्मीर वैसे भी भारतीय संगीत,दर्शन और अनेक कलाओं का हज़ारों वर्षों तक केंद्र रहा।विदेशी आक्रान्ताओं की निर्मम गतिविधियों ने उस पवित्र भूमि से ज्ञान की सारी मुकुटमणियों को छिन्न-भिन्न कर दिया किन्तु सहगल के बचपन तक उस राजदरबार में प्राचीनगौरव के अंतिम अवशेष विद्यमान थे ।कुन्दनलाल सहगल को संगीत से इतना जबर्दस्त लगाव कैसे हुआ,इस बारे में कई कहानियां हैं।पहला तो यही कि उनकी माँ को भी संगीत से बहुत प्रेम था और वे भक्ति रचनाओं को अपने सुरीले कंठ से घर में गाया करती थीं।बालक कुंदन ने होश संभालते ही माँ के साथ गुनगुनाना शुरू कर दिया था।दूसरी कथा यह है कि बालक कुंदन जब 4-5 साल के थे तभी उनके बड़े भाई को कोई गंभीर बीमारी हुई।सुयोग्य चिकित्सकों ने उचित दवा के साथ उन्हें अच्छा संगीत सुनने की सलाह दी।इससे कुंदन को उस समय तक के हर मशहूर हिंदुस्तानी संगीत को घर में ही ख़ूब सुनने का मौका मिला जिससे माँ द्वारा घुट्टी में मिले संगीत से प्रेम और गाढ़ा हुआ तथा उसकी समझ बढ़ी।तीसरी कथा है कि जम्मू में जहाँ कुन्दनलाल सहगल का परिवार रहता था उससे कुछ ही दूर पर किसी नामी मुजरे वाली बाई का मकान था।वहां शाम से संगीत की महफिलें गुलज़ार हो जाती थीं तो बालक कुंदन घर से भाग कर उस मुहल्ले में जाकर गलियों में टहलते हुए वह संगीत सुना करते।वह समय भारत में उच्चकोटि की बाई गायिकाओं का था।गौहर जान,जानकीबाई छप्पनछुरी,मलका बाई,सिद्धेश्वरी देवी आदि अनेक गायिकाओं के रिकार्ड्स भारत में नए नए शुरू हुए थे और प्रतिष्ठित परिवारों में एल पी रिकार्ड प्लेयर पर वे अक्सर बजते रहते थे।दरअसल 1877 में थॉमस एल्वा एडीसन के द्वारा ग्रामोफोन की खोज के साथ ही संगीत के नए युग का प्रारम्भ हुआ।वर्ष 1900 में एमाइल बर्लिनर ने गोल डिस्क की ईज़ाद की और उस पर रिकार्डिंग शुरू कर दी।उसी साल उन्होंने दुनिया भर के संगीत के हज़ारों रिकार्ड तैयार किए।किसी भी भारतीय संगीत की पहली रिकॉर्डिंग 1899 में ग्रामोफोन कम्पनी ने लंदन में की।ग्रामोफोन कम्पनी ने भारत में संगीत की विविधता और व्यापकता को देखते हुए 1901 में कलकत्ता में अपना ऑफिस खोला।उसके संचालक गैसबर्ग ने उसी वर्ष पहले छः हफ़्तों तक पूरे भारत के संगीत प्रेमियों के पास यात्रा की और सबको रिकार्डिंग के लिए आमंत्रित किया लेकिन उस ज़माने में इस नई तकनीक से हिचकते हुए प्रसिद्ध गायक-गायिकाओं ने इससे दूरी बनाए रखा।गैसबर्ग ने मुजरे गाने वाली बाइयों की तरफ रुख किया और सबसे पहली रिकार्डिंग भारत की मशहूर तवायफ़ और गायिका गौहर जान की हुई।वे राजसी ढंग से पली बढ़ी थीं और उस समय के सभी प्रमुख भारतीय राजाओं के दरबार की प्रिय गायिका थीं।गौहर जान तथा उस दौर की अनेक तवायफ़ों ने उच्चकोटि के शास्त्रीय संगीत विद्वानों से शिक्षा ली हुई थी।गौहरजान के उस्तादों में पटियाला घराने के मशहूर गायक उस्ताद काले खां, अलीबख्श, रामपुर घराने के उस्ताद वज़ीर खां तथा लखनऊ के पंडित बिंदादीन महाराज जैसे नामवर लोग थे।उन सबों को ठुमरी,टप्पा,तराना,कजरी,चैती, होरी,वसंत तथा भजन आदि के साथ पक्के ढंग की ग़ज़ल गायकी में भी महारत हासिल होती थी।इन गायिकाओं की प्रस्तुतियां कार्यक्रमों में व रिकार्डिंग्स में तीन-साढ़े तीन मिनट की रचनाओं की होतीं।शास्त्रीय संगीत के घंटों के राग गायन के बरक्स यह उस दौर की सांगीतिक क्रांति थी।रिकार्ड्स के नाते कुछ ही वर्षों में पूरे भारत के संगीत प्रेमियों में उन्हें बहुत लोकप्रियता हासिल हुई।1911 में जब इंग्लैंड के किंग जॉर्ज पंचम का दिल्ली आगमन हुआ तो उस दरबार में गाने के लिए कलकत्ता से गौहरजान और इलाहाबाद से जानकीबाई छप्पनछुरी को आमंत्रित किया गया था जहां किंग की तरफ से इन दोनों गायिकाओं को सौ-सौ अशर्फियों का क़ीमती तोहफ़ा मिला था।बाद में इस सुगम संगीत शैली ने कुन्दनलाल सहगल जैसे दीवाने गायक को पाकर लोकप्रियता के शिखर को छुआ।कुन्दनलाल सहगल के संगीत का आशिक़ बनने के पीछे की एक कथा और है जिसमें वे गली मुहल्लों में गा बजाकर अपना जीविकोपार्जन करने वालों को घर से भाग-भाग सुना करते थे।रेडियो और ग्रामोफोन आने के पहले ऐसे कलाकार ही लोगों के मनोरंजन का साधन होते थे और वे प्रमुख शहरों-बाज़ारों व प्रतिष्ठित परिवारों में गा बजाकर अपनी कमाई करते थे।इनमें हीर गाने वाले पंजाबी,कव्वालियां गाने वाले सूफ़ी तथा पंजाब और कश्मीर के विभिन्न लोकगीतों को गाने वाले गायक-गायिकाएं उन दिनों जम्मू जैसे सांस्कृतिक शहर में अक्सर अपना डेरा डालते थे।कुन्दनलाल सहगल घर से व स्कूल से भाग कर उन सबको सुना करते और संगीत के जादू में ही दिनरात खोये रहते थे।
1916 में राजदरबार में हुए एक कार्यक्रम में 12 वर्षीय कुंदन ने मीरांबाई का एक भजन गाकर तत्कालीन जम्मू नरेश महाराजा प्रताप सिंह को मंत्रमुग्ध कर दिया था।उस समय महाराजा के मुख से निकली बात कि यह लड़का एक दिन देश का नामी गायक बनेगा,शब्दशः सच हुई।उसी साल से जम्मू की प्रसिद्ध रामलीला में सीता के रोल के लिए कुंदनलाल का चयन हुआ और उन्होंने अपने अभिनय और गायन से सभी को बहुत प्रभावित किया यहां तक कि कुंदन की गायकी का सदैव विरोध करने वाले उनके पिता भी रामलीला में कुंदन का गायन और अभिनय देखकर भावुक हो गए थे और उनकी आँखें गीली हो गयी थीं।हर दम गाते-गुनगुनाते रहने वाले कुंदन को उस वर्ष रामलीला में अभिनय और गायन का मौका क्या मिला कि वे अगले दिन से वैसे प्रदर्शन को फिर दुहराने का मौका तलाशते।माता केसरदेवी उन्हें लेकर मंदिरों में होने वाले भजन समारोहों में जातीं जहां वे अपनी उम्र की तुलना में कई गुना अच्छे भावपूर्ण गायन से सभी की प्रशंसा और आशीर्वाद पाते।किशोरावस्था में ही ऐसी स्वीकृति पा लेने के बाद भी उनके पिता उन्हें पढ़ाई न करने के लिए डाँटते। वे एक अधिकारी और व्यावहारिक व्यक्ति थे।वे जानते थे कि सुखी जीवन के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता बहुत आवश्यक है लेकिन उन्हें क्या पता था कि कुंदन लाल की प्रतिभा,कलाऔर साधना के समक्ष एक दिन न सिर्फ़ आर्थिक संपन्नता बल्कि अपरंपार यश की निधि व असंख्य लोगों की चाहत भी स्वयं चलकर आयेगी।
के एल सहगल पिता के लाख प्रयासों के बाद मैट्रिक से आगे पढ़ाई से स्वयं को नहीं जोड़ सके और घर से विद्रोह स्वरूप चुपचाप घर छोड़कर निकल गए लेकिन यह बाद की बात थी उससे पहले उनके जीवन में एक और महत्वपूर्ण घटना हुई जिसने उनके जीवन को और गहराई की तरफ़ मोड़ दिया।1917-18में जब वे 13-14 वर्ष के किशोर थे तभी प्राकृतिक और स्वाभाविक कारणों से उनके गले की आवाज़ बदल गयी जैसा कि सभी के साथ होता है।जिसे कंठ फूटना या हमारे अवध क्षेत्र में घाटी फूटना कहते हैं उस कारण उनकी आवाज़ कुछ बदल गयी।इस घटना से वे इतने दुखी हुए कि दो दिनों तक बिस्तर पर पड़े रोते रहे।उन्होंने अपनी माँ से अपनी पीड़ा बताई।उस समय जम्मू कश्मीर में मुस्लिम सूफ़ी संतों के कई डेरे प्रसिद्ध थे जो तत्कालीन पंजाबी संस्कृति का एक ग़ौर तलब और आकर्षक पक्ष थे।सूफ़ियों के इन डेरों का आध्यात्मिक साधना के साथ संगीत से गहरा संबंध था।ऐसे ही एक मशहूर सूफ़ी संत शेख सुलेमान यूसुफ़ के डेरे पर कुंदन की माताजी कभी कभार जाया करती थीं।अपने प्रिय पुत्र की पीड़ा देखकर वे उसे लेकर सूफ़ी संत के डेरे पर गयीं जहां सूफ़ी संत ने किशोर कुंदन को बहुत प्यार दिया और आशीर्वाद दिया कि वे एक दिन बहुत बड़े गायक बनेंगे इसलिए निराश न हों लेकिन उन्होंने अगले 2 वर्षों तक कहीं भी न गाने के लिए कुंदन को सख़्त ताक़ीद दी और ज़िक्र तथा रियाज़ अर्थात भगवत्स्मरण और अभ्यास का निर्देश दिया।एक किशोर उम्र के बच्चे के लिए दो वर्षों का लंबा संयम कठिन था लेकिन सूफ़ी संत के शब्दों व उनके व्यवहार में कुछ ऐसी बात थी जिसने कुंदन को बहुत गंभीर बना दिया और वे बिल्कुल बदल गए।उनके भीतर वैसे भी किसी गंधर्व की आत्मा थी जो एक सिद्ध संत के संस्पर्श से अपनी वास्तविक पहचान के लिए व्याकुल हो गयी।सुरों के सौंदर्य पर रीझा मृग अपने कुंडल में बसी कस्तूरी की पहचान के लिए गंभीर और सच्चे अर्थों में प्रयत्नशील हो गया।उस उम्र में मिल रही प्रशंसा के लोभ पर अंकुश लगाना और ख़ुद के भीतर खो जाना कितना मुश्किल रहा होगा लेकिन कुंदन ने यह सम्भव किया क्योंकि उनका सुरों से सच्चा प्यार था।वे पिछले कई जन्मों से संगीत की मुहब्बत में आकंठ डूबे हुए थे।सूफ़ी सन्त जी के निर्देश पर दो वर्ष के मौन काल में भी वे मन ही मन में गाया करते थे और सुरों की दिव्य दुनिया में खोये रहते।उसी काल खंड में के एल सहगल के पिता जी जम्मू रियासत की सेवा से रिटायर हो गए और अपना पूरा परिवार लेकर अपने पैतृक नगर जलंधर आ गए।वह सम्भवतः 1922-23 का वर्ष था।जालंधर में आने के बाद अमर चंद जी ने ठेकेदारी शुरू की और पुत्र कुंदन की पढ़ाई के लिए फिर बहुत प्रयास किया लेकिन कुंदन ने किसी किसी तरह मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की।उनका मन हर समय संगीत में ही लगा रहता था।जलन्धर में उस समय प्रतिवर्ष स्वामी हरिवल्लभ संगीत समारोह होता था जिसमें अविभाजित भारत के अनेक बड़े घरानों के शास्त्रीय गायक अपना कार्यक्रम देने आते।कुंदन घर से भाग कर रात-रात भर उस समारोह में आये दिग्गज कलाकारों का गायन-वादन सुनते।उस कार्यक्रम में लखनऊ, बनारस, आगरा,ग्वालियर आदि बड़े घरानों के ख़्याल गवैयों को सुनकर कुंदन उसकी कॉपी करते।जलन्धर में पंजाबी लोकगीत गाने वालों को भी वे बहुत ध्यान से सुनते और वैसा ही गाने की कोशिश करते।
पिता उन्हें बार-बार पैसे कमाने और अपने पैरों पर खड़े होने के लिए डाँटते लेकिन कुंदन को तो संगीत के अलावा किसी चीज़ से मतलब ही नहीं था।पिता की प्रताड़ना से ऊब कर या अपनी मंज़िल को पाने की चाहत में एक दिन वे चुपचाप घर में किसी को बताए बिना घर छोड़ कर निकल गए।1923-24 में घर छोड़कर निकलने और 1931 में कलकत्ता के न्यू थियेटर तक पहुचने के बीच के आठ वर्षों का कोई प्रामाणिक विवरण नहीं मिलता क्योंकि सहगल ने अपनी डायरी या आत्मकथा जैसी कोई चीज़ नहीं लिखी।उनके निधन के बहुत वर्षों बाद शोधार्थियों व उनके चाहने वालों ने उन आठ वर्षों के बारे में विवरण इकट्ठा किया।
कुंदनलाल सहगल घर छोड़कर निकले तो भाग्य का लेखा उन्हें विभिन्न अनुभवों तक लेकर गया।वे किसी नौकरी की तलाश में पहले लाहौर गए फिर दिल्ली आए जहां जलंधर के रहने वाले दो मित्रों की मदद से उन्हें रेलवे में कोई अस्थायी काम मिला।उसी सिलसिले में वे मुरादाबाद आये।गुमनामी के उन आठ वर्षों में वे सिर्फ़ अपनी माँ को चिट्ठियों द्वारा अपनी खबर दिया करते थे लेकिन उनमें स्थान का नाम नहीं होता था।वे उन आठ वर्षों में लाहौर, दिल्ली,मुरादाबाद,बरेली,कानपुर,इलाहाबाद,लखनऊ, शिमला आदि शहरों में जीविकोपार्जन के लिए काम ढूंढते।शिमला में रहने के दौरान ही विख्यात बाल गायक मास्टर मदन के बड़े भाई से उनकी दोस्ती हुई और मास्टर मदन के घर उनका आना-जाना होता रहा।बाद में उन्हीं के प्रयास से मास्टर मदन की आवाज़ में कुछ ग़ज़लें ग्रामोफोन कम्पनी ने रिकार्ड किया था।उन्होंने रेलवे में नौकरी की,रेमिंगटन टाइपराइटर कम्पनी में सेल्समैन बने,कानपुर और कलकत्ता में मुहल्लों में घूम-घूम कर साड़ी बेची,शिमला में एक होटल के मैनेजर रहे लेकिन हर जगह वे अपने मधुर गायन की वजह से लोगों की निगाह में आ जाते।इस दौर की उनसे जुड़ी कुछ बेहद दिलचस्प कहानियां हैं जिससे संगीत के प्रति उनकी दीवानगी और जुनून तथा उनके हृदय की विशालता और उदारता का प्रमाण मिलता है।के एल सहगल के निधन के बाद निकली फ़िल्म जगत की पत्रिकाओं में उनके साथी कलाकार पहाड़ी सान्याल,संगीतकार रायचंद बोराल,पंकज मलिक,गीतकार केदार शर्मा आदि अनेक बड़े लोगों ने उनके ऊपर संस्मरण लिखे जो पांचवे और छठे दशक की अंग्रेजी सिने पत्रिकाओं के लिए लिखे गए।उनके ऊपर जो किताबें उस दौर में लिखी गईं वे भी अंग्रेजी में ही थीं जिनमें जी.एन. जोशी की किताब ‘डाउन मेलोडी लेन’ और संगीत स्कॉलर राघव मेनन की किताब ‘पिलग्रिम ऑफ स्वरा’ का ही नाम था।बहुत बाद के वर्षों में सम्भवतः आठवें दशक में भारतीय विदेश सेवा के रिटायर्ड अधिकारी प्राण नेविले ने ‘के एल सहगल-द डेफनिटिव बायोग्राफी’ नाम से एक बहुत अच्छी जीवनी लिखी।आज भी कुन्दनलाल सहगल के बारे में गहराई से जानने के लिए वह पुस्तक ही एक मात्र विकल्प है। सहगल के उस दौर के मित्रों के फ़िल्मी पत्रिकाओं में छपे संस्मरणों से उन दिनों की अनेक रोचक कहानियों का पता मिलता है।भारत की शुरुआती फिल्मों के गीतकार पंडित केदार शर्मा ने अपने संस्मरण में लिखा है कि एक दिन जब वे सहगल से मिलने पहुंचे तो उन्होंने बताया कि रेमिंगटन टायपरायटर के सेल्समैन वाले दिनों में वे अतिरिक्त कमाई के लिए सुबह शाम मुहल्लों में फेरी लगा कर साड़ियों की बिक्री करते थे।इनके साथ दुकान वाला एक आदमी कर देता था जो गट्ठर सिर पर लादता और के एल सहगल गा-गा कर मुहल्लों में साड़ियाँ बेचते।एक दिन कलकत्ता के किसी मुहल्ले में एक लड़की इनसे एक साड़ी खरीदने के पीछे पड़ गयी जिसका नाम नज़मा था।लेकिन वह साड़ी दस रुपए की थी।सहगल उसे और साड़ियां दिखाते लेकिन वह उसी साड़ी को लेने पर अड़ी रही।उसने कहा कि अगले शुक्रवार को मुझे तनख्वाह मिलेगी तब तुम ले आना,मैं दस रुपये देकर खरीद लूँगी।अगले शुक्रवार को जब के एल सहगल अपने साथ साड़ी लेकर उसके घर पहुंचे तो उसके भाई ने रोते हुए बताया कि वह रात से ही बहुत बीमार है।सहगल अपने साथ के आदमी को वहीं बैठा कर दौड़कर डॉ. को लेकर आये जिसने पन्द्रह रुपये फीस ली।डॉ. को लेकर पहुंचने से पहले ही नज़मा के प्राण पखेरू उड़ चुके थे।उसके गरीब भाई ने बताया कि उसके पास कफ़न तक के पैसे नहीं हैं तो के एल सहगल ने वही दस रुपये वाली साड़ी निकाल कर नज़मा के ऊपर डाल दिया और भारी मन से वहाँ से चले आये।उसी दिन से उन्होंने साड़ी बेचने का काम बंद कर दिया।
उनके भटकने के आठ वर्षों में मुरादाबाद का प्रसंग भी बड़ा रोचक है।वहां भी वे रेलवे में किसी अस्थायी नौकरी पर थे।उसी शहर में मशहूर सारंगी वादक इम्तियाज़ अहमद भी रहते थे।मुरादाबाद में कुछ ही दिन पहले किसी कार्यक्रम में उस्ताद अब्दुल करीम खां का गायन हुआ था जिसमें सारंगी पर संगत इम्तियाज़ जी ने ही की थी।एक दिन वे रेलवे स्टेशन की तरफ टहलने गए तो उन्होंने देखा कि ट्रेन गुज़र जाने के बाद पूरा स्टेशन सुनसान पड़ा है लेकिन एक कोने में डाक के थैलों पर बैठा कोई नौजवान कुछ गुनगुना रहा है।उसके सच्चे सुरों की कशिश उन्हें वहां तक खींच ले गयी।उन्होंने सुना तो दंग रह गए।उस्ताद करीम खां राग झिंझोटी में जो ठुमरी कुछ दिन पहले मुरादाबाद के कार्यक्रम में गा कर गए थे उसे यह नौजवान बहुत सुंदर ढंग से गा रहा था।इम्तियाज़ जी उस नौजवान को घर लाये और उससे पूछा कि उसने संगीत की तालीम कहाँ से ली है ? नौजवान के एल सहगल का जवाब था कि कहीं से नहीं।इम्तियाज़ जी को विश्वास नहीं हुआ।उन्होंने अपनी सारंगी उठाई और सहगल से कुछ और सुनाने को कहा तो सहगल ने ख़ुद की कम्पोज़ की हुई ग़ालिब की कुछ ग़ज़लें सुनाईं।इम्तियाज़ साहब आश्चर्य में पड़ गए और सहगल से कहा कि तुम केवल गाने के लिए बने हो।अपनी मंज़िल खोजो।तुम्हारे गले में मालिक ने सच्चे सुर दिए हैं।मुरादाबाद में सहगल ने करीब दो वर्ष बिताये।वहां रेलवे स्टेशन मास्टर एक अंग्रेज थे।उनकी पत्नी के एल सहगल का गाना बहुत पसंद करतीं।उन्होंने उन दो वर्षों में सहगल को अंग्रेजी पढ़ना लिखना सिखाया।इस घटना का ज़िक्र मशहूर फ़िल्मकार पहाड़ी सान्याल ने अपने संस्मरण में किया है कि वे जब किसी कार्यक्रम के सिलसिले में मुरादाबाद गए तो संगीत प्रेमियों ने एक नौजवान गायक की बहुत तारीफ़ की।पहाड़ी सान्याल उस नौजवान यानी के एल सहगल से मिले और उनका गाना सुनकर उन्हें अपने साथ लखनऊ ले आये।पहाड़ी सान्याल ने लिखा है कि के एल सहगल 1927 में दिल्ली कन्टोन्मेंट बोर्ड के एम ई एस विभाग में मेरे भाई के अंडर में शिफ्ट अटेंडेंट अर्थात पारियों में काम करने वाले कर्मचारियों की उपस्थिति दर्ज़ करने का काम करते थे।वहां भी वे अपने मधुर गानों की वजह से लोकप्रिय थे लेकिन कुछ महीने वहां काम करने के बाद जब उन्होंने अपनी तनख्वाह में पाँच रुपए की बढ़ोत्तरी की मांग की जो पूरी नहीं हुई तो वे मुरादाबाद आ गए और रेलवे में टाइम कीपर का काम करने लगे।पहाड़ी सान्याल ने लिखा है कि 1931 के अंतिम दिनों में लखनऊ में के एल सहगल से फिर उनकी भेंट हुई तब वे रेमिंगटन कम्पनी में सेल्समैन का काम कर रहे थे।
इस तरह 1923- 24 से 1931तक के एल सहगल कई तरह की नौकरियां करते हुए इस शहर से उस शहर भटकते रहे लेकिन जहां भी रहे वहां के गाने-बजाने वालों के संपर्क में रहे और उनका रियाज़ कभी बन्द नहीं हुआ।कुछ लोगों ने तो लिखा है कि वे हरदम गुनगुनाते रहते थे।1931 में रेमिंगटन कम्पनी का टाइपराइटर बेचते हुए ही उनकी कलकत्ता यात्रा हुई और नियति उन्हें न्यू थियेटर्स तक ले गयी जहाँ की फिल्मों में अपने अभिनय व गायन से उन्होंने अपनी अमर कीर्ति-कथा का निर्माण किया।के एल सहगल को फ़िल्मों में अवसर देने का श्रेय लेने के संबंध में भी कई कहानियां हैं।न्यू थियेटर्स के संस्थापक व निर्माता-निर्देशक बी.एन. सरकार,संगीतकार पंकज मलिक,आर.सी.बोराल,देवकी बोस,फणि मजूमदार आदि कई लोगों ने 60 और 70 के दशक में छपी अंग्रेजी पत्रिकाओं के अपने संस्मरणों में उन्हें फ़िल्मों तक पहुंचाने का श्रेय लिया है लेकिन बाद के प्रामाणिक शोधों से यह पता चलता है कि न्यू थियेटर्स के मालिक बी.एन. सरकार ने कलकत्ते में लखनऊ के के.एच. काजी से एक नौजवान गायक की तारीफ सुनकर उसका गाना सुना और सुनते ही वे इतना प्रभावित हुए कि उसी समय उन्होंने के एल सहगल से 130 रुपये महीने का अनुबंध कर लिया।उस समय बोलती फिल्मों का दौर 1931में ‘आलमआरा’ फ़िल्म के प्रदर्शन से बस शुरू ही हुआ था।1932 में अपना असली नाम छुपाते हुए ‘सैगल कश्मीरी’ के नाम से कुन्दनलाल ने न्यू थियेटर्स की तीन फिल्मों क्रमशः ‘मुहब्बत के आंसू’ , ‘ज़िंदा लाश’ व ‘सुबह का सितारा’ में काम किया लेकिन संयोग से ये फिल्में बहुत अच्छा परिणाम न दे सकीं।1933 में फ़िल्म ‘पूरन भगत’ और ‘यहूदी की लड़की’ में गाये गीतों से उनकी ख्याति देश भर में फैलने लगी।न्यू थियेटर्स की फ़िल्म पूरन भगत के संगीतकार रायचंद बोराल थे जो सहगल के प्रशंसक थे।उस फ़िल्म के गीत ‘भजूं मैं तो भाव से श्री गिरिधारी’ व ‘दिन नीके बीते जाते हैं’ , ‘अवसर बीतो जात’ , ‘राधे रानी दे डारो ना बंसरी ‘ आदि बहुत ही लोकप्रिय हुए।इसी वर्ष आयी फ़िल्म ‘यहूदी की लड़की’ में के एल सहगल द्वारा गाई ग़ालिब की ग़ज़ल ‘नुक्ताचीं है ग़मे दिल उसको सुनाए न बने’ तो अत्यधिक लोकप्रिय हुई ।इस फ़िल्म का संगीत पंकज मलिक ने दिया था।इसी फ़िल्म का गीत ‘लग गई चोट करेजवा में’ आज तक सहगल प्रेमी बार बार सुनते हैं।
1933 में ही एक और महत्वपूर्ण घटना हुई जिसने सहगल को पूरे भारत में लोकप्रिय बनाने में अहम योगदान दिया।दरअसल फिल्मों में पार्श्वगायन पद्धति की शुरुआत 1935 से हुई उसके पहले तक अभिनय के साथ ही गीत गाना भी कलाकारों के लिए आवश्यक होता था।के एल सहगल के सुरीले गले की चर्चा 1932 में कलकत्ता के संगीत-समाज में फैल चुकी थी।1933 में उन्हें सुनकर ‘हिंदुस्तान म्यूजिकल प्रोडक्ट्स एंड वेरायटीज लि.कम्पनी’ के चरणजीत साहा ने उन्हें जीवन भर के लिए अनुबंधित कर लिया और उनके गाये सभी गीतों के ग्रामोफोन रिकार्ड जारी करने का अधिकार प्राप्त कर लिया था।फरवरी 1933 में ही सहगल साहब की आवाज़ में उनके गाये ग़ैर फ़िल्मी गीतों का पहला 78 आर पी एम रिकार्ड जारी हुआ।वह ऐतिहासिक पहला गीत ” झुलना झुलाव री ” आज भी सहगल के शाहकार गीतों में शुमार होता है।राग देव गांधार पर आधारित इस गीत में के एल सहगल के गले का सौंदर्य पूरी तरह सामने आता है।मुरकियाँ,मींड और अन्य शास्त्रीय अंग की विशेषताओं से सम्पन्न उस गीत ने लोकप्रियता का नया कीर्तिमान बनाया।आज भी लोग सहगल को सुनने के क्रम में उस गीत को ज़रूर सुनते हैं।इस कम्पनी ने सहगल की अंतिम फ़िल्म ‘परवाना'(1947) तक के सभी गीत जारी किए।सहगल की फ़िल्म ‘भक्त सूरदास'(1942) व फ़िल्म ‘तानसेन'(1943)के रिकार्ड अपवाद स्वरूप ‘द ग्रामोफोन कम्पनी लि.’ ने जारी किया।के एल सहगल ने अपने करियर के लगभग 17 वर्षों में कुल 200 गाने गाए लेकिन 1940 में न्यू थियेटर्स में आग लग जाने के कारण उनके कुछ गीत नष्ट हो गए।आज के एल सहगल के कुल प्राप्त गीतों की संख्या 185 है जिसमें फ़िल्मी गीतों की संख्या 142 और ग़ैर फ़िल्मी गीतों की संख्या 43 है।के एल सहगल ने हिंदी फ़िल्मों के लिए कुल 110,बांग्ला फ़िल्मों के लिए 30 व तमिल फ़िल्मों के लिए 2 गाने रिकार्ड करवाये।इसी तरह ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लों व भजनों की श्रेणी में 37 गीत हिंदी-उर्दू में,बांग्ला में 2 गीत,पंजाबी में 2 गीत और फ़ारसी में 2 गीत रिकार्ड करवाये।बांग्ला फिल्मों में गाने के लिए व रवींद्र संगीत गाने के संबंध में गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर से इनकी भेंट हुई।उनके द्वारा पसन्द किये जाने पर ही बांग्लाभाषी गानों के गाने का इनका मार्ग प्रशस्त हुआ।अपने इन्हीं कुल 185 गीतों की बदौलत उन्होंने अपने सुरीले गले से जिस करिश्मे को अंजाम दिया उसका जादू आज भी बरक़रार है।उनसे बहुत अधिक गीत गाने वाले मुकेश,मन्नाडे,मो.रफ़ी, तलत महमूद आदि अनेक गायक उन्हें गुरुतुल्य मान देते थे।भारतरत्न लता मंगेशकर तो के एल सहगल साहब की बहुत बड़ी फैन थीं।वे जब बालिका थीं तो उनके घर में सहगल साहब के रिकार्ड बजते रहते जिनकी वे कॉपी करतीं और अपनी माँ से कहतीं कि मैं बड़ी होकर इन्हीं की तरह गाऊँगी और इन्हीं से विवाह करूँगी।इसे लता जी ने अपने कई इंटरव्यूज़ में बताया लेकिन संयोग था कि सहगल साहब के जल्दी गुज़र जाने के कारण लता जी को उनके साथ गाने का मौका नहीं मिला।बाद में उन्होंने सहगल साहब की याद में उन्हें समर्पित गीतों का एक अल्बम निकाला।
1935 से 1945 के दशक में कुन्दनलाल सहगल अविभाजित भारत की सबसे लोकप्रिय हस्ती थे।वे जहाँ जाते तो उनकी एक झलक मात्र पाने के लिए हज़ारों लोग इकट्ठा हो जाते।कभी दस रुपये महीने की नौकरी करने वाले सहगल साहब का न्यू थियेटर्स से पहला अनुबंध ही 1932 में रु.130प्रतिमाह का हुआ जो अगले ही वर्ष 1000 रुपये महीने हुआ और1935 से 40 के बीच अनुबंध करने वाली कम्पनी ने उनका वेतन बढ़ाकर 3450 रुपये प्रतिमाह कर दिया जो उस ज़माने में बड़ी रकम हुआ करती थी।1940 में न्यू थियेटर्स में आग लगने के बाद वे कलकत्ता से बम्बई आये जहां रणजीत मूवीटोन के सेठ चंदूलाल शाह ने भक्त सूरदास,तानसेन व भंवरा कुल 3 फिल्मों के लिए एक लाख पांच हज़ार रुपये का भुगतान किया।इस तरह उस समय वे एशिया के सबसे मंहगे फ़िल्म स्टार थे।दौलत और शोहरत उनके कदमों में लोट रही थी लेकिन जैसा कि उनके समकालीनों ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि कुन्दनलाल सहगल इन सब चीज़ों से निर्लिप्त एक फ़क़ीरसिफत इंसान थे।घमण्ड और बड़बोलापन उन्हें छू भी नहीं पाया था।वे बेहद विनम्र और संकोची व्यक्ति थे।कलकत्ता में 1940 के आसपास ही उनके पैरों में श्याटिका का दर्द उभरने लगा जिससे बचने के लिए वे शराब का सहारा लेने लगे।बम्बई आने के बाद उनकी मयनोशी दिन ब दिन बढ़ती गयी लेकिन वे पीने के बाद और ज़्यादा संजीदा व खामोश हो जाते।उनके कई साथी संगीतकारों ने अपने संस्मरण में लिखा है कि यदि उनका कोई गाना बहुत हिट होता,बाज़ार में उसकी धूम होती और सहगल से मिलने पर हम जैसे ही उसे बधाई देते वह टॉपिक ही बदल देते।अपनी प्रशंसा सुनकर वे असहज हो जाते थे।अभिनय या गाने की रिकार्डिंग सम्पन्न होते ही वे उसे लगभग भूल जाते।उस बारे में बात करना भी नहीं पसंद करते थे।1932 से 1940-41 तक का कलकत्ता में बिताया समय सहगल के साधारण व्यक्ति से सुपर स्टार बनने का समय था।इस दौर में उन्होंने स्ट्रीट सिंगर,चंडीदास और देवदास जैसी सुपर हिट फिल्मों के अलावा अन्य कई फिल्मों में भी अभिनय किया और अनेक मधुर और यादगार गीत गाये।कलकत्ता में रहने के दौरान ही 1933-34 में वे अपने परिवार से मिलने जालंधर आये जहां 1934 में होशियारपुर की आशारानी से उन्होंने परिवार की मर्ज़ी से विवाह किया जिनसे कालांतर में एक पुत्र और दो पुत्रियां हुईं।सितम्बर1935 में फ़िल्म देवदास के प्रदर्शन के साथ ही पूरे देश में उनका अपार यश फैला और वे हिंदी सिनेमा के उस दौर के सबसे बड़े अभिनेता और गायक के रूप में जाने-माने गए।कलकत्ता से बम्बई आने पर उन्होंने कई हिट फिल्में कीं और 1944 में एक बार फिर कलकत्ता गए।वे न्यू थेयटर्स के संस्थापक बी एन सरकार का जीवन भर एहसान मानते रहे क्योंकि उन्होंने ही सर्वप्रथम उनकी अद्वितीय प्रतिभा को पहचाना और फिल्मों में अभिनय व गायन का अवसर दिया था।1945,46 व 47 में वे पुनः बम्बई आये और हीरोइन सुरैया के साथ तदवीर,उमर ख़य्याम व परवाना फ़िल्म में अभिनय व गायन किया।1945-46 में उन्होंने कारदार प्रोडक्शन की ‘शाहजहां’ फ़िल्म में काम किया जिसका संगीत नौशाद ने दिया था।उस फ़िल्म के गीत बहुत लोकप्रिय हुए।’जब दिल ही टूट गया तो जी के क्या करेंगे’ और ‘ग़म दिए मुस्तक़िल कितना नाज़ुक है दिल ‘ आदि गीतों की पूरे भारत में धूम मच गई।बम्बई में ही बीमार होने पर वे विश्राम के लिए 26 दिसंबर 1946 को अपने परिवार के पास जलंधर आये।उन्हें अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था।जलन्धर आकर उन्होंने अपना सिर छिला दिया और सुबह शाम अपनी हारमोनियम पर खुद के रचे भजन गाते।उनके पुत्र मदनमोहन ने एक इंटरव्यू में बताया कि वे सुबह उठकर घर की बाल्कनी में बैठकर ‘उठो सोने वालों..’ भजन गाते।वे कृष्ण भगवान के उपासक थे।वे घर में कहते कि मेरा मन कहता है कि अब एक साधु का जीवन बिताऊं।कहते कि अगर तबियत ठीक हो गयी और बम्बई गया तो केवल साधु-संतों और फ़क़ीरों पर फिल्में बनाऊंगा।लेकिन मधुमेह की बीमारी ने उन्हें बिल्कुल जर्जर कर दिया था।18 जनवरी 1947 को प्रातः 6 बजे उन्होंने अंतिम सांस ली और अपनी नश्वर काया का त्याग किया।
के एल सहगल ने अनेक मर्मस्पर्शी भजनों की रचना की।उनका मशहूर गीत “सखि कौन देस राजे पियरा ” उन्हीं की रचना है।उस गीत को सुनकर के एल सहगल की आंतरिक वृत्ति का पता मिलता है।वे प्रेममार्गी संतों की तरह अंतरात्मा में ही परमात्मा को खोजने और पाने की बात कहते हैं —
मैं बैठी थी फुलवारी में
इक सखी आ गयी और बोली
सखि कौन देस राजे पियरा
तब मन ने मीठी बात कही
क्यों तूने इतनी बात गही
घर बैठे पी पा सकती थी
मैं विधी बताऊं वो क्या थी
बाहर के नैना मूंद सखी
और नैन हृदय के खोल सखी
अब अपने मुँह से बोल सखी
सखि कौन देस राजे पियरा
यह भी कहा जाता है कि के एल सहगल ने अपनी हिट फिल्मों ‘भक्त सूरदास’ और ‘पूरन भगत’ आदि में कई भक्ति परक रचनाएं स्वयं लिखीं। उनकी पत्नी आशारानी ने उनके निधन के बाद एक इंटरव्यू में बताया था कि वे अपने सुपरस्टार दौर में भी घर में समय बिताना ज़्यादा पसंद करते थे।कॉपी और पेन लेकर आसमान में देखते हुए भजन लिखा करते थे।वे गहरे आस्तिक व्यक्ति थे।परमात्मा की सत्ता पर उनका अटल विश्वास था।वे अपने लेटरहेड पर उर्दू में रचनाएं लिखा करते थे।उनका लेटरहेड भी निराला होता था जिस पर कलात्मक टायप में KLS लिखा होता और ऊपर एक संदेश लिखा होता ”गॉड इज़ लव “।यही के एल सहगल का निजी विश्वास था।उनके लेटरहेड पर उनकी कुछ रचनाएं उनके निधनोपरांत मिलीं उसमें एक बहुत लंबी नज़्म ”परदेस में रहने वाले आ ” शीर्षक से लिखी हुई मिलीं जिसकी कुछ पंक्तियां निम्नवत हैं —
” अब दिल को नहीं है चैन ज़रा
परदेस में रहने वाले आ
है ज़ब्त की हद से दर्द सवा
तारीक़ पड़ी दिल की दुनिया
फिर अपनी मोहिनी शक्ल दिखा
फिर प्यार की बातें आ के सुना
परदेस में रहने वाले आ …”
इस लम्बी नज़्म में कुछ पंक्तियां तो अद्भुत हैं जो उनकी रचनात्मक प्रतिभा का प्रमाण हैं।उनके चिंतन का मूल जीवात्मा और परमात्मा के संबंधों को अलग-अलग उपमाओं और रूपकों से व्यक्त करना था।
इसी तरह संगीतकार और कम्पोजर के रूप में भी उनकी प्रतिभा अनुपम रही।अपना पहला ग़ैर फ़िल्मी गीत “झुलना झुलाओ री ” भी उन्होंने स्वयं राग देव गांधार में कंपोज किया था।इस गीत का रिकार्ड जारी होने के एक वर्ष के भीतर ही इसकी पाँच लाख प्रतियां बिक गयीं जो कि एक कीर्तिमान था।के एल सहगल हिंदुस्तान के हर संगीतप्रेमी घर में सुने जाने लगे।अपने ग़ैर फ़िल्मी ग़ज़लों व भजनों में अधिकांश की धुनें उन्होंने स्वयं बनाईं।उनके कई मित्रों ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि उनका प्रिय राग भैरवी था।उनकी तमाम रचनाएं इस राग में निबद्ध मिलती हैं।उनकी गाई भैरवी की ठुमरी ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाय” ने सफलता का एक नया रिकॉर्ड बनाया।वे अपने करियर के सफल दिनों में सन1935 में एक बार अपने मित्र के साथ इलाहाबाद की म्यूजिक कांफ्रेंस में आये जिसमें उस समय के लगभग सभी विख्यात शास्त्रीय गायक मौजूद थे।उस्ताद फैयाज़ खां, पंडित ओंकारनाथ ठाकुर,वी डी पलुस्कर,नारायण राव व्यास,विनायक राव पटवर्धन आदि की उपस्थिति में के एल सहगल ने उस समय तक के अपने हिट गाने कार्यक्रम में प्रस्तुत किया।जनता सहगल के गीतों पर दीवानी थी और युवा श्रोता ‘वन्स मोर-वन्स मोर’ की आवाज़ लगा रहे थे लेकिन वे बड़े और गुणी गायकों के सम्मान में कुछ गीत सुनाकर बैठ गए।इसी तरह उनके मित्र और विख्यात कलाकार पहाड़ी सान्याल ने उनसे संबंधित कलकत्ता के एक संगीत जलसे का उल्लेख किया है।ये वही पहाड़ी सान्याल थे जिनके यहां, गुरु की खोज में भटकने के दौरान महान गायक भीमसेन जोशी ने कुछ दिनों तक नौकरी की थी।पहाड़ी सान्याल ने कलकत्ते के उस जलसे के बारे में लिखा है कि सन 1938 में आफ़ताब ए मौशीकी उस्ताद फैयाज़ खां के सम्मान में वो जलसा हुआ था।उस्ताद जी सहगल साहब को पहले इलाहाबाद में सुन चुके थे।उन्होंने कार्यक्रम में पहुंचते ही के एल सहगल को सुनने की इच्छा ज़ाहिर की और उनकी तारीफ़ करते हुए कहा कि हमारे खानदान में सैकड़ों वर्षों से गायकी होती है लेकिन सहगल अपनी 3-4 मिनट की गायकी में जो कमाल पैदा करते हैं उसकी जितनी भी तारीफ़ की जाय, कम है।वहीं उस्ताद फैयाज़ खां ने सहगल को अपना शिष्य बनाने की बात कही।के एल सहगल को यूं तो अब किसी गुरु की ज़रूरत नहीं थी लेकिन एक बड़े शास्त्रीय गायक के सम्मान में वे विनत हो गए और उन्होंने खुशी-खुशी उस्ताद फैयाज़ खां से गंडा बंधवाया।सहगल साहब बड़े गायकों,शायरों और कलाकारों की हद से ज़्यादा इज़्ज़त करते और उनके सम्मान में बिल्कुल बिछ जाते थे।ग़ालिब की शायरी से उनका लगाव भी अद्भुत था।वे अपनी किशोरावस्था से ही ग़ालिब की ग़ज़लें गाते रहते थे।बाद में अपनी आवाज़ में ग़ालिब की अनेक ग़ज़लें रिकार्ड कराकर उन्होंने घर-घर में ग़ालिब की शायरी पहुंचाया।महान ग़ज़ल गायिका बेगम अख़्तर ने अपने इंटरव्यूज़ में कई बार इस बात को स्वीकार किया कि ग़ालिब की ग़ज़लों को जिस तरह सहगल साहब ने गाया वैसा किसी और गायक के लिए मुमकिन नहीं है।के एल सहगल ग़ालिब की शायरी में मानव मन के सूक्ष्म पर्यवेक्षण को बहुत पसंद करते थे।कुछ लोगों ने तो यहां तक लिखा कि उनके शराब से प्रेम का कारण भी ग़ालिब से अत्यधिक प्रेम था।प्रसिद्धि के दिनों में सहगल साहब को देश के अनेक बड़े राजा-महाराजा व सेठ लोग अपनी निजी महफ़िलों में आमंत्रित करते थे जहां वे भजनों से शुरुआत करके ज़्यादातर ग़ालिब की ग़ज़लें ही गाते थे।
महान गायक व अभिनेता के एल सहगल के करिश्माई जीवन के बारे में सभी तथ्यों को एक लेख में समेटना असम्भव है।अब तो सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफॉर्म पर उनके बारे में बहुत सी सामग्री है।उनकी सारी फ़िल्मे और उनके लगभग सभी गीत यूट्यूब पर उपलब्ध हैं।उनके निधन के बाद कलकत्ता के उनके मित्रों द्वारा उन पर 1955 में बनाई फ़िल्म भी यू ट्यूब पर है।आज भारत के अलावा दुनिया के अनेक देशों में उनके फैंस क्लब हैं जो उनकी जन्मतिथि व पुण्यतिथि पर कार्यक्रम आयोजित करते हैं।दुनिया के इतिहास में वे अकेले ऐसे गायक हैं जिनके गानों को श्रीलंका के रेडियो सीलोन ने प्रतिदिन सुबह 7:57 से 8 बजे तक लगातार पचास वर्षों तक बजाया।
के एल सहगल के गायन और अभिनय की विशेषताओं से भी बढ़कर उनका बेहतरीन इंसान होना था।प्रसिद्धि के शिखर पर भी वे कभी गर्वोन्मत्त नहीं हुए बल्कि सदैव बेहद विनम्र और कम बोलने वाले थे।गरीबों और ज़रूरतमंदों के लिए वे सब कुछ लुटाने को तैयार रहते थे।जाड़ों के महीनों में कितनी ही बार उन्होंने अपनी पहनी हुई कोट किसी ठंड से ठिठुरते हुए भिखारी को ओढ़ा दिया।किसी सड़क किनारे सुरीला गा कर मांगने वाले भिखारी को सुना तो सभी जेबों को उलटकर जितना भी पैसा होता उसे दे देते।एक बार बम्बई में समंदर किनारे टहलते हुए एक मैले कुचैले वस्त्रों में बैठे गा रहे व्यक्ति पर ऐसा रीझे कि उसे कोट पेंट की सभी जेबों से उलट कर उसे सारा रुपया दे दिया।ये 1935 के आसपास की बात थी।उनके साथ टहल रहे मित्र ने कहा कि – ” कुंदन- तुम्हें पता है कि तुमने उसे कितने रुपये दे डाले ? मैं देख रहा था कि तुमने उसे पांच हज़ार से ऊपर के नोट दे दिए “।सहगल साहब का जवाब था कि ” छड़ यार,जब ऊपर वाला मुझे गिन कर नहीं देता तो मैं किसी को देते वक्त पैसे क्या गिनूं “।इसी तरह अपनी सफलता के दिनों में उन्होंने न जाने कितने स्ट्रगलर्स को बड़े लोगों से मिलवाया और उनकी तन-मन-धन से मदद की। अभिनेत्री नरगिस की माँ जद्दनबाई को उन्होंने ही कलाकार और प्रोड्यूसर बनाया।अपने ड्राइवर व नौकरों की हर तरह से मदद की।एक बार उनकी कार का मुसलमान ड्राइवर बीमार पड़ा।उसने ख़बर भिजवाई कि बुख़ार के कारण आज वो नहीं आ सकेगा।सहगल साहब अपनी शूटिंग और सारा प्रोग्राम कैंसिल कर उसके घर पहुंच गए।उसे बुखार में तपता देख उसके पैर दबाने लगे।डॉ बुलवाया और उसके हफ्ते भर की दवाएं व फल-फ्रूट मंगाकर उसे देकर तब वहां से वापस आये।इस तरह के न जाने कितने क़िस्से उस महान इंसान के साथ जुड़े रहे।वे आत्मप्रचार और अपनी प्रशंसा से चिढ़ने की हद तक दूर भागते थे।उनका एक और प्रिय शौक था -तरह तरह के शानदार व्यंजन बनाना।वे शूटिंग पर जाते तो कई तरह के पंजाबी डिश बनाकर पूरा टिफिन भर के ले जाते और साथी कलाकारों को खिलाते।उन्हें साथियों को खिलाने-पिलाने में बहुत आनंद आता था।उनके मित्र और साथी कलाकार पहाड़ी सान्याल ने लिखा है कि ” मैंने ऐसा निश्छल,ईमानदार और मासूम आदमी अपनी ज़िंदगी में अन्यत्र नहीं देखा।” उनके निधन पर 1947 में अंग्रेजी सिने मासिक ‘फ़िल्म फेयर’के संपादक बाबूराव पटेल ने फरवरी,47 के अंक में लिखा कि “दैनिक समाचार पत्रों में उनके निधन की ख़बर प्रकाशित होने के समय देश में बंटवारे का माहौल था लेकिन हफ्तों तक समाचार पत्रों से दंगों,राजनीति और पाकिस्तान से संबंधित ख़बरें नगण्य हो गईं।हर जाति,धर्म व समाज में केवल सहगल की चर्चा से ही अख़बार के पन्ने भरे रहते थे।ट्रेन,बस,ट्राम,टैक्सी,गलियों, सिनेमाघरों,पार्कों व चौराहों पर लोग दिल की गहराइयों से रुआंसे होकर अपने प्रिय कलाकार को याद करते दिखाई पड़ते।” ऐसे महान कलाकार कुन्दनलाल सहगल को सादर नमन।
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