गिरिराज किराडू हिंदी के ‘भारतभूषण’ कवि हैं, प्रतिलिपि.इन के कल्पनाशील संपादक हैं, प्रतिलिपि बुक्स के निदेशक हैं, कुछ अलग तरह के साहित्यिक आयोजनों से जुड़े हैं. आज उनकी यह डायरी का अंश जो साहित्यिक आयोजनों के एक और पहलू से हमें रूबरू करवाती है- जानकी पुल.
एक लेखक–आयोजक की डायरी: पहली किश्त
प्रतिलिपि की हिंदी पुस्तकों पर चर्चा का आयोजन है. मनोज रूपड़ा अपने खर्चे पे नागपुर से दिल्ली आये हैं. प्रभात भाई और उनका सहयोग तो दिल्ली में है ही. पुरुषोत्तमअग्रवाल ने ‘जिज्ञासा‘ की तरफ से आयोजन का जिम्मा ले लिया है. आयोजन में चार युवा लेखक दो युवा लेखकों की तीन पुस्तकों पर बोलने वाले हैं. मैं सबके प्रति कृतज्ञताके भाव से एकदम झुका जा रहा हूँ. मुझे लगता है मेरा दिल पीसा की मीनार हो गया है. राहुल, आकृति, मैं बैनर लगा रहे हैं. ७००० रुपये में कुछ घंटों के लिए मिले त्रिवेणी सभागार में मंच पर वक्ताओं के लिए एक अतिरिक्त कुर्सी का इंतजाम करते हुए, भागकर बाहर से एक साफ़ सफ़ेद बेड शीट और पानी की बोतलें खरीदने के दौरान सभागार का प्रशासन अपने पूर्ण असहयोग से हम पर ज़ाहिर कर देता है कि हम लोग कितने फालतू हैं और कितने फालतू काम के लिए वहां जमा हुए हैं. जिससे पहली बार मिल रहा हूँ वह आदित्य दुबे आकर किताबों की डेस्क संभालता है. मैं और राहुल उद्विग्न चक्कर लगा रहे हैं. हमें वह शाम याद आती है जब हमने जयपुर के जवाहर कला केंद्र में प्रतिलिपि का पहला कार्यक्रमरखा था और महज ३० लोग आये थे. इस बार ७० आते हैं. लगता है हॉल कुछ ज्यादा ही बड़ा ले लिया. पुस्तकों पर अच्छी चर्चा होती है, प्रभात और मनोज विनम्रता से बोलते हैं लेकिन मैं, राहुल, पुरुषोत्तम, सुमनजी, और शायद लेखक और वक्ता भी एक तरह की अभ्यस्त रिक्तता के साथ त्रिवेणी का वह सभागार छोड़ते हैं जहाँ मुझे अब तक का एकमात्र पुरस्कार मिला था (अशोक पांडे के शब्दों में – “और साले! आखिरी भी!”). ६–७ साल पहले उस शाम, हॉल पूरा भरा था.
2
प्रतिलिपि की अंग्रेजी पुस्तकों पर चर्चा का कार्यक्रम है. सत्यानन्दनिरूपम के सहयोग से इण्डिया हैबिटेट में जगह मिल गयी है. चाय– giriraj kiraroo
12 Comments
🙂
ईमानदार गद्य . रोचक डायरी . आगे के पन्नों की चाहना .
(अशोक पांडे के शब्दों में – "और साले! आखिरी भी!")- वाह मेरे आयोजक-कवि दोस्त…कोई मेरा पहला कभी न हो-वह तेरा आखिरी अभी न हो 🙂
हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में ऐसी रपटें क्यों नहीं छपतीं ? पुलिस थानों वाली जैसी क्यों छपती हैं ?- यहाँ अक्सर उद्घाटन, समापन, विमोचन, भाषण सब दरोगाओं के हाथ में जो होता है आशुतोष भाई 😉
खूब पठनीय और कामकाजी रपट . हिंदी की साहित्यिक पत्रिकाओं में ऐसी रपटें क्यों नहीं छपतीं ? पुलिस थानों वाली जैसी क्यों छपती हैं ?
पढकर मज़ा आ गया..समन्वय के कार्यक्रम के अंतिम दिन में मैं भी एक श्रोता की तरह मौजूद थी.. बहस का विषय था..इक्कीसवी सदी में पाठक की तलाश..लेखक, संपादक, प्रकाशक, पाठक सबको आमने सामने ला दिया गया था..बहुत सार्थक बहस थी.. और हिंदी के कार्यक्रम में भी मुझे ग्लैमर जैसा कुछ पाकर बहुत सुखद अनुभूति हुई थी..ठंड की एक हसीं शाम में दर्शको की दीर्घ में खुले आसमान के नीचे मेरे साथ खड़ा लंप पोस्ट जिसे एक अलाव की शक्ल में शायद गैस से जलाया गया था मुझे थोडा ताप दे रहा था .. ठंड को पिघलते हुए उस शाम मैंने देखा..एक रोचक संवाद – मंगलेश जी ने जब कहा की हंस जो सबसे अधिक प्रचलित पत्रिका है वह भी दस हज़ार की संख्या में छपती है तो राजेन्द्र यादव जी ने कहा दस हज़ार? मंगलेश जी ने कहा १२ हज़ार होगी.. तो राजेन्द्र जी ने झुठलाते हुए सर हिलाया लेकिन उत्तर नही दिया.. बहुत रोचक था कार्यक्रम मैं इस पर रिपोर्ट लिखना चाहती थी..और मैंने शुरू भी की लेकिन बीच में ही लाईट चली गई और करीब तीन पन्ने उड़ गए .. उसके बाद मैंने सोचा जाने दो..
जीवंत.. रोचक…
Excellent writing. You always write well whatever genre you choose.Always willing to extend a helping hand as & when needed.
रोचक डायरी पर कई खुलासे करती हुई ..
बेहद रोचक और बेबाक डायरी है. गिरि को इतना अच्छा गद्य लिखने पर बधाई.
Pingback: modesta coating
Pingback: https://www.art-ivf.ru/bitrix/redirect.php?goto=https://devs.ng/results-israel-adesanya-vs-anderson-silva/
Pingback: buy viagra online