कुबेरनाथ राय हिन्दी के प्रसिद्ध निबंधकार रहे हैं। उनकी प्रसिद्ध पुस्तकों ‘रस आखेटक’ और ‘प्रिया नीलकंठी’ के बहाने या लेख लिखा है युवा लेखक प्रचण्ड प्रवीर ने। प्रचण्ड आईआईटी दिल्ली से केमिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के बाद बड़ी कंपनियों की नौकरी में आवाजाही करते रहते हैं और हिन्दी में विविध विधाओं में लिखते हैं। हाल में ही उनका उपन्यास आया है ‘मिटने का अधिकार- मॉडरेटर
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कल्पना कीजिए कि आप ‘आत्मा हशमतराय चैनानी’ के प्रशंसक हैँ और उनके स्मृति मेँ आयोजित सङ्गीत कार्यक्रम मेँ बड़े शौक से अपने एक मित्र के साथ जाते हैँ। मान लीजिए आप पाँच हज़ार रूपए की रकम खर्च करके महँगा टिकट लेकर सिरी फोर्ट आडिटोरियम मेँ बैठे होँ कि अब हमेँ स्वर्गीय ‘सी. एच. आत्मा’ का प्रसिद्ध गीत ‘प्रीतम आन मिलो’ सुनने को मिलेगा। आप पर यह ज़ाहिर होता है कि वहाँ आयोजकोँ ने गाने के लिए आश्चर्यरूप से ‘हिमेश रेशमिया’ या ‘हनी सिंह’ को आमन्त्रित किया है। इस विचित्र और हास्यास्पद घटना का दोष आप किसे देना चाहेँगे? मतिमन्द आयोजकोँ को या हमारे प्रिय गायक ‘हिमेश रेशमिया’ को? वैसे यदि ऐसी काल्पनिक घटना अस्तित्व मेँ आये भी तो सम्भव है कि आप यही पाएँ कि आपके मित्र ‘हिमेश रेशमिया’ की आवाज़ मेँ ‘प्रीतम आन मिलो’ का आनन्द ले रहे हैँ, भले ही आपको कोफ्त मेँ उठ कर भागना क्योँ न पड़ जाए।
विस्मृत नायकोँ से परिचित होना अपना दायित्व है, यह समझ कर सबोँ को सम्यक प्रयत्न करना चाहिए। साथ ही यह प्रयत्न स्वयं मेँ ईमानदार होना चाहिए। हालाँकि समकाल मेँ विस्मृति का चलन इतना अधिक है और सत्य-प्राप्ति का दावा इतना मुखर है कि वह वज्र मूर्खता का वरण कर चुकी है। अब किसी तरह के संवाद या विमर्श की सम्भावना नहीँ रही, केवल वितण्डा शेष है।
दुर्भाग्य से हिन्दी साहित्य के समालोचक यह कदापि नहीँ मानते कि खड़ी बोली के हिन्दी साहित्य की सर्वोत्तम उपलब्धि प्रेमचन्द के उपन्यासोँ मेँ न होकर जयशङ्कर प्रसाद की ‘कामायनी’ मेँ है। ऐसा नहीँ मानने के कई कारण हो सकते हैँ, परन्तु इनमेँ दो कारण मुख्य हैँ। पहला कारण है – धूर्तता (कि हम किसी और को अन्य किसी कारणोँ से महान बता कर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैँ) और दूसरा कारण है – मूर्खता। यह कारण अधिक बड़ा है और इसका उद्घोष कुछ इस तरह के बयानोँ मेँ आता है – ‘साहित्य को पाठकों की कसौटी पर रखना चाहिए।‘ (भले ही वे पाठक कुपढ़ और अव्वल दर्जे के जाहिल होँ।) और ‘फलाना लेखक की ‘कालजयी’ रचना-यात्रा से नहीँ गुजरा हूँ क्योंकि उन्हें पढ़ना असंभव है।‘ ऐसा कहने वाले नामी पत्रकार, भूतपूर्व नौकरशाह, प्रोफेसर और स्वनामधन्य आलोचक आदि हैँ।
यहाँ हमेँ स्पष्ट होना चाहिए कि अज्ञानता और मूर्खता अलग-अलग चीजेँ हैँ। जिन्हेँ इसका अन्तर नहीँ पता, पहले वे अपनी शब्दावली और शब्दोँ की व्युत्पत्ति के अपने सीमित ज्ञान का परिष्कार करेँ क्योँकि सम्भव है कि आगे कही जा रही बहुत सी बातेँ सिर से ऊपर जाएँगी तथा चार आँखोँ के बावजूद आपके खञ्जन नयनोँ मेँ खटकेँगी।
कुछ ऐसी ही चालाकियाँ और मूर्खताओँ का शिकार रही हैँ कुबेरनाथ की रचनाएँ। कुछ विद्वानोँ की प्रशंसा के उपरान्त कुबरेनाथ राय के ललित निबन्ध सङ्ग्रह – ‘प्रिया नीलकण्ठी’ और ‘रस आखेटक’ – को पढ़ना हुआ। ‘विद्या विकास एकेडेमी’ से पुनर्प्रकाशित ‘रस आखेटक’ का सम्पादन गाजीपुर के ‘मुहम्मद हारून रशीद खान’ ने किया है।
सम्पादक महोदय का कुबेरनाथ राय के बारे मेँ मंतव्य है – ‘दरअसल, वे ऐसे लेखक हैँ, जो अपनी परिस्थितियोँ से सामञ्जस्य नहीँ स्थापित कर पाए।‘ वे डॉ. नामवर सिंह को उद्धृत करते हैँ कि ‘ऐसे प्रतिक्रियावादी लेखक के बारे मेँ क्या लिखना, यूँ भी श्री राय मेँ उर्दू, मुसलमान, नारी, सेक्युलरिज्म, मार्क्सवाद, आधुनिक-बोध के प्रति गहरा दुराग्रह है और हिन्दूवादी राष्ट्रवाद के प्रति अतीव आग्रह भी।‘ सम्पादक अपना मंतव्य रेखाङ्कित करते हैँ कि ‘राय साहब भी (टी. एस. इलिएट की तरह) धार्मिक आस्था के स्तर पर ‘सनातनी’ हिन्दू राजनीति और व्यवहार के स्तर पर भाजपाई तथा साहित्य के स्तर पर ‘क्लैसिसिस्ट’ रहे।‘
इन सारे मंतव्योँ के बावजूद इन्हेँ पुस्तक के सम्पादन करने की आवश्यकता क्योँ पड़ी यह मेरे समझ से परे है। वे भूमिका के अन्त मेँ स्वीकारते हैँ कि – “इस पुस्तक के सम्पादन मेँ बहुत सारी कठिनाइयाँ आई, इनमेँ सर्वाधिक थीँ – कुबेरनाथ राय जी की भाषा, जिसमेँ लोच तो है, लेकिन अनेक सन्दर्भोँ को लेकर कठिनाइयाँ आती रहीँ।“
यह विचारणीय है कि जब आप महानुभाव को सन्दर्भ समझ ही नहीँ आते तो आपने सम्पादन का भार क्योँ उठाया? हिमेश रेशमिया क्योँ कर ‘सी. एच. आत्मा’ को श्रद्धाञ्जिल दे। उसे ‘सुरूर … हुजूर…’ आदि नाक से गाकर संतोष कर लेना चाहिए। साथ ही ऐसे आयोजकोँ या प्रकाशकोँ पर भी लानत देनी चाहिए कि ‘नाच जाने आँगन टेढ़ा’ वालोँ की हास्यास्पद नौटङ्की क्योँ प्रस्तुत कर रहे हैँ? सम्पादन और सङ्कलन मेँ कोई अन्तर है या नहीँ?
यह रोग सम्पादक का कम, ग़ाफ़िल प्रकाशकोँ या कहेँ अधकचरी हिन्दी पट्टी का अधिक है। उदाहरण के लिए बहुत कम लोग जानते हैँ कि मार्क्स के बहुचर्चित कथन – ‘धर्म आम जनता की अफीम है’- दरअसल एक लम्बे वाक्य का कटा हिस्सा है। पूरा वाक्य इस तरह है – ‘धर्म आम जनता की अफीम है, यह दबे-कुचले लोग की आह है, हृदयहीन संसार का हृदय है और आत्महीन परिस्थितियोँ की आत्मा है।‘ (Religion is the opium of the people. It is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, and the soul of our soulless conditions). इस रहस्योद्घाटन के बावजूद कुछ लोग बेईमानी से कराह उठेँगे कि हमेँ तो यह पहले से मालूम था, लेकिन मार्क्स साहब कुछ और कहना चाह रहे हैँ जो आप नहीँ समझ रहे हैँ, क्योँकि समझ का, करुणा का, सत्य का, न्याय का, प्रेम का, रस रञ्जन आदि से लेकर हिमेश रेशमिया के ‘सुरूर’ का ठेका हमने ही तो ले रखा है।
जिन्हेँ जानकारी नहीँ है और बड़े उत्साह से ‘स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुत्व’ का ढ़ोल पीटते हैँ, उन्हेँ याद दिलाना चाहूँगा कि यह नारा मूल मेँ इस तरह का है – ‘स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व या मौत।‘ ऐसा नारे का झण्डाबरदार रोब्सपियर खुद मारा गया लेकिन वही हिंसा और कुण्ठा बाकी के आन्दोलनोँ मेँ छोड़ गया। यही ‘हिंसक कुण्ठा’ हमारे हिन्दी पट्टी के समस्त सामाजिक चिन्तन, वैचारिकी तथा साहित्य समालोचना मेँ मूर्खतापूर्ण ढङ्ग से विराजमान है कि हमारी बात मान लो वरना हम तुम्हारी मरम्मत कर देँगे।
बहरहाल, ‘रस आखेटक’ व ‘प्रिया नीलकण्ठी’ का सम्पादन और विश्लेषण कूढमगजोँ को अवश्य छोड़ देना चाहिए क्योँकि श्रम करना उनके बस का रोग नहीँ है। कुबेरनाथ राय पर टीका-टिप्पणी करने का वही अधिकारी हो सकता है जिसने ‘इलियाड’ या ‘ओडिसी’ पढ़ी हो, ग्रीक ट्रेजेडी पर जिसकी पकड़ हो, या फिर वह जिसने शेक्सपियर के साहित्य का गहन अध्ययन किया हो, या जिसने कालिदास के काव्य के बहुतेरी टीकाएँ पढ़ीँ हो, या फिर जिसने तन्त्र साहित्य पढ़ा हो तथा दस महाविद्या की अवधारणा से परिचित हो, या फिर वह जिसने रामचरित मानस का सम्यक पारायण किया हो, या फिर वह जिसने ऋगवेद की ऋचाओँ का कई-कई बार अध्ययन-मनन-विवेचन किया हो, या फिर जो अपभ्रंश काव्य से थोड़ा बहुत भी परिचित हो। मैँ यहाँ रेखाङ्कित करना चाहूँगा कि साहित्य समालोचना कुछ आसान काम है, उसकी तुलना मेँ निबन्धकार की आलोचना या प्रतिष्ठित आलोचक की पर्यवेक्षणा कहीँ अधिक कठिन है। कम-से-कम वे सज्जन इसे कदापि नहीँ कर सकते जिन्हेँ ‘क्लैसिक’ का ज्ञान नहीँ और दर्शन की मूलभूत समझ नहीँ है।
दु:ख की बात है, हिन्दी साहित्य समालोचना अब किसी भी तरह के ‘क्लैसिक’ से दूर भाग चुकी है। न मिथकोँ का ज्ञान है न ही उसका सम्यक विमर्श देखने को मिलता है। यहाँ तक कि रामायण और महाभारत के विश्लेषण हमारी चेतना से नदारद हैँ, और यदि कहीँ है तो वे तथाकथित ‘हिन्दूवादी’ होने के कारण अस्पृश्य हैँ।
मुझे यह स्वीकार करने मेँ सङ्कोच नहीँ कि काव्य समालोचना के लिए ‘रस सिद्धान्त’ पर्याप्त नहीँ है, किन्तु हास्यास्पद स्थिति यह है कि किसी आलोचक को रस सिद्धान्त की, या ध्वनि सिद्धान्त की, या अलङ्कार की मूलभूत समझ भी नहीँ है। कुछ तो यह कहने लगेँगे कि अरे, अरे ये तो संस्कृत काव्य समालोचना का सिद्धान्त है! अरे रे रे, आप इसे हिन्दी मेँ कैसे ला सकते हैँ? लेकिन जब पाश्चात्य काव्य समालोचना कुछ मैनेजरोँ से मैनेज की जाती हैँ, तब महानुभावोँ की सारी आपत्ति यूजीसी के सिलेबस के पीछे छुप जाती हैँ।
देरिदा को पढ़ने वाले विखण्डनवादी वैचारिक दरिद्रोँ से, फूको को फूँक-फूँक करने पढ़ने वालोँ से यदि पूछ लिया जाए कि मम्मट की गर्वोक्तिपूर्ण स्थापना – कि समस्त सम्भव काव्य समालोचना उनके ‘काव्यप्रकाश’ से प्रकाशित है – पर क्या कहना चाहेँगे तो वे मम्मट के बारे मेँ ‘चैटजीपीटी’ से पूछेँगे कि ये साहब कौन थे? कुछ भूतपूर्व नौकरशाह जो इधर-उधर सूखा-बासी चर कर आएँगे और कहेँगे कि भारतीय परम्परा मेँ ‘मूल्य-चिन्तन’ कहीँ है ही नहीँ, यदि उनसे ‘तन्त्रालोक’ का जिक्र छेड़ दिया जाए तो अभिनवगुप्त के नाम का शेषनाग ऐसा डँसता है कि वे पूछने वाले को ‘ब्लॉक’ करके अपने बिल मेँ निराला का नाम लेते कर आराम करने लग जाते हैँ। कोई भारवि के नाम भावुक होकर एकदम से उछल पड़ता है, कोई विद्यापति के नाम से अपनी अविद्या के प्रकट हो जाने से रुष्ट हो जाता है।
आधुनिक समालोचना की मौलिक स्थापना यह है कि हम पारम्परिक विमर्श को छोड़ कर आगे आ गए हैँ। बहुत अच्छी बात है। लेकिन इस तरह के छोड़ के आगे बढ़ने का हाल कुछ हमारे दोस्त फकीर साहब जैसा है। हमारे दोस्त फकीर साहब ने एक बार हमसे कहा कि मान लीजिए आप अपनी प्रेमिका के साथ कहीँ घूमने जा रहे होँ और कोई मनचला आकर आपके सामने आपकी प्रेमिका पर कुछ टीका-टिप्पणी कर देता है, कुछ अभद्र बोल देता है, क्या आप उसे पीटेँगे या नहीँ? हमने फकीर साहब को शक की निगाह से देखा और कहा कि जी हाँ बिल्कुल! धो ही दिया जाएगा! इस पर फकीर साहब कहने लगे हाय, हाय यह तो हिंसा होगी। एक अहिंसक व्यवहार का उत्तर हिंसा से देना कहाँ की बुद्धिमानी है? मैँने कहा कि आप हिंसा को ठीक से समझते नहीँ है। ज़रा गान्धी जी को ठीक से पढ़िए। फकीर साहब ने कहा कि गान्धी जी को गुजरे ज़माना हो गया है। जिस विचार को समाज द्वारा परख लिया जा चुका है, सभ्यता द्वारा विचार करके आगे चल दिया गया है, हम उसपर दुबारा क्योँ समय नष्ट करेँ!
कुल मिला कर बौद्धिक विकास का ऐसा उपक्रम हमारे चिन्तन प्रणाली के लिए घातक है। इसे घातक कहना अटपटा-सा लग सकता है जैसे कि हम प्लेटो की जीवविज्ञान को क्या महत्त्व देँ या फिर हम डॉल्टन के आणविक सिद्धान्त को क्या महत्त्व देँ? वे इतिहास की वस्तुएँ हैँ और उनका हमारे समकालीन समझ मेँ कोई विशेष योगदान नहीँ। हम अरस्तू के भूकेन्द्रीय ब्रह्माण्डीय संकल्पना का क्या करेँ या काण्ट के गलत-सलत भूगर्भशास्त्र की अवधारणाओँ को क्योँ पढ़ेँ? यहाँ ध्यातव्य है कि विज्ञान निरन्तर परिष्कृत होता रहता है और वहाँ लोकतान्त्रिक ढंग से सही-गलत का निर्धारण होता है और नए विचारोँ और स्थापनाओँ को जगह मिलती है। लेकिन समस्त ज्ञान के क्षेत्र ऐसे नहीँ है जैसे कि ‘गणित’। गणित मेँ कोई एक प्रमेय सिद्ध हो गया तो हमेशा सिद्ध ही रहेगा। गणित मेँ ज्ञान के नए क्षेत्र खोजे जाते हैँ, पुराने क्षेत्रोँ का परिमार्जन नहीँ होता। उसी तरह दर्शन मेँ नानाविध चुनौतियाँ हैँ। अनालिटिक फिलॉसफी वाले मानते हैँ कि बहुत कुछ हमेँ अब आधुनिक विज्ञान के हवाले छोड़ देना चाहिए जहाँ बहुत से वैज्ञानिक दार्शनिक ही हैँ और सत्य के अनुसन्धान मेँ सतत लगे हुए हैँ। फेनोमेनोलॉजी वाले (भातिवादी) यह कहते हैँ कि हमेँ परमार्थमीमांसा (मेटाफिजिक्स) छोड़ देनी चाहिए। फिर भी दर्शन मेँ बहुत से अनिर्णीत प्रश्न हैँ और बने रहेँगे। यदि ऐसा न होता तो दुनिया भर मेँ समस्त दार्शनिक चिन्तन अवरुद्ध हो जाता और केवल ‘अस्मितामूलक राजनीति’ ही दर्शन का एकमात्र विषय शेष रहता है। पर ऐसा है नहीँ!
उसी तरह काव्यशास्त्र की अवधारणाएँ अनुचित या अनर्थकारी सिद्ध हो गयीँ होँ, ऐसा नहीँ है। वे केवल अपर्याप्त सिद्ध हो सकती हैँ। उसी तरह से सौन्दर्यबोध व साहित्य समालोचना, आधुनिक विचारकोँ के फतवे से या किसी मूलगामी प्रबन्धोँ या प्रतिबन्धोँ से निबट जाएगी यह भयङ्कर भूल है।
अम्बुज पाण्डेय कुबेरनाथ राय पर अपने आलेख मेँ लिखते हैँ – “लोक उनके लेखन का प्राण तत्व है। वह लोक, जहाँ बहुत कुछ त्याज्य और रूढ़ियों में जकड़ा हुआ है। अशिक्षा, कुरूचि और अपसंस्कृति का फैलाव यहाँ इतना अधिक है कि सामान्य व्यक्ति विचलित हो उठता है। यह इतना नीरन्ध्र और परिवर्तनविरुद्ध है कि शिक्षित और कुलीन इस लोक की तरफ दृष्टि फेरकर देखना तक नहीं चाहते। लेकिन इसी लोक से कुबेरनाथ राय मानव जीवन का महत्तम उठा लेते हैं। उनकी पारखी दृष्टि, मनन और रमण करने की उनकी मेधा हतप्रभ करती है। प्रकृति के प्रांगण में मानव समेत नाना जीवधारियों के सहअस्तित्व के मेल-मिलाप से जो मूल्य उन्होंने सिरजे हैं, वो बड़े काम के हैं। “
हमारी समकालीन आलोचना की यह अघोषित माँग है कि हम भारत के इस लोक से हट जाएँ। जो मान्यताएँ हमेँ कुत्सित लगे, उसका हम विरोध करेँ। जो परम्पराएँ हमारी बुद्धि से अनुकूलित नहीँ है, उसे हम हेय समझेँ। यह बौद्धिकता की माँग कुछ हठ से, कुछ अभिमान से विद्यमान है तथा राजनैतिक उपक्रमोँ द्वारा पोषित-पालित हैँ। इसमेँ वैसे कोई मूलभूत बुराई नहीँ है क्योँकि राजनीति तो शक्ति निर्माण का उपक्रम है और वह ऐसा करने का हरसम्भव उचित-अनुचित प्रयास करेगा। समस्या साहित्यकारोँ और विचारकोँ के साथ है जो दौलत और राजनैतिक ताकतोँ के सामने बिना गहराई के विचारे आत्मसमर्पण कर देते हैँ। ऐसे साहित्यकारोँ और विचारोँ का मूलभूत और बहुधा घटिया किस्म का प्रश्न होता है – “आप अन्त मेँ क्या चुनते हैँ?” प्यारे भाई साहब और बुद्धिमती बहन जी, अन्त के ‘सही’ होने का ठेका आपने अपने विचार के प्रारम्भ मेँ ही ले लिया है तो काहे का विचार, किस बात का विमर्श? शब्दकोश से समझा जाए तो क्या इसको हठधर्मिता और मूर्खता नहीँ कहते?
तन्त्रागमोँ का निर्दशन है हेय और उपादेय मेँ अभेद देखना। यह संस्कृति जब काली मेँ मूर्तमान होती है, तब हमारे आलोचकोँ को इसमेँ ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ नज़र आने लगता है। विलक्षण बात यह है कि यदि भूल से किसी से भी मूलभूत ‘तत्त्वमीमांसा’ या ‘ज्ञानमीमांसा’ की बात छेड़ दिया जाए तो ‘दर्शन आ गया, दर्शन आ गया’ का रुदन ले कर विमर्श की बाउण्ड्री पार भाग खड़े होते हैँ। मानोँ दर्शन आसमान से उतरी चीज हो! ऐसा करने वाले बहुत से नौकरशाह, कवि, छुटभैय्या आलोचक, यहाँ तक कि कई ख्यातिलब्ध साहित्यकार भी दृश्यमान होते हैँ। इस तरह के भागने से मैँ उनकी वीरता पर प्रश्न चिह्न नहीँ लगा रहा क्योँकि उनमेँ से कुछ लोग आहत होकर बाउण्ड्री के बाहर पेवेलियन से बेशर्मी का पैड बाँध कर, शब्दोँ के तीर-कमान लेकर निपटान करने या चरित्र हनन करने वापस लौटते भी हैँ। मैँ केवल उनकी अल्पज्ञता, हठधर्मिता, हिंसा और अशुचिता को रेखाङ्कित करना चाहता हूँ।
सबसे पहला सवाल यह है कि दार्शनिक करते क्या हैँ? इसका बड़ा अच्छा उदाहरण हमेँ लिबनिज के दर्शन मेँ मिलता है जो ‘मोनाड’ की पुरानी ग्रीक अवधारणा को नए सिरे से जीवित कर के समूचे संसार को व्याख्यायित करते हैँ। हम जानते हैँ कि इन्टिग्रल कैलकुलस की खोज, डिफरेंशियल कैलकुलस की खोज से पहले हुयी थी। इन्टिग्रल का जो साइन (सङ्केत चिह्न) है, दरअसल अंग्रेजी के ‘एस’ अक्षर का ही बृहद रूप है जो कि सतत (कन्टिन्युअस) द्रव्य की गणना करता है। यहाँ समस्या यह थी कि किसी भी द्रव्य को सतत तो माना नहीँ जा सकता है, क्योँकि उसकी आन्तरिक संरचना मेँ अणुओँ की असतत (डेसक्रेट) अवधारणा पुरानी चली आ रही है। लिबनिज का कहना था कि ‘इन्टिग्रल’ दरअसल मोनाड के गणन का प्रतिफल है (इन्टिग्रेशन है) और अणुओँ का असतत समुच्चय उसकी आधिभौतिक अभिव्यक्ति! परमार्थिक रूप से सही-सही जोड़ना है जो कि आधिभौतिक रूप से भी सही काम करेगा। यह बात और है कि आधुनिक गणित लिबनिज की अवधारणा से कैलकुलस को नहीँ देखता बल्कि गणित की दार्शनिक प्रतिपत्तियोँ मेँ बहुत विस्तार हो चुका है।
ठीक उसी तरह से आलोचक और निबन्धकार भी कुछ निचोड़ निकालते हैँ और कुछ अवधारणाएँ देते हैँ। ये अवधारणाएँ बड़ी अटपटी-सी लग सकती हैँ, पर वे शीघ्रता से अस्वीकृत नहीँ की जानी चाहिए। सबको स्वीकार लिया जाए, यह भी आवश्यक नहीँ है।
कुबेरनाथ राय अपने चर्चित लेख ‘रस-आखेटक’ मेँ एक विचित्र अवधारणा प्रस्तुत करते हैँ जो कि विचार करने को बाध्य करती है (जिसके कथ्य से मैँ असहमत हूँ किन्तु उल्लेखनीय समझता हूँ ताकि यह लेख मूल मेँ पूरा पढ़ा जाए) –
“एक अजीब सी बात है दोपहर को जेठ मेँ उस अग्निकुण्ड के बीच आम या जामुन की डाल से कोयल का किन्नर-कण्ठ से कूकना। योँ कवि-प्रसिद्धि के अनुसार ’कोयल कूकती है’- पर वास्तव मेँ यह कूकने वाला नर-कोयल होता है यह किन्नर-कण्ठ है। मादा-कोयल सिर्फ प्रजनन ही करती है। सृष्टि का गन्धर्व तो पुरुष कोयल होता है। सृष्टि मेँ यदि गौर से देखा जाए तो सर्वत्र नर ही सुन्दर और गुणवान् है नारी मेँ सृजन सामर्थ्य मात्र है और कुछ नहीँ। मयूर, शुक, कुक्कूट, पारावत, वृषभ, मृग आदि सभी नर ही आकर्षक, सुन्दर और गुणवान् होते हैँ।“ यह वक्तव्य कुछ ‘मीर तक़ी मीर’ के मशहूर शेर की याद-सा दिलाता है –
“था वो तो रश्क-ए-हूर-ए-बहिश्ती हमीँ मेँ ‘मीर’
समझे न हम तो फ़हम का अपनी क़ुसूर था”
मैँ मानता हूँ कि डॉ. नगेन्द्र से लेकर डॉ. रामसागर त्रिपाठी ने रस सिद्धान्त और उसकी आलोचना को ठीक से नहीँ पढ़ा। लगभग सभी विद्वानोँ ने रस-विघ्नोँ की दूषित व्याख्या दी है, जो कि पहली बार अभिनवगुप्त की टीका ‘अभिनवभारती’ मेँ मिलती है भरतमुनि के नाट्यशास्त्र मेँ नहीँ। इसका कारण यह है कि हमारे यहाँ उच्छिष्ट पढ़ने का रिवाज़ है। मेरा मानना है कि शास्त्र को मूल मेँ ही पढ़ना चाहिए। हाँ, दुनिया भर का साहित्य हम मूल मेँ पढ़ लेँ, जीवन मेँ इतना अवकाश मिल नहीँ पाता। अत: मैँ अङ्ग्रेजी के प्रोफेसर कुबेरनाथ राय के निबन्धोँ से वर्जिल, होमर, सोफोक्लीज की ट्रेजडी, शेक्सपियर आदि के बारे मेँ पढ़ना अच्छा ही मानता हूँ। आज कुबेरनाथ राय की आलोचना इन अर्थोँ मेँ होनी चाहिए कि वे कितने प्रामाणिक थे। मसलन नित नए प्रमाणोँ के आते रहने से आर्य और द्रविड़ के संक्रमण पहले की तुलना मेँ अधिक जटिल और अधिक अस्पष्ट होता जा रहा है, इस अर्थ मेँ उनका आलेख ‘निषाद-बाँसुरी’ और उनकी स्थापनाएँ तथ्यात्मक रूप से पुरानी या कहेँ तो अशुद्ध भी जान पड़ेँगी।
यह निबन्धकार की सूक्ष्मदृष्टि है जो वाल्मीकि रामायण मेँ त्रिजटा के स्वप्न का अर्थ उद्घाटित करता है जो कि महाकाव्य के ठीक मध्य मेँ है। इससे वाल्मीकि रामायण मेँ शाक्त बीज का सन्दर्भ ढूँढ लिया गया है या सच मेँ वाल्मीकि ने ऐसा विचारा होगा, यह चिन्तन का विषय जान पड़ता है। फिलहाल, बहुत से लोग इस विचार को स्वीकार ही नहीँ करना चाहेँगे कि वाल्मीकि रामायण ऋगवेद पर एक बृहद टीका समझी जाती है। कुबेरनाथ राय ने अपने लेख ‘दिवस का महाकाव्य’ मेँ इसकी ओर सङ्केत किया है।
“कुछ आधुनिक विद्वानोँ की धारणा है कि ‘रामायण’ एक आकाशीय या नाक्षत्रिक महाकाव्य है। कम-से-कम ‘रामायण’ नाम से तो यही ध्वनि निकलती है – ‘राम नामक नक्षत्र का आयन वृत्त’। मैँ प्रतिदिन रामायण को आकाश मेँ घटित होते हुए किस प्रकार देखता हूँ, उसे ही यहाँ इस रचना मेँ व्यक्त किया जा रहा है।“
भारतीय वाङ्मय मेँ उषा, अरुण, प्रात: आदि भिन्न अर्थोँ मेँ आते हैँ। श्री कुशाग्र अनिकेत (न्यूयॉर्क मेँ रहने वाले एक आर्थिक और प्रबंधन सलाहकार, जो कि अर्थशास्त्र, गणित और सांख्यिकी के साथ-साथ संस्कृत साहित्य के भी अध्येता हैँ।) इस सम्बन्ध मेँ स्पष्ट करते हैँ:-
संस्कृत में उषा का मूल “उषस्” है और इस काल का नाम “उषःकाल” है। उषःकाल की ज्योतिषीय परिभाषा देने वाला यह पौराणिक श्लोक प्रसिद्ध है-
पञ्चपञ्च उषःकालः सप्तपञ्चारुणोदयः।
अष्टपञ्च भवेत् प्रातः शेषः सूर्योदयः स्मृतः॥
(देवीभागवत-पुराण, ११.२.६)
अर्थात् दिन की ५५-वीं घड़ी से ५७-वीं घड़ी तक उषःकाल, ५७-वीं घड़ी से ५८-वीं घड़ी तक अरुणोदय-काल, और ५८-वीं घड़ी से शेष काल (६०-वीं घड़ी अर्थात् सूर्योदय तक) प्रातःकाल कहलाता है। कालांतर में अपनी ज्योतिषीय परिभाषा से आगे निकल कर उषःकाल “प्रभात” के अर्थ में ही रूढ़ हो गया।
कुबेरनाथ राय वैदिक शब्द ‘उषा’ के लिए तद्भव शब्द ‘ऊषा’ का प्रयोग करते हैँ। अरविन्द व्यास जैसे भाषा वैज्ञानिक दोनोँ मेँ सूक्ष्म अन्तर बताते हैँ कि किस तरह ऊषा का अर्थ ऊसर या क्षारीय या अल्प उपजाऊ भूमि के लिए होता था। कुबेरनाथ राय के शब्दोँ मेँ ऊषा अपूर्व षोडशी कन्या है, मधुमयी है। मायावी शौभनिक असुर ऊषा का अपहरण कर लेता है और सूर्य उसकी चीख सुनकर दौड़ता-दौड़ता क्षितिज पर आ पहुँचता है। तेजस्वी सूर्य ऊषा के उद्धार के लिए युद्ध करता है और मध्याह्न सूर्य के रूप मेँ ‘विष्णु’ बन जाता है। मायावी शत्रु का पुत्र मेघनाद सूर्य के रथ को घेर लेता है। सूर्य की सारे सेना अचानक स्तम्भित हो जाती है। उसी समय सारी माया को काटता हुआ सूर्य का रथ अचानक फिर से बाहर आ जाता है। सूर्य और उसकी सेना के उपरोक्त भयङ्कर युद्ध के उपरान्त रात मेँ दृश्यमान पुनर्वसु नक्षत्र मंडल के दो तारोँ मेँ कुबेरनाथ जी ‘लव और कुश’ देखते हैँ।
काव्य और कला विमर्श मेँ बहुत से दार्शनिक प्राकृतिक सौन्दर्य और उससे जुड़े सौन्दर्यबोध को बाहर रखते हैँ। काण्ट जैसे दार्शनिक प्राकृतिक वैभव या सौन्दर्य को ‘सब्लाइम’ कह कर अलग कोटि मेँ रखते हैँ। गोविन्द चन्द्र पाण्डे सौन्दर्यबोध की तीन कोटि कहते हैँ – प्राकृतिक, कलाजन्य तथा काव्यजनित सौन्दर्य। मैँ कहना चाह रहा हूँ कि आजकल कलाजन्य और काव्यजन्य सौन्दर्य मेँ भी प्रकृति का चित्रण गायब है, जैसे वह सौन्दर्य महिमा केवल ऋगवेद के ऋषियोँ और उनकी ऋचाओँ तक सीमित थी। निसर्ग कविता पर कुबरेनाथ जी का निबन्ध ‘निर्गुण नक्शे : सबुज-श्याम धरती’ इस विषय की पड़ताल करता है।
तीस साल की उम्र मेँ लिखा ‘मधु-माधव’ निबन्ध मेँ सौन्दर्यबोध के वैचारिक बाधित स्वरूप की परिणितयाँ वह इस तरह पाते हैँ-‘समस्त ईसाई-साहित्य मेँ सौन्दर्य मृगतृष्णा और ईहा – ‘सिडक्शन’ और ‘रेपिज़्म’ – के रूप मेँ वर्तमान है। ईसाई सौन्दर्यबोध का महिमामय रूप है दान्ते की ‘बीट्रिस’। पर उसमेँ भी ‘सिडक्शन’ है, उल्लास नहीँ। उल्लास तब तक नहीँ मिलता जब तक पारस्परिक समर्पण न हो।‘
गझिन निबन्धोँ के बीच मेँ कुबरेनाथ जी का हास्यबोध कहीँ खोता नहीँ बल्कि सरस ढङ्ग से प्रकट होता है, उदाहरण के लिए उनके निबन्ध ‘अवरुद्ध त्रेता : प्रतीक्षारत धनुष’।
“…सुना जाता है कि इसी मञ्च पर कुछ वर्ष पूर्व ‘परशुराम वस्त्रहरण’ का भी अभिनय हुआ था। महेश तिवारी परशुरामजी बने थे। मञ्च के पीछे बजरङ्गी बारी ने गाँजा की चिलम थमा दी। अभिनय-पूर्व इसे पीना फायदेमन्द और उचित समझकर दम लगा ही रहे थे कि आवाजेँ आयीँ – “चलेँ, परशुरामजी”, “कहाँ है भाई…” इत्यादि। इट बेचारे जल्दी मेँ धोती खोलकर, गैरिक परिधान किसी तरह लपेट कर, और परशु को कन्धे पर रखकर उछलते हुए मञ्च पर आये – “अरे दुष्ट जनक, बता तू यह शिवधनुष…” इत्यादि कहते हुए परशु हवा मेँ घुमाने लगे। फिर अभिनय खूब उच्च कोटि का हो जाए, इसलिए एक पैर पर खड़े होकर चारोँ और आवर्त ले ही रहे थे कि परिधान का एक छोर बाँस के एक फट्ठे मेँ फँस गया और आवर्त पूर्ण होने के साथ-साथ वे दिगम्बर हो गये। पर तिवारी तो ‘भावानुप्रवेश’ मेँ थे और अभिनय सटीक करने के जोश मेँ संवाद बोलते जा रहे थे। एकाध मिनिट बाद ‘होश’ मेँ आये तो देखा कि मञ्च खाली है, पर जनता अति प्रफुल्लित नजर आ रही है। इस प्रकार ‘परशुराम चीरहरण’ नाट्य सम्पन्न हुआ।“
अब आते हैँ उन विषयोँ पर जिनको ले कर नामवर सिंह से लेकर कई उन्हेँ ‘हिन्दू राष्ट्रवादी’ कहते हैँ। मैँ यह उद्धरण विचार के लिए आवश्यक समझता हूँ क्योँकि राजनीति धर्म से मुक्त नहीँ हुयी और इसकी सम्भावना भी कम ही नजर आती है। निबन्ध ‘शमी वृक्ष पर लटकते शव’ से –
“..मैँ धर्म की आवश्यकता को स्वीकार करता हूँ। जिस प्रकार एक संविधान चाहिए, एक सरकार चाहिए वैसे ही एक धर्म तो चाहिए ही। बिना इसके समूह का काम चल नहीँ सकता। धर्महीनता, नास्तिकता और प्रौढ़ बुद्धिवाद दो-चार व्यक्तियोँ के जीवन मेँ भले सफल हो, परन्तु समूह के मनोविज्ञान के यह विपरीत है। एक राहुल, एक नरेन्द्रदेव या एक नेहरू के लिए जो ठीक है, वही धर्महीनता विशाल जनसमूह के लिए अप्राकृतिक है। कभी भी सारा विशाल जनसमूह ‘बुद्धिवादी’ नहीँ बनाया जा सकता है कि ‘धर्म’ की जरूरत ही न रहे। जो बुद्धिवाद एक प्रतिशत के लिए ठीक है, वह शत-प्रतिशत पर लागू किया जाए, ऐसा निर्णय लेना मूर्खता है। जहाँ-जहाँ यह किया गया है, वहाँ पार्टी का अधिनायक ही ‘ईश्वर’ बन गया है अथवा कोई विदेशी जीवनदर्शन उस रिक्तता को भरने के लिए आ गया है। ‘समर्पण भाव’ और ‘अध्यात्म पिपासा’ समूह का सनातन मानसिक आग्रह रहा है। समूह का काम न तो कोरे बुद्धिवाद से चल सकता और न कोरे वैज्ञानिक मानववाद से, जो अध्यात्म-निरपेक्ष होता है। अत: एक धर्म चाहिए और अध्यात्मसापेक्ष धर्म चाहिए।“
‘बहुरूपी’ निबन्ध मेँ बहुरूपियोँ की बात करते-करते कुबेरनाथ जी एक महत्त्वपूर्ण बात कहते हैँ, जो उनके गहरे चिन्तन का परिचायक है-
“आज का साहित्यकार एक ही प्रतिबद्धता को श्रेय का मार्ग मानता है। पर एकहरी प्रतिबद्धता और एकहरा जीवन अस्वाभाविक तथ्य है। एकहरा जीवन या तो पशुओँ का होता है या रोबॉटोँ का। मनुष्य के लिए सम्भव ही नहीँ कि वह एकहरा जीवन जिये। मनुष्य का जीवन अपने साधारण से साधारण रूप मेँ बहुपहली, बहुमुखी और उलझावपूर्ण रहता है। एक सेल (कोशाणु) के प्राणी अमीबा द्वारा ही एकपहलू, एकहरा जीवन जीना सम्भव नहीँ है। मनुष्य एकहरा जीवन नहीँ जी सकता। तो साहित्यकार जैसा संवेदनशीलप्राणी एकहरी जिन्दगी कैसे जिएगा? उसे तो दुहरा-तिहरा जीवन जीना ही है, क्योँकि दुपहली, तिनपहली, बहुपहली सिसृक्षा के आवेश से वह ग्रस्त रहता है।“
हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय की त्रयी मेँ जो भारतीयता का वैभव है, वह विचार, श्रम और अनुसन्धान की माँग करता है। यह हमारा दुर्भाग्य है अपनी संस्कृति पर विचारना या समझना ही साम्प्रदायिकता समझा जाने लगा है। जो आत्म विस्मृत होते हैँ, वे दूसरोँ के दास बनने को अभिशप्त हैँ। आत्म विस्मृत के लिए आवश्यक है अपने नायकोँ को, अपने आख्यानोँ को भुला देना।
मुझे आशा है पाठक कम से कम कुबेरनाथ राय की ‘प्रिया नीलकण्ठी’ और ‘रस-आखेटक’ अवश्य पढ़ेँगे। ये पुस्तकेँ हिन्दी साहित्य के वैभव, विशालता और प्रगल्भता के प्रतिमान हैँ।
इति श्री
(चैत्र पूर्णिमा, संवत् २०८२)